श्रीमद्भागवत पुराण की कथा भक्ति, ज्ञान व वैराग्य की त्रिवेणी है। इस पावन कथा के श्रवण से प्रभु के चरित्र में अनुराग बढने से भक्ति व ज्ञान बढ़ता है और मन सहित दसों इन्द्रियों के नियंत्रण से उत्पन्न वैराग्य से जीवन की त्रिवेणी सहज ही पार कर लेता है। वह माता राधा से भक्ति की प्रेरणा लेकर भगवान कृष्ण की उपासना करें। श्रीकृष्ण जो जीव को सहज ही विषय वासनाओं से हटाकर परमात्मा तत्व की ओर आकर्षित कर लेता है। जैसा कि व्यासजी ने भागवत में वंदना में कहा है - कृष्णम् वन्दे जगत्पते।
कथा व्यास ने भगवद चरित्र की अमृत वर्षा करते हुए कलयुग के आगमन पर भक्ति के तरुणी रूप में आकर अपने पुत्र ज्ञान वैराग्य के बूढ़े अशक्त होने की व्यथा पर नारद मुनि से बिलखने और समाधान का उपाय पूछने के प्रसंग और कलयुग के प्रभाव से राजा परीक्षित पर शाप के प्रसंग का विस्तार से वर्णन किया।
यहाँ हम जानेगे की – कलयुग की शुरुआत में कैसे मा एमकेता भक्ति तो एक युवती के रूप में है, लेकिन उनके पुत्र ज्ञान और वैराग्य वृद्ध हो गए है। जानने के लिए पढ़ते है।
द्वापरयुग समाप्त होने के बाद, जब कलयुग का प्रारम्भ हुआ तो पृथ्वी पर चारो तरफ का बातावरण अशांत हो गया था। उस समय नारद ऋषि पृथ्वी का हाल जानने के लिए विचरने लगे। उन्होंने देखा की – बेचारे जीव पृथ्वी पर केवल पेट भरने के लिए जी रहे है। वे सब
असत्यभाषी, मंदबुद्धि, भाग्यहीन, आलसी, और उपदव्री हो गए है। जो साधु संत कहे जाते है वो पाखंडी हो गए है। इसलिए जो वास्तव में साधु संत है उन्हें कंदराओं और हिमालय में छुपना पड़ा है, लोग उन्हें भी हेय की दॄष्टि से देखने लगे है। और तो और कलयुग में लोगो के
सभी घरो में शकुनि की तरह साले सलाहकार बने हुए है। द्वापरयुग में एक शकुनि था पर कलयुग में घर घर शकुनि है जो बहन के घर खाता है। लोग पुत्रियों का विक्रय करने लगे, ब्राह्मण पैसा लेकर वेद पढ़ते है, स्त्रियाँ वैश्यावृति को भी समान कार्य समझती है।
इस तरह नारद ऋषि कलयुग के दोष देखते देखते दुखी हो रहे थे। और वे विचरते विचरते उसी यमुना तट पर पहुंचे जहाँ कभी श्री कृष्ण अपने सखायो के साथ बाल लीला किया करते थे। वहां उन्होंने एक बहुत ही बड़ा आश्चर्य देखा। वहां एक स्त्री बड़े खिन्न मन से बैठी हुयी
है। उसके पास दो वृद्ध पुरुष अचेत अव्स्था में पड़े जोर जोर से साँस ले रहे है। वह तरुणी स्त्री उनकी सेवा करते करते उन पुरुषो को कभी चेतना देना का प्रयास करती तो कभी उनके आगे रोने लगती। वह अपने रक्षक को दसो दिशाओं में बार बार ढूढ़ रही थी। उसके चारोओर
सेकड़ो स्त्रियाँ पंखा झूला रहा थी।
मै यह कौतुहल देखकर उसके पास चला गया, तो वह स्त्री मुझे देखते ही उठ खड़ी हुयी। और व्याकुल होकर बोली।
स्त्री बोली – महात्मन ! जरा रुकिए, और मेरी चिंता को दूर कीजिये। आपका दर्शन मनुष्य को दुर्लभ है, आज आपके दर्शन से कुछ शांति मिली है। आपके वचन सुनकर और भी शांति मिलेगी।
नारद ऋषि का देवी भक्ति से परिचय –
नारद जी कहते है – ये देवी ! आप कौन है ? ये दोनों पुरुष कौन है और ये सभी स्त्रियाँ कौन है ? तुम हमें विस्तार से अपने दुःख का कारण कहो!
स्त्री ने कहा – मेरा नाम भक्ति है। ये ज्ञान और वैराग्य नाम के मेरे पुत्र है। समय के प्रभाव से इनका ये हाल है। और ये देवियाँ सभी पवित्र नदियाँ है। जो मेरी सेवा कर रही है। लेकिन फिर भी मुझे सुख शांति नहीं है। क्युकी घोर कलयुग के प्रभाव से पाखंडियो ने मुझे अंग
भंग कर दिया है। इसी कारण में निर्बल और निस्तेज हो गयी हु और इसी कारण ये हाल मेरे पुत्रो का हुआ है। वृन्दावन ने मुझे फिर से एक स्त्री का रूप दिया है, लेकिन मेरे पुत्र अभी भी बूढ़े है। इसलिए कोई स्थान पर जाना चाहती हु जो इनको भी तेज़ दे सके। क्युकी होना
तो ये चाहिए था की माता बूढी हो और पुत्र तरुण पर यहाँ में तरुण हो गयी और पुत्र वृद्ध है, जो मेरे दुःख का कारण है।
तब नारद ऋषि बोले – साध्वी ! मेने ज्ञान दृष्टि से इस कलयुग में भक्ति, ज्ञान और वैराग्य का हाल जान लिया है। लेकिन तुम्हे विषाद नहीं करना चाहिए। श्री हरी तुम्हारा कल्याण करेंगे। में जानता हु तुम्हारे पुत्रो को इस कलयुग में कोई नहीं पूछता। इसलिए इनका बुढ़ापा
नहीं छूट रहा है। लेकिन इस वृन्दावन में इनको कुछ आत्मसुख मिल रहा है इसलिए ये सोते से जान पड़ते है।
भक्ति ने कहा – हे ऋषिवर! राजा परीक्षित ने इस पापी कलयुग को क्यों पृथ्वी पर स्थान दिया। इसके आते ही सभी वस्तुओं का सार न जाने का लुप्त हो गया। करुणामय श्री हरी से यह अधर्म कैसे देखा जाता है? कृपया संदेह को दूर करे।
नारद जी कहा – देवी सावधान होकर सुनो! यह दारुण कलयुग है। इसी से इस समय सदाचार, योगमार्ग, और तप आदि सभी लुप्त हो गए है। जिसका प्रमुख कारण सत्पुरषो का दुखी होना और दुष्ट सुखी हो रहे है।
ऐसे समय में जिस व्यक्ति के पास धैर्य है वही सबसे बुद्धिमान, ज्ञानी और पंडित है। पृथ्वी अब प्रति वर्ष शेष जी के लिए अब भार बन रही है। अब यह छूने योग्य तो क्या अब यह देखने योग्य भी नहीं रह गयी है। अब किसी को पुत्रो के साथ तुम्हारा दर्शन नहीं होता। मनुस्यो से उपेक्षित होकर तुम्हारा ये हाल है। वृन्दावन के सयोग से तुम फिर से तरुणी हो गयी हो, अतः यह वृन्दावन धाम धन्य है। जहाँ कण कण में भक्ति नृत्य कर रही है।
परन्तु तुम्हारा इन पुत्रो को यहाँ भी कोई ग्राहक नहीं है। इसलिए इनका बुढ़ापा नहीं छूट रहा है। यह तो इस युग का स्वाभाव ही है इसमें किसी का दोष नहीं है। इसी से श्री हरि भगवान् सब कुछ देखकर भी सब सह रहे है।
भक्ति ने कहा – पुत्रो की यह दशा जानकर बड़ा दुःख हुआ की कलयुग में अब लोग ज्ञान और वैराग्य को नहीं चाहते। इसलिए मेरे पुत्रो की यह दशा है वे वृद्ध है और में युवती।
देवर्षि आप धन्य है ! मेरा बड़ा सौभाग्य था की आपके दर्शन हुए। संसार में साधुओं का दर्शन बड़े भाग्य से होता है। अब मुझे कुछ शांति मिली है। आप सर्वमंगलमय ब्रह्मा जी के पुत्र है। में आपको नमस्कार करती हु।
(क्रमशः कड़ी 20 जारी )
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