[ प्रिय सुहृदय पाठक गण,
मैने आज से दो साल पहले "राम के पूर्वज" नामक एक नई श्रृंखला की शुरुआत 22 मार्च 2022 को स्वयंभुव मनु और शतरूपा की कहानी ( राम के पूर्वज -1 ) किया था।
इसके बाद 23 मार्च 2022 को प्रियव्रत - उत्तानपाद की कहानी( राम के पूर्वज - 2 ) से चलते - चलते 29 मार्च 2022 को सत्यवादी हरिश्चंद्र की कहानी (राम के पूर्वज 14), 29 मार्च 2022 को ही रोहताश्व की कहानी (राम के पूर्वज 15) और 31 मार्च 2022 को राजा हरिश चंद्र के कमजोर वंशज (राम के पूर्वज 16) नामक लगभग 16 कड़ियां जोड़ा था। फिर कुछ बाह्य विचारों के आवेग ने इस श्रृंखला को विराम लगा कर अन्य विषयों को आगे कर दिया। बाद में पुनः अवलोकन करने पर कुछ छूटी हुई अन्य कड़ियों को समेटने का विचारआया।
स्वयंभुव मनु और शतरूपा से पूर्व सृष्टि की उत्पत्ति (राम के पूर्वज 01)से लेकर ब्रह्मा ( राम के पूर्वज 02), मरीचि(राम के पूर्वज 03 ), कश्यप ( राम के पूर्वज 04), विवस्वान स्वमभू मनु ( राम के पूर्वज 05) और विष्णु के सातवें अवतार भगवान राम के कुल और उनकी वंश परंपरा (राम के पूर्वज 06 ) की छूटी हुई कुछ महत्व पूर्ण कड़ियां जोड़ने की पहल होनी है। राजा हरिश चंद्र के कमजोर वंशज (राम के पूर्वज 16) के बाद 17वीं से अगली कड़ियां पुनःशुरु होगीं । ]
सृष्टि की रचना कब और कैसे हुई थी:-
सृष्टि की रचना का सर्वाधिक प्राचीन विवरण ऋग्वेद के दसवें मंडल में १२९ वां नासदीय सुक्त के रूप में मिलता है यथा:
नासदासीन्नो सदासात्तदानीं ,
नासिद्रोजो नोव्योमा परोव्यत्।
किमावरिव: कुहकस्य शर्मनम्भः
किमासद् गहनंगभीरम्।।
सृष्टि की उत्पत्ति से पहले सत् तत्व भी नहीं था और असत् भी नहीं। अर्थात भाव भी नहीं था और अभाव भी नहीं था। न अंतरीक्ष, आकाश, त्रिलोक कुछ भी नहीं था। न मृत्यु थी ना अमरत्व था, न दिन था न रात्रि थी। उस समय केवल ब्रह्म ही था,वो भी सुप्तावस्था में था। माया भी उसमें ही विलीन थी। उस ब्रह्म के मन में एक से अनेक होने का भाव उत्पन्न हुआ-
"एको अहं बहुस्याम"।
"स: अकामयत प्रजायेय बहुस्याम इति"।
(तैत्तिरीय आरण्यक।)
सृष्टि की रचना करने का मुख्य कारण 'सृष्टा' का "एकाकीपन" ही था। सर्वप्रथम सृष्टिकर्ता के मन में 'काम' की उत्पत्ति हुई। यदि सृष्टा भी एकाकीपन से ग्रस्त हो सकता है तो हम तो मानव मात्र हैं। यदि सृष्टिकर्ता भी काम की कामना कर सकता है तो हम तो साधारण मनुष्य ही हैं।
"कामस्तेदग्रे समवर्ततेताधि मनसो रेत: प्रथमं यदासीत्"।
सतोबन्धुमसति निरविंदन्हृदि प्रतीष्या कवयो मनीषा।।४।। (ऋग्वेद नास. सुक्त)
सबसे पहले सृष्टा को 'कामना' हुई सृष्टि की रचना की,जो कि सृष्टि की उत्पत्ति का पहला बीज था। इस तरह रचियता ने विचार कर सत् और असत् अस्तित्व और अनस्तित्व के भेद को समाप्त किया।
"को अद्धा वेद क इह प्र च वोच्तकुत आजाता कुत इयं विसृष्टि।
अर्वाग्देवा अस्य विसर्जनेनाथा को वेद यत आबभूव।।६।।
अभी कौन निश्चित तौर पर कह सकता है कि कब और कैसे सृष्टि की रचना हुई? क्योंकि देवता भी सृष्टि के उत्पत्ति के बाद आये है। अतः ये देवगण भी सृष्टि के बारे में निश्चित तौर पर कुछ नहीं कह सकते हैं।
यो अस्याध्यक्ष: परमे व्योमन्त्सो अंग वेद यदि वा न वेद ।।७।।
वह परमात्मा ही इस विषय को जानता है उसके अतिरिक्त और⁸ कोई नहीं जानता।
एको अहं बहुस्याम।
ब्रह्म,जीव और माया अनादि काल से अस्तित्व में :-
ऋग्वेद कहता है कि तीन चीजें सदा से हैं— ब्रह्म,जीव और माया अर्थात कोई किसी का रचयिता नही है, यह तीनों अनादि हैं। उसका कारण यह है कि तीनों एक ही हैं। परमात्मा का प्रकट रूप माया अर्थात सृष्टि है और सृष्टि का अदृश्य रूप परमात्मा है। वही परमात्मा कहीं आकार है, कहीं आकाश की तरह निराकार है और कहीं आकार और निराकार दोनों के मिलन से जीवन के रूप में प्रकट है। सरल शब्दों में इस अस्तित्व के अलावा कोई परमात्मा नही है। यह स्वयं चैतन्य है, स्वयं परमात्मा है।
सृष्टि की क्रमिक रचना :-
पृथ्वी की उत्पत्ति के बाद और इसमें जीवन मिलने के बाद सर्वप्रथम समुद्री जीव ने जन्म लिया यह देश विदेश के वैज्ञानिकों के द्वारा प्रमाणित है और सनातन शास्त्रों में भगवान विष्णु के 10 मुख्य अवतार बताए गए हैं जिस विषय में एक श्लोक आता हैः-
मत्स्य कूर्मो वराहश्च नारसिंहोऽथ वामनः।
रामो रामश्च कृष्णश्च बुद्धः कल्किश्च ते दशा:॥
इस श्लोक के माध्यम से बताया गया है कि भगवान का सबसे पहला अवतार मत्स्य अर्थात् मछली के रूप में हुआ था और दूसरा कछुआ, तीसरा सुवर, चौथा नरसिंह, पांचवा वामन, छठा परशुराम, राम, कृष्ण, बुद्ध और कल्कि (जो कि भविष्य के अवतार हैं।)।
अधिकतर लोग ये तो जानते हैं कि भगवान अवतार सृष्टि की उत्पत्ति और उसमें हमेसा धर्म, सत्य की स्थापना के लिए लेते हैं। कुछ दार्शनिकों का मानना ये भी है कि समस्त ज्ञान भगवान से ही उद्धृत हुआ है तो उनके अवतारों में छिपे ज्ञान को और सृष्टि उत्पत्ति के विषय को समझना होगा।
मछली से चला जीवन :-
सर्वप्रथम तो हम इस बात पर जोर देते हुए समझते हैं कि आज के विज्ञान का मानना है कि जगत का पहला जीव समुद्र या पानी में पैदा हुआ, तो भगवान विष्णु का सबसे प्रथम अवतार मछली के रूप में हुआ और मछली के रूप में अवतार लेकर सृष्टि के उद्भव का आरंभ हुआ। अर्थात् सनातन ग्रंथों के आधार पर वैज्ञानिकों की आज की खोज को भी पीछे ले जाया जा सकता है। अतः मछली के रूप में सृष्टि के उद्भव का आरंभ हुआ। जब केवल जल ही था तो भगवान ने मछली का अवतार लिया और जब धीरे-धीरे जल की मात्रा कम होने लगी और भूमी बढ़ने लगी तो भगवान ने जल और भूमि दोनो में रहने वाले कछुआ का अवतार लिया और जल भूमि के मिश्रण से कीचड़ आदि होने पर भगवान विष्णु ने सुवर का अवतार लेकर सृष्टि को अनुकूल स्थिति के अनुसार रहना सिखाया। और सांसारिकता के समझ का स्तर बढ़ाने के लिए सृष्टि में विकास के लिए अवतार लिया।
मनुष्य और जानवरो के रूप में अवतार:-
इसके बाद भगवान ने मनुष्य और जानवरो के रूप में अवतार लेना शुरु कर दिया ताकि सृष्टि का संतुलन बना रहे, यहीं तक थी सृष्टि की उत्पत्ति विषयक विकास की कहानी लेकिन उसके बाद भगवान ने सृष्टि में विकास के लिए अवतार लिया और उसका सबसे बड़ा उदाहरण है वामन अवतार जिसमें भगवान ने मनुष्य की शारीरिक स्थिति को निश्चित कर दिया और जीवन जीने की परंपरा में दान की परंपरा को भी विकसित किया।
उसके बाद भगवान ने मनुष्य का विकास करते हुए अपने अवतार को आधार बनाकर मनुष्य को जंगल से समतल भूमि की ओर लेकर आए जो कि भगवान परशुराम ने किया। भगवान ने अपने इन अवतारों से सृष्टि का संतुलन बना दिया था अब समस्त सृष्टि को अनुशासन, प्रेम, मर्यादा, संस्कार और परंपरा तथा धर्म की शिक्षा संसार तक पहुंचाने के लिए भगवान ने मर्यादा पुरुषोत्तम राम के रुप में अवतार लिया और समस्त सृष्टि में केवल प्रेम और मर्यादा ही बची तब भगवान ने श्रीकृष्ण अवतार लेकर कूटनीति और जैसे को तैसा व्यवहार भी संसार को सिखाया।
तैत्तिरीयोपनिषद् (२।६) में कहा गया है कि उस परमेश्वर ने विचार किया कि मैं प्रकट हो जाऊँ (अनेक नाम-रूप धारणकर बहुत हो जाऊँ), इस स्थिति में एक ही परमात्मा अनेक नाम-रूप धारणकर सृष्टि की रचना करते हैं। श्रीमद्भागवत (४।७।५०) में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं–’मैं ही सम्पूर्ण सृष्टि की रचना करता हूँ। मैं ही उसका मूल कारण हूँ।’ मैं यहां आपको ब्रह्मवैवर्तपुराण में दिए गए सृष्टि रचना के प्रसंग का वर्णन कर रही हूँ—
सृष्टि के बीजरूप परमात्मा श्रीकृष्ण:-
ब्रह्मा से लेकर तृणपर्यन्त समस्त चराचर जगत–जो प्राकृतिक सृष्टि है, वह सब नश्वर है। तीनों लोकों के ऊपर जो गोलोकधाम है, वह नित्य है। गोलोक में अन्दर अत्यन्त मनोहर ज्योति है। वह ज्योति ही परात्पर ब्रह्म है। वे परमब्रह्म अपनी इच्छाशक्ति से सम्पन्न होने के कारण साकार और निराकार दोनों रूपों में अवस्थित रहते हैं। परमात्मा श्रीकृष्ण ही सर्वप्रपंच के स्त्रष्टा तथा सृष्टि के एकमात्र बीजस्वरूप हैं।
परमात्मा श्रीकृष्ण से नारायण, शिव, ब्रह्मा, धर्म, सरस्वती आदि देवी-देवताओं का प्रादुर्भाव:-
प्रलयकाल में भगवान श्रीकृष्ण ने दिशाओं, आकाश के साथ सम्पूर्ण जगत को शून्यमय देखा। न कहीं जल, न वायु, न ही कोई जीव-जन्तु, न वृक्ष, न पर्वत, न समुद्र, बस घोर अन्धकार ही अन्धकार। सारा आकाश वायु से रहित और घोर अंधकार से भरा विकृताकार दिखाई दे रहा था। वे भगवान श्रीकृष्ण अकेले थे। तब उन स्वेच्छामय प्रभु में सृष्टि की इच्छा हुई और उन्होंने स्वेच्छा से ही सृष्टिरचना आरम्भ की। सबसे पहले परम पुरुष श्रीकृष्ण के दक्षिणभाग से जगत के कारण रूप तीन गुण प्रकट हुए। उन गुणों से महतत्त्व, अंहकार, पांच तन्मात्राएं, रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्द प्रकट हुए। इसके बाद श्रीकृष्ण से साक्षात् भगवान नारायण का प्रदुर्भाव हुआ जो शंख, चक्र, गदा, पद्मधारी चतुर्भुज, वनमाला से विभूषित व पीताम्बरधारी थे। इसके बाद श्रीकृष्ण के वामभाग से स्फटिक के समान अंगकान्ति वाले, पंचमुखी, त्रिनेत्रवाले, जटाजूटधारी, हाथों में त्रिशूल व जपमाला लिए व बाघम्बर पहने भगवान शिव प्रकट हुए। श्रीकृष्ण के नाभिकमल से ब्रह्माजी प्रकट हुए। उनके श्वेत वस्त्र व केश थे, कमण्डलुधारी, चार मुख वाले, वेदों को धारण व प्रकट करने वाले हैं। वे ही स्त्रष्टा व विधाता हैं। इसके बाद परमात्मा श्रीकृष्ण के वक्ष:स्थल से श्वेत वर्ण के जटाधारी ‘धर्म’ प्रकट हुए। वह सबके साक्षी व सबके समस्त कर्मों के दृष्टा थे। फिर धर्म के ही वामभाग से ‘मूर्ति’ नामक कन्या प्रकट हुई।
तदनन्तर परमात्मा श्रीकृष्ण के मुख से शुक्लवर्णा, वीणा-पुस्तकधारिणी, वाणी की अधिष्ठात्री, कवियों की इष्टदेवी, शान्तरूपिणी सरस्वती प्रकट हुईं। फिर परमात्मा श्रीकृष्ण के मन से गौरवर्णा, सम्पूर्ण ऐश्वर्यों की अधिष्ठात्री, फलरूप से सम्पूर्ण सम्पत्तियां प्रदान करने वाली स्वर्गलक्ष्मी प्रकट हुईं। वे राजाओं में राजलक्ष्मी, गृहस्थ मनुष्यों में गृहलक्ष्मी और सभी प्राणियों तथा पदार्थों में शोभारूप से विराजमान रहती हैं।
तदनन्तर परमात्मा श्रीकृष्ण की बुद्धि से मूल प्रकृति का प्रादुर्भाव हुआ। वे लाल रंग की साड़ी पहने हुए थीं व रत्नाभरण से भूषित व सहस्त्रों भुजाओं वाली थीं। वे निद्रा, तृष्णा, क्षुधा-पिपासा (भूख-प्यास), दया, श्रद्धा, बुद्धि, लज्जा, तुष्टि, पुष्टि, भ्रान्ति, कान्ति और क्षमा आदि देवियों की व समस्त शक्तियों की अधिष्ठात्री देवी हैं। उन्हीं को दुर्गा कहा गया है।
भगवान श्रीकृष्ण की जिह्वा के अग्रभाग से स्फटिक के समान वर्ण वाली, सफेद साड़ी व आभूषण पहने, हाथ में जपमाला लिए सावित्री देवी प्रकट हुईं। फिर श्रीकृष्ण के मानस से सुवर्ण के समान कांतिमान, पुष्पमय धनुष व पांच बाण लिए कामियों के मन को मथने वाले मन्मथ(कामदेव) प्रकट हुए। कामदेव के पांच बाण हैं–मारण, स्तम्भन, जृम्भन, शोषण और उन्मादन। कामदेव के वामभाग से परम सुन्दरी ‘रति’ प्रकट हुईं।
कामदेव के बाणों से ब्रह्माजी की कामाग्नि प्रदीप्त हो गयी जिससे अग्नि प्रकट हुई। उस अग्नि को शान्त करने के लिए भगवान ने ‘जल’ की रचना की और अपने मुख से जल की एक-एक बूंद गिराने लगे। तभी से जल के द्वारा आग बुझने लगी। उस बिन्दुमात्र जल से सारे जगत में जल प्रकट हो गया और उसी से जल के व सभी जल-जन्तुओं के देवता ‘वरुण देव’ प्रकट हुए और अग्नि से ‘अग्निदेव’ प्रकट हुए। अग्निदेव के वामभाग से उनकी पत्नी ‘स्वाहा’ प्रकट हुईं। वरुणदेव के वामभाग से ‘वरुणानी’ प्रकट हुईं। भगवान श्रीकृष्ण की नि:श्वास वायु से ‘पवन’ का प्रादुर्भाव हुआ जो सभी मनुष्यों के प्राण हैं। वायुदेव के वामभाग से उनकी पत्नी ‘वायवी’प्रकट हुईं।
इन सबकी सृष्टि करके भगवान सभी देवी-देवताओं के साथ रासमण्डल में आए। उस रासमण्डल का दर्शन कर सभी लोग आश्चर्यचकित हो गए। वहां श्रीकृष्ण के वामभाग से कन्या प्रकट हुई, जिसने दौड़कर फूल ले आकर भगवान के चरणों में अर्घ्य प्रदान किया। क्योंकि ये रासमण्डल में धावन कर (दौड़कर) पहुंचीं अत: इनका नाम ‘राधा’ हुआ। उन किशोरी के रोमकूपों से लाखों गोपांगनाओं का आविर्भाव हुआ जो रूप और वेष में उन्हीं के समान थीं तथा गोलोक में उनकी प्रिय दासियों के रूप में रहती थी। फिर श्रीकृष्ण के रोमकूपों से तीस करोड़ गोपगणों का आविर्भाव हुआ जो रूप और वेष में उन्हीं के समान थे। वे सभी परमेश्वर श्रीकृष्ण के प्राणों के समान प्रिय पार्षद बन गए। फिर श्रीकृष्ण के रोमकूपों से गौएं, बलीवर्द (सांड़), बछड़े व कामधेनु प्रकट हुईं।
भगवान श्रीकृष्ण के गुह्यदेश से ‘कुबेर’ व ‘गुह्यक’ प्रकट हुए। कुबेर के वामभाग से उनकी पत्नी प्रकट हुईं। भगवान के गुह्यदेश से ही भूत, प्रेत, पिशाच, कूष्माण्ड, ब्रह्मराक्षस आदि प्रकट हुए। तदनन्तर भगवान के मुख से शंख-चक्र-गदा-पद्मधारी पार्षद प्रकट हुए जिन्हें उन्होंने नारायण को सौंप दिया। गुह्यकों को उनके स्वामी कुबेर को और भूत-प्रेत आदि भगवान शंकर को अर्पित कर दिए। तदनन्तर श्रीकृष्ण के चरणारविन्दों से हाथों में जपमाला लिए पार्षद प्रकट हुए। श्रीकृष्ण ने उन्हें दास्यकर्ममें लगा दिया। वे सभी श्रीकृष्णपरायण ‘वैष्णव’ थे।
इसके बाद भगवान के दाहिने नेत्र से तीन नेत्रों वाले, विशालकाय, दिगम्बर, हाथों में त्रिशूल और पट्टिश लिए, भयंकर गण प्रकट हुए जो ‘भैरव’ कहलाए। परमात्मा श्रीकृष्ण के बांये नेत्र से दिक्पालों के स्वामी ‘ईशान’ प्रकट हुए। इसके बाद श्रीकृष्ण की नासिका के छिद्र से डाकिनियां, योगिनियां, क्षेत्रपाल व पृष्ठदेश (पीठ) से विभिन्न देवताओं का प्रादुर्भाव हुआ।
आचार्य डॉ राधे श्याम द्विवेदी
लेखक परिचय:-
(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, आगरा मंडल ,आगरा में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए समसामयिक विषयों,साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं।)
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