Wednesday, July 12, 2023

द्विवेदी ब्राह्मण के प्रमुख गोत्रज "भारद्वाज" ( द्विवेदी ब्राह्मण इतिहास श्रृंखला संख्या 6 ) आचार्य डॉ. राधे श्याम द्विवेदी



गोत्र का अर्थ : -- 
किसी व्यक्ति की वंश-परम्परा जहां से प्रारम्भ होती है, उस वंश का गोत्र भी वहीं से प्रचलित होता है। हम सभी जानते हें की हम किसी न किसी ऋषि की ही संतान है, इस प्रकार से जो वंश जिस ऋषि से प्रारम्भ हुआ वह उस ऋषि का वंशज कहा गया । गोत्र का अर्थ है कि वह व्यक्ति किस ऋषि के कुल का है। जैसे किसी ने कहा कि मेरा गोत्र भारद्वाज है तो उसके कुल के ऋषि भारद्वाज हुए। अर्थात भारद्वाज के कुल से संबंध रखता है। भारद्वाज उसके कुल के आदि पुरुष है। इसी तरह कोई इंद्र, सूर्य या चंद्रदेव से तो कोई हिरण्याक्ष या हिरण्यकशिपु से संबंध रखता है तो कोई महान राजा बलि की संतान है। हालांकि सभी ऋषि अंगिरा, भृगु, अत्रि, कश्यप, वशिष्ठ, अगस्त्य, कुशिक आदि ऋषियों की ही संताने हैं।
गण पक्ष और शाखाएं :-
गोत्रों के अनुसार ईकाई को 'गण' नाम दिया गया। एक गण का व्यक्ति दूसरे गण में विवाह कर सकता है। इस प्रकार जब कालांतर में गणों के कुल के लोगों की संख्या बढ़ती गई तो फिर उनमें अलग अलग भेद होते गए। संख्‍या बढ़ने के साथ ही पक्ष और शाखाएं बनाई गई। इस तरह इन उक्त ऋषियों के पश्चात उनकी संतानों के विद्वान ऋषियों के नामों से भी अन्य गोत्रों का नामकरण प्रचलित हुए। जैसे अग्नि नाम का एक गोत्र या वंश है। अग्नि के पुत्र अंगिरा हुए जिनके नाम का भी गोत्र या वंश चला। फिर अंगिरा के पुत्र बृहस्पति हुए और बृहस्पति के पुत्र भारद्वाज हुए जिनके नाम का भी गोत्र या वंश चला। गोत्रों से व्‍यक्ति और वंश की पहचान होती है। वंश से इतिहास की पहचान होती है। 
तीन जन्मों का वरदानधारी :-
राज ऋषि ने अपनी तपस्या से इंद्र देव को प्रसन्न कर उनसे 100 -100 वर्षों के तीन जन्मों का वरदान मांगा था। दरअसल भारद्वाज वेदों का अध्ययन करना चाहते थे पर समय की कमी के कारण अध्ययन पूरा ना हो सका। भारद्वाज ऋषि 3 जन्मों के बाद भी वेदों का पूरी तरह से ज्ञान प्राप्त नहीं कर सके। इसके बाद इन्होंने इंद्रदेव से चौथा जन्म मांगा तो उन्होंने इन्हें एक उपाय बताया और कहा कि तुम “सबित्र अग्नि जयन” यज्ञ करो । इन्होंने ऐसा ही किया और तब जाकर इनकी जिज्ञासा पूर्ण हुई थी।
भारद्वाज ऋषि का जन्म
भारद्वाज बृहस्पति और ममता के पुत्र थे ।अंगिरा वंशी भरद्वाज के पिता – बृहस्पति और माता ममता थीं। बृहस्पति ऋषि – अंगिरा के पुत्र होने के कारण ये वंश अंगिरा वंश भी कहलाया जा सकता है। कालांतर में यह राजा भरत के दत्तक पुत्र हुए थे इसके बाद कश्यप और अदिति के पुत्रों ने इनका पालन-पोषण किया था। जब भरत का वंश खत्म होने लगा तब उन्हें दत्तक रूप में प्रदान किया शास्त्रों में भी इसका वर्णन है। कहते हैं जब सम्राट भरत का वंश खत्म होने लगा तब उन्होंने संतान पाने के लिए मरुथम नामक यज्ञ किया । इससे मरुद गणों ने प्रसन्न होकर भरत को भारद्वाज नाम का पुत्र दिया था। आगी वंश में इनका जन्म हुआ था इनके पिता बृहस्पतिऔर माता का नाम ममता था लेकिन पैदा होते ही माता-पिता में इस बात को लेकर विवाद हो गया कि इनका पालन-पोषण कौन करें। दोनों ने एक दूसरे से कहा था तुम इसे संभालो उसी समय से इनका नाम भारद्वाज पड़ा था । इसके बाद इन्होंने अपनी तपस्या के बलबूते पर इस नाम को अमर कर दिया।
भारद्वाज ऋषि का विवाह : –
भारद्वाज ऋषि का विवाह सुशीला से हुआ था और उनका एक पुत्र था गर्ग और एक पुत्री देववर्षिनी थी | 
भारद्वाज एक अग्रगण्य नाम :-
वैज्ञानिक चिंतन और वैज्ञानिक सोच के आधार पर सर्वोच्च स्थान को प्राप्त करने वाले भारत के महान ऋषियों में ऋषि भारद्वाज का नाम आज अग्रगण्य है। उन्होंने अपनी गहरी साधना और अध्यात्म विद्या के बल पर प्राचीन काल में भारत के ऋषि मंडल में अपना सम्मानपूर्ण स्थान प्राप्त किया। लोक कल्याण के लिए ज्ञान प्राप्त करना है उनके जीवन का मुख्य उद्देश्य रहा था वेदों का ज्ञान प्राप्त करने के लिए इन्होंने सौ- सौ वर्ष के तीन जन्म लिए थे ।
विलक्षण प्रतिभा वाले ऋषि:-
भारद्वाज ऐसे ऋषि थे जो मंत्र दृष्टा होने के साथ-साथ आयुर्वेद के भी बड़े आचार्य थे वह बहुत अच्छे शाम गायक भी थे ।इसलिए चार प्रमुख शाम गायकों में इनका नाम है। लोगों के कल्याण के लिए उन्होंने कई ग्रंथों की रचना की उनका जीवन दर्शन हमारे लिए प्रेरणा स्रोत है उन्होंने ज्ञान अर्जित किया और उसे जन-जन तक पहुंचाने का प्रयास किया। यही कारण है कि वेदों और पुराणों में भी इनकी महिमा गाई गई है । 
राजा भरत के कुल पुरोहित:-
भारद्वाज ऋषि राजा भरत के कुल पुरोहित थे दुष्यंत पुत्र राजा भरत ने अपना राजपाट इन्हीं भारद्वाज को सौंपा तथा खुद जंगल में जाकर रहने लगे।
आध्यात्मिक योगदान:-
महर्षि भारद्वाज व्याकरण, आयुर्वेद संहिता, धनुर्वेद, राजनीतिशास्त्र, यंत्रसर्वस्व, अर्थशास्त्र आदि अनेक ग्रंथों के रचयिता हैं। 'चरक संहिता' की साक्षी है कि उन्होंने आत्रेय पुनर्वसु को कायचिकित्सा का ज्ञान प्रदान किया था। 
ऋषि भारद्वाज को आयुर्वेद और सावित्र्य अग्नि विद्या का भी ज्ञान था। आयुर्वेद के ज्ञान से उन्होंने अपने स्वास्थ्य को चिरस्थाई रखते हुए आयु को भी दीर्घ कर लिया था।ऋषि भारद्वाज ही ऐसे पहले वैज्ञानिक ऋषि हैं जिन्होंने प्रयाग को बसाया था। प्रयाग में बार-बार यज्ञ - याग कराने की परंपरा ऋषि भारद्वाज द्वारा ही स्थापित की गई थी। इसी से इसका नाम प्रयाग हो गया था।
संसार की भलाई के लिए योगदान :-
ऋषि भारद्वाज के द्वारा ऐसे ही यज्ञ यागादि के कार्यक्रम संसार की भलाई के लिए किए जाते थे। दान आदि लेकर लोग दूर-दूर से चलकर उन यज्ञों में उपस्थित होते थे । उनकी सुगंधी से वायुमंडल शुद्ध होता था। जिससे प्राणी मात्र का कल्याण होता था। ऐसी पवित्र भावना को लेकर हमारे इस महान ऋषि के द्वारा उस समय धार्मिक और पुण्य कार्य करने की सतत प्रेरणा लोगों को दी जाती रही । जिससे लोगों में धर्म के प्रति अगाध श्रद्धा उत्पन्न हुई। ऋषि भारद्वाज के बाद जब उन जैसे महात्मा ऋषियों का अभाव हुआ तो कुछ तो उनके अभाव के कारण और कुछ लोगों की अंधश्रद्धा के कारण प्रयाग में जाकर लोग मुंडन संस्कार आदि न जाने कैसे-कैसे कार्य करवाने लगे। कालांतर में लोगों की इस श्रद्धा भावना का लाभ कुछ मक्कार लोगों ने उठाना आरंभ किया।
वृहदविमान-भाष्य :- 
यदि इस चतुर्युगी के त्रेता काल में रामचंद्र जी का जन्म हुआ था तो रामायण काल को बीते हुए लाखों वर्ष हो चुके हैं। यह हम भारतीयों के लिए बहुत ही गर्व और गौरव का विषय है कि उस समय भी हमारे यहां पर विमान हुआ करते थे। 'पुष्पक विमान' इसका उदाहरण है। उस समय ऋषि भारद्वाज जैसे वैज्ञानिक ऋषि विद्यमान थे। जिन्होंने 'वृहदविमान-भाष्य' की रचना कर उसमें विमान बनाने की सारी तकनीकी का उल्लेख किया है। ऋषि भारद्वाज जी के इसी ग्रंथ को पढ़कर मुंबई के रहने वाले बापूजी तलपदे ने आधुनिक विश्व में सबसे पहले विमान जैसी चीज का आविष्कार कर जब उसका प्रदर्शन अंग्रेजों के सामने किया तो अंग्रेजों ने उनसे इस तकनीक को छीनकर राइट ब्रदर्स को दे दिया। इतना ही में बापूजी तलपदे के हाथ भी कटवा दिये, जिससे कि वह आगे कभी इस प्रकार की चेष्टा ना कर सके।
         ऋषि भारद्वाज के विमान की विशेषता यह थी कि वह एक ही साथ जल, थल और नभ तीनों में उड़ान भर सकता था। यदि किसी कारण से जल में चलते हुए उसके पलटने या खराब होने या अन्य किसी प्रकार की कोई आपदा आ जाती थी तो वह ऐसी आपदा के आते ही कंप्यूटर जैसी तकनीक के माध्यम से स्वयं उड़ान भरने की स्थिति में आ जाता था और नभ मार्ग से उल्टा धरती पर आ जाता था। ऋषि भारद्वाज के वैज्ञानिक चिंतन की ऊंचाई तक वर्तमान भौतिक विज्ञान नहीं पहुंच सका है। ऋषि भारद्वाज के इस विमान शास्त्र में यात्री विमानों के साथ-साथ लड़ाकू विमान और स्पेस शटल यान का भी उल्लेख मिलता है। वर्तमान विश्व के वैज्ञानिक अभी जिन चीजों की कल्पना ही कर रहे हैं उन्हें ऋषि भारद्वाज ने अब से लाखों वर्ष पूर्व पूर्ण करके दिखाया था। उदाहरण के रूप में आज का वैज्ञानिक सोच रहा है कि एक ग्रह से दूसरे ग्रह पर उड़ान भरने की स्थिति पैदा की जाए, जिससे अनेक ग्रह सीधे पृथ्वी के साथ जुड़ सकें और उनकी खबर पृथ्वीवासियों को मिलती रहे। इस व्यवस्था को हमारे ऋषि भारद्वाज ने उस समय पूर्ण करके दिखाया था। ऋषि भारद्वाज के विमान शास्त्र को पढ़ने से पता चलता है कि उन्हें वायुयान को अदृश्य कर देने की तकनीक काफी ज्ञान था।
बुद्धि बड़ी ही उच्च थी, ह्रदय में पवित्र भाव थे।
कल्याणार्थ मनुष्य मात्र के थे काम करते चाव से।।
थे पूर्वज महान अपने, जिन पर हमको गर्व है।
हर कर्म उनका मनुजता का आज भी तो पर्व है।
विमान शास्त्र की रचना :–
ऋषि भारद्वाज ने विमान शास्त्र की रचना की थी इसका अर्थ होता है- पक्षियों के समान वेग होने के कारण इसे विमान कहते इस ग्रंथ में विमान चालक के लिए कई रहस्यों की जानकारी बताई गई है इन राशियों को जान लेने के बाद ही पायलट विमान चलाने का अधिकारी हो सकता है
श्री राम से मिलन :–
भारद्वाज ऋषि का श्री राम के साथ अनन्य अनुराग था वनवास के समय श्री राम इनके आश्रम में गए थे भारद्वाज ने श्री राम का बड़े प्रेम से सत्कार किया था श्रीराम ने इनसे रहने के लिए स्थान भी मांगा था तब इन्होंने अपना आश्रम ही लेने का अनुरोध किया था श्रीराम ने इनका आश्रम लेने के लिए मना कर दिया था श्रीराम द्वारा इस प्रस्ताव को नहीं मानने पर चित्रकूट में उनके लिए व्यवस्था की थी रावण का वध करने के बाद भी श्रीराम इनके पास आए थे श्रीराम ने प्रसन्न होकर इन को वरदान दिया था कि जिस मार्ग से गुजरोगे उस मार्ग से वृक्षों के फल फूल बसंत के मौसम की तरह खिल उठेंगे ऐसा कहते हैं जो द्वापरयुग में श्रीकृष्ण से भी इन की भेंट हुई थी।
ऋग्वेद के मंत्र दृष्टा:-
भरद्वाज ऋषि ऋग्वेद के छठे मंडल के दृष्टा जिन्होंने 765 मंत्र लिखे हैं। वैदिक ऋषियों में भरद्वाज ऋषि का अति उच्च स्थान है। ऋषि भरद्वाज के वंशज भारद्वाज कहलाते है। ऋषि भरद्वाज ने अनेक ग्रंथों की रचना की उनमें से यंत्र सर्वस्व और विमान शास्त्र की आज भी चर्चा होती है।
चरक ऋषि ने भरद्वाज को ‘अपरिमित’ कहा है। भरद्वाज ऋषि चंद्रवंशी काशी राज दिवोदास के पुरोहित थे। वे दिवोदास के पुत्र प्रतर्दन के भी पुरोहित थे और फिर प्रतर्दन के पुत्र क्षत्र का भी उन्हीं ने यज्ञ संपन्न कराया था। वनवास के समय प्रभु श्रीराम इनके आश्रम में गए थे, जो ऐतिहासिक दृष्टि से त्रेता-द्वापर का संधिकाल था।
ऋषि भरद्वाज के वंशज :-
ऋषि भरद्वाज के प्रमुख पुत्रों के नाम हैं- ऋजिष्वा, गर्ग, नर, पायु, वसु, शास, शिराम्बिठ, शुनहोत्र, सप्रथ और सुहोत्र। उनकी 2 पुत्रियां थी रात्रि और कशिपा। इस प्रकार ऋषि भारद्वाज की 12 संतानें थीं। सभी के नाम से अलग-अलग वंश चले। भरद्वाज गोत्र की वंशावली में अधिकतर उत्तर भारत के ब्राह्मण पाये जाते है, किन्तु कुछ स्थानों पर क्षत्रिय भी इस गोत्र में सम्मिलित है ।विन्ध्याचल पर्वत शृंखला के उत्तरीय भूभाग में ऋषि भरद्वाज से जो वंश परंपरा प्रारंभ हुआ वे सभी वंशज भारद्वाज गोत्रीय कहलाए।


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