मेरी भगिनी का नाम मेरे पिता जी ने माया क्यों रखा था? यह हम नहीं जानते हैं। हां उनके द्वारा बार बार माया महा ठगनी हम जानी ,कहने को हम जरुर असामान्य मानते थे। इसे उनका भगिनी को दिया जाने वाला लाड प्यार भी मानते थे। चूंकि अब जब भगवान ने पिता जी तरह मेरी भगिनी को हम लोगों से छीन कर अपने श्री चरणों में स्थान दे दिया है तो कबीरदास जी के इस वचन की सत्यता परखने का बिचार आया है। सर्व प्रथम हम कबीरदास जी के मूल पद को उद्धृत कर रहे है । तत्पश्चात उस पद के उद्देश्य परअपना विचार करेंगे।
माया महा ठगनी हम जानी।
तिरगुन फांस लिए कर डोले बोले मधुरे बानी।।
केसव के कमला वे बैठी शिव के भवन भवानी।।
पंडा के मूरत वे बैठीं तीरथ में भई पानी।।
योगी के योगन वे बैठी राजा के घर रानी।
काहू के हीरा वे बैठी काहू के कौड़ी कानी।।
भगतन की भगतिन वे बैठी ब्रह्मा के ब्रह्माणी।।
कहे कबीर सुनो भई साधो यह सब अकथ कहानी।
भावार्थ:-माया है क्या ? जो अभी है और अभी नहीं है ,नित बदलती रहती है हमारे शरीर की तरह ,जो म्यूटेबिल है वह माया है। जो सत्य भी नहीं है असत्य भी नहीं है और यह दोनों भी नहीं है ,वह माया है।
जगत को मिथ्या कहा गया है जगत मिथ्या नहीं है ,उसके साथ हमारा लेन देन है ट्रांजेक्शन है वह मिथ्या कैसे हो सकता है। जगत स्वयं परमात्मा की अभिव्यक्ति है। उससे अलग नहीं है।
माया परमात्मा की शक्ति है लेकिन जीव को विमोहित किये रहती है। माया को ही प्रकृति (त्रिगुणात्मक प्रकृति , सतो -रजो- तमो गुणी सृष्टि )कहा गया है।
ईश्वर , जीव और माया अनादि हैं। जीव माया के अधीन है। जीव और माया दोनों ईश्वर के अधीन है। माया से हमारे विमोहित होने का कारण हमारा अहंकार है। हम तो कृत हैं परमात्मा की औरअपने को कर्ता मानने बूझने लगते है। हम न कर्ता हैं न भोक्ता ,भुक्त हैं। कर्ता प्रकृति के तीनों गुण हैं हमारी ज्ञानेन्द्रियाँ अपने विषयों में आसक्त हो जाती हैं। हम आनंद को बाहर ढूंढने लगते हैं।जबकि आनंद तो हम स्वयं है। आनंद अंदर की यात्रा है हम इसे बाहर ढूंढ रहे हैं। यही हमारे आत्म -विमोह का कारण है। जबकि सृष्टि भी कृत है और हम भी इससे जुदा नहीं हैं । माया के वशीभूत समस्त सृष्टि है और ब्रह्म से प्रेरित माया सब को अपने जाल में फंसाकर रखता है। कबीरदास जी को इसका सत्य पता चल गया था । वह जगत को आगाह किए फिरभी मानव चेतना उसे अंगीकार करने में हिचक दिखा रहा है।
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