वशिष्ठ जी सच्चे अर्थों में ब्रह्मज्ञानी और ब्रह्मर्षि थे। इनकी आयु भी वेद एवं पुराणों आदि के आधार पर अनन्त हुआ करती थी। कई विद्वानों के अनुसार वशिष्ठ उपाधि हुआ करती थी। शक्ति इन्हीं महर्षि वशिष्ठ के महामनस्वी पुत्र थे जो अपने सौ भाइयों में ज्येष्ठ व श्रेष्ठ मुनि थे। वर्तमान समय में शक्ति पुत्र पाराशर का आश्रम उत्तरप्रदेश के फतेहपुर जिले के गंगाकिनारे बैगाओं नामक ग्राम में स्थित है।
ऋषि पराशर की प्रेयसी का जन्म और जीवन यात्रा भी विचित्र :-
चेदिराज नामक परिचर वसु एक बार मृगया के लिए निकला, तो सुगंधित पवन, सुंदर वातावरण आदि से प्रभावित राजा को अपनी पत्नी याद आयी और उसका वीर्य-स्खलन हुआ। उसे अपनी पत्नी तक पहुँचाने की, राजा ने एक श्येन पक्षी से प्रार्थना की। श्येन जब उसे ले जा रहा था, उसे मांसपिंड समझ कर मार्ग में एक दूसरा श्येन पक्षी हड़पने लगा। तब वह वीर्य कालिन्दी के जल में जा गिरा, जिसे ब्रह्मा के शापवश मछली के रूप में कालिन्दी में रहती आ रही अद्रिका नामक अप्सरा ने निगल लिया। फलतः उस मछली के गर्भ से एक पुत्री और एक पुत्र का जन्म हुआ। इसे जब एक निषाद ने चीरा तो दो दिव्य बालक और बालिका पाए।वह उसे अपने राजा के पास ले गया। जहां बालक को राजा अपने पास रख लिए और कन्या उस धीवर निषाद को पालने के लिए वापस कर दिया।पुत्र का नाम मत्स्यराज पड़ा, जो बाद में विराट राजा बना। पुत्री का नाम काली रखा गया और वह एक धीवर के यहाँ पालित हुई। पालक निषाद पिता ने उसका नाम मत्स्यगंधा रखा गया क्योंकि उसके अंगों से मछली की गंध निकलती थी।
उस कन्या को सत्यवती के नाम से भी जाना जाता है। बड़ी होने पर वह नाव खेने का कार्य करने लगी थी। एक बार पराशर मुनि को उसकी नाव पर बैठ कर यमुना पार करना पड़ा था। पराशर मुनि सत्यवती रूप-सौन्दर्य पर आसक्त हो गये और बोले, "देवि! मैं तुम्हारे साथ सहवास करना चाहता हूँ।" सत्यवती ने कहा, "मुनिवर! आप ब्रह्मज्ञानी हैं और मैं निषाद कन्या। हमारा सहवास सम्भव नहीं है।" तब पराशर मुनि बोले, "बालिके! तुम चिन्ता मत करो। प्रसूति होने पर भी तुम कुमारी ही रहोगी।" इसे कोई ना देख सकेगा। इतना कह कर उन्होंने अपने योग बल से चारों ओर घने कुहरे का जाल रच दिया । उसे आशीर्वाद देते हुये कहा, तुम्हारे शरीर से जो मछली की गंध निकलती है वह सुगन्ध में परिवर्तित हो जायेगी।" इसलिए उसका नाम सुगंधा पड़ा।
कुछ संदर्भों में इसे ऋषि कन्या भी कहा गया है। पराशर जी का विवाह सुमन्तु ऋषि की कन्या सत्यवति से हुआ था। सत्व सत्य एवं सदगुण सम्पन्न होने के कारण सत्यवती के नाम से प्रसिद्ध हुई। वेद व्यास जी का जन्म माता सत्यवति के गर्भ से हुआ। इनको कानीन भी कहते हैं। नारी की कन्या अवस्था में विवाह से पहले जो पुत्र पैदा होता है वह कानीन कहलाता है। जैसे व्यास, कर्ण, शिवी और अष्टक आदि।
पराशर के अनुग्रह एवं आशीर्वाद से काली का कौमार रह गया। पराशर के आशीष से काली सुवास से युक्त सत्यवती हुई। सत्यवती को योजनगंधा होने का वरदान दिया। यही बालक आगे चलकर आठवें महाभारत कालीन वशिष्ठ के पौत्र और शक्ति के पुत्र का पराशर ऋषि के रुप में प्रसिद्ध हुए।
यही सत्यवती कालांतर में हस्तिनापुर नरेश शांतनु की पत्नी हुई, जिसके गर्भ से चित्रांगद एवं विचित्रवीर्य का जन्म हुआ। विचित्रवीर्य ने काशीराज - पुत्री अंबिका तथा अंबालिका को ब्याहा, पर वह निस्संतान मर गया। तब सत्यवती के आग्रह पर अंबिका तथा अंबालिका के साथ व्यास का नियोग हुआ और फलस्वरूप पांडु एवं धृतराष्ट्र का जन्म हुआ। पराशर-पुत्र व्यास वेदों का विभाजन करके वेदव्यास कहलाये। महाभारत एवं पुराणों के रचयिता होने का श्रेय भी व्यास को दिया जाता है।
12वर्ष तक मां के गर्भ में रहा बालक पराशर :-
अयोध्या के राजा सैदास जिन्हे कलमाश भी कहा गया है , द्वारा शक्ति और वशिष्ठ मुनि के और पुत्रों के भक्षण के कारण पुत्रों की मृत्यु पर अधीर होकर वसिष्ठ आत्म हत्या के कई प्रयास भी किये थे। उनके पीछे उनकी पुत्रवधू भी चल रही थी। एक बार महषि वसिष्ठ अपने आश्रम लौट रहे थे तो उन्हे लगा कि मानो कोई उनके पीछे वेद पाठ करता चल रहा है।
पुत्रवधू के गर्भ गर्भस्थ में पराशर शिशु वेद मंत्रों का उच्चारण कर रहा था। वसिष्ठ बोले कौन है ? तो आवाज आई मैं आपकी पुत्र-वधु शक्ति की पत्नी अदृश्यन्ती हूं । इसे सुनकर वशिष्ठजी में आशा संचार हुआ और वे मृत्यु का इरादा त्यागकर अपने भावी उस उत्ताधिकारी को पालने के लिए पुनः धर्म पूर्वक अपने कर्तव्यों का पालन करने लगे थे। वशिष्ठ जी को इनके गर्भस्थ बालक के मुख से वेदाध्ययन करने के शब्द सुनाई दिए थे। इतना ही नहीं पराशर जी ने बारह वर्षों तक अपनी माता के गर्भ में वेद काअभ्यास भी किया था। इनका जन्म इनके पिता शक्ति मुनि की मृत्यू के बाद हुआ था।पराशर का शब्दिक अर्थ होता है- ‘प्राण बचाने वाला।’ चूंकि उन्होंने अपने पितामह वसिष्ठ के प्राण बचाए थे, इसलिए वे पराशर कहलाए।
पराशर एक मन्त्रद्रष्टा ऋषि, शास्त्रवेत्ता, ब्रह्मज्ञानी एवं स्मृतिकार है।उन्होंने वेद के १. ऋक् २. यजु ३. साम एवं ४. अथर्वण ये चार भाग किये तथा उनकी शाखाओं को बढ़ाया। तत्पश्चात अठारह पुराण बनाये, क्योंकि कलियुग के प्रवेश से सांसारिक जीवों की बुद्धि नष्ट हो गयी थी। उन्होंने वेद की रीतियाँ युक्ति पूर्वक पुराणों में इस प्रकार मिला दी, जिससे लोग प्रसन्न हो।
पराशर स्मृति :-
पराशर स्मृति एक धर्मसंहिता है, जिसमें युगानुरूप धर्मनिष्ठा पर बल दिया गया है। कहते हैं कि, एक बार ऋषियों ने कलियुग योग्य धर्मों को समझाने की व्यास से प्रार्थना की। व्यासजी ने अपने पिता पराशर से इसके संबंध में पूछना उचित समझा। अतः वे मुनियों को लेकर बदरिकाश्रम में पराशर के पास गये। पराशर ने समझाया कि कलियुग में लोगों की शारीरिक शक्ति कम होती है, इसलिए तपस्या, ज्ञान-संपादन, यज्ञ आदि सहज साध्य नहीं हैं। इसलिए कलिकाल में दान रूप धर्म की महत्ता है।
पराशर ने आयुर्वेद एवं ज्योतिष पर भी अपनी रचनाएँ प्रस्तुत की हैं। येे महर्षि वसिष्ठ के पौत्र, गोत्रप्रवर्तक, वैदिक सूक्तों के द्रष्टा और ग्रंथकार भी हैं। पराशर शर-शय्या पर पड़े भीष्म से मिलने गये थे। परीक्षित् के गोलोक गमन के समय उपस्थित कई ऋषि-मुनियों में वे भी थे। वे छब्बीसवें द्वापर के व्यास थे। जनमेजय के सर्पयज्ञ में भी उपस्थित थे।
वर्णाश्रम धर्म व्यवस्था परक ज्ञान:-
कृष्ण द्वैपायन व्यास जी जब कुछ मुनियों को बदरिकाश्रम (बद्रीनाथ तीर्थ)में स्थित अपने पिता पराशर के पास ले गए थे तब पराशर ने उन्हें वर्णाश्रम धर्म व्यवस्था परक ज्ञान दिया था।
भगवान शिव का छब्बीसवाँ सहिष्णु" नामक अवतार ग्रहण कर लिया तथा १. उलूक २. विद्युत ३. सम्बल तथा ४. अश्वलायन ये चार शिष्य उत्पन्न किये तथा उन्हें योग का ज्ञान सिखाया तथा उन्होंने योग को प्रकट किया।उस योग को संसारी जीवों ने बड़े यत्न से सीखा। फिर उन्होंने वेद एवं पुराणों से अच्छे धर्म एवं मत्त प्रकट किए। शिवजी के ये चार शिष्य आश्रम जानने वाले, योगाभ्यासी तथा निष्पाप हुए।
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