योगमाया किसे कहा गया है :-
द्वापर युग में जब भगवान विष्णु ने श्रीकृष्ण के रूप में जन्म लिया, ठीक उनके पहले मां दुर्गा ने योग माया के रूप में जन्म लिया था। मां दुर्गा का यह दिव्य अवतार कुछ समय के लिए था। योगमाया ने यशोदा के गर्भ से जन्म लिया था। इनके जन्म के समय यशोदा गहरी नींद में थीं और उन्होंने इस बालिका को देखा भी नहीं था। गर्गपुराण के अनुसार देवकी के सप्तम गर्भ को योगमाया ने ही संकर्षण कर रोहिणी के गर्भ में पहुँचाया था, जिससे बलराम का जन्म हुआ था। इन्हीं योगमाया ने कृष्ण के साथ योगविद्या और महाविद्या बनकर कंस, चाणूर और मुष्टिक आदि शक्तिशाली असुरों का संहार कराया, जो कंस के प्रमुख मल्ल माने जाते हैं।।यह कथा प्रायः सब जानते हैं कि प्राचीन काल में महाबली कंस ने अपनी चचेरी बहन देवकी का विवाह बड़ी धूमधाम से वसुदेव के साथ किया। बहन के विदाई के समय प्रेमवश स्वयं रथ के घोड़ों को हांककर पहुंचाने जा रहा था। उसी समय आकाशवाणी हुई- हे कंस जिस बहन को तू इतने प्रेम पूर्वक पहुंचाने जा रहा है, उसी के आठवे पुत्र के हाथों तेरा वध होगा। आकाशवाणी सुनते ही कंस ने रथ हो रोक दिया। उसकी आंखें क्रोध से रक्त वर्ण (लाल) हो गईं। उसने देवकी को मारने के लिए तत्क्षण म्यान से अपनी तलवार खींच ली। देवकी भय से थर-थर कांपने लगी।
तब वसुदेव ने कंस को समझाते हुए कहा- हे मित्र कंस! इस अबला नारी का वध करने से तुम अपयश के भागी बनोगे। आकाशवाणी के अनुसार तुम्हें इसके आठवे पुत्र से भय है। मैं तुम्हे विश्वास दिलाता हूं कि देवकी का आठवां पुत्र जब जन्म लेगा उसे मैं तुम्हे सौंप दूंगा।कंस को मालूम था कि वसुदेव कभी असत्य नहीं बोलते। उसने देवकी का वध नहीं किया। उसी क्षण देवर्षि नारद ने जब आकर अनेक प्रकार से कंस को समझाते हुए पृथ्वी पर लकीरें खींचकर बताया कि रेखाओं में से कोई भी रेखा आठवीं हो सकती है।इसी प्रकार देवी का कोई भी पुत्र आठवां हो सकता है।
मूढ़मति कंस ने नारद के वचनों को सुनकर वसुदेव और देवकी को कारागृह में बंद कर दिया और कड़ा पहरा लगा दिया। देवकी के गर्भ से जब प्रथम पुत्र की उत्पत्ति हुई तो पहरेदारों ने जाकर कंस को सूचना दी। कंस उसी समय आया और बालक को ले जाकर पत्थर की शिला पर पटककर मार डाला। इस तरह एक-एक कर उसने देवकी और वसुदेव के छह बालकों की हत्या कर डाली। जब देवकी का सातवां गर्भ हुआ तो भगवती योगमाया ने संकर्षण शक्ति से उस गर्भ को खींचकर गोकुल में निवास कर रही रोहिणी के गर्भ में स्थापित कर दिया। वह बालक पैदा होकर बादमे ‘बलराम’ के नाम से जगत विख्यात हुआ। तदुपरान्त जब आठवें गर्भ के रूप में भगवान श्री कृष्ण जी देवकी के गर्भ में प्रकट हुए, उधर गोकुल में नन्दबाबा के घर भगवती योगमाया कन्या के रूप में उत्पन्न हुई। भगवान श्रीकृष्ण के जन्म के समय कारागृह के सभी पहरेदार योगमाया के वशीभूत होकर गहरी निद्रा में सो गए। वसुदेव की हथकड़ी बेडिय़ां स्वत: खुल गईं। कारागार के दरवाजे अपने आप खुल गये। जब वे बालक कृष्ण को लेकर काली घटाटोप काली अंधियारी रात में यमुना पार करके गोकुल पहुंचे और कृष्ण को यशोदा के पास सुलाकर उनके पास सोई कन्या को लेकर लौट आए जो कि उसी समय उत्पन्न हुई थी। जिसका ज्ञान यशोदा को भी नहीं था।
कारागार में पहुंचने पर वसुदेव की हथकड़ी बेडिय़ां पुन: अपने आप लग गईं और जो भगवती योगमाया की दिव्य माया थी। वह कन्या जोर-जोर से रोने लगी। बालिका के रोने की आवाज सुनकर सभी पहरेदार जग गए। उसी क्षण वे जाकर कंस का सूचना दी। यह सुनकर कि देवकी के गर्भ से कन्या उत्पन्न हुई अप है। वह भागा हुआ आया। तब देवकी कहने लगी हे भैया इसे मत मारो यह तो कन्या है । मृत्यु भय से आक्रान्त कंस ने देवकी की एक न सुनी और कन्या को उसके हाथ से छीन लिया।।तत्पश्चात उसने उस कन्या को पत्थर पर पटकने के लिए हाथ ऊपर उठाया। आकस्मात वह कन्या उसके हाथ से छूट गई और आकाश में जाकर अष्टभुजी देवी रूप धारण कर अट्टहास करती हुई बोली- अरे मूर्ख! तुझे मारने वाला इस धरती पर जन्म ले चुका है। यह कहकर वह देवी अंतरध्यान हो गयी। वहीं देवी योगमाया के नाम से जगत में विख्यात हुई है ।
विंध्यवासिनी या योगमाया माँ दुर्गा के एक परोपकारी स्वरूप का नाम है। उनकी पहचान आदि पराशक्ति के रूप में की जाती है। उनका मंदिर उत्तर प्रदेश में गंगा नदी के किनारे मिर्ज़ापुर से 8 किमी दूर विंध्याचल में स्थित है।माँ विन्ध्यासिनी त्रिकोण यन्त्र पर स्थित तीन रूपों को धारण करती हैं जो की महालक्ष्मी, महासरस्वती और महाकाली हैं। मान्यता अनुसार सृष्टि आरंभ होने से पूर्व और प्रलय के बाद भी इस क्षेत्र का अस्तित्व कभी समाप्त नहीं हो सकता है।
भगवती विंध्यवासिनी आद्या महाशक्ति हैं। विन्ध्याचल सदा से उनका निवास-स्थान रहा है। जगदम्बा की नित्य उपस्थिति ने विंध्यगिरिको जाग्रत शक्तिपीठ बना दिया है। महाभारत के विराट पर्व में धर्मराज युधिष्ठिर देवी की स्तुति करते हुए कहते हैं- विन्ध्येचैवनग-श्रेष्ठे तवस्थानंहि शाश्वतम्। हे माता! पर्वतों में श्रेष्ठ विंध्याचल पर आप सदैव विराजमान रहती हैं। पद्मपुराण में विंध्याचल-निवासिनी इन महाशक्ति को विंध्यवासिनी के नाम से संबंधित किया गया है।
श्रीमद्भागवत के दशम स्कन्ध में कथा आती है, सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी ने जब सबसे पहले अपने मन से स्वायम्भुवमनु और शतरूपा को उत्पन्न किया। तब विवाह करने के उपरान्त स्वायम्भुव मनु ने अपने हाथों से देवी की मूर्ति बनाकर सौ वर्षो तक कठोर तप किया। उनकी तपस्या से संतुष्ट होकर भगवती ने उन्हें निष्कण्टक राज्य, वंश-वृद्धि एवं परम पद पाने का आशीर्वाद दिया। वर देने के बाद महादेवी विंध्याचलपर्वत पर चली गई। इससे यह स्पष्ट होता है कि सृष्टि के प्रारंभ से ही विंध्यवासिनी की पूजा होती रही है। सृष्टि का विस्तार उनके ही शुभाशीषसे हुआ।मा
मार्कण्डेयपुराणे अन्तर्गत वर्णित दुर्गासप्तशती (देवी-माहात्म्य) के ग्यारहवें अध्याय में देवताओं के अनुरोध पर भगवती उन्हें आश्वस्त करते हुए कहती हैं, देवताओं वैवस्वतमन्वन्तर के अट्ठाइसवें युग में शुम्भ और निशुम्भ नाम के दो महादैत्य उत्पन्न होंगे। तब मैं नन्दगोप के घर में उनकी पत्नी यशोदा के गर्भ से अवतीर्ण हो विन्ध्याचल में जाकर रहूँगी और उक्त दोनों असुरों का नाश करूँगी।
शास्त्रों में मां विंध्यवासिनी के ऐतिहासिक महात्म्य का अलग-अलग वर्णन मिलता है। शिव पुराण में मां विंध्यवासिनी को सती माना गया है तो श्रीमद्भागवत में नंदजा देवी (नंद बाबा की पुत्री) कहा गया है। मां के अन्य नाम कृष्णानुजा, वनदुर्गा भी शास्त्रों में वर्णित हैं । इस महाशक्तिपीठ में वैदिक तथा वाम मार्ग विधि से पूजन होता है। शास्त्रों में इस बात का भी उल्लेख मिलता है कि आदिशक्ति देवी कहीं भी पूर्णरूप में विराजमान नहीं हैं, विंध्याचल ही ऐसा स्थान है जहां देवी के पूरे विग्रह के दर्शन होते हैं। शास्त्रों के अनुसार, अन्य शक्तिपीठों में देवी के अलग-अलग अंगों की प्रतीक रूप में पूजा होती है ।सम्भवत:पूर्वकाल में विंध्य-क्षेत्रमें घना जंगल होने के कारण ही भगवती विन्ध्यवासिनीका वनदुर्गा नाम पडा है।
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