Sunday, May 26, 2024
सूर्य वंशी राजा विजय (राम के पूर्वज 19) आचार्य डॉ राधे श्याम द्विवेदी
Saturday, May 25, 2024
राजा चक्षु या राजा सुदेव (राम के पूर्वज 18) आचार्य डॉ राधे श्याम द्विवेदी
Friday, May 24, 2024
मतदाताओं की कठिन परीक्षा की घड़ी आ गई
जेठ मास के तपते दिन की तरह जिले का सियासी पारा थर्मामीटर तोड़कर बाहर आने को बेताब है। जिले की सियासत की नई पटकथा लिखने के लिए 19 लाख मतदाता तैयार होकर सुबह होने के इंतजार में हैं। कई वजहों से इस चुनाव में आम लोगों की दिलचस्पी कुछ ज्यादा ही देखी जा रही है। इसलिए उम्मीद की जा सकती है कि मतदान प्रतिशत पिछली बार से ज्यादा रहेगा। इस चुनाव में सबसे खास बात यह देखी गई कि मतदाता के पास ज्यादा विकल्प नहीं है । वर्ग विशेष के बटते मत से किसी भी पक्ष की बाजी पलट सकती है।
जमीन से जुड़े सभी दल दो भागों में बटकर लड़ाई को और भी जटिल बना दिया था। यहां सीधे अपनाने या नकारने का ही ऑप्शन था। सबके मंच पर चौंकाने वाले चेहरों की भरमार रही। परिणाम पर इसका असर क्या होगा यह तो भविष्य के गर्भ में है। मतदाता पूरी तरह दो खेमों में बंट चुका है। इधर या उधर। सारा दारोमदार मतदान पर टिका है। जो वोट डलवाने में चूका,बाजी उसके हाथ से सरक जायेगी। एक वोट की कीमत दो के बराबर है।
स्थानीय रिश्तों की कठिन परीक्षा से गुजर रही दलीय राजनीति किस दिशा में जायेगी,इसकी पूरी पटकथा अगले कुछ घंटों में लिख दी जाएगी। आम जनता से विनम्र निवेदन है कि हृदय की आवाज सुनकर वोट देने जरूर जाएं। ताकि अगली सरकार में अपनी भागीदारी का एहसास बना रहे। मतदान करने जरूर जाएं।
लोकसभा के अपने क्षेत्र से अपने प्रतिनिधि सासद को अवश्य चुनें। यह सामान्य चुनाव नहीं है यह आपके परिवार समाज राष्ट्र और अस्मिता को बनाए रखने या विदेशियों के प्रभाव से खुद को समाप्त होने के बीच अपनी और भविष्य की रक्षा करने का सुनहरा अवसर भी है। विदेशी प्रभाव का अंधानुकरण और सनातन मूल्यों की रक्षा करने का विकल्प भी है। निहत्थे कार सेवकों पर गोलियां चलाने और अपने संस्कृति और धर्म की रक्षा के लिए आत्मोत्सर्ग का अवसर चयन का अवसर भी है।500 साल तक अपने आराध्य श्री राम जी की मुक्ति का जश्न भी है।काल्पनिक और मनुवादी कहकर गाली खाने के प्रतिकार का अवसर भी है। अवसर की सामान्य और जाति काबिलाई आरक्षण से मुक्ति का अवसर भी है। विश्व गुरु बनने सम्मान पाने अथवा पाकिस्तान चीन का पिछलग्गू बनने की भुक्ति मुक्ति का अवसर भी है। अपनी अर्थ व्यवस्था को सुदृढ़ बनाने या कटोरा लेकर भीख मांगने की चुनौती भी है। पढ़े लिखे अनुभवी राजनीति विषारद के अनुभवों को आत्मसात करने या खानदानी युवराजों से मुक्ति भुक्ती के तलाश का सुअवसर भी है। भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे हुए सत्तानाशीनों से परिवारियों से मुक्ति का अवसर भी है। सर्व धर्म समभाव या तुष्टिकरण को चुनने की चुनौती भी है।और भी बहुत कुछ पाने या खोने का अवसर भी है। जितना भी उद्धृत किया जा रहा है उससे कई गुना छिपा रहस्य जानने समझने की ललक भी है।
भारतीय लोकसभा चुनाव का इतिहास :-
भारत के गणतंत्र बनने के बाद 1950 में उत्तर प्रदेश की स्थापना हुई। यह संयुक्त प्रांत का उत्तराधिकारी है , जिसे 1935 में आगरा और अवध के संयुक्त प्रांतों का नाम बदलकर स्थापित किया गया था, जो बदले में 1902 में उत्तर-पश्चिमी प्रांतों और अवध प्रांत से स्थापित हुआ था ।
बस्ती सन् 1801 में बस्ती तहसील मुख्यालय बना और उसके बाद 1865 में जिला मुख्यालय के रूप में स्थापित हुआ।
भारत में पहले चुनावों का आयोजन एक कठिन कार्य था और इसे पूरा होने में लगभग चार महीने लगे: 25 अक्टूबर 1951 से 21 फरवरी 1952 तक। हालांकि उस समय भारत में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी थी, फिर भी विपक्षी दलों के लिए भी चुनावों में भाग लेने के लिए अनुकूल माहौल बनाया गया था। विपक्षी दलों की सूची में जनसंघ और सीपीआई शामिल थे।
1951 52 प्रथम लोक सभा क्षेत्र में गोरखपुर गोंडा बस्ती की जनता को चार सीटों पर मतदान करने का अवसर मिला था। तीन क्षेत्रों से चार सांसद चुने गए थे। इनमें पहली सीट गोंडा ईस्ट-बस्ती वेस्ट, दूसरी सीट बस्ती नार्थ और तीसरी सीट बस्ती सेंट्रल कम गोरखपुर वेस्ट थी। तीसरी क्षेत्र बस्ती सेंट्रल से दो सांसदों का चुनाव हुआ था। इन चारो सीटों पर बस्ती के लोगों ने मतदान किया था, बाद में इनका परिसीमन हो गया था। चारो सीटों पर कांग्रेस उम्मीदवारों का बोलबाला था।
लोकसभा क्षेत्र 56 गोंडा ईस्ट कम बस्ती वेस्ट से पांच उम्मीदवार मैदान में उतरे थे। तीन 37 हजार 344 वोटों में से 117305 वोट पड़े थे। 34.77 प्रतिशत वोटों में 58.41 प्रतिशत वोट हासिल कर कांग्रेस के केशव देव मालवीय को जीत मिली। हिन्दू महासंघ के विश्वनाथ प्रसाद अग्रवाल 24.94 प्रतिशत वोट पाकर दूसरे स्थान पर रहे।
बस्ती उत्तरी क्षेत्र से एक सांसद का चुनाव हुआ था। पहले चुनाव में जिला पंचायत अध्यक्ष रहे कांग्रेस के उदयशंकर दुबे को जीत मिली। कुल 374224 वोटरों में से 46.14 प्रतिशत ने मतदान किया। 172752 वोटों में से सर्वाधिक 74.28 प्रतिशत वोट उदयशंकर दुबे को मिले। उनके निकटतम प्रतिद्वंदी अंबिका प्रताप नारायण को महज 22802 वोट मिले थे। पहले चुनाव में सबसे अधिक मतों के अंतर से जीत का बना रिकॉर्ड आज तक कायम है।
पहली 1951 52 बार में (बस्ती-गोरखपुर) लोकसभा के तीन सीटों पर चार सदस्य चुने गए थे।
1951 52 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के राम शंकर लाल चुने गए थे।
गोंडा जिला (पूर्व) सह बस्ती जिला (पश्चिम) केशो देव मालवीय भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के चुने गए थे।
बस्ती जिला (उत्तर) उदय शंकर दुबे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से सांसद चुने गए थे। बस्ती जिला मध्य (पूर्व) सह गोरखपुर जिला (पश्चिम) सोहन लाल धुसिया भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से सांसद चुने गए थे।
2024: में भाजपा के श्री हरीश द्विवेदी को पुनःनिर्वाचित होने की संभावना मुझे ज्यादा लग रही है। पिछले चुनावों के परिणाम इस प्रकार रहे हैं --
Thursday, May 23, 2024
रोहिताश्व की कहानी ( राम के पूर्वज 15) डा. राधे श्याम द्विवेदी
भाग्यवश जंगल में इधर-उधर घूमते रोहित को एक स्त्री एक गरीब ब्राह्मण अजीगर्त के पास ले आयी। उससे रोहित ने अपनी कहानी कही। अजीगर्त के तीन बेटे थे - शुन:पुच्छ, शुन:लांगूल और शुन:शेप। शुन:शेप मंझला पुत्र था और बचपन से ही बहुत समझदार और विवेकवान था। अजीगर्त ने लालच में आकर रोहित से कहा कि सौ गायों के बदले वह अपने एक पुत्र को बेचने को तैयार है। उस पुत्र को वह अपने बदले वरुण देवता को सौंप कर अपनी जान बचा सकता है। दूसरी ओर शुन:शेप ने सोचा, छोटा भाई मां का लाड़ला है, बड़ा भाई पिता का लाड़ला है, यदि मैं चला जाऊं तो दोनों में से किसी को कोई अफसोस नहीं होगा। इसलिए वह खुद ही रोहित के साथ जाने को तैयार हो गया। वरुण देव भी कोई कम लोभी नहीं थे। वे यह सोच कर प्रसन्न हो गए कि मुझे अपने अनुष्ठान के लिए क्षत्रिय बालक के बदले ब्राह्मण बालक मिल रहा है जो श्रेष्ठतर है। यज्ञ में नर बलि की तैयारी शुरू हुई, चार पुरोहितों को बुलाया गया। अब शुन:शेप को बलि स्तंभ से बांधना था। लेकिन इसके लिए उन चारों में से कोई तैयार नहीं हुआ, क्योंकि शुन:शेप ब्राह्मण था। तब अजीगर्त और सौ गायों के बदले खुद ही अपने बच्चे को यज्ञ स्तंभ से बांधने को तैयार हो गया। इसके बाद शुन:शेप को बलि देने की बारी आई। लेकिन पुरोहितों ने फिर मना कर दिया। ब्राह्मण की हत्या कौन करे? तब अजीगर्त और एक सौ गायों के बदले अपने बेटे को काटने के लिए भी तैयार हो गया। जब शुन:शेप ने देखा कि अब मुझे बचाने वाला कोई नहीं है, तो उसने ऊषा देवता का स्तवन शुरू किया। प्रत्येक ऋचा के साथ शुन:शेप का एक-एक बंधन टूटता गया और अंतिम ऋचा के साथ न केवल शुन:शेप मुक्त हो गया, बल्कि राजा हरिश्चंद भी रोग के श्राप से मुक्त हो गए। इसी के साथ बालक शुन:शेप, ऋषि शुन:शेप बन गया, क्योंकि वह उसके लिए रूपांतरण की घड़ी थी।
राजा हरिश्चंद द्वारा गायब किए गए पुत्र रोहित्श्व को बन बन भटकना पड़ा था। इसे इंद्र ने ब्राहमण का वेश धारण कर चरैवेति का उपदेश देकर पांच साल तक भटकाते रहे। इस अवसर पर पर्यटन और ज्ञान विज्ञान का बहुत ही उपयोगी और ऐतरेय ब्राह्मण का दुर्लभ उपदेश भी देते रहे।
Wednesday, May 22, 2024
सूर्यवंशी राजा चम्प ने चंपा नगर बिहार को बसाया था ( राम के पूर्वज 17) आचार्य डॉ राधे श्याम द्विवेदी
राजा हरिशचंद्र का पुत्र रोहिताश्व था इसका पुत्र हरित था।हरित से चम्प नामक पुत्र हुआ। उसी ने बिहार के भागलपुर जिले में चम्पा नगर बसायी थी। चंपा नगर एक समृद्ध नगर और व्यापार का केंद्र भी था। चंपा के व्यापारी दूर दराज क्षेत्रों में समुद्र मार्ग से व्यापार के लिये भी प्रसिद्ध थे। यह अपने पूर्वज की अपेक्षा एक कमजोर शासक थे। वंश वृक्ष में इनकी सूची तो मिलती है पर ज्यादा गतिविधियां नही मिलती है। हरिशचंद्र अयोध्या से शासन किए तो रोहिताश्व रोहतास से और चंप अंग देश के चम्पा नगर से। इस प्रकार अयोध्या गौड़ होती गई और सूर्य वंश का बाह्य विस्तार होने लगा था।
राजा चम्प को चंचू, धुन्धु हारीत चन्य तथा कैनकू आदि नामों से भी जाना जाता रहा है। पार्जीटर ने चन्चु को धुन्धु हारीत एवं चन्य आदि नामों से समीकृत किया है।
ब्रह्मांड पुराण के अनुसार - कैनकू का उल्लेख हरिता के पुत्र के रूप में किया गया है। सतयुग की समाप्ति के बाद यह त्रेता युग का प्रथम शासक था।
जैन मंदिर
महाकाव्यों और पुराणों में संरक्षित एक पृथक परंपरा के अनुसार, मनु के महान पोते, अनु की संतान ने पूर्व में अनावा राज्य की स्थापना की थी| इसके बाद यह राज्य राजा बलि के पांच बेटों में विभाजित किया गया जिसे अंग, बंग, कलिंग, पुंडिया और सुधा के रूप में जाना जाता है| अंग के राजाओ में जिनके बारे में कुछ सन्दर्भ है, लोमोपाडा, अयोध्या के राजा दशरथ के समकालीन एवं उनके मित्र थे| उनका महान पोता चंपा था, जिसके नाम पर ही अंग की राजधानी चंपा के नाम से जानी गयी| चंपा के पूर्व अंग की राजधानी मालिनी के नाम से जनि जाती थी| अंग और मगध का पहला उल्लेख अथर्ववेद संहिता में वैदिक साहित्य में मिलता है| बौध धर्म-ग्रंथों में उत्तरी भारत के विभिन्न राज्यों के बीच अंग का उल्लेख किया गया है|
बीते समय में भागलपुर भारत के दस बेहतरीन शहरों में से एक था। आज का भागलपुर सिल्क नगरी के रूप में भी जाना जाता है। इसका इतिहास काफी पुराना है। भागलपुर को (ईसा पूर्व 5वीं सदी) चंपावती के नाम से जाना जाता था। यह वह काल था जब गंगा के मैदानी क्षेत्रों में भारतीय सम्राटों का वर्चस्व बढ़ता जा रहा था। अंग 16 महाजनपदों में से एक था जिसकी राजधानी चंपावती थी। अंग महाजनपद को पुराने समय में मलिनी, चम्पापुरी, चम्पा मलिनी, कला मलिनी आदि आदि के नाम से जाना जाता था।
अथर्ववेद में अंग महाजनपद को अपवित्र माना जाता है, जबकि कर्ण पर्व में अंग को एक ऐसे प्रदेश के रूप में जाना जाता था जहां पत्नी और बच्चों को बेचा जाता है। वहीं दूसरी ओर महाभारत में अंग (चम्पा) को एक तीर्थस्थल के रूप में पेश किया गया है। इस ग्रंथ के अनुसार अंग राजवंश का संस्थापक राजकुमार अंग थे। जबकि रामयाण के अनुसार यह वह स्थान है जहां कामदेव ने अपने अंग को काटा था।
अंग प्राचीन भारत के 16 महाजनपदों में से एक था। इसका सर्वप्रथम उल्लेख अथर्ववेद में मिलता है। बौद्ध ग्रंथो में अंग और वंग को प्रथम आर्यों की संज्ञा दी गई है। महा भारत के साक्ष्यों के अनुसार आधुनिक भागलपुर,बिहार और बंगाल के क्षेत्र अंग प्रदेश के क्षेत्र थे। इस प्रदेश की राजधानी चम्पापुरी थी। यह जनपद मगध के अंतर्गत था। प्रारंभ में इस जनपद के राजाओं ने ब्रह्मदत्त के सहयोग से मगध के कुछ राजाओं को पराजित भी किया था किंतु कालांतर में इनकी शक्ति क्षीण हो गई और इन्हें मगध से पराजित होना पड़ा। महाभारत काल में यह कर्ण का राज्य था। इसका प्राचीन नाम मालिनी था। इसके प्रमुख नगर चम्पा (बंदरगाह), अश्वपुर थे।
एक मान्यता के अनुसार अंग के राजा ब्रह्मदत्त ने मगध के राजा भट्टिया को हराया था| लेकिन उत्तरार्ध में बिम्बिसार (545 ई. पूर्व) ने अपने पिता की हार का बदला लिया और अंग को अपने कब्जे में ले लिया| कहा जाता है की मगध के अगले राजा अजातशत्रु ने अपनी राजधानी को चंपा में स्थानांतरित कर दिया| सम्राट अशोक की माँ सुभाद्रंगी, चंपा के एक गरीब ब्राह्मण लड़की थी, जो शादी में बिन्दुसार को दी गयी थी| अंग नन्द, मौर् ( 324- 185 ई.पूर्व), सुगास(185- 75ई .पूर्व) और कनवास(75- 30ई.पूर्व) तक मगध साम्राज्य का हिस्सा बना रहा| कनवास के शासन के दौरान कलिंग के राजा खारवेल ने मगध और अंग पर आक्रमण किया| अगले कुछ शताब्दियों का इतिहास चन्द्रगुप्त प्रथम 320 ईस्वी) के राज्याभिषेक तक सीमित नहीं है बल्कि यह अस्पष्ट है| अंग महान गुप्त राज्य क्षेत्र का भी हिस्सा था| लेकिन गुप्त शासन के कमजोर होने पर गौड़ राजा शशांक ने 602 ईस्वी में इस क्षेत्र पर कब्ज़ा कर लिया और अपनी मृत्यु 625 ईस्वी तक प्रभाव कायम रखा| शशांक के मृत्यु के उपरांत यह क्षेत्र हर्ष के प्रभाव में आया| उसने मगध के राजा के रूप में माधव गुप्त को स्थापित किया| उनके बेटे आदित्यसेना ने मंदार हिल में एक शिलालेख छोड़ा है जो उनके द्वारा नरसिंह या नरहरि मंदिर के स्थापना का संकेत देता है| ह्वेनसांग अपनी यात्रा के दौरान चंपा नगर का दौरा किया| उन्होंने यात्रा विवरणी में चंपा का वर्णन किया है|
चम्पा प्राचीन अंग की राजधानी:-
यह गंगा और चंपा के संगम पर बसी थी। प्राचीन काल में इस नगर के कई नाम थे- चंपानगर, चंपावती, चंपापुरी, चंपा और चंपामालिनी। पहले यह नगर 'मालिनी' के नाम से प्रसिद्ध था किंतु बाद में लेमपाद के प्राचीन राजा चंप के नाम पर इसका नाम चंपा अथवा चंपावती पड़ गया। यहाँ पर चंपक वृक्षों की बहुलता का भी संबंध इसके नामकरण के साथ जोड़ा जाता है। चंपा नगर का समीकरण भागलपुर के समीप आधुनिक चंपानगर और चंपापुर नाम के गाँवों से किया जाता है किंतु संभवत: प्राचीन नगर मुंगेर की पश्चिमी सीमा पर स्थित था।
जैन सिद्ध क्षेत्रकहा जाता है, इस नगर को महागोविन्द ने बसाया था। उस युग के सांस्कृतिक जीवन में चंपा का महत्वपूर्ण स्थान था। बुद्ध, महावीर और गोशाल कई बार चंपा आए थे। 12वें तीर्थकर वासुपूज्य का जन्म और मोक्ष दोनों ही चंपा में हुआ था। यह जैन धर्म का उल्लेखनीय केंद्र और तीर्थ था। दशवैकालिक सूत्र की रचना यहीं हुई थी। नगर के समीप रानी गग्गरा द्वारा बनवाई गई एक पोक्खरणी थी जो यात्री और साधु संन्यासियों के विश्रामस्थल के रूप में प्रसिद्ध थी और जहाँ का वातावरण दार्शनिक बाद विवादों से मुखरित रहता था। अजातशत्रु के लिय कहा गया है कि उसने चंपा को अपनी राजधानी बनाया। दिव्यावदान के अनुसार विंदुसार ने चंपा की एक ब्राह्मण कन्या से विवाह किया था जिसकी संतान सम्राट् अशोक थे। चंपा समृद्ध नगर और व्यापार का केंद्र भी था। चंपा के व्यापारी समुद्रमार्ग से व्यापार के लिये भी प्रसिद्ध थे।
पुरातात्विक साक्ष्यों का खजाना:-
प्राचीन काल में अंग देश के नाम से विख्यात भागलपुर के चम्पानगर में असीम पुरातात्विक संभावनाएं हैं।चम्पा के पुरातात्विक अवशेष बिहार में प्राप्त अब तक के धरोहरों की तुलना में काफी उत्कृष्ट हैं।दीवार दो हजार साल पुरानी शुंग-कुषाण काल की मिली है। 6ठी शताब्दी में अंग प्राचीन भारत के सोलह महाजनपदों में एक था। यह काफी शक्तिशाली था। अंग की राजधानी चम्पा की गिनती दुनिया के बड़े शहरों में होती थी। चम्पा में एक विशाल किले का अवशेष मिले हैं। यहां एक दीवार भी मिली है, इसका निचला स्तर 2000 साल पुराना शुंग-कुषाण काल का प्रतीत होता है। सीटीएस के बाहर किले के उत्तरी भाग में भी पुरानी दीवार मिली है। उन्होंने कहा कि यहां उन्हें एनबीपीडब्लयू के कुछ टुकड़े मिले हैं, जिनका काल छठी शताब्दी रहा होगा।
एक प्रचलित बंदरगाह भी रहा :-
बंदरगाह के स्वरूप भी मिले हैं, और अध्ययन की जरूरत
चौधरी ने बताया, उन्हें प्राचीन बंदरगाह के स्वरूप मिले हैं। इस पर अध्ययन की जरूरत है। चम्पा के पूर्व की खुदाइयों में प्राप्त मातृ देवियों की प्रतिमाओं की पूजन की परम्परा ई. पू 1500 के पहले से है।
चम्पा नदी का अस्तित्व खतरे में:-
अंग प्रदेश की ऐतिहासिक चंपा नदी का अस्तित्व खतरे में है. ये नदी अब नाले में तब्दील हो गई है. चंपा नदी को अब सरकार भूल चुकी है. जिस चंपा नदी की चर्चा महाभारत व पुराणों में हुई वह चम्पा नदी अब नाले में तब्दील हो चुकी है. बताया जाता है कि अंग प्रदेश के राजा सूर्यपुत्र कर्ण चंपा नदी में स्नान कर सूर्य को जल अर्पण करते थे. सती बिहुला विषहरी चंपा नदी के रास्ते स्वर्ग से अपने पति के प्राण लेने गयी थी. वहीं हर्षवर्धन के शासनकाल में चीनी यात्री ह्वेनसांग भारत आये थे तो चंपा नदी व आसपास की समृद्धि से प्रभावित हुए थे।
पुनर्जीवित किया गया चम्पा नदी :-
चंपा नदी अंग प्रदेश की सभ्यता, संस्कृति, संस्कार और ऐतिहासिक विरासत रही है। इसके बिना भागलपुर शहर की कल्पना ही नहीं की जा सकती है। चंपा नदी की धारा वापस लाने के लिए इसके विभिन्न जलस्रोतों को पुनर्जीवित करना होगा। नदी मार्ग से अतिक्रमण हटाना होगा। यह शासन प्रशासन के साथ-साथ जन सहयोग से ही संभव हो पाएगा। आज से 50-60 वर्ष पूर्व जब चंपा नदी कलकल करते बहती थी तो इसके पोषक क्षेत्र के लोग खुशहाल थे। भूगर्भ में पर्याप्त पानी था। 1970 के दौर तक चंपा नदी अपने मूल रूप में प्रवाहित होती थी। उस समय यह नदी समुद्र तल से 40 मीटर ऊंचाई पर भागलपुर में बहती थी, जो उत्तर-पूर्व दिशा में चंपानगर के पास गंगा में मिलती थी। मुहाने पर समुद्र तल से इसकी ऊंचाई महज 15 मीटर से भी कम रह गई थी। नदी के पुनर्जीवन के लिए उद्गम स्थल से ड्रोन सर्वेक्षण करना होगा, ताकि इसके वास्तविक स्वरूप का आकलन हो सके। फिर इसके चैनल से गाद हटाकर इसकी जलधारा को गति देनी होगी। नदी के आसपास के जलाशयों एवं तालाबों की सूची तैयार कर उसे समृद्ध करना होगा, ताकि चंपा नदी पर सिंचाई का अतिरिक्त दबाव नहीं पड़ सके।
कतरनी और जर्दालु नदियों से चंपा नदी को मिला वरदान
चंपा नदी अंग प्रदेश की सभ्यता, संस्कृति, संस्कार और ऐतिहासिक विरासत रही है। इसके बिना भागलपुर शहर की कल्पना ही नहीं की जा सकती है। यह नदी कभी भागलपुर की जीवन रेखा हुआ करती थी। दुख होता है, जब चंपा नदी को नाला से संबोधित किया जाता है, जबकि इसी नदी के पानी का शोधन कर शहर में जलापूर्ति होती है। चंपा नदी में पश्चिम और दक्षिण से गंगा, चीर, चानन और बडुआ नदियों के पानी का समावेश होता था। कतरनी चावल और जर्दालु आम की खुशबू इसी के निक्षेपण से मिला वरदान है। इस नदी में पहले जहाज चला करते थे। कोलकाता जाने का जल मार्ग चंपा से होकर ही गुजरता था। हर्षवर्द्धन के शासन काल में चीनी यात्री ह्वेनसांग भारत आए थे। वे चंपा नदी के आसपास की समृद्धि से खासा प्रभावित हुए थे। ईंट से निर्मित 24 फीट ऊंची चंपा की दीवार और चार सुरक्षा मीनार का उन्होंने अपनी किताब में जिक्र किया है। नदी के किनारे सभी धर्मों के मंदिर, मजार और चर्च आज भी अवस्थित हैं। चंपा की धारा से होकर ही सती बिहुला अपने मृत पति बाला के जीवन को वापस लाने के लिए स्वर्गलोक पहुंची थीं। दानवीर कर्ण चंपा नदी में प्रत्येक दिन स्नान के बाद सूर्य को अघ्र्य देते थे।
आचार्य डॉ राधे श्याम द्विवेदी
लेखक परिचय:-
(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, आगरा मंडल ,आगरा में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए समसामयिक विषयों,साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं।) ।
Monday, May 20, 2024
दुर्गा कवच एक परम सिद्ध रक्षा कवच आचार्य डॉ राधे श्याम द्विवेदी
Saturday, May 18, 2024
चित्रकूट धाम के आसपास के प्रमुख चित्र विचित्र तीर्थस्थल आचार्य डॉ. राधे श्याम द्विवेदी
Friday, May 17, 2024
हरित राजा भी और महर्षि भी(राम के पूर्वज 16) आचार्य डॉ. राधे श्याम द्विवेदी
हरिता सूर्यवंशी राजा हरिश्चंद्र के पुत्र रोहिताश्व का पुत्र था । उन्हें यौवनाश्व का पुत्र और सूर्यवंश वंश के राजा अंबरीष का पोता बताया भी बतलाया जाता है। कहा जाता है कि हरित ने अयोध्या नगरी पर राज किया लेकिन उनके के नाम पर प्रायः पौराणिक साक्ष्यों में परस्पर मतभेद है। वह सतयुग के अंतिम चरण के शासक थे। हरिशचंद्र अयोध्या के राजा थे। रोहिताश्व बनारस से विहार रोहतास से शासन चलाया था। जबकि अयोध्या इसके पुत्र हरित के पास रहा।
हरितासा गोत्र के प्रवर :-
एक सर्वविदित तथ्य है कि हरितास गोत्र से संबंधित ब्राह्मण राजा हरिता के वंशज हैं जो राम के पूर्वज थे और सूर्यवंश से संबंधित क्षत्रिय थे। ऐसी कहानियाँ हैं जो बताती हैं कि कैसे राजा हरिता ने तपस्या की और श्रीमन नारायण से वरदान प्राप्त किया और अपनी तपस्या के आधार पर ब्राह्मण होने का दर्जा प्राप्त किया और अब से उनके सभी वंशज ब्राह्मण बन गए। लिंग पुराण जैसे कुछ पुराणों में ऐसे संदर्भ हैं जो दावा करते हैं कि इस वंश के ब्राह्मणों में भी क्षत्रियों के गुण हैं और इन ब्राह्मणों को ऋषि अंगिरस द्वारा अनुकूलित या सिखाया गया है। हरिथासा गोत्र के लिए दो प्रवरों का उपयोग किया जाता है।
ऋषि मूलतः मन्त्रद्रष्टा अर्थात मन्त्रद्रष्टा होता है। कम इस्तेमाल किये जाने वाले प्रवर में हरिता को ऋषि के रूप में शामिल किया गया है। हरिता को अपनी तपस्या पूरी होने के बाद ही ऋषि का दर्जा मिल सकता था। और इसलिए यह मान लेना तर्कसंगत होगा कि हरिता की तपस्या पूरी होने के बाद उसके जन्मे पुत्रों के सभी वंशजों में हरिता को प्रवर में एक ऋषि के रूप में शामिल किया गया होगा। लेकिन फिर भी ऐसे पुत्र हो सकते थे जो हरिथाके तपस्या करने से पहले ही पैदा हो गए थे। चूँकि कहानियों में उल्लेख है कि भगवान विष्णु ने वरदान दिया था कि हरिता के सभी वंशज ब्राह्मण बन जाएंगे, उनकी तपस्या से पहले क्षत्रिय के रूप में पैदा हुए हरिता के पुत्रों को ऋषि अंगिरस द्वारा अनुकूलित किया गया होगा और उन्होंने ब्राह्मण धर्म का पालन किया होगा। दिलचस्प बात यह है कि लिंग पुराण में क्षत्रियों के गुण रखने वाले अंगिरस हरिता के बारे में भी विशेष रूप से उल्लेख किया गया है। चूँकि प्राचीन काल से हम जानते हैं कि राजा का पुत्र राजा बनेगा और ब्राह्मण का पुत्र ब्राह्मण बनेगा। यदि हरिता ने वास्तव में अपनी तपस्या के आधार पर ब्राह्मण का दर्जा प्राप्त किया है, तो तपस्या पूरी होने के बाद उसके पैदा हुए सभी पुत्र और उनके वंशज क्षत्रियों के गुणों के बिना ब्राह्मण होने चाहिए। यदि हम इसके बारे में सोचें, तो दोहरे गुण होने की संभावना तब अधिक होती है जब कोई व्यक्ति क्षत्रिय के रूप में पैदा हुआ था, लेकिन अंततः उसने ब्राह्मण धर्म अपना लिया (किसी भी कारण से - इस मामले में विष्णु के वरदान के कारण) जो अन्य पर लागू होता प्रतीत होता है हरिता के पुत्र जो संभवतः उसके तपस्या करने से पहले पैदा हुए थे।
राजकाज छोड़ तप में लीन :-
ऐसा माना जाता है कि हरिता ने अपने पापों के प्रतीकात्मक प्रायश्चित के रूप में अपना राज्य छोड़ दिया था। श्रीपेरुम्बुदूर के स्थल पुराण के अनुसार, तपस्या पूरी करने के बाद , उनके वंशजों और उन्हें नारायण द्वारा ब्राह्मण का दर्जा दिया गया था ।
हालांकि एक ब्राह्मण वंश, यह गोत्र सूर्यवंश वंश के क्षत्रिय राजकुमार का वंशज है जो पौराणिक राजा मंधात्री के परपोते थे । मंधात्री का वध लवनासुर ने किया था जिसे बाद में राम के भाई शत्रुघ्न ने मार डाला था । यह प्राचीन भारत के सबसे प्रमुख और प्रसिद्ध वंशों में से एक है, जिसने राम और उनके तीन भाइयों को जन्म दिया।
राजवंश के पहले उल्लेखनीय राजा इक्ष्वाकु थे । सौर रेखा से अन्य ब्राह्मण गोत्र वटुला, शतामर्षण , कुत्सा, भद्रयान हैं। इनमें से कुत्सा और शतामर्षण भी हरिता गोत्र की तरह राजा मान्धाता के वंशज हैं और उनके प्रवरों के हिस्से के रूप में या तो मंधात्री या उनके पुत्र (अंबरीश / पुरुकुत्सा) हैं। पुराणों , हिंदू पौराणिक ग्रंथों की एक श्रृंखला, इस राजवंश की कहानी दस्तावेज़। हरिता इक्ष्वाकु से इक्कीस पीढ़ियों तक अलग हो गई थी। आज तक, कई क्षत्रिय सूर्यवंशी वंश से वंशज होने का दावा करते हैं, ताकि वे राजघराने के अपने दावों को प्रमाणित कर सकें।
यह विष्णु पुराण में हिंदू परंपरा में दर्ज है :
अम्बरीषस्य मंधातुस तनयस्य युवनस्वाह पुत्रो भुत तस्माद हरितो यतो नगिरासो हरिताः । "अंबरीश का पुत्र, मंधात्री का पुत्र युवनाश्व था , उससे हरिता उत्पन्न हुई, जिससे हरिता अंगिरास वंशज हुए।
लिंग पुराण में इस प्रकार दर्शाया गया है :
हरितो युवनस्वास्य हरिता यत आत्मजः एते ह्य अंगिराः पक्षे क्षत्रोपेट द्विजतायः । "युवानस्वा का पुत्र हरित था, जिसके हरिताश पुत्र थे"। "वे दो बार पैदा हुए पुरुषों के अंगिरस के पक्ष में थे, क्षत्रिय वंश के ब्राह्मण।"
वायु पुराण में इस प्रकार दर्शाया गया है :
"वे हरिताश / अंगिरस के पुत्र थे, क्षत्रिय जाति के दो बार पैदा हुए पुरुष (ब्राह्मण या ऋषि अंगिरस द्वारा उठाए गए हरिता के पुत्र थे।
तदनुसार, लिंग पुराण और वायु पुराण दोनों से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि हरिता गोत्र वाले ब्राह्मण इक्ष्वाकु वंश के हैं और अंगिरस के प्रशिक्षण और तपो शक्ति और भगवान आदि केशव के आशीर्वाद के कारण ब्राह्मण गुण प्राप्त हुए, और दो बार पैदा हुए। स्वामी रामानुज और उनके प्राथमिक शिष्य श्री कूरथज़्वान हरिता गोत्र के थे।
क्षत्रिय से ब्राह्मण का दर्जा मिला :-
श्रीपेरंबुदूर के स्थल पुराण (मंदिर की पवित्रता का क्षेत्रीय विवरण) के अनुसार , हरिता एक बार शिकार अभियान पर निकले थे, जब उन्होंने एक बाघ को गाय पर हमला करते हुए देखा। गाय को बचाने के लिए उसने बाघ को मार डाला, लेकिन गाय भी मारी गई। जब वह अपने कृत्य पर शोक व्यक्त कर रहा था, तब एक दिव्य आवाज ने उसे श्रीपेरंबदूर जाने, मंदिर के तालाब में स्नान करने और नारायण से क्षमा प्रार्थना करने के लिए कहा , जो उसे उसके पापों से मुक्त कर देंगे। राजा ने इस निर्देश का पालन किया, जिसके बाद नारायण उनके सामने प्रकट हुए और उन्हें उनके पापों से मुक्त कर दिया। ऐसा कहा जाता है कि देवता ने यह भी घोषणा की थी कि भले ही राजा इतने वर्षों तक क्षत्रिय रहे, उनके आशीर्वाद के कारण, वह और उनके वंशज अब ब्राह्मण का दर्जा प्राप्त करेंगे।
हरीता के ब्राह्मण बनने की कहानी :-
यह स्थलपुराण श्रीपेरंपुदुर मंदिर के मुदल (प्रथम) तीर्थकर (पुजारी) द्वारा सुनाया गया था ।
एक बार हरित नाम का एक महान राजा रहता था; वह राजा अंबरीश के पोते थे , जो श्री राम के पूर्वज हैं।
एक बार वह एक घने जंगल से गुजर रहा था जहाँ उसे एक गाय की कराह सुनाई देती है। वह उस दिशा में जाता है जहां आवाज आ रही थी। वह देखता है कि एक बाघ ने गाय को पकड़ लिया है और वह गाय को मारने ही वाला था।
चूंकि वह क्षत्रिय और राजा है, इसलिए उसे लगता है कि कमजोरों की रक्षा करना उसका कर्तव्य है, और बाघ को मारने में कोई पाप नहीं है। उसका लक्ष्य बाघ है। इस बीच, बाघ भी सोचता है कि उसे कुछ ऐसा करना चाहिए जिससे राजा को भी कष्ट हो और वह गाय को मार डाले और राजा हरिथा बाघ को मार डाले।
चूंकि उसने गो हत्या (पवित्र गाय की मृत्यु) को होते हुए देखा है, इसलिए राजा गो हाथी दोष (पाप) से प्रभावित होता है । वह चिंतित हो जाता है, जब अचानक वह एक असरेरी (दिव्य आवाज) सुनता है जो उसे सत्यव्रत क्षेत्र में जाने और अनंत सरसु में स्नान करने और भगवान आदि केशव की पूजा करने के लिए कहता है , जिससे उसके पाप गायब हो जाएंगे।
राजा हरिता अयोध्या वापस जाते हैं और वशिष्ठ महर्षि से परामर्श करते हैं , जो उन्हें श्रीपेरंपुदुर महाट्यम के बारे में बताते हैं और बताते हैं कि कैसे भूत गण (जो शिव लोक में भगवान शिव की सेवा करते हैं) ने वहां अपने साप (शाप) से छुटकारा पा लिया, और इसके लिए मार्ग भी जगह। राजा हरिथा तब राज्य चलाने के लिए वैकल्पिक व्यवस्था करता है और श्रीपेरम्पुदुर (चेन्नई, तमिलनाडु के पास) के लिए आगे बढ़ता है ।
वह अनंत सरसु में स्नान करता है और भगवान आदि केशव से प्रार्थना करता है ; थोड़ी देर बाद दयालु भगवान हरित महाराज के सामने प्रकट होते हैं और उन्हें सभी मंत्रों का निर्देश देते हैं जो दोष से छुटकारा पाने में मदद करेंगे । उनका यह भी कहना है कि इतने वर्षों तक वे क्षत्रिय थे, उनके आशीर्वाद से अब वे ब्राह्मण बन गए हैं, और अब से उनके वंशज भी ब्राह्मण होंगे (आज भी उनके वंशज हरिता गोत्र के ब्राह्मण के रूप में जाने जाते हैं)। भगवान उन्हें सभी मंत्रों का उपदेशम भी देते हैं । हरिथा महाराजा आदि केशव मंदिर का पुनर्निर्माण करते हैं, और एक शुभ दिन पर मंदिर का अभिषेक करते हैं।
चाणक्य की तरह एक पहुंचे हुए महर्षि:-
हारीत एक ऋषि थे जिनकी मान्यता अत्यन्त प्राचीन धर्मसूत्रकार के रूप में है। बौधायन धर्मसूत्र, आपस्तम्ब धर्मसूत्र और वासिष्ठ धर्मसूत्रों में हारीत को बार–बार उद्धत किया गया है। हारीत के सर्वाधिक उद्धरण आपस्तम्ब धर्मसूत्र में प्राप्त होते हैं। तन्त्रवार्तिक में हारीत का उल्लेख गौतम, वशिष्ठ, शंख और लिखित के साथ है। परवर्ती धर्मशास्त्रियों ने तो हारीत के उद्धरण बार-बार दिये हैं।
धर्मशास्त्रीय निबन्धों में उपलब्ध हारीत के वचनों से ज्ञात होता है कि उन्होंने धर्मसूत्रों में वर्णित प्रायः सभी विषयों पर अपने विचार प्रकट किए थे। प्रायश्चित (दण्ड) के विषय में हारीत ऋषि के विचार देखिये-
यथावयो यथाकालं यथाप्राणञ्च ब्राह्मणे।
प्रायश्चितं प्रदातव्यं ब्राह्मणैर्धर्मपाठकैः।
येन शुद्धिमवाप्नोति न च प्राणैर्वियुज्यते।
आर्तिं वा महतीं याति न चैतद् व्रतमादिशेत् ॥
अर्थ - धर्मशास्त्रों के ज्ञाता ब्राह्मणों द्वारा पापी को उसकी आयु, समय और शारीरिक क्षमता को ध्यान में रखते हुए दण्ड (प्राय्श्चित) देना चाहिए। दण्ड ऐसा हो कि वह पापी का सुधार (शुद्धि) करे, ऐसा नहीं जो उसके प्राण ही ले ले। पापी या अपराधी के प्राणों को संकट में डालने वाला दण्ड देना उचित नहीं है।
गुहिल वंशी राजा कालभोज बप्पा रावल का गुरु थे हरीत :-
बप्पा रावल (या कालभोज) (शासन: 713-810) मेवाड़ राज्य में क्षत्रिय कुल के गुहिल राजवंश के संस्थापक और एक महापराक्रमी शासक थे। बप्पारावल का जन्म मेवाड़ के महाराजा गुहिल की मृत्यु के 191 वर्ष पश्चात 712 ई. में ईडर में हुआ। उनके पिता ईडर के शाषक महेंद्र द्वितीय थे।बप्पा रावल मेवाड़ के संस्थापक थे कुछ जगहों पर इनका नाम कालाभोज है ( गुहिल वंश संस्थापक- (राजा गुहादित्य )| इसी राजवंश में से सिसोदिया वंश का निकास माना जाता है, जिनमें आगे चल कर महान राजा राणा कुम्भा, राणा सांगा, महाराणा प्रताप हुए। सिसौदिया वंशी राजा कालभोज का ही दूसरा नाम बापा मानने में कुछ ऐतिहासिक असंगति नहीं होती। इसके प्रजासरंक्षण, देशरक्षण आदि कामों से प्रभावित होकर ही संभवत: जनता ने इसे बापा पदवी से विभूषित किया था। महाराणा कुंभा के समय में रचित एकलिंग महात्म्य में किसी प्राचीन ग्रंथ या प्रशस्ति के आधार पर बापा का समय संवत् 810 (सन् 753) ई. दिया है। दूसरे एकलिंग माहात्म्य से सिद्ध है कि यह बापा के राज्य त्याग का समय था। बप्पा रावल को रावल की उपाधि भील सरदारों ने दी थी । जब बप्पा रावल 3 वर्ष के थे तब वे और उनकी माता जी असहाय महसूस कर रहे थे , तब भील समुदाय ने उनदोनों की मदद कर सुरक्षित रखा,बप्पा रावल का बचपन भील जनजाति के बीच रहकर बिता और भील समुदाय ने अरबों के खिलाफ युद्ध में बप्पा रावल का सहयोग किया। यदि बप्पा रॉवल जी का राज्यकाल 30 साल का रखा जाए तो वह सन् 723 के लगभग गद्दी पर बैठे होगे। उससे पहले भी उसके वंश के कुछ प्रतापी राजा मेवाड़ में हो चुके थे, किंतु बापा का व्यक्तित्व उन सबसे बढ़कर था। चित्तौड़ का मजबूत दुर्ग उस समय तक मोरी वंश के राजाओं के हाथ में था।
बप्पा रावल और हारित ऋषि की कहानी –
बप्पा रावल नागदा में उन ब्राह्मणों की गाय चराता था, उन गायों में एक गाय सुबह सबसे ज्यादा दूध देती थी व शाम को दूध नहीं देती थी तब ब्राह्मणों को बप्पा पर संदेह हुआ, तब बप्पा ने जंगल में गाय की वास्तविकता जानी चाहिए तो देखा कि वह गाय जंगल में एक गुफा में जाकर बेल पत्तों के ढेर पर अपने दूध की धार छोड़ रही थी, बप्पा ने पत्तों को हटाया तो वहां एक शिवलिंग था वही शिवलिंग के पास ही समाधि लगाए हुए एक योगी थे। बप्पा ने उस योगी हारित ऋषि की सेवा करनी प्रारंभ कर दी इस प्रकार उसे एकलिंग जी के दर्शन हुए वह उसको हारित ऋषि से आशीर्वाद प्राप्त हुआ।
मुहणोत नैणसी के अनुसार – बप्पा अपने बचपन में हारित ऋषि की गाये चराता था। इस सेवा से प्रसन्न होकर हारित ऋषि ने राष्ट्रसेनी देवी की आराधना से बप्पा के लिए राज्य मांगा देवी ने ऐसा हो का वरदान दिया इसी तरह हारित ऋषि ने भगवान महादेव का ध्यान किया जिससे एकलिंगी का लिंक प्रकट हुआ हारित ने महादेव को प्रसन्न करने के लिए कठोर तपस्या की , जिससे प्रसन्न होकर हारित को वरदान मांगने को कहा। हारित ने महादेव से बप्पा के लिए मेवाड़ का राज्य मांगा।
जब हरित ऋषि स्वर्ग को जा रहे थे तो उन्होंने बप्पा रावल को बुलाया लेकिन बप्पा रावल ने आने में देर कर दी बप्पा उङते हुए विमान के निकट पहुंचने के लिए 10 हाथ शरीर में बढ़ गए। हारित ने बप्पा को मेवाड़ का राज्य तो वरदान में दे ही दिया परंतु यह बप्पा को हमेशा के लिए अमर करना चाहते थे इसलिए उसने अपने मुंह का पान बप्पा को देना चाहा लेकिन मुंह में ना गिरकर बप्पा के पैरों में जा गिरा हारित ऋषि ने कहा कि यह पान तुम्हारे मुंह में गिरता तो तुम सदैव के लिए अमर हो जाते लेकिन फिर भी यह पान तुम्हारे पैरों में पड़ा है तो तुम्हारा अधिकार से मेवाड़ राज्य कभी नहीं हटेगा हारित ऋषि ने बप्पा को एक स्थान बताया जहां उस खजाना 15 करोड़ मुहरें मिलेगी और उस खजाना की सहायता से सैनिक व्यवस्था करके मेवाड़ राज्य विजीत कर लेने का आशीर्वाद दिया
परंपरा से यह प्रसिद्ध है कि हारीत ऋषि की कृपा से बापा ने मानमोरी को मारकर इस दुर्ग को हस्तगत किया। टॉड को यहीं राजा मानका वि. सं. 770 (सन् 713 ई.) का एक शिलालेख मिला था जो सिद्ध करता है कि बापा और मानमोरी के समय में विशेष अंतर नहीं है। चित्तौड़ पर अधिकार करना कोई आसान काम न था। नागभट प्रथम ने अरबों को पश्चिमी राजस्थान और मालवे से मार भगाया। बापा ने यही कार्य मेवाड़ और उसके आसपास के प्रदेश के लिए किया। मौर्य (मोरी) शायद इसी अरब आक्रमण से जर्जर हो गए हों। बापा ने वह कार्य किया जो मोरी करने में असमर्थ थे और साथ ही चित्तौड़ पर भी अधिकार कर लिया। बापा रावल के मुस्लिम देशों पर विजय की अनेक दंतकथाएँ अरबों की पराजय की इस सच्ची घटना से उत्पन्न हुई होंगी।
विश्व प्रसिद्ध महर्षि हरित राशि बप्पा रावल के गुरु थे। वे लकुलीश सम्प्रदाय के आचार्य और श्री एकलिंगनाथ जी के महान भक्त थे। बप्पा रावल को हारीत ऋषि के द्वारा महादेव जी के दर्शन होने की बात मशहूर है।एकलिंगजी का मन्दिर - उदयपुर के उत्तर में कैलाशपुरी में स्थित इस मन्दिर का निर्माण 734 ई. में बप्पा रावल ने करवाया | इसके निकट हारीत ऋषि का आश्रम है।
गोत्र :-
हरिता सगोत्र के ब्राह्मण अपने वंश को उसी राजकुमार से जोड़ते हैं। जबकि अधिकांश ब्राह्मण प्राचीन ऋषियों के वंशज होने का दावा करते हैं, हरिता सगोत्र के लोग ब्राह्मण अंगिरसा द्वारा प्रशिक्षित क्षत्रियों के वंशज होने का दावा करते हैं और इसलिए उनमें कुछ क्षत्रिय और कुछ ब्राह्मण गुण हैं। इसने लिंग पुराण के अनुसार , "क्षत्रियों के गुणों वाले ब्राह्मणों" का निर्माण किया। आज तक, कई राजघराने अपने राजघराने के दावे को साबित करने के लिए सूर्यवंश वंश के इस राजा के वंशज होने का दावा करते हैं। वे हरिता से वंश का दावा करते हैं, और विष्णु पुराण , वायु पुराण , लिंग पुराण जैसे हिंदू ग्रंथों से वैधता की तलाश करते हैं ।
हरीता गौत्र (उपनाम) अरोरा खत्री समुदाय से भी जुड़ जाता हैं। महान ग्रंथों के अनुसार, हरीता (खत्री) सूर्यवंशी हैं और भगवान राम के वंशज भी हैं। हरीता क्षत्रिय वर्ग में आते हैं। अधिकांश हरीता गोत्र के लोग दोहरे विश्वास वाले हिंदू हैं। वे हिंदू और सिख दोनों धर्मों को मानते हैं। वे बहुत पढ़े-लिखे और अच्छे लोग हैं। वे भारत और दुनिया में एक प्रभावशाली समुदाय बनने में भी कामयाब रहे है।
आज हरीता भारत के सभी क्षेत्रों में रहते हैं, लेकिन वे ज्यादातर पंजाब, हरियाणा, दिल्ली और उत्तर प्रदेश में केंद्रित हैं। वे भारत और दुनिया में एक प्रभावशाली समुदाय बनने में कामयाब रहे है। हरीता लोग भले ही आधुनिक हों, लेकिन उनकी परंपराओं और मूल्यों के साथ उनका बहुत गहरा संबंध है। हरीता लोगों को अपनी भारतीय विरासत पर गर्व है और उन्होंने भारतीय संस्कृति में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है। आज हरीता प्रौद्योगिकी, चिकित्सा, वित्त, व्यवसाय, इंजीनियरिंग, शिक्षा, निर्माण, मनोरंजन और सशस्त्र बल आदि कई क्षेत्रों में अपना ध्वज फहरा रहे हैं।
पंजाबी संस्कृति की झलक :-
हरीता गोत्र के लोगों में मजबूत पंजाबी संस्कृति पाई जाती है। अद्वितीय, असाधारण, दुनिया भर में लोकप्रिय, पंजाबी संस्कृति वास्तव में जबरदस्त है। रंगीन कपड़े, ढोल, एवं भगड़ा अत्यंत ऊर्जावान और जीवन से भरपूर है। वे स्वादिष्ट भोजन, संगीत, नृत्य और आनंद के साथ त्योहारों को बड़े उत्साह के साथ मनाते है। पंजाबी खाना जायके और मसालों से भरपूर होता है। रोटी पर घी ज्यादा होना, खाने को और अधिक स्वादिष्ट बना देता है। लस्सी को स्वागत पेय के रूप में भी जाना जाता है। मक्के दी रोटी और सरसों दा साग पंजाबी संस्कृति का एक और पारंपरिक व्यंजन है। छोले भटूरे, राजमा चावल, पनीर टिक्का, अमृतसरी कुलचे, गाजर का हलवा, और भी कई तरह के खाने के व्यंजन हैं।
लेखक परिचय:-
(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, आगरा मंडल ,आगरा में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए समसामयिक विषयों,साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं।)