श्रीमदभागवत जी के महात्म के द्वितीय अध्याय में भगवान के परमप्रिय भक्त नारद जी नें भक्ति के कष्टों से निवारण के लिये जो प्रयास अथवा उद्योग किये उनका वर्णन है, अब तक की कथा इस प्रकार थी कि नारद जी जो परमात्मा का कीर्तन करते हुए समस्त लोकों में भृमण किया करते हैं वो नारद जी प्रथ्वी लोक में पहुंचते हैं और प्रथ्वी जहां युग परिवर्तित हो चुका था अर्थात द्वापर समाप्त हो चुका था और कलियुग का प्रारम्भ हो चुका था नारद जी पृथ्वी पर परिवर्तित स्थितियों से व्यथित हो गये, उन्होने देखा कि पृथ्वी पर अधर्म बढ चुका था मनुष्य भौतिकता से गृसित होकर सिर्फ़ भोग में आसक्ति से लिप्त हो चुका था, इन्द्रियों के आधीन होकर मनुष्य निकृष्ट से नीकृष्ट कर्म करने में आतुर था I
नारद जी भृमण करते करते वृन्दावन पहुंच जाते हैं वहां वो भक्ति तथा उसके पुत्र ज्ञान और वैराग्य की दयनीय स्थिति देखते हैं और उनकी वार्ता भक्ति से होती है जो अपनी सारी व्यथा से उनको अवगत कराती है, नारद जी भक्ति से सब जान कर तथा ज्ञान और वैराग्य नामक उसके बेटों को मूर्छित तथा बृद्ध देखकर भक्ति से कहते हैं, "देवी तुम तो परमात्मा को परम प्रिय हो फ़िर तुम क्यों अपनी परिस्थिति से घबरा रही हो, क्या परमात्मा पर तुम्हें भरोशा नहीं रहा जो तुम इतनी चिन्तित और अधीर हो रही हो I तुम चिन्ता से मुक्त होकर भगवान श्रीकृष्ण के चरणकमलों का चिन्तन करो I
यहां बहुत ही सावधानी पूर्वक इस बात को समझने की आव्श्यकता है कि नारद जी जो भक्ति मार्ग के परम आचार्य हैं ध्रुव और प्रहलाद जी के मार्गदर्शक हैं और उससे भी महत्वपूर्ण यह है कि यहां भक्ति के सम्मुख नारद जी एक परम रहस्य उद्घाटित कर रहे हैं कह रहे हैं, "जगत की चिन्ता छोड़ जगदीश श्रीकृष्ण का चिन्तन करना चाहिये I
नारद जी भक्ति से कह रहे हैं कि परमात्मा श्रीकृष्ण जिन्होने कौरवों के अत्याचारों से द्रोपदी की रक्षा की थी तथा गोपसुन्दरियों के प्रेम में उन्हें सनाथ किया था, देवी तुम तो भक्ति हो परमात्मा कृष्ण की अत्यन्त प्रिय हो वो तो अपने भक्त के प्रेम में नीच से नीच जगह पर भी चले जाते हैं I
नारद जी बोले देवी सतयुग, त्रेतायुग तथा द्वापर युग में ज्ञान और वैराग्य ही मुक्ति के साधन थे अर्थात इन तीनों युगों में मनुष्य ज्ञान और वैराग्य के माध्यम से मुक्ति अर्थात मोक्ष को प्राप्त कर पाता था, परन्तु देवी आज इस कलियुग में सिर्फ़ परमात्मा की प्रेमा भक्ति ही मनुष्य को मोक्ष प्रदान कर सकती है, देवी आज इस कलियुग में सिर्फ़ तुम ही एक माध्यम हो मनुष्यों के मोक्ष प्राप्ति की इसी कारण परमात्मा ने तुम्हें अपने सत्य स्वरूप से निर्मित किया है, देवी तुम तो परमात्मा श्रीकृष्ण की परमप्रिय हो, देवी याद करो एक बार तुमने भगवान श्रीकृष्ण से पूचा था कि क्या करूं तो परमात्मा श्रीकृष्ण ने तुम्हे आदेश दिया था कि मेरे भक्तों का पोषण करो और देवी तुमने भगवान श्रीकृष्ण की आज्ञा को स्वीकार कर लिया इससे भगवान तुम पर अत्यन्त प्रसन्न हुए और भगवान ने मुक्ति को तुम्हारी सेवा के लिये एक दासी के रूप में नियुक्त किया और ज्ञान - वैराग्य तुम्हे पुत्र के रूप में प्रदान किये थे I तभी से हे देवी तुम अपने साक्षात स्वरूम में परमात्मा के वैकुण्ठ लोक में उनके भक्तों का पोषण करती हो इस धरती तो तो तुम मात्र भक्तों की पुष्टि के लिये छाया रूप में हो I
हे देवी तुम मुक्ति, ज्ञान तथा वैराग्य के संग इस धरती पर सतयुग, त्रेता तथा द्वापरयुग में आनन्द पूर्वक रही परन्तु कलयुग के कारण तुम्हारी दासी मुक्ति दम्भ और पाखंड से गृसित हो गई जिसे तुमने स्वयं आज्ञा देकर वैकुण्ठ भेज दिया, आज भी तुम्हारी दासी मुक्ति इस धरती पर तुम्हारे स्मरण करने से आती है और चली जाती है, परन्तु तुमने अपने पुत्र ज्ञान और वैराग्य को आज भी अपने पास रख रखा है, आज कलयुग में तुम्हारे पुत्रों की उपेक्षा हो रही है जिससे उत्साहहीन हो गये हैं तथा इनकी शक्ति क्षीण हो गई है और ये बृद्ध से हो गये हैं परन्तु हे देवी तुम चिन्तित मत हो मैं तुम्हारे पुत्रों की पुष्टि के लिये उपाय का विचार करता हुं I
नारद जी ने पुनः भक्ति को सम्बोधित करते हुए कहा, "ये देवी कलि अत्यन्त महत्वपूर्ण युग है इसके समान कोई भी युग नहीं था, इस युग में मैं तुम्हें प्रत्येक मनुष्य के हृदय में स्थापित कर दुंगा और इस कलियुग में पापी भी यदि भक्ति करेंगे तो उन्हें भी परमात्मा की कृपा प्राप्ति होगी और वह भी वैकुण्ठ प्राप्त कर सकेंगे I जिनके हृदय में प्रेमरूपिणी भक्ति निवास करेगी वे शुद्ध हृदय और शुद्ध अन्तःकरण वाले हो जायेंगे, ऐसे व्यक्ति स्वप्न में भी यमराज से भयभीत नहीं होते, जिनके हृदय में परमात्मा श्री कृष्ण की प्रेमाभक्ति होती है उन्हें भूत प्रेत पिशाच निशाचर आदि स्पर्श भी नहीं कर सकते I परमात्मा को कलियुग में यज्ञ, तप, वेदाध्यन, ज्ञान तथा कर्म से प्रसन्न नहीं किया जा सकता अपितु प्रेम भक्ति से परमात्मा को वश में किया जा सकता है, गोपियां इसका स्पष्ट प्रमाण हैं, शास्त्रों में प्रमाण है कि भक्त का तिरस्कार करने से ऋषि दुर्वासा को कष्ट भोगना पड़ा था I परमात्मा स्वयं कहते हैं, "मैं अपने भक्त के आधीन हुं" इसलिये व्रत, तीर्थ, योग, यज्ञ, और ज्ञानचर्चा आदि की आवश्यकता नहीं है सिर्फ़ एक मात्र भक्ति ही मुक्ति प्रदायनी है I
सूत जी शौनकादि से कह रहे हैं कि नारद के मुख से भक्ति की चर्चा सुनकर भक्ति के समस्त अंग पुनः पुष्ट हो गये, वो बिल्कुल स्वस्थ और युवा सी दिखने लगी और भक्ति ने नारद जी से कहना प्रारम्भ किया, "हे नारद जी आप परमात्मा के परम भक्त हैं और आपकी मुझमें अर्थात भक्ति में अनन्य प्रेम हैं आप अत्यंन्त कृपालू हैं आपने मेंरा समस्त दुःख क्षण मात्र में दूर कर दिया परन्तु महाराज मेरे पुत्र ज्ञान और वैराग्य अभी भी अचेत हैं मेरा आपसे पुनः निवेदन है आप इनकी चेतना के लिये प्रयास करें I
भक्ति के इस प्रकार के वचनों को सुनकर नारद जी करुणा से भर गये उन्होने भक्ति के पुत्रों को अपने हांथ से हिलाडुला कर जगाने का प्रयास किया उन्हें वेदपाठ सुनाया, बार बार गीता पाठ भी किया, किन्तु ज्ञान और वैराग्य सिर्फ़ मात्र जम्हाई ही ले सके उन्होने अपने नेत्र तक नहीं खोले I
निरन्तर अचेत रहने के कारण वो दोनो अत्यंन्त दुर्बल हो गये थे उनकी दयनीय दशा देखकर नारद जी अत्यंन्त दुखी हुए और उन्हेने परमात्मा का स्मरण कर उनसे ज्ञान और वैराग्य के पुनरुद्धार के लिये निवेदन किया I
परमात्मा को नारद जी अत्यंन्त प्रिय हैं और प्रिय इसलिये हैं कि नारद जी सदैव दूसरों के कल्याण के लिये प्रयासरत रहते हैं दूसरों के लिये दया और करूणा के भाव से भरे रहते हैं, इसलिये परमात्मा ने नारद जी आकाशवाणी के माध्यम से कहा, "इनके कल्याण के लिये तुम एक सत्कर्म करों और वह सत्कर्म तुम्हे संतशिरोमणि बतलाएंगे"
आकाशवाणी सुनने के पश्चात नारद जी अत्यन्त दुबिधा में पड़ गये कारण यह कि उन्हें आकाशवाणी की बात स्पष्ट समझ में नहीं आई, नारद जी सोच में पड़ गये कि उन्हें वह सत्कर्म बताने वाले संतशिरोमणि कहां मिलेंगे I
इसके बाद नारद जी ज्ञान वैराग्य को अचेत अवस्था में छोड़ कर चल पड़्ते हैं और संतशिरोमणि की खोज में समस्त त्तीर्थों पर भृमण करते हैं परन्तु उन्हे ऐसा कोई संत नहीं मिला जो ज्ञान वैराग्य के कल्याण के लिये सत्कर्म बता पाता, नारद जी अत्यंन्त चिंन्तित थे और वो बद्रिकाश्रम गये वहां उन्हेने तप करने का निश्चय किया I तभी नारद जी वहां अत्यंन्त तेजश्वी सनकादि मुनिश्वर दिखाई दिये, सनादिमुनि देखने में पांच-पांच वर्ष के बालक से प्रतिक होते थे परन्तु वे परम ज्ञानी और परम तपश्वी थे, नारद जी ने उन्हें देख उनसे निवेदन किया, "हे महात्माओं मेरा परम सौभाग्य उदय हुआ है जिसके फ़लस्वरूप आप लोगों के दर्शन मुझे सुलभ हुए हैं, और नारद जी ने आकाशवाणी का पुण वृत्तंन्त उन्हें कह सुनाया, और बोले ये महात्माओं मैं आपके श्रीमुख से उस सत्कर्म के विषय में जानना चाहता हुं जिससे ज्ञान वैराग्य और भक्ति का कल्याण हो सके तथा जिससे सभी वर्णों में भक्ति की प्रतिष्ठा भी हो सके"
नारद जी वचनों को सुनकर सनकादि मुनियों ने कहा, "हे देवर्षि नारद, आप प्रसन्न हों चिन्ता से मुक्त रहें आपने दूसरों के उद्धार के हेतु से जिस सत्कर्म को जानने की इच्छा प्रकट वह एक सरल उपाय है और पूर्व ही विद्यमान है, आप तो संत शिरोमणि हैं विरक्तों में सूर्य के समान हैं, हे नारद जी, ऋषियों ने पूर्व से ही अत्यन्त मार्ग बताए हुए जो सिर्फ़ स्वर्ग मात्र की प्राप्ति कराते हैं अर्थात सभी साधन सिर्फ़ भोग की प्राप्ति तक सीमित हैं परन्तु परमात्मा की प्राप्ति जिस सत्कार्म से होती है वह गुप्त है और उसे आपके परम स्नेह के कारण हम बतलाते हैं आप प्रसन्न भाव से श्रवण करें I
सनकादि ने कहा. "नारद जी इस धरती पर जितने भी यज्ञ आदि अनुष्ठान लोग करते हैं वो सभी स्वर्ग अर्थात भोग की प्राप्तिका साधन मात्र हैं जैसे द्रव्य यज्ञ अर्थात धन द्वारा किये जाने वाल यज्ञ, तप यज्ञ, योग यज्ञ तथा स्वाध्याय ध्यान समाधि आदि ये सभी सिर्फ़ स्वर्ग आदि की उपलब्धि करा सकतेहैं श्री मदभागवत जी का पारायण अर्थात पाठ, श्रवण आदि से मनुष्य में भक्ति प्रगाढ होती है ज्ञान और वैराग्य की पुष्टि होती है, जिस प्रकार सिंह की गर्जना सुनकर लोमड़ी- भेड़िये आदि भाग जाते है उसी तरह कलियुग में भागवत जी सानिध्य में रहने वालों के समस्त दोष समाप्त हो जाते हैं I यहां एक बात स्पष्ट करना अत्यंन्त आवश्यक है, कि भागवत की का पाठ करने श्रवण करने तथा मनन करने से मनुष्य के हृदय में परमात्मा श्री कृष्ण के लिये भावभक्ति का प्रागट्य होता है और मनुष्य का पूर्ण प्रेम परमात्मा कृष्ण के प्रति हो जाता है वह निरन्तर परमात्मा कृष्ण के चिंतन में रहते हुए जीवन जीने लगता है, धीरे धीरे ज्ञान और वैराग्य उसके हृदय में स्थापित हो जाते हैं I
श्री मद्भागवत जी की कथा समस्त वेद-पुराण आदि के सार से निर्मित है जिस तरह फ़ल के अन्दर से प्राप्त होने वाला रस उस वृक्ष की जड़ से प्रारम्भ होकर तनों और डालियों के माध्यम से होता हुआ फ़ल में जाता है और फ़ल में जाकर वह रसता अथवा मधुरता को प्राप्त हो जाता है, परन्तु जड़ और तनों में मैजूद रस फ़ल के रस से मिन्न होता है उसी तरह समस्त वेद और पुराणादि वृक्ष के जड़ तनों आदि से हैं और भागवत जी उस मधुर फ़ल के समान हैं I
जिस तरह दूध में घी रहता है परन्तु दूध में घी का स्वाद अनुभव नहीं होता है, एक निश्चित और जटिल प्रक्रिया के पश्चात ही दूध से घी प्राप्त हो पाता है, जिस प्रकार चीनी गन्ने के अन्दर तो रहती है परन्तु एक प्रक्रिया के पश्चात ही चीनी ना निर्माण गन्ने के रस द्वारा ही किया जा सकता है श्रीमदभागवत जी समस्त वेदों और पुराणों के मूल तत्व द्वारा निर्मित घी अथवा शर्करा के समान हैं I
पूर्व काल का वृत्तांन्त है कि गीता- पुराणादि के रचनाकार श्री वेदाव्यास जी स्वयं महान गृन्थों की रचना करने के पश्चात भी संतुष्ट नहीं थे उनके अन्दर खिन्नता थी तथा अज्ञानता से दुखित थे उस समय नारद जी आपने स्वयं व्यास जी को चार श्लोकों के माध्यम से मार्गदर्शित किया था उन्हें आपने ही उपदेश दिया था जिसके सुनते ही व्यास जी चुन्तामुक्त हो गये थे, नारद जी श्री मदभागवत जी का श्रवण समस्त दुखों और शोकों से मुक्ति प्रदान कराने वाला है अतः आप उन्हें अर्थात ज्ञान वैराग्य को श्रीमदभागवत जी का श्रवण कराएं, जिसके श्रवण करने से अज्ञान रूपी मोह और मद का नाश होता है तथा वैराग्य प्रकट होता है ज्ञान और वैराग्य श्रीमदभागवत जी के श्रवण से पुनः पुष्ट होंगे I
( क्रमशः कड़ी 19 जारी )
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