Sunday, January 23, 2022

बारह वसिष्टों की वसिष्ठ - व्यास परंपरा (भगवत प्रसंग -3)

 बारह वसिष्ठों की वसिष्ठ - व्यास परंपरा (भगवत प्रसंग -3)
आचार्य डा. राधे श्याम द्विवेदी
           ब्रह्मा जी सृष्टि के सूत्रधार रहे। उन्होने चारों वेदों- वेदांग एवम छब्बीस ऋषियों मुनियों की उत्पत्ति की है। इनके नाम हैं -- नारद, क्रतु, अरुण,रुचि,रुद्र, सनक, सनातन, सनंदन, सनतकुमार, मनु, अत्रि, पुलस्त्य, पुलह, मरीचि, भृगु, अंगिरा, ऋतु, वसिष्ठ, वोढू या वोध्य,कपिल, आसुरी, कवि, शंकु, पंचशिख, प्राचेतस और दक्ष प्रजापति इत्यादि। इनमें वसिष्ठ का स्थान भी कम महत्व पूर्ण नहीं है।
          महर्षि -मुनि वसिष्ठ की उत्पत्ति का वर्णन पुराणों में विभिन्न रूपों में प्राप्त होता है। वह परमपिता ब्रह्मा के पुत्र एवं सातवें सप्तर्षि कहे जाते हैं। इनकी उत्पत्ति ब्रह्मदेव की प्राण वायु से हुई बताई जाती है। महर्षि वशिष्ठ को ऋग्वेद के 7 वें मण्डल का लेखक और अधिपति माना जाता है। ऋग्वेद में कई जगह, विशेषकर 10 वें मण्डल में महर्षि वशिष्ठ एवं उनके परिवार के विषय में बहुत कुछ लिखा गया है। इसके अतिरिक्त अग्नि पुराण एवं पुराण में भी उनका विस्तृत वर्णन है। वशिष्ठ वैदिक काल के विख्यात ऋषि, ब्रह्मा के मानस पुत्र और सप्तऋषियों में से एक है। 
        वसिष्ठ के बारे में जितनी तरह की कथाएं और विवरण हमें मिलती है वे सभी एक वसिष्ठ के लिए नहीं है, अलग-अलग वसिष्ठों के लिए हैं। यानी वसिष्ठ वंश में पैदा हुए अलग-अलग मुनि-वसिष्ठों के हैं। वसिष्ठ एक जातिवाची नाम है आजकल भी जातिवादी नाम पीढ़ी दर पीढ़ी व्यक्तियों के साथ जुड़ा रहकर चलता रहता है। वैसी ही परम्परा पुराने काल से चलती आ रही है। पौराणिक उल्लेख -वेद, इतिहास व पुराणों में वसिष्ठ के अनगिनत कार्यों का उल्लेख किया गया है।
वशिष्ठ शब्द का अर्थ क्या है
वशिष्ठ, यह नाम वसु, शब्द से आया है, जिसका अर्थ है कुबेर, अर्थात धन, तथा समृद्धि। चूंकि ऋषि वशिष्ठ के पास कामधेनु नामक एक चमत्कारी तथा दैवीय शक्तियों से युक्त गाय थी, जो कि उनके नाम के अर्थ को साकार करती थी। इसके अलावा वशिष्ठ का अर्थ यह भी बताया गया है कि ऐसा व्यक्ति जो सभी वस्तुओं पर नियंत्रण रखता है। वसिष्ठ का अर्थ है- सबसे प्रकाशवान, सबसे उत्कृष्ट, सबमें श्रेष्ठ और महिमावंत। वसिष्ठ मूलतः ‘वस’ शब्द से बना है जिसका अर्थ – रहना, निवास, प्रवास, वासी आदि होता है । इसी आधार पर ‘वस’ शब्द से वास का अर्थ निकलता है। वरिष्ठ, गरिष्ठ, ज्येष्ठ, कनिष्ठ आदि में जिस ष्ठ का प्रयोग है, उसका अर्थ – सबसे ज्यादा यानी सर्वाधिक बड़ा होता है। ‘वसिष्ठ’ का अर्थ सर्वाधिक पुराना निवासी होता है। महर्षि वशिष्ठ का तपस्या स्थल को वशिष्ठ कहा गया है। वशिष्ठ नाम से कई ऋषि हो गए हैं। वशिष्ठ ऋषि की संपूर्ण जानकारी वायु, ब्रह्मांड एवं लिंग पुराण में मिलती है। वशिष्ठ कुल ऋषियों एवं गोत्रकारों की नामावली मत्स्य पुराण में दर्ज है। सब मिलाकर पुराणों में बारह वशिष्ठों का उल्लेख मिलता है।वेदव्यास की तरह वशिष्ठ भी एक परंपरागत पद हुआ करता था।
प्रथम जन्म में आद्य वसिष्ठ:-
हिमालय में ही रहते थे और जिनके नाम का ठीक-ठीक पता नहीं था, को खतरा महसूस हुआ कि इतना शक्तिशाली और ऐश्वर्य सम्पन्न राजा उन्मत्त हो सकता है।राजदंड कहीं उन्मत्त और आक्रामक न हो जाए, इसलिए उस पर नियंत्रण आवश्यक है। ऐसे राजदंड पर नियंत्रण करने के लिए कोई बड़ा राजदंड काम नहीं आ सकता था, बल्कि ज्ञान का, त्याग का,अपरिग्रह का, वैराग्य का, अंहकार-हीनता का ब्रह्मदण्ड ही राजदंड को नियमित और नियंत्रित कर सकता था। वसिष्ठ के अलावा यह काम और किसी के वश का नहीं था। यह वसिष्ठ ने अपने आचरण से ही आगे चलकर सिद्ध कर दिया। एक बड़े विचार या आदर्श की स्थापना जितनी मुश्किल होती है, उससे कहीं ज्यादा मुश्किल उस पर आचरण होता है। अगर वसिष्ठों का खूब सम्मान इस देश की परम्परा में है तो जाहिर है कि इस आदर्श का पालन करने में वसिष्ठों ने अनेक कष्ट भी सहे होंगे। कुछ कष्ट हमारे इतिहास में भी दर्ज हैं। प्रथम जन्म में वे ब्रह्मा के मानस पुत्र कहे गये हैं। जो ब्रहमा के सांस (प्राण) से उत्पन्न हुए हैं। वशिष्ठ ब्रह्मा के नाम से ही कुल परंपरा का प्रारंभ हुआ तो आगे चलकर उनके कुल के अन्य वेदज्ञों लोगों ने भी अपना नाम वशिष्ठ रखकर उनके कुल की प्रतिष्ठा को बरकरार रखा। पहले वशिष्ठ की मुख्यत: दो पत्नियां थीं। पहली अरुंधती और दूसरी उर्जा। उर्जा प्रजापति दक्ष की तो अरुंधती कर्दम ऋषि की कन्या थी। प्रारंभिक वशिष्ठ शंकर भगवान के साढू तथा सतीदेवी के बहनोई थे। वशिष्ठ ने ही श्राद्धदेव मनु (वैवस्तवत मनु) को परामर्श देकर उनका राज्य उनके पुत्रों को बटवाकर दिलाया था। 
          वशिष्ठ का कामधेनु और सूर्यवंश की पुरोहिताई के कारण ऋषि विश्वामित्र से झगड़ा हुआ था। ब्रह्मा के मानसपुत्रों में जिन्होंने गृहस्थ धर्म को अपनाया उनमे से एक ये भी हैं। अपनी पत्नी अरुंधति के साथ महर्षि वशिष्ठ एक आदर्श, श्रेष्ठ एवं उत्तम गृहस्थ जीवन का उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। गऊओं में श्रेष्ठ कामधेनु एवं उनकी पुत्री नंदिनी इन्ही की क्षत्रछाया में सुखपूर्वक रहती हैं। इसी कामधेनु गाय के लिए इनमे और महर्षि विश्वामित्र में विवाद हुआ और विश्वामित्र महर्षि वशिष्ठ के चिर प्रतिद्वंदी बन गए। किन्तु अंततः महर्षि वशिष्ठ की महानता के आगे राजर्षि विश्वामित्र को झुकना पड़ा। 
            प्रथम जन्म के वसिष्ठ की मृत्यु दक्ष के यज्ञ कुण्ड में हुई थी। माना जाने लगा कि वसिष्ठ जैसा महान व्यक्ति सामान्य मनुष्य तो हो नहीं सकता। उसे तो लोकोत्तर होना चाहिए। इसलिए उन्हें ब्रह्मा का मानस पुत्र मान लिया गया और उनका विवाह दक्ष नामक प्रजापति की पुत्री ऊर्जा से बताया गया जिससे उन्हें एक पुत्री और सात पुत्र पैदा हुए।आद्य वसिष्ठ, सबसे पुराने वसिष्ठ थे। वे कोशल देश की राजधानी अयोध्या में आकर बसे वे स्मृति परम्परा के मुताबिक हिमालय से वहां आए थे और अयोध्या में आकर रहने से पहले का विवरण चूंकि हमारे ग्रंथों में खास मिलता नहीं, इसलिए उन्हें ब्रह्मा का पुत्र मानने की श्रद्धा से भरी तो कभी ऋग्वेद के मुताबिक ‘वरूण-उर्वशी’ की सन्तान मानने की रोचक कथाएं मिल जाती है। प्रथम वशिष्‍ठ ही पुष्कर में प्रजापति ब्रह्मा के यज्ञ के आचार्य रहे थे। 
दूसरे देवराज वशिष्ठ :-
इक्ष्वाकु ने 100 रात्रि का कठोर तप करके सूर्य देवता की सिद्धि प्राप्त थी की और वशिष्ठ को गुरु बनाकर उनके उपदेश से अपना पृथक राज्य और राजधानी अयोध्यापुरी स्थापित कराई और वे प्राय: वहीं रहने लगे। हिमालय से उतरकर वसिष्ठ जब अयोध्या आए, तब मनु के पुत्र इक्ष्वाकु राज्य कर रहे थे। इक्ष्वाकु ने उन्हें अपना कुलगुरू बनाया । इक्ष्वाकु वंश के पुरोहित महर्षि वशिष्ठ ब्रहमा के हवन कुण्ड से ही उन्होंने दूसरी बार जन्म लिया था। इस बार उनकी पत्नी का नामअक्षमाला था। जो अरुन्धती का पुनर्जन्म था।इस कारण इन्हें अग्निपुत्र भी कहा गया है। इस जन्म में वह इक्ष्वाकु राजा निमि और त्रिशंकु के पुरोहित बताए जाते थे। 
        जब इनके पिता ब्रह्मा जी ने इन्हें मृत्युलोक में जाकर सृष्टि का विस्तार करने तथा सूर्यवंश का पौरोहित्य कर्म करने की आज्ञा दी, तब इन्होंने पौरोहित्य कर्म को अत्यन्त निन्दित मानकर उसे करने में अपनी असमर्थता व्यक्त की। ब्रह्मा जी ने इनसे कहा- ‘इसी वंश में आगे चलकर मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम अवतार ग्रहण करेंगे और यह पौरोहित्य कर्म ही तुम्हारी मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करेगा।’ फिर इन्होंने इस धराधाम पर मानव-शरीर में आना स्वीकार किया।
          निमि राजा के विवाह के बाद वसिष्ठ ने सूर्य वंश की दूसरी शाखाओं का पुरोहित कर्म छोड़कर केवल इक्ष्वाकु वंश के राजगुरु पुरोहित के रूप में कार्य किया। सामाजिक अव्यवस्था से निजात पाने के लिए ही जन समाज ने मनु को अपना पहला राजा बनाया और मनु ने समाज और शासन के व्यवस्थित संचालन के लिए नियमों की व्यवस्था दी । 
              अयोध्या के ही एक राजा सत्यव्रत त्रिशंकु ने जब अपने मरणशील शरीर के साथ ही स्वर्ग जाने की पागल जिद पकड़ ली और अपने कुलगुरु देवराज वसिष्ठ से वैसा यज्ञ करने को कहा तो वसिष्ठ ने साफ इनकार कर दिया और उसे अपने पद से हाथ धोना पड़ा। पर जब इसी वसिष्ठ ने एक बार यज्ञ में नरबलि का कर्मकाण्ड करना चाहा तो फिर विश्वामित्र ने उसे रोका और देवराज की काफी थू-थू हुई। इसके बाद जब वसिष्ठों को वापस हिमालय जाने को मजबूर होना पड़ा।
         इस वसिष्ठ ने विश्वामित्र को ब्राह्मण मानने से इनकार कर दिया था। विश्वामित्र से कामधेनु को लेकर उनके युद्ध हुए, उन्होंने विश्वामित्र को ऋषि तो माना पर ब्रह्मर्षि नहीं, सिर्फ राजर्षि माना था और बहुत समय बाद उन्हें ब्रह्मर्षि माना था।
तीसरे अपव वशिष्ठ:-
 कार्तवीर्य सहस्रबाहु के समय में हुए वशिष्ठ को अपव वसिष्ठ कहते थे। हैहय राजा कार्तवीर्य अर्जुन ने उनका आश्रम जला डाला। सहस्रबाहु का वध परशुराम ने किया था।परशुराम ने वशिष्ठ का सहयोग और समर्थन लेकर ही यह लक्ष्य प्राप्त किया था।। इस प्रकार से वशिष्ठ अपव और परशुराम एक ही समय में हुए थे।
चौथे वशिष्ठ अथर्वनिधि 'प्रथम':-
ये तब हुआ करते थे जब अयोध्या में राजा बाहु का राज था. राजा बाहु ही थे, जिन्होंने वर्ण व्यवस्था के हिसाब से हर जाति को उनके काम पर लगाया था।
पांचवे वशिष्ठ श्रेष्ठभाज :-
ये राजा सौदास के समय में हुए थे जिनका नाम वशिष्ठ श्रेष्ठभाज था। कहते हैं कि सौदास ही आगे जाकर राजा कल्माषपाद कहलाए। इक्ष्वाकु के कुल में एक कल्माषपाद नाम का एक राजा हुआ। राजा एक दिन शिकार खेलने वन में गया। वापस आते समय वह एक ऐसे रास्ते से लौट रहा था। जिस रास्ते पर से एक समय में केवल एक ही आदमी गुजर सकता था। उसी रास्ते पर मुनि वसिष्ठ के सौ पुत्रों में से सबसे बड़े पुत्र शक्तिमुनि उसे आते दिखाई दिये। राजा ने कहा तुम हट जाओ मेरा रास्ता छोड़ दो तो कल्माषपाद ने कहा आप मेरे लिए मार्ग छोड़े दोनों में विवाद हुआ तो शक्तिमुनि ने इसे राजा का अन्याय समझकर उसे राक्षस बनने का शाप दे दिया। उसने कहा तुमने मुझे अयोग्य शाप दिया है ऐसा कहकर वह शक्तिमुनि को ही खा जाता है। बादमे वसिष्ठ उन्हें अपने याद बल से जीवित कर देते हैं।
छठे वशिष्ठ अथर्वनिधि (द्वितीय)
छठे वशिष्ठ राजा दिलीप के समय हुए जिन्हें वशिष्ठ अथर्वनिधि (द्वितीय) कहा जाता था। दिलीप की गो सेवा को कालीदास कवि ने बहुत ही मार्मिक ढंग से चित्रित किया है।
सातवें महर्षि वसिष्ठ :-
महर्षि वसिष्ठ ने सूर्यवंश का पौरोहित्य करते हुए अनेक लोक- कल्याणकारी कार्यों को सम्पन्न किया। इन्हीं के उपदेश के बल पर भगीरथ ने प्रयत्न करके गंगा-जैसी लोक कल्याण कारिणी नदी को हम लोगों के लिये सुलभ कराया। दिलीप को नन्दिनी की सेवा की शिक्षा देकर रघु-जैसे पुत्र प्रदान करने वाले तथा महाराज दशरथ की निराशा में आशा का संचार करने वाले महर्षि वसिष्ठ ही थे। इन्हीं की सम्मति से महाराज दशरथ ने पुत्रेष्टि-यज्ञ सम्पन्न किया। दशरथ से ऋष्यश्रृंग की देखरेख में पुत्रकामेष्टि यज्ञ कराया। जिससे भगवान श्री राम का अवतार हुआ। उन्होंने राम आदि का नामकरण किया, उन्हें शिक्षा-दीक्षा दी। भगवान श्री राम को शिष्य रूप में प्राप्त कर महर्षि वसिष्ठ का पुरोहित-जीवन सफल हो गया। भगवान श्री राम के वन गमन से लौटने के बाद इन्हीं के द्वारा उनका राज्याभिषेक हुआ। गुरु वसिष्ठ ने श्री राम के राज्यकार्य में सहयोग के साथ उनसे अनेक यज्ञ करवाये। उनके कहने पर राम-लक्ष्मण को विश्वामित्र के साथ भेजने के लिए दशरथ का मन बनाया। पर इनका अलग से नाम नहीं मिलता। वसिष्ठ ने दशरथ से कहा कि राम और लक्ष्मण को विश्वामित्र के साथ भेज दो, उन्होंने दशरथ की मृत्यु के बाद कोशल राज्य को संभाला।अनेक बार आपत्ति का प्रसंग आने पर तपोबल से उन्होंने राजा प्रजा की रक्षा की। राम को शस्त्र शास्त्र की शिक्षा दी। वसिष्ठ के कारण ही ‘रामराज्य’ की स्थापना संभव हुई। 
आठवें महाभारत कालीन वशिष्ठ
 प्रथम वशिष्ठ की पत्नीं अरुंधती से उत्पन्न पुत्रों के कुल में ही आगे चलकरआठवें वसिष्ठ महाभारत के काल में प्रसिद्ध ऋषि हुए थे । महाभारत में महर्षि वशिष्ठ के सूत्र कुछ इस तरह जुड़े हैं मानो वे ही धृतराष्ट्र व पाण्डु के आदि-पूर्वज हैं। महाभारत में यत्र-तत्र-सर्वत्र वशिष्ठ की कथाएं छाई हुई हैं। इन्हें 21 प्रजापतियों में एक बताया गया है और इनका आश्रम बादरीपाचन में है। ये ब्रह्मा से संवाद करते हैं और कुरुवंश के प्रवर्तक राजा कुरु के लिए कुरुक्षेत्र में यज्ञ करते हैं। वसिष्ठ ही द्वापर युग में महाभारत के समय ये महर्षि व्यास को तत्वज्ञान भी देते हैं और पितामह भीष्म के भी गुरु बनते हैं। भीष्म ने वेदों का ज्ञान इन्हीं से पाया था और शरशय्याधारी होने पर भीष्म को घेरकर खड़े ऋषियों में ये भी सम्मिलित थे। अर्जुन के जन्म के समय उपस्थित सात महर्षियों में भी ये एक थे।
नौवें शक्ति मुनि या शक्ति वशिष्ठ :-
महाभारत कालीन वशिष्ठ के पुत्र का नाम शक्ति मुनि या शक्ति
वशिष्ठ था। शक्ति वसिष्ठ के साथ विश्वामित्र का भयानक संघर्ष हुआ, वे शक्ति वसिष्ठ थे। महर्षि वसिष्ठ क्षमा की प्रतिपूर्ति थे। एक बार श्री विश्वामित्र उनके अतिथि हुए। महर्षि वसिष्ठ ने कामधेनु के सहयोग से उनका राजोचित सत्कार किया। कामधेनु की अलौकिक क्षमता को देखकर विश्वामित्र के मन में लोभ उत्पन्न हो गया। उन्होंने इस गौ को वसिष्ठ से लेने की इच्छा प्रकट की। कामधेनु वसिष्ठ जी के लिये आवश्यक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु महत्त्वपूर्ण साधन थी, अत: इन्होंने उसे देने में असमर्थता व्यक्त की। विश्वामित्र ने कामधेनु को बलपूर्वक ले जाना चाहा। वसिष्ठ जी के संकेत पर कामधेनु ने अपार सेना की सृष्टि कर दी। विश्वामित्र को अपनी सेना के साथ भाग जाने पर विवश होना पड़ा। द्वेष-भावना से प्रेरित होकर विश्वामित्र ने भगवान शंकर की तपस्या की और उनसे दिव्यास्त्र प्राप्त करके उन्होंने महर्षि वसिष्ठ पर पुन: आक्रमण कर दिया, किन्तु महर्षि वसिष्ठ के ब्रह्मदण्ड के सामने उनके सारे दिव्यास्त्र विफल हो गये और उन्हें क्षत्रिय बल को धिक्कार कर ब्राह्मणत्व लाभी के लिये तपस्या हेतु वन जाना पड़ा।विश्वामित्र की अपूर्व तपस्या से सभी लोग चमत्कृत हो गये। सब लोगों ने उन्हें ब्रह्मर्षि मान लिया, किन्तु महर्षि वसिष्ठ के ब्रह्मर्षि कहे बिना वे ब्रह्मर्षि नहीं कहला सकते थे। वसिष्ठ विश्वामित्रके बीच के संघर्ष की कथाएं सुविदित हैं। वसिष्ठ क्षत्रिय राजा विश्वामित्र को ‘राजर्षि’ कह कर सम्बोधित करते थे। विश्वामित्र की इच्छा थी कि वसिष्ठ उन्हें ‘महर्षि’ कहकर सम्बोधित करें। एक बार रात में छिप कर विश्वामित्र वसिष्ठ को मारने के लिए आये। एकांत में वसिष्ठ और अरुंधती के बीच हो रही बात उन्होंने सुनी। वसिष्ठ कह रहे थे, ‘अहा, ऐसा पूर्णिमा के चन्द्रमासमान निर्मल तप तो कठोर तपस्वी विश्वामित्र के अतिरिक्त भला किस का हो सकता है? उनके जैसा इस समय दूसरा कोई तपस्वी नहीं।’ एकांत में शत्रु की प्रशंसा करने वाले महापुरुष के प्रति द्वेष रखने के कारण विश्वामित्र को पश्चाताप हुआ। शस्त्र हाथ से फेंक कर वे वसिष्ठ के चरणों में गिर पड़े। वसिष्ठ ने विश्वामित्र को हृदय से लगा कर ‘महर्षि’ कहकर उनका स्वागत किया। इस प्रकार दोनों के बीच शत्रुता का अंत हुआ।
 दसवें पराशर वशिष्ठ :-
पराशर एक मन्त्रद्रष्टा ऋषि, शास्त्रवेत्ता, ब्रह्मज्ञानी एवं स्मृतिकार है। येे महर्षि वसिष्ठ के पौत्र, गोत्रप्रवर्तक, वैदिक सूक्तों के द्रष्टा और ग्रंथकार भी हैं। पराशर शर-शय्या पर पड़े भीष्म से मिलने गये थे। परीक्षित् के प्रायोपवेश के समय उपस्थित कई ऋषि-मुनियों में वे भी थे। वे छब्बीसवें द्वापर के व्यास थे। जनमेजय के सर्पयज्ञ में उपस्थित थे। 
          कलमाश द्वारा शक्ति और वशिष्ठ मुनि के और पुत्रों के भक्षण के कारण पुत्रों की मृत्यु पर अधीर होकर वसिष्ठ आत्म हत्या के कई प्रयास भी किये थे। उनके पीछे उनकी पुत्रवधू भी चल रही थी। एक बार महषि वसिष्ठ अपने आश्रम लौट रहे थे तो उन्हे लगा कि मानो कोई उनके पीछे वेद पाठ करता चल रहा है। पुत्रवधू के गर्भ में शिशु वेद मंत्रों का उच्चारण कर रहा था। वसिष्ठ बोले कौन है तो आवाज आई मैं आपकह पुत्र-वधु शक्ति की पत्नी अदृश्यन्ती है। इसे सुनकर उनमें आशा संचार हुआ और वे मृत्यु का इरादा त्यागकर अपने भावी उस उत्ताधिकारी को पालने के लिए पुनः धर्मपूर्वक अपने कर्तव्यों का पालन करने लगे थे। 
यही बालक आगे चलकर आठवें महाभारत कालीन वशिष्ठ के पौत्र और शक्ति के पुत्र का पराशर ऋषि के रुप में प्रसिद्ध हुए। 
ग्यारहवें वेद व्यास वशिष्ठ:-
एक धीवर कन्या मत्स्यगंधा से पराशर ऋषि का विवाह हुआ था।
समय आने पर एक द्वीप पर सत्यवती गर्भ से वेद वेदांगों में पारंगत वेदव्यास नामक पुत्र एक पुत्र हुआ। जन्म होते ही वह बालक बड़ा हो गया और अपनी माता से बोला, "माता! तू जब कभी भी विपत्ति में मुझे स्मरण करेगी, मैं उपस्थित हो जाउँगा।" इतना कह कर वे तपस्या करने के लिये द्वैपायन द्वीप चले गये। द्वैपायन द्वीप में तपस्या करने तथा उनके शरीर का रंग काला होने के कारण उन्हे कृष्ण द्वैपायन कहा जाने लगा। आगे चल कर वेदों का विभाजन करने के कारण वे वेदव्यास के नाम से विख्यात हुये, जो वेदव्यास द्वैपायन के नाम से प्रसिद्ध हुए और बाद में महाभारत की रचना किये थे ।
बारहवें मैत्रावरूण वशिष्ठ:-
मैत्रावरूण वसिष्ठ हुए जिनके 97 सूक्त ऋग्वेद में मिलते हैं, जो ऋग्वेद का करीब-करीब दसवां हिस्सा है। इतना विराट बौद्धिक योगदान करने वाले कुल में एक शक्ति वसिष्ठ हुए जिनके पास कामधेनु थी जिसका दुरूपयोग कर अहंकार पालने का मौका उन्होंने कभी भी नहीं दिया। पर घमंडी विश्वामित्रों को ऐसी गाय न मिले, इसके लिए अपने पुत्रों का बलिदान देकर भी एक भयानक संघर्ष उन्होंने विश्वामित्रों के साथ किया था।
कुछ अन्य वसिष्ठ :-
उपरोक्त के अलावा वशिष्ठ सुवर्चस जैसे दूसरे वशिष्ठों का भी उल्लेख आता है। एक अल्प शाखा भी है, जो जातुकर्ण नाम से जानी जाती है।
वसिष्ठों द्वारा लिखे कुछ प्रमुख ग्रंथ :-
 वशिष्ठ वंश के ऋषियों द्वारा रचित अनेक ग्रन्थ अभी उपलब्ध हैं। जैसे योगवासिष्ठ रामायण, वसिष्ठ धर्मसूत्र,धनुर्वेद, वशिष्ठ कल्प, वशिष्ठ शिक्षा, वशिष्ठ तंत्र, वशिष्ठ पुराण, वशिष्ठ स्मृति, वशिष्ठ श्राद्ध कल्प, आदि इनमें प्रमुख हैं।वशिष्ठ ने वशिष्ठ संहिता ग्रन्थ की रचना भी की. वशिष्ठ संहिता में ज्योतिष विद्या और वैदिक प्रणाली का वर्णन किया गया है. 











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