विलक्षण गुरु परंपरा :-
संत शिरोमणि रामानंदाचार्य के शिष्यों की वास्तविक संख्या कितनी थी, इसके सम्बन्ध में कोई निश्चित मत स्थापति नहीं किया जा सकता। सहज अनुमान किया जा सकता है कि इस युग प्रवर्तक विभूति के शिष्यों की संख्या अत्यधिक रही होगी। भारत भ्रमण के समय में स्थान-स्थान पर लोग उनके व्यक्तित्व एवं उपदेशों से प्रभावित होकर उन्हें अपना गुरु मानने लगे होंगे। फिर भी उनके 12 प्रमुख शिष्यों का उल्लेख कई स्रोतों से मिलता है। इन शिष्यों के बारे में एक दोहा भी कहा जाता है-
अनतानन्द, कबीर, सुखा, सुरसुरा, पद्मावती, नरहरि।
पीपा, भावानन्द, रैदासु, धना, सेन, सुरसरि की धरहरि।
(अर्थात्- अनंतानंद, कबीर, सुखानंद, सुरसुरानंद, पद्मावति, नरहरि, पीपा, भावानंद, रैदास, धन्ना, सेन तथा सुरसुरानंद की धर्मपत्नी आदि प्रमुख शिष्य थे)
संवत् 1532 अर्थात सन् 1476 में आद्य जगद्गुरु रामानंदाचार्य जी ने अपनी देह छोड़ दी। उनके देह त्याग के बाद से वैष्ण्व पंथियों में जगद्गुरु रामानंदाचार्य पद पर 'रामानंदाचार्य' की पदवी को आसीन किया जाने लगा।
रामानंदाचार्य के शिष्यों में से कबीर, पीपा तथा रैदास कवि थे। इन्हें मध्य युगीन भक्ति काल में संत कवि की प्रतिष्ठा प्राप्त है। कवि होने के कारण इन संतों की महिमा काल व लोक की सीमाओं को पार करके दूर दूर तक प्रकाशित हुई। नाभादास कृत भक्तमाल में रामानंदाचार्य के शिष्य का संक्षिप्त वर्णन मिलता है।
अनंतानंद जी महराज:-
रामानंद संप्रदाय के ग्रंथों में इनका नाम अत्यंत आदर से लिया जाता है। इन्हें भी अपने गुरु के ही समान जगद्गृरु कहकर संबोधित किया गया है। अनंतानंद जी, को ब्रह्मा जी का अवतार कहा जाता है। नाभादास ने भक्तमाल में लिखा है-
अनंतानंद पद परिस कै लोकपाल से ते भए।
अर्थात् अनंतानंद के शिष्य अपने गुरु के चरणों का स्पर्श करके लोकपालों के समान शक्तिशाली हो गये। अनंतानंद के बचपन का नाम छन्नूलाल था। आप अयोध्या के पास राम रेखा नदी के तट पर महेशपुर गांव में पैदा हुए थे। शिक्षा दीक्षा काशी में हुई और वहीं बस गए थे। अनंतानंद के पिता जी पंडित विश्वनाथमणि त्रिपाठी सनाढ्य ब्रह्मण थे। अयोध्या और रामायण के प्रति निष्ठा के कर उन्हे अवधू पंडित कहा जाता है। वे सरस्वती के भक्त थे,जिनके आशीर्वाद से उन्हें संवत 1363 विक्रमी के कार्तिक पूर्णिमा को अनंतानंद नामक पुत्र उत्पन्न हुआ था। जन्म उपरांत पहले माता जी और बाद में पिता जी की मृत्यु हो गई थी। अब पिता अवधू पंडित के ग्वाल यजमानों के बच्चों के साथ वे वन में गाय चराया करते थे। गाय चराते दिव्य वंशी की धुन सुनकर आप संवरू नामक बालक से उनकी घनिष्ठता बढ़ गई। एक दिन सांवला सलोना बालक वंशी वादन कर रहा था। आपकी उससे मित्रता हो गई। उससे मिलना आपका नित्य कर्म हो गया। उससे ना मिलने पर आप में बेचैनी महसूस होने लगी । एक दिन वह बालक भगवान श्री कृष्ण जी के रूप में उन्हें आंख बन्द कराकर गोवर्धन पर्वत के विविध लीलाओं का दर्शन कराया था। उन्हें ब्रह्म का ज्ञान मिला और उनकी भाव समाधि लग गई। बाद में श्याम किशोर नामक ब्राह्मण भक्त ने उनका पुत्रवत लालन पालन किया। वे उन्हें काशी ले गए और वहीं बस गए। वहां अनुकूल स्थिति में वे पढ़कर प्रतिष्ठित विद्वान बन गए।
एक बार काशी विश्वनाथ मंदिर में वे जागरण कर रहे थे जहां स्वामी रामानन्द जी महाराज की दिव्य ध्वनि उन्हें सुनाई दी और उस आकर्षण में आकर वे रामानंद जी से शिष्य बन दीक्षा ली और फिर अपने घर लौट कर नही आए। गुरु जी ने उनका अनंतानंद नाम रख दिया। गुरु और आश्रम की सेवा कर वे महान संत बन गए । अनंतानंद ने ‘‘श्री हरि भक्ति सिंधु - वेला’’ नामक ग्रंथ की रचना की।
भक्त माल के अनुसार अनंतानंद के शिष्य का नाम योगानंद, गयेश जी,कर्म चन्द जी, अल्लह जी, पयहारी
जी, राम दास जी, श्री रंग जी और नरहरि दास आदि थे।
सभी भक्ति की वर्षा करने वाले थे। अनंतानंद के शिष्य कृष्णदास पयहारी हुए जिन्होंने जयपुर के निकट गलता नामक स्थान पर रामानंद संप्रदाय की गद्दी स्थापित की। रामानंद और उनके शिष्यों द्वारा प्रचारित राम-भक्ति के ही वातावरण मं रामकथा के श्रेष्ठ हिंदी गायक तुलसीदास का आविर्भाव हुआ। श्री अनंतानंद और उनके शिष्य गणों ने श्री राम चंद्र और श्री कृष्ण के निर्मल यशोगान करके पवित्र कीर्ति रूपी धन का संग्रह किया है। अनंतानंद जी भक्ति रूपी समुद्र की मर्यादा थे। पद्मजा जी श्री जानकी ने आप के शिर पर अपना वरद हस्त रख कर आशीर्वाद दिया था।
श्री रामानंदाचार्य के साकेतवासी होने पर अनंतानंद को ही वैष्णवाचार्य के पीठ पर अभिषिक्त किया गया था किंतु गुरु विरह को सहन नहीं कर पाने के कारण एक वर्ष बाद ही वे अपने वरिष्ठ शिष्य कृष्णदासजी को आचार्य पीठ पर अभिषिक्त करके स्वयं स्वच्छंद परिभ्रमण के लिये निकल पड़े। मान्यता है कि उन्होंने 113 वर्ष की आयु में साकेत गमन किया। अनंतानंद के शिष्य अपने गुरु के चरणों का स्पर्श करके लोकपालों के समान शक्तिशाली हो गये। (भक्तमल पद्य संख्या 37)
शिष्य कृष्णदास पयहारी जी :-
अनंतानंदजी के शिष्य कृष्णदास पयहारी हुए जिन्होंने गलता (अजमेर राज्य, राजपूताना) में रामानंद संप्रदाय की गद्दी स्थापित की। यही पहली और सबसे प्रधान गद्दी हुई। रामानुज संप्रदाय के लिए दक्षिण में जो महत्व तोताद्रि का था वही महत्व रामानंद संप्रदाय के लिए उत्तर भारत में गलता को प्राप्त हुआ। यह 'उत्तर तोताद्रि' कहलाया। कृष्णदास पयहारी राजपूताने की ओर के दाहिमा (दाधीच्य) ब्राह्मण थे। जैसा कि आदिकाल के अंतर्गत दिखाया जा चुका है, भक्ति आंदोलन के पूर्व देश में विशेषत: राजपूताने में नाथपंथी कनफटे योगियों का बहुत प्रभाव था जो अपनी सिद्धि की धाक जनता पर जमाए रहते थे। जब सीधे सादे वैष्णव भक्तिमार्ग का आंदोलन देश में चला तब उसके प्रति दुर्भाव रखना उनके लिए स्वाभाविक था। कृष्णदास पयहारी जब पहले पहल गलता पहुँचे, तब वहाँ की गद्दी नाथपंथी योगियों के अधिकार में थी। वे रात भर टिकने के विचार से वहीं धूनी लगाकर बैठ गए। पर कनफटों ने उन्हें उठा दिया। ऐसा प्रसिद्ध है कि इस पर पयहारीजी ने भी अपनी सिद्धि दिखाई और वे धूनी की आग एक कपड़े में उठाकर दूसरी जगह जा बैठे। यह देख योगियों का महंत बाघ बनकर उनकी ओर झपटा। इस पर पयहारीजी के मुँह से निकला कि 'तू कैसा गदहा है?' वह महंत तुरंत गदहा हो गया और कनफटों की मुद्राएँ उनके कानों से निकल निकलकर पयहारीजी के सामने इकट्ठी हो गईं। आमेर के राजा पृथ्वीराज के बहुत प्रार्थना करने पर महंत फिर आदमी बनाया गया। उसी समय राजा पयहारीजी के शिष्य हो गए और गलता की गद्दी पर रामानंदी वैष्णवों का अधिकार हुआ।
डॉ. राधे श्याम द्विवेदी
(लेखक सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद पर कार्य कर चुके हैं। वर्तमान में साहित्य, इतिहास, पुरातत्व और अध्यात्म विषयों पर अपने विचार व्यक्त करते रहते हैं।)
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