जिसकी अनेक स्रोतों से पुष्टि निम्न प्रकार से हुई है:-
1. विश्वकर्मा द्वारा सूर्यदेव को तराश कर शाकद्वीप ब्राह्मण की उत्पत्ति कथा :-
सूर्य देव अपना तेज छंटवाने के लिए विश्वकर्मा के पास गये थे। विश्वकर्मा ने उसी समय उनका रूप बारह भागों में विमल करके उन्हें तरासा गया यथा- 1. आदित्य, 2. दिवाकर, 3. भास्कर, 4. प्रभाकर, 5. सहस्त्रांशु, 6. त्रिलोचन, 7. हरिदश्व, 8. रवि, 9. दिनकर, 10. द्वादशात्मक, 11. त्रिमूर्ति, 12. विष्णु नाम से उपरोक्त बारह रूप बनाये, तब तेज राशि से उत्पन्न जो भणिका चूर्ण निकला था उसे अमोघ वीर्य जानकर वायुमण्डल में फैंक दिया और महान शक्तिशाली वायु उसको बहुत समय तक ग्रहण किये हुए था। कुछ समय पश्चात सूर्यदेव की इच्छा से क्षीरसागर के आगे छठे द्वीप में पृथ्वी पर गिर पड़ा। सूर्य के तेज की राशि से उस समय अठारह भाग होकर शाकद्वीपीय ब्राह्मण हुए। वे सूर्य के समान तेजस्वी, ब्रह्मविद्या के ज्ञाता एवं निर्गुण ब्रह्म के नित्य उपासक देवताओं के समान तपस्वी थे। वे वेद मंत्रों से निर्गुण परम पुरुष की स्तुति करने लगे। तब सूर्य मण्डल में स्थित गायत्री देवी उनकी साङ्गोपांग क्रम बद्ध स्तुति को सुनकर शाकद्वीप में गयी। देवी ने कहा मैं प्रसन्न हूँ। आप मेरे प्रेम पात्र है, आप सदा उत्तम कार्य करेंगे। निर्गुण रूप को भजिये और अद्भुत सुख को भोगिये। मेरे अंश से उत्पन्न इन शक्तियों को सुख पूर्वक ग्रहण कीजिये। आप इन्हीं शक्तियों (स्त्रियों) से सपत्नीक होंगे। इस प्रकार वेद की माता गायत्री की कृपा से ब्राह्मण सपत्नीक हो गये। नित्य ब्रह्मविद्या के जानने वाले वे ब्राह्मण उन मंत्रों के प्रभाव से सूर्य के समान तेजस्वी हुए और शाकद्वीप में होने से शाकद्वीपीय कहलाये।
2. प्रियव्रत राजा के बेटों के सूर्य मंदिर की प्रतिष्ठा हेतु
शाकद्वीपीय ब्राह्मणों की उत्पन्न कथा : -
प्रियव्रत राजा ने पृथ्वी में सात भाग करके अपने सात बेटो को राजा बनाया। जम्बूद्वीप बड़े बेटे न्युग्रोध को दिया तथा शाकद्वीप को अपने छोटे बेटे महामति (मेघातियि) को। महामति अपने भ्रातृ प्रेम के कारण जम्बुद्वीप आते-जाते थे। महामति ने विमान के समान सूर्य मन्दिर बनाया एवं सुवर्ण की प्रतिमा बनवायी। उस मन्दिर एवं मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा के योग्य पुरुष नहीं दिखे तो चिंता करते करते सूर्य भगवान की शरणागति ली। भक्त को चिंतित देखकर सूर्य भगवान ने प्रत्यक्ष दर्शन दिये एवं पूछा कि किस चिन्ता से व्याकुल हो रहे हो शीघ्र हमें कहो, ताकि तुम्हारा दुष्कर कार्य सिद्ध करें। तब राजा ने कहा कि मैंने आपका मन्दिर बनवाया सुवर्ण की सुन्दर प्रतिमा बनवाई लेकिन इस द्वीप में ब्राह्मण तो हैं ही नहीं, इस कारण प्रतिष्ठा कौन करायेगा, इस कारण चिन्ता हो रही है। सूर्य भगवान ने चिंतन किया कि तीन वर्ण है वे प्रतिष्ठा नहीं करा सकते और हमारे पूजन के अधिकारी भी नहीं हैं। यह विचार करते ही श्वेत वर्ण के आठ पुरुष वेद पढ़ते हुए सूर्य देव के शरीर से निकले। वे कष्ठाय वस्त्र धारण किये हुए, हाथ में कमल पुष्प एवं करडं धारण किये हुए थे। उन्होने कहा कि पिता हम आपके पुत्र है हमारे लिए क्या आज्ञा है ?
सूर्य देव ने कहा पुत्रों इस राजा के वचन को करो तथा राजा से कहा ये मेरे पुत्र मन्दिर की प्रतिष्ठा करा देंगे। प्रतिष्ठा के बाद मन्दिर इनको अर्पण कर देना।
3.शाकद्वीपीय ब्राह्मणों का जम्बूद्वीप में प्रथम आगमनकी कथा:-
स्कन्ध पुराण की कथा केअनुसार शाकद्वीपवासी सूर्य नारायण को परब्रह्म स्वरूप में मानते थे पर ब्रह्मा, विष्णु, महेश इन्द्रादि उनके लिए नगण्य नहीं थे। स्कन्ध पुराण के प्रयास खण्ड में एक बड़े महत्व का प्रसंग आता है। प्रभास (सोमनाथ) चन्द्रशेखर (शिवजी) का मुख्यगढ़ है। बात उस समय की है जब ब्रह्माजी की आयु ८ वर्ष की थी (अभी ब्रह्माजी की आयु ५१ वर्ष हो चुकी है) (ब्रह्माजी का १ दिन ४३,२०,००० वर्ष इतने ही वर्षों की १ रात्री होती है) उस समय ब्रह्माजी ने प्रभास क्षेत्र में यज्ञ किया था। उस यज्ञ में एक शाकद्वीपीय ब्राह्मण के पधारने का उल्लेख है। उस शाकद्वीपीय ब्राह्मण को समस्त ऋषि मुनियों ने एवं इन्द्रादि देवताओं ने भी श्रेष्ठतम पण्डित स्वीकार किया एवं उसे दान आदि लेने के लिए कहा। उस शाकद्वीपीय ब्राह्मण ने कहा मैं भिक्षुक ब्राह्मण नहीं हूँ, जो दान आदि लेने आये हैं उन्हें दान आदि दीजिये। मैं शाकद्वीपीय ब्राह्मण हूं । मुझे वरदान देने हैं तो यह दीजिये कि इस जन्म में इसी समय मुझे देवत्व प्राप्त हो जाय कि मैं यज्ञ के भागीदारों में गिना जाऊ। भगवान शंकर ने यह निर्णय दिया कि आज से यह शाकद्वीपीय ब्राह्मण देवता होता है, इसको विष्णु के साथ-साथ विश्वदेवा नाम से यज्ञ में भाग दिया जाता रहेगा।
4.शाकद्वीपीय ब्राह्मणों को जम्बूद्वीप में द्वितीय आगमन :
दशरथ के पुत्रेष्ठि यज्ञ कराने हेतु
24वें त्रेतायुग में (वर्तमान में 28वां त्रेतायुग बीत चुका है, 28वां कलयुग चल रहा है) वशिष्ठजी के कहने पर पुत्रेष्ठि यज्ञ कराने हेतु महाराज दशरथ स्वयं जाकर शाकद्वीपीय ब्राह्मणों को लेकर आये थे। श्री दिव्यद्वीप श्री शाकद्वीपीय से,विप्रो को बुलवाया गया था।
5.शाकद्वीपीय मग ब्राह्मणों का तृतीय आगमन
एवं भारत खण्ड में बसना -
साम्ब पुराण एवं भविष्य पुराण में इसकी विस्तृत कथा आई हुई है। संक्षेप में शाप वश साम्ब को कुष्ठ रोग हो गया, उनकी अस्थियां ही शेष बची थी अर्थात शरीर लगभग गल गया, तब नारद जी का आगमन हुआ उन्होंने सूर्य भगवान की आराधना उपदेश दिया। साम्ब ने तीन वर्ष तक मित्रवन में भगवान सूर्य की आराधना की। सूर्य भगवान प्रसन्न हुए एवं उन्होंने कुष्ठ रोग से मुक्ति देकर अनन्य भक्ति का वरदान दिया। पूजा आराधना करते समय साम्ब ने चन्द्र भागा नदी में आती हुई एक सुन्दर मूर्ति देखी। उसने मूर्ति को रख लिया एवं सुन्दर मन्दिर का निर्माण कराया। मूर्ति की प्रतिष्ठा हेतु गुरु गौरमुख के पास गये। गौरमुख ने कहा कि भगवान सूर्य नारायण की पूजा शाकद्वीपीय ब्राह्मण ही कर सकते है। साम्ब अपने पिता श्री कृष्ण के पास गये एवं उनकी आज्ञा से गरुड़ पर सवार हो शीघ्र शाकद्वीप पहुँच गये। उन्होंने वहा अति तेजस्वी महात्मा मगों को सूर्य भगवान की आराधना करते देखा। साम्ब बोला आप लोग धन्य है, आप सबका दर्शन सबके लिए कल्याण कारी है। मैं भगवान सूर्य की पूजा हेतु आपको लेने आया हँू। साम्ब की विनती सुनकर १८ कुलों के मग ब्राह्मण सपरिवार गरुडज़ी पर बैठकर मूल स्थान आये। उन्होंने भगवान सूर्य नारायण की मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा की साम्ब ने वह मन्दिर एवं साम्बपुर उन ब्राह्मणों को समर्पित कर दिया। कुछ शाकद्वीपीय ब्राह्मणों को उन्होंने द्वारिका बुलवा लिया था। कुछ समय बाद वे शाकद्वीपीय ब्राह्मण वापस शाकद्वीप जाने का कहने लगे तो उन्हें रोक लिया गया।
और वे 30 वर्ष रुक गये । जब विप्रो ने वापस जाने का संदेश श्री कृष्ण को भिजवाया तो वे बहुत विफल हो गये। अनन्त: उन्होंने गरुड़ को बुलाकर कहा कि ऐसा यत्न करो कि ये मग (शाकद्वीपीय ब्राह्मण) भारत में ही रह जाये। गरुड़ जी ने ब्राह्मणों से कहा है द्विजोतम मैं आपको लेकर शाकद्वीप जाने के लिए आ गया हँू। मेरी एक शर्त है कि मैं आपके कहने पर रुक जाऊंगा, तब फिर आगे नहीं जाऊंगा। तब मग ब्राह्मणों ने तथास्तु कह दिया। गरुडज़ी ब्राह्मणों को लेकर जा रहे थे। मगध देश में उन्हें रूदन सुनाई दिया, तो उन्होंने देखा राजा मरणासन है एवं प्रजा भी मरने के लिए उद्यम थी। मग ब्राह्मणों ने सूर्य भगवान की पूजा अर्चना करके घृष्टकेतु को चरणामृत पान कराया एवं उपचार किया राजा घृष्टकेतु मग ब्राह्मणों के उपचार से ठीक हो गये। राजा ने उन सबका सम्मान किया वहीं 72 पुरों में बसा दिया। इस तरह शाकद्वीपीय मग ब्राह्मण भारतवासी हो गये। जो मग ब्राह्मण साम्बपुर में रहगये थे उनके वंश वृद्धि के बाद कुछ परिवार जैसलमेर, बाड़मेर, और औसियाँ में बस गये (सम्वत 162) फिर औसियां से कुछ बीकानेर की तरफ आगे बढ़े व कुछ रूण नगरी की तरफ बढ़े (संवत लगभग 756) रुण से जारोड़ा-मेड़ता रोड में बसे (संवत 1013) धीरे-धीरे सम्पूर्ण राजस्थान में प्रसार हुआ। जो मग (शाकद्वीपीय ब्राह्मण मगध, बिहार में बसे) वहां से उत्तर प्रदेश होते हुए उत्तरी एवं पूर्वी भारत में फैल गये।
6th मत : साम्ब द्वारा शाकद्वीपीयों का आगमन :-
महाभारत के युद्ध से लगभग 1 से 1½ वर्ष पहले हुआ। श्रीकृष्ण भगवान ने गीता में कहा है कि स्वधर्म ही श्रेष्ठ है, दूसरा धर्म नहीं। तब उन्होंने शाकद्वीपीय ब्राह्मणों को क्यों बुलाया? वे जानते थे कि शक द्रविड़ भील कौल आदि अन्य लोगों का प्रभुत्व हो गया। है चारों और अराजकता फैली गयी है। स्वधर्म का लोप हो गया है। उन्होंने यह कहा है कि समय-समय पर धर्मचक्र लोप हो जाता है अतएव उसकी पुन: स्थापना हेतु ही शाकद्वीपीय मग ब्राह्मणों को बुलाया। वे वेद विज्ञ, वे दांग पुराणों एवं धर्म शास्त्र के ज्ञाता, वाचा सिद्ध एवं वायुगमनी, सिद्धपुरुष थे। भेषज विद्या एवं ज्योतिष विद्या के प्रकाण्ड विद्वान थे। उन्होंने कहा कि सूर्यों में विष्णु में ही हूं।
शाकद्वीपीय ब्राह्मणों के भेद :-
जगत की आदि संस्कृति के प्रवर्तक, परम देवज्ञ, वर्णाश्रम सनातन सभ्यता के आदि जनक-मग, भोजक, ऋतव्रत, यज्वन, मृग ब्रह्मचारी, सूर्यद्वीज, सूर्य ब्राह्मण दिव्य, साध्य आदि शाकद्वीपीय ब्राह्मणों के गुणवाची नाम कर्म व ज्ञान भेद से है।
हमे हमारे महान व्यक्तित्व के धनी महापुरुषों की जीवनियां पढ़कर उनके उपदेशों को धारण कर लाभ उठाना चाहिये। हमारे पथ प्रदर्शक महर्षि याज्ञवल्क्य, वराहमिहिर, सुश्रुत, कविमाघ, कविवृन्द, कवि मंछ, मंगल पाण्डे, 21वीं सदी के जानकी वल्लभजी शास्त्री, बलभद्रजी, अजीत जी निरजंन देव सूरिजी, रामनारायणजी जयचन्द्रजी, उगमराजजी खिलाड़ी, डॉ. मेघराजजी, डॉ. मुनीलालजी, रतनलालजी शास्त्री आदि के अलावा भी अनेकों शाकद्वीपीय मग ब्राह्मणों ने अपने अपने क्षेत्र में हमे दिशा प्रदान की है। उसको हमें निस्वार्थ भाव से ग्रहण करके समाज को प्रगति पथ पर आगे बढ़ाना है।
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