देवरहवा बाबा भारत के मान्य संत रहे हैं। बड़े- बड़े उद्योगपति एवं राजनेता उनका आशीर्वाद पाने के लिए लालायित रहते थे। जब कभी कोई गायत्री परिवार के परिजन उनके दर्शन करने पहुँचते थे, तो वे बड़ी प्रसन्नता व्यक्त करते हुए उन्हें खूब प्रसाद और आशीर्वाद देते थे। पू. गुरुदेव के बारे में पूछने पर वे बड़े भावभरे सम्मान युक्त शब्द कहा करते थे। जैसे-
श्री शिव प्रसाद मिश्रा जी का संस्मरण इस प्रकार है - "एक बार मैं और मेरा एक मित्र के. पी. श्रीवास्तव देवरहवा बाबा जी से मिलने गये। हम लोग बाबाजी के मचान तक पहुँच कर उनके एक शिष्य से बोले कि स्वामी जी को कहें कि पंडित श्रीराम शर्मा जी के शिष्य आये हैं। आपको प्रणाम करना चाहते हैं। संदेश मिलने पर स्वामी जी ने दर्शन दिये और बोले- ‘‘अरे! पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य के बच्चों को हमारा प्रणाम...। प्रणाम...। प्रणाम...। हमने मन ही मन सोचा स्वामी जी हमें प्रणाम क्यों कह रहे हैं?’’ तब तक स्वामी जी स्वयं ही बोले, ‘‘आचार्य जी के शिष्य हो तुम। महाकाल के शिष्य हो तुम। युग देवता के शिष्य हो तुम। सामान्य नहीं हो। हम प्रणाम कर रहे हैं, तो सोच कर ही कर रहे हैं।
तुम्हारे गुरु श्रीराम नहीं स्वयं राम हैं।’’ हम लोगों को वहाँ तक जाते- जाते भूख लग आई थी। सो मन में ठान कर गये थे कि संतों के पास खूब फल आदि रहते हैं। कुछ तो खाने को मिलेगा ही। बाबा जी की बात सुनने के पश्चात् हमारा ध्यान भूख की ओर गया। तब तक बाबा जी बोले- ‘‘इनको भूख लगी होगी। इनको खाने को दो।’’ आदेश पाकर उनका शिष्य संतरे ले आया और दो- दो संतरे हम लोगों को दिये। इस पर बाबा ने कहा, ‘‘दो- दो क्या देते हो? हाथ भर- भर कर दो।’’ हम लोग झोली भर- भर कर प्रसाद लेकर आये और पेट भर कर संतरे खाये। कुछ दिन बाद हम पुनः उनसे मिलने गये, तब हमने उनसे कहा, ‘‘कुछ पूज्य गुरुदेव के बारे में बताइये।’’ तो वे बोले- ‘‘तुम उनके पास से आये हो! तुम बताओ। मैं क्या बताऊँ?’’ हमने कहा- ‘‘हमारी दृष्टि बहुत स्थूल है। आपकी दृष्टि सूक्ष्म है। आप उनके बारे में हमें समझाएँ।’’ तो वे बोले, ‘‘जिनका मैं अपने हृदय में निरंतर ध्यान करता हूँ, वे हैं तुम्हारे गुरु, आचार्य श्रीराम।’’ बाबा के उक्त कथन में कितनी गहराई है। यह कौन समझ पाता? संत सहज ही दूसरों को सम्मान देते रहने के अभ्यस्त होते हैं। इसी संत सुलभ- शिष्टाचार के अन्तर्गत लोग उनकी उक्त अभिव्यक्तियों को लेते रहे। एक और तथ्य है, पूज्य गुरुदेव के शरीर छोड़ने के कुछ दिन बाद ही बाबा ने भी शरीर छोड़ दिया। इसे भी एक संयोग कहा जा सकता है, लेकिन निम्र संस्मरण से उनके कथन और परस्पर संबंधों की गहराई प्रकट हो जाती है। श्रीराम चले गए अब मैं शरीर रखकर क्या करूँगा- बाबा के शरीर छोड़ने के बाद उनके एक अनन्य शिष्य आई. ए. एस. अधिकारी जब पहली बार शान्ति कुञ्ज पहुँचे तो चर्चा के दौरान उन्होंने पूज्य गुरुदेव द्वारा शरीर त्याग की तिथि पूछी। हमने बताया, पूज्य गुरुदेव ने 2 जून 90 को शरीर छोड़ा। सुनते ही उनके मुख से सहज ही निकल पड़ा, ‘‘देखो यही बात थी।’’ पूछने पर उन्होंने अपना संस्मरण सुनाया- बाबा के देह त्यागने से कुछ दिन पहले वे बाबा से मिले थे, तो बातचीत के दौरान बाबा बोले, ‘‘अब शरीर रखने का मन नहीं है।’’ हमने पूछा, ‘‘क्यों महाराज?’’ तो अपने हाथ की खाल पकड़ कर खींचते हुए कहा- ‘‘अब ये चाम रखकर क्या करेंगे? आत्मा तो चली गई।’’ मैंने कहा, ‘‘महाराज, बात समझ में नहीं आई? आत्मा कैसे और कहाँ चली गई?’’ तो बाबा बोले- ‘‘अरे! वे श्रीराम चले गए न... अब ये शरीर रखकर क्या करूँगा?’’ और कुछ ही दिनों बाद 19 जून 1990 को बाबा ने शरीर छोड़ दिया। वन्दनीय है यह दिव्य प्रेम और वन्दनीय हैं उसे धारण करने वाले महापुरुष।
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