बशीर बद्र की एक ग़ज़ल 'लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में.' पढ़ने को मिला। प्रतीत होता है बुलडोजर द्वारा अवांछित सरचनाओं के धवस्तीकरण को इंगित करते हुए भी यह प्रस्तुति आई है। एक कवि हृदय एक क्रिया पर अपनी प्रतिक्रिया देने से अपने को रोक नहीं सका। हमने कुछ तब्दीली करके कुछ पंक्तियां ज़बाब के तौर पर तैयार की है। इसे आप सब की खिदमत में पेश कर रहा हूं। पहले बद्र साहब का नगमा दिया जा रहा है बाद में अपना कलाम पेश कर रहा हूं। दोनों में अंतर साफ नज़र आएगा। अलग अलग जमाने और परिस्थितियों की झलक भी देखने को मिलेगी। बद्र साहब की शक्सियत का सम्मान के साथ कद्र करते हुए मैं अपनी बातें क्षमा याचना सहित पेश कर रहा हूं।
बद्र साहब की मूल ग़ज़ल
लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में
तुम तरस नहीं खाते बस्तियाँ जलाने में
और जाम टूटेंगे इस शराब-ख़ाने में
मौसमों के आने में मौसमों के जाने में
हर धड़कते पत्थर को लोग दिल समझते हैं
उम्रें बीत जाती हैं दिल को दिल बनाने में
फ़ाख़्ता की मजबूरी ये भी कह नहीं सकती
कौन साँप रखता है उस के आशियाने में
दूसरी कोई लड़की ज़िंदगी में आएगी
कितनी देर लगती है उस को भूल जाने में।
English version
Bashir Badra’s words are quite relevant in the present day world, he says that —
People break down in making just one residence
And you are busy in burning the settlements
More Glass of wines are going to break in this tavern
While coming and going of the seasons
People consider heart to every throbbing stone
Ages get invested in making heart a heart actually
The dove was helpless to ask that
Who brings snake to her nests?
हमारी प्रतिक्रिया
सदियां गुज़र जाती है एक देश को संवारने में
कुछ सिरफिरे लगे हैं इसे खाक में मिलाने में।
जाम के टूट ने इस देश को बरबाद किया
मौसम के मौज ने इस का काम तमाम किया।
पत्थर नदी पेड़ पौधों में उसका बास होता है
सदियां बीत जाती है इस सच को जानने में।
दुनियां को एक परिवार का हमने जो दर्जा दिया
हमारी दिलेरी को हमें काफिर का दर्जा मिला।
लडकियां मां बेटी देवी आदमी से बड़ी मानी गई
सात जन्मों ही क्या जन्म जन्म से जुड़ी होती है ।।
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