कुलदेवी या कुलदेवता की पूजा करने का महत्व :-
ऐसी मान्यता है कि प्रत्येक परिवार या वंश का एक विशिष्ट दैवीय संबंध होता है जो पीढ़ियों के माध्यम से आगे बढ़ता है। किसी भी कुलदेवी या कुलदेवता को वंश के संरक्षक के रूप में देखा जाता है, जो उस कुल के सभी सदस्यों की रक्षा करते हैं। कुलदेवी या कुलदेवता की पूजा करने से परिवार में आशीर्वाद बना रहता है और समृद्धि आती है। कुल देवी और देवता का सम्मान करने और उनकी कृपा पाने से पूरे परिवार पर कृपा बनी रहती है। उनकी पूजा परिवार और परंपराओं को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। यह पूजा किसी विशेष वंश के सदस्यों के बीच सांस्कृतिक पहचान की भावना को मजबूत करती है। उनकी पूजा करने से परिवार के सदस्यों के बीच एकता और सामंजस्य बढ़ता है। यही नहीं यदि नव विवाहित जोड़े को कुल देवी और देवता के दर्शन कराए जाते हैं तो उनके रिश्ते में सदैव सामंजस्य बना रहता है।
कैसे की जाती है कुलदेवी या कुलदेवता की पूजा :-
कुलदेवी या कुलदेवता की पूजा करने की प्रथा अलग समुदायों में अलग होती है और सभी कुलों के देवी-देवता भी अलग होते हैं। किसी भी विवाह संस्कार में उन्हें आमंत्रित करना अनिवार्य माना जाता है और उनका आशीर्वाद लिया जाता है जिससे कुल की समृद्धि बनी रहे।उन्हें हमारे वंश का रक्षक माना जाता है, इसलिए ऐसा कहा जाता है कि बच्चे के जन्म के बाद उसे दर्शन के लिए जरूर ले जाना चाहिए जिससे उसकी सेहत हमेशा अच्छी बनी रहे और जीवन में कोई समस्या न आए।
क्यों होते हैं कुलदेवी या कुलदेवता:-
कुलदेवी एक शब्द है जो हिंदी में 'कुला' यानी खानदान और 'देवी' से मिलकर बना है। दरअसल कुलदेवी वो देवी हैं जो किसी विशेष खानदान या कुल की आदि देवी होती हैं। उन कुलदेवी की उपासना करते समय उनकी मूर्ति या पिंडी की पूजा की जाती है। वहीं कुलदेवता को उस कुल के देवता के रूप में पूजा जाता है। जिन्हें उस कुल का आदि देवता माना जाता है। कुलदेवी और कुलदेवता को पारंपरिक रूप से पूजा के लिए आदर्श माना जाता है और इनकी उपासना में विशेष महत्व दिया जाता है। ये परंपरा, पारिवारिक जीवन और सांस्कृतिक पहचान के अहम उसके रूप में प्रतिष्ठित होती है।
पूर्वजों ने किया है कुलदेवी और कुलदेवता का निर्धारण:-
किसी भी कुल के देवी या देवता का निर्धारण हमारे पूर्वजों के समय से चला आ रहा है। उस समय उनके इस चुनाव का उद्देश्य था की उनके माध्यम से कुल के सभी लोग अपना संदेश ईश्वर रक् पहुंचाएंगे पूर्वजों ने उपयुक्त कुलदेवता या कुलदेवी या परिवार के देवता को चुना था और उनकी पूजा करने की प्रथा शुरू की थी।
कुलदेवी या देवता की पूजा के बिना शुभ अवसर को अधूरा माना जाता है
कुलदेवी या कुलदेवता को परिवार या कुल का रक्षक माना जाता है और उनके आह्वाहन के बिना किसी भी शुभ अवसर को पूर्ण नहीं माना जाता है। ऐसी मान्यता है कि कुलदेवी या कुलदेवता यदि किसी वजह से नाराज हो जाते हैं तो परिवार पर संकट आने लगते हैं और बनते काम भी बिगड़ सकते हैं। कुलदेवी या देवता का हिन्दू धर्म शास्त्रों में भी महत्व बताया गया है और उनकी पूजा से घर की समृद्धि बनी रहती है।
पितृदेवों की भी पूजा :-
इसके अलावा पितृदेवों को भी हम आदर के साथ ही देखते व पूजते हैं। भारतीय लोग हजारों वर्षों से अपने कुलदेवी और देवता की पूजा करते आ रहे हैं। जन्म, विवाह आदि मांगलिक कार्यों में कुलदेवी या देवताओं के स्थान पर जाकर उनकी पूजा की जाती है या उनके नाम से स्तुति की जाती है। इसके अलावा एक ऐसा भी दिन होता है जबकि संबंधित कुल के लोग अपने देवी और देवता के स्थान पर इकट्ठा होकर कुछ रस्म रिवाज भी करते हैं।
पारिवारिक संस्कारों के प्रति संवेदनशीलता :-
कुलदेवता या देवी सम्बंधित व्यक्ति के पारिवारिक संस्कारों के प्रति संवेदनशील होते हैं और पूजा पद्धति, उलटफेर, विधर्मीय क्रियाओं अथवा पूजाओं से रुष्ट हो सकते हैं, सामान्यतया इनकी पूजा वर्ष में एक बार अथवा दो बार निश्चित समय पर होती है, यह परिवार के अनुसार भिन्न समय होता है और भिन्न विशिष्ट पद्धति होती है, शादी - विवाह, संतानोत्पत्ति आदि होने पर इन्हें विशिष्ट पूजाएँ भी दी जाती हैं, यदि यह सब बंद हो जाए तो या तो यह नाराज होते हैं या कोई मतलब न रख मूकदर्शक हो जाते हैं और परिवार बिना किसी सुरक्षा आवरण के पारलौकिक शक्तियों के लिए खुल जाता है, परिवार में विभिन्न तरह की परेशानियां शुरू हो जाती हैं। अतः प्रत्येक व्यक्ति और परिवार को अपने कुल देवता या देवी को जानना चाहिए तथा यथायोग्य उन्हें पूजा प्रदान करनी चाहिए, जिससे परिवार की सुरक्षा - उन्नति होती रहे। अक्सर कुलदेवी, देवता और इष्ट देवी देवता एक ही हो सकते है, इनकी उपासना भी सहज और तामझाम से परे होती है। जैसे नियमित दीप व् अगरबत्ती जलाकर देवो का नाम पुकारना या याद करना, विशिष्ट दिनों में विशेष पूजा करना, घर में कोई पकवान आदि बनाए तो पहले उन्हें अर्पित करना फिर घर के लोग खाए, हर मांगलिक कार्य या शुभ कार्य में उन्हें निमन्त्रण देना या आज्ञा मांगकर कार्य करना आदि।
कुल या वंश की रक्षा :-
कुलदेवी या देवता कुल या वंश के रक्षक देवी-देवता होते हैं। ये घर-परिवार या वंश-परंपरा के प्रथम पूज्य तथा मूल अधिकारी देव होते हैं। इनकी गणना हमारे घर के बुजुर्ग सदस्यों जैसी होती है। अतः प्रत्येक कार्य में इन्हें याद करना जरूरी होता है। इनका प्रभाव इतना महत्वपूर्ण होता है कि यदि ये रुष्ट हो जाएं तो हनुमानजी या दुर्गाजी के अलावा अन्य कोई देवी या देवता इनके दुष्प्रभाव या हानि को कम नहीं कर सकता या रोक नहीं लगा सकता। इसे यूं समझें कि यदि घर का मुखिया पिताजी या माताजी आपसे नाराज हों, तो पड़ोस के या बाहर का कोई भी आपके भले के लिए आपके घर में प्रवेश नहीं कर सकता, क्योंकि वे बाहरी होते हैं। एसे अनेक परिवार हैं जिन्हें अपने कुलदेवी या देवता के बारे में कुछ भी नहीं मालूम है। ऐसा इसलिए कि उन्होंने कुलदेवी या देवताओं के स्थान पर जाना ही नहीं छोड़ा बल्कि उनकी पूजा भी बंद कर दी है। लेकिन उनके पूर्वज और उनके देवता उन्हें बराबर देख रहे होते हैं। यदि किसी को अपने कुलदेवी और देवताओं के बारे में नहीं मालूम है, तो उन्हें अपने बड़े-बुजुर्गों, रिश्तेदारों या पंडितों से पूछकर इसकी जानकारी लेनी चाहिए। यह जानने की कोशिश करनी चाहिए कि झडूला, मुंडन संस्कार आपके गोत्र परंपरानुसार कहां होता है या जात कहां दी जाती है। विवाह के बाद एक अंतिम फेरा (5, 6, 7वां) कहां होता है? कहते हैं कि कालांतर में परिवारों के एक स्थान से दूसरे स्थानों पर स्थानांतरित होने, धर्म परिवर्तन करने, आक्रांताओं के भय से विस्थापित होने, जानकार व्यक्ति के असमय मृत होने, संस्कारों का क्षय होने, विजातीयता पनपने, पाश्चात्य मानसिकता के पनपने और नए विचारों के आने से या संतों की संगत के ज्ञानभ्रम में उलझकर लोग अपने कुल खानदान के कुलदेवी और देवताओं को भूलकर अपने वंश का इतिहास भी भूल जाते हैं। एसा भी देखने में आया है कि कुल देवी-देवता की पूजा छोड़ने के बाद कुछ वर्षों तक तो कोई खास परिवर्तन नहीं होता, लेकिन जब देवताओं का सुरक्षा चक्र हटता है तो परिवार में घटनाओं और दुर्घटनाओं का दौर शुरू हो जाता है, उन्नति रुकने लगती है, गृह कलह, उपद्रव व अशांति आदि शुरू हो जाती हैं। आगे वंश नहीं चल पाता है।
कुल देवी मंदिर का विधान:-
हजारों वर्षों से अपने कुल को संगठित करने और उसके इतिहास को संरक्षित करने के लिए ही कुलदेवी और देवताओं को एक निश्चित स्थान पर नियुक्त किया जाता था। वह स्थान उस वंश या कुल के लोगों का मूल स्थान होता था। उदाहरणार्थ किसी के परदादा के परदादा ने किसी दौर में कहीं से किसी भी कारणवश पलायन करके जब किसी दूसरी जगह रैन-बसेरा बसाया तो निश्चित ही उन्होंने वहां पर एक छोटा सा मंदिर बनाते हैं। जहां पर वह अपने कुलदेवी और देवता की मूर्तियां रखते हैं। यही मूर्तियां व परम्परायें उस कबीले को एक सूत्र में बांध रखने में सहायक हुई हैं। यह उस दौर की बात है, जब लोगों को आक्रांताओं से बचने के लिए एक शहर से दूसरे शहर या एक राज्य से दूसरे राज्य में पलायन करते थे। ऐसे में वे अपने साथ अपने कुल और जाति के लोगों को संगठित और बचाए रखने के लिए वे एक जगह ऐसा मंदिर बनाते थे, जहां पर कि उनके कुल के बिखरे हुए लोग इकट्टा हो सकें। पहले मंदिर या तीर्थ स्थान से जुड़े व्यक्ति के पास एक बड़ी-सी पोथी होती थी जिसमें वह उन लोगों के नाम, पते और गोत्र दर्ज करते थे, जो आकर दर्ज करवाते थे। इस तरह एक ही कुल के लोगों का एक डाटा तैयार हो जाता था। यह कार्य वैसा ही था, जैसा कि गंगा किनारे बैठा तीर्थ पुरोहित या पंडे आपके कुल और गोत्र का नाम दर्ज करते हैं। हमको अपने परदादा के परदादा का नाम नहीं मालूम होगा लेकिन उन तीर्थ पुरोहित के पास हमारे पूर्वजों के नाम लिखे होते हैं। इस प्रकार के रिकार्ड इतिहास लेखन में सहायक होता है। इसी तरह कुलदेवी और देवता हमको हमारे पूर्वजों से ही नहीं जोड़ते बल्कि वह वर्तमान में जिंदा हमारे कुल खानदान के हजारों अनजान लोगों से भी मिलने का जरिया भी बनते हैं। इसीलिए कुलदेवी और कुल देवता को पूजने का व्यापक महत्व है। इससे हम अपने वंशवृक्ष से जुड़े रहते हैं। हमारे पूर्वज हमको कहीं न कहीं से देख रहे होते हैं। उन्हें यह देखकर अच्छा लगता है और वे हमें ढेर सारे आशीर्वाद देते रहते हैं।
गोत्र से कुल देवियों की जानकारी संभव :-
प्रत्येक हिन्दू परिवार किसी न किसी देवी, देवता या ऋषि के वंशज से संबंधित है। उसके गोत्र से यह पता चलता है कि वह किस वंश से संबधित है। मान लीजिए किसी व्यक्ति का गोत्र भारद्वाज है तो वह भारद्वाज ऋषि की संतान है। कालांतर में भारद्वाज के कुल में ही आगे चलकर कोई व्यक्ति हुआ और उसने अपने नाम से कुल चलाया, तो उस कुल को उस नाम से लोग जानने लगे। इस तरह हमें भारद्वाज गोत्र के लोग सभी जाति और समाज में मिल जाएंगे। इसी प्रकार अन्य गोत्र की स्थिति भी मिलती है। हर जाति वर्ग, किसी न किसी ऋषि की संतान होती है और उन मूल ऋषि से उत्पन्न संतान के लिए वे ऋषि या ऋषि पत्नी कुलदेव व कुलदेवी के रूप में पूज्य हैं। इसके अलावा किसी कुल के पूर्वजों के खानदान के वरिष्ठों ने अपने लिए उपयुक्त कुल देवता अथवा कुलदेवी का चुनाव कर उन्हें पूजित करना शुरू किया है और उसके लिए एक निश्चित जगह एक मंदिर बनवाया है ताकि एक आध्यात्मिक और पारलौकिक शक्ति से उनका कुल जुड़ा रहता है और वहां से उसकी रक्षा होती है।
सुरक्षा आवरण:-
कुल देवता या देवी हमारे वह सुरक्षा आवरण हैं जो किसी भी बाहरी बाधा, नकारात्मक ऊर्जा के परिवार में अथवा व्यक्ति पर प्रवेश से पहले सर्वप्रथम उससे संघर्ष करते हैं और उसे रोकते हैं, यह पारिवारिक संस्कारों और नैतिक आचरण के प्रति भी समय समय पर सचेत करते रहते हैं, यही किसी भी ईष्ट को दी जाने वाली पूजा को इष्ट तक पहुचाते हैं, यदि इन्हें पूजा नहीं मिल रही होती है तो यह नाराज भी हो सकते हैं और निर्लिप्त भी हो सकते हैं, ऐसे में आप किसी भी इष्ट की आराधना करे वह उस इष्ट तक नहीं पहुँचता, क्योकि सेतु कार्य करना बंद कर देता है, बाहरी बाधाये, अभिचार आदि, नकारात्मक ऊर्जा बिना बाधा व्यक्ति तक पहुचने लगती है, कभी कभी व्यक्ति या परिवारों द्वारा दी जा रही इष्ट की पूजा कोई अन्य बाहरी वायव्य शक्ति लेने लगती है, अर्थात पूजा न इष्ट तक जाती है न उसका लाभ मिलता है। ऐसा कुलदेवता की निर्लिप्तता अथवा उनके कम शशक्त होने से होता है। कुलदेव परम्परा भी लुप्तप्राय हो गयी है, जिन घरो में प्रायरू कलह रहती है, वंशावली आगे नही बढ रही है, निर्वंशी हो रहे हों, आर्थिक उन्नति नही हो रही है, विकृत संताने हो रही हो अथवा अकाल मौते हो रही हो, उन परिवारों में विशेष ध्यान देना चाहिए। धर्म या पंथ बदलने सके साथ साथ यदि कुलदेवी - देवता का भी त्याग कर दिया तो जीवन में अनेक कष्टों का सामना करना पद सकता है जैसे धन नाश, दरिद्रता, बीमारिया, दुर्घटना, गृह कलह, अकाल मौते आदि। वही इन उपास्य देवो की वजह से दुर्घटना बीमारी आदि से सुरक्षा होते हुवे भी देखा। किसी महिला का विवाह होने के बाद ससुराल की कुलदेवी देवता ही उसके उपास्य हो जायेंगे न की मायके के। इसी प्रकार कोई बालक किसी अन्य परिवार में गोद में चला जाए तो गोद गये परिवार के कुल देव उपास्य होंगे। प्रत्येक व्यक्ति और परिवार को अपने कुल देवता या देवी को जानना चाहिए तथा यथायोग्य उन्हें पूजा प्रदान करनी चाहिए, जिससे परिवार की सुरक्षा -उन्नति होती रहे कुलदेवी देवता की उपासना इष्ट देवी देवता की तरह रोजाना करना चाहिये। देव उपासना देव आवाहन। आवाहन की मूल भावना होता है - सामने या पास लाना। इस क्रिया द्वारा भगवान या इष्ट को आमंत्रित कर साक्षात उपस्थित होने की प्रार्थना की जाती है। इस प्रार्थना में देवताओं को संदेश दिया जाता है कि वह अपनी सारी शक्तियों के साथ आकर देव प्रतिमा में वास करें और आत्म व आध्यात्मिक बल प्रदान करें। इस तरह देव आवाहन में सत्कार के भाव मन में वैसी ही खुशी और शांति देते हैं, जैसे घर आए किसी प्रियजन का स्वागत-सत्कार कर हम महसूस करते हैं। आवाहन की क्रिया से भक्त भगवान के प्रति समर्पण और आस्था प्रकट करता है। यही नहीं इससे भक्त के मन में यह भरोसा पैदा होता है कि देवालय में देव शक्ति प्रवेश कर चुकी है। इस तरह भक्त का मन पूरी एकाग्रता और आनंद से देव पूजा में लगा रहता है। देव आवाहन के लिए शास्त्रों में मंत्र बताया गया है। जिसके द्वारा सारे देवी-देवताओं को प्रेम और आस्था के साथ पुकारा जाता है। जानिए, हैं यह देव आवाहन मंत्र-
आगच्छ भगवन्देव स्थाने चात्र स्थिरो भव।
यावत्पूजां करिष्यामि तावत्वं सन्निधौ भव।।
Also published in
Newspuran.com 29 april 2020
मेरा नाम संदीप कुमार दुबे (सरार) है भारतद्वाज गोत्र कृपया कुल देवी और देवता बताने की कृपा करे.ksandeep064@gmail.com
ReplyDeleteदेर से जबाब के लिए खेद है । आप ki kuldevi Bindukani/shrimata aur kul dev shiv ji/ Rudra hain.
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