Thursday, January 13, 2022

भारतीय संस्कृति का प्रमुख केंद्र नैमिषारण्य:- डा. राधे श्याम द्विवेदी


नैमिषारण्य लखनऊ से ८० किमी दूर लखनऊ क्षेत्र के अर्न्तगत सीतापुर जिला में गोमती नदी के बाएँ तट पर स्थित एक प्रसिद्ध हिन्दू तीर्थ है। मार्कण्डेय पुराण में अनेक बार इसका उल्लेख ८८००० ऋषियों की तपःस्थली के रूप में आया है। वायु पुराणान्तर्गत माघ माहात्म्य तथा बृहद्धर्म पुराण, पूर्व-भाग के अनुसार इसके किसी गुप्त स्थल में आज भी ऋषियों का स्वाध्यायानुष्ठान चलता है। लोमहर्षण के पुत्र सौति उग्रश्रवा ने यहीं ऋषियों को पौराणिक कथाएं सुनायी थीं। वाराह पुराण के अनुसार यहां भगवान द्वारा निमिष मात्र में दानवों का संहार होने से यह 'नैमिषारण्य' कहलाया। वायु, कूर्म आदि पुराणों के अनुसार भगवान के मनोमय चक्र की नेमि (हाल) यहीं विशीर्ण हुई (गिरी) थी, अतएव यह नैमिषारण्य कहलाया।
              प्रययुस्तस्य चक्रस्य यत्र नेमिर्व्यशीर्यत।
               तद् वनं तेन विख्यातं नैमिषं मुनिपूजितम्॥
मियागंज कन्नौज की धर्मनिष्ठा :-
स्वामी एकरसानंद सरस्वती जी महाराज के तीन शिष्य:-
कन्नौज के पूर्वी इलाके में स्थित मियागंज एक ऐसा ग्राम है जिसे अब ऋषि नगर के नाम से जानते हैं। वहां तीन महान संतों का अवतरण हुआ जिन्होंने पूरे देश में ख्याति अर्जित की जिनमे स्वामी सुखदेवानन्द, स्वामी नारदानंद और स्वामी भजनानंद जी हैं। स्वामी सुखदेवानन्द का गृहस्थ नाम प्रयाग नरायन था और स्वामी भजनानंद का नाम लङैते लाल था। बाबूराम स्वामी नारदानंद के नाम से विख्यात हुए। लङैते लाल की मिठाई की दुकान थी। तीनों स्वामी एकरसानंद सरस्वती के दर्शन करने गए और वहीं पर उन्हें गुरु के रूप में स्वीकार कर लिया। उसी समय सवामी विचारानंद और समतानंद भी उसी गाँव मे हुए और इसे संयोग ही कहा जायेगा कि पहले से ही विरक्त भाव मे चल रहे इन तीनो विभूतियों की पत्नियों ने एक एक कर संसार को छोड़ दिया और अपने पति को परमार्थ गमन के लिए मुक्त कर दिया। बाबूराम पांडेय स्वामी नारदानंद सरस्वती के नाम से विख्यात हुए। लङैते लाल स्वामी भजनानंद के नाम से विख्यात हुए और प्रयाग नरायन स्वामी सुखदेवानंद के नाम से विख्यात हुए। तीनो ने एक साथ सन्यास ग्रहण किया।
स्वामी नारदानंद सरस्वती द्वारा अध्यात्म केंद्र की स्थापना:-
 यहां स्वामी श्रीनारदनंदजी महाराज का आश्रम तथा एक ब्रह्मचर्याश्रम है, जहां ब्रह्मचारी प्राचीन पद्धति से शिक्षा प्राप्त करते हैं। आश्रम में साधक लोग साधना की दृष्टि से रहते हैं। धारणा है कि कलियुग में समस्त तीर्थ नैमिष क्षेत्र में ही निवास करते हैं। नैमिषारण्य भारतीय संस्कृति का एक प्रमुख केंद्र है, जिसे जगदाचार्य स्वामी नारदानंद सरस्वती जी ने यथासंभव संवारने का प्रयास किया था। स्वामी नारदानंद सरस्वती ने नैमिष में आश्रम बनाया जो आज अपने विशाल रूप में है। स्वामी नारदानंद सादगी के प्रतीक थे। स्वामी नारदानंद जी का जन्म कन्नौज के पास मिश्रागंज में ब्राह्मण कुल में हुआ था। वह दो भाई-बहन थे। उनकी विवाह भी हुआ था। बाद में एकरसानंद से प्रभावित होकर घरबार छोड़कर समाज हित में अपने को लगा दिया था। उनकी कई वर्षो की तपस्या व आशीर्वाद से लाखों भक्तों का कल्याण हुआ। उन्होंने देश-विदेश में 286 आश्रमों का संचालन किया और नैमिषारण्य को अपनी तपस्थली बनाकर वहां चारों आश्रमों का संचालन किया। ब्रहमचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ व सन्यास वर्ण की अलग-अलग व्यवस्था की। इनका जन्म मास अगहन की शुक्लपक्ष सप्तमी को हुआ था। महाराज जी के सानिध्य में लाखों भक्तों का कल्याण हुआ और बहुत से विरक्त संत व आचार्यो की फौज तैयार कर जनसेवा में जीवन लगा दिया। उन्होंने बताया कि समस्त 286 आश्रमों पर वानप्रस्थ ब्रहमचारी को पूजा व देखरेख के लिए नियुक्त किया।
          स्वामी नारदानंद पहले स्वामी एकरसानंद सरस्वती जी महाराज फिर पंडित मदन मोहन मालवीय के संपर्क में आये और उनकी सम्मति से वर्णाश्रम खोलने की योजना बनाई। स्वामी नारदानंद ने उत्तर भारत में जनमानस को धर्म और आध्यात्म के प्रति प्रेरित किया। भारत भक्त समाज की स्थापना पर सन 1959 में स्वामी जी मे यह आह्वान किया। आओ उठो आज परमात्मा की स्वकर्तव्य द्वारा पूजा की शुभ बेला है।मातृभूमि की पुकार है। नैमिष व्यासपीठ की स्थापना की जो आज भी मिसाल वट वृक्ष की भांति विद्यमान है। 
          नारदानंद नके प्रमुख शिष्य स्वामी विवेकानंद सरस्वती जी ने नैमिशारण्य में भव्य देवपुरी मंदिर का निर्माण कराया। उन्होंने एक हजार शिवलिंगों की भी स्थापना की तथा सरस्वती सरोवर का निर्माण कराया। 
        नारदानंद के ही प्रमुख शिष्य वेदांती स्वामी सर्वेश्वरानंद सरस्वती मूलत: हरदोई के रहने वाले थे। वह बाल्यकाल में ही घर परिवार त्याग कर नैमिष पीठाधीश्वर स्वामी नारदानंद सरस्वती के आश्रम पहुंच गए थे। वेद कंठस्थ होेने के चलते स्वामी सर्वेश्वरानंद को नैमिष अध्यात्मिक विद्यापीठ का संरक्षक बनाया गया था। स्वामी जी की मृत्यु के बाद उनका पार्थिव शरीर नैमिष आश्रम में ले जाया गया है। यहां उनको समाधि दी गई। 
            वर्तमान में उत्तराधिकारी स्वामी उपेंद्रानंद सरस्वती जी के संरक्षकत्व में संस्था सुचारु रुप से चल रही है।वे नारदानन्द आश्रम नैमिषारण्य के नैमिष व्यास पीठाधीश्वर हैं। आश्रम की व्यवस्था स्वामी नारदानन्द सरस्वती आध्यात्म विद्यापीठ ट्रस्ट द्वारा की जा रही है। 23 अप्रैल 2006 की आम सभा द्वारा सर्वसम्मति से उन्हें शिक्षा सुधार समिति सहित संरक्षक नियुक्त किया गया था।
ब्रह्मचर्याश्रम संस्कृत विद्यालय की स्थापना :-
स्वामी नारदानन्द जी महाराज ने साधकों के लिए एक आश्रम बनवाया था। आश्रम के समीप ब्रह्मचारियों को संस्कृत की शिक्षा देने के लिए ब्रह्मचर्याश्रम संस्कृत विद्यालय की स्थापना की थी। इस विद्यालय का विशाल परिसर इसके गौरवपूर्ण अतीत का बोध कराता है। कभी यहाँ सैकड़ों की संख्या में ब्रह्मचारी संस्कृत शिक्षा प्राप्त करते थे। यह नैमिषारण्य का सबसे समृद्ध और भव्य विद्यालय था। बटुक विद्या का अभ्यास कर रहे हैं। संस्कृत विद्या और भारतीय संस्कृति से प्रेम करने वाले लोगों को चाहिए कि एऐसे संस्कृत विद्यालयों को गोद लेकर वहाँ शिक्षा और संसाधनों पर कुछ खर्च करें। इससे हमारी हिन्दू संस्कृति जीवन्त रह सके। हर हिन्दू भारतीयों को याद रखना चाहिए, जबतक संस्कृत विद्या जीवित है तभी तक हिन्दू संस्कृति भी जीवित है। अप्रैल से जुलाई के मध्य इन विद्यालयों में जाकर अपने सामर्थ्य के अनुसार पुस्तकें, वस्त्र, खाद्यान्न आदि दान देकर इन विद्यालयों को पोषण करना चाहिए। तीर्थ यात्रा का सच्चा फल तभी मिलेगा
प्रधानाचार्य राम चन्द्र पाण्डेय का लम्बा कार्य काल:-
नारदानन्द सरस्वती द्वारा संस्थापित संस्कृत विद्यालय के पूर्व प्रधानाचार्य राम चन्द्र पाण्डेय ने अपने गुरुदेव की स्मृति में अध्यात्म विद्यापीठ ब्रह्मचर्याश्रम मे संस्कृत की शिक्षा गृहण कर रहे विद्यार्थियों को गर्म स्वेटर की वितरण किया और मन लगाकर शिक्षा अध्ययन करने के लिये प्रेरित किया। वे अपने गुरु ब्रह्मलीन स्वामी नारदानन्द सरस्वती का आदेश मानकर अपने जीवन के 45 वर्ष गुरुकुल की सेवा में अध्यापन करते हुये अर्पित किये। उन्होने बताया कि अपने घर से दूर नैमिष आश्रम में आवासीय गुरुकुल में रहकर संस्कृत और संस्कृति की शिक्षा ग्रहण कर रहे छात्र आगे चलकर देश देशांतर में धर्म का प्रचार प्रसार करते हुये भारतीय सनातन संस्कृति की धर्म पताका का संरक्षण व सम्वर्धन करते हैं, इन छात्रों को हम सभी को सहयोग कर उत्साह वर्धन का प्रसार करना चाहिये। 
पंडित मोहन प्यारे द्विवेदी जी का भी साधना स्थल:-
पंडित मोहन प्यारे द्विवेदी ’’मोहन’’ का जन्म संवत 1966 विक्रमी तदनुसार 01 अप्रैल 1909 ई. में उत्तर प्रदेश के बस्ती जिला के हर्रैया तहसील के कप्तानगंज विकास खण्ड के दुबौली दूबे नामक गांव मे एक कुलीन परिवार में हुआ था। पंडित जी को पड़ोस के गांव करचोलिया में 1940 ई. में वहां के प्रधानजी के सहयोग तथा शिक्षा विभाग में भाग दौड़कर एक प्राइमरी विद्यालय खोलना पड़ा था। जो आज भी चल रहा है। 1955 में वह प्रधानाध्यापक पद पर वहीं आसीन हुए थे। इस क्षेत्र में शिक्षा की पहली किरण इसी संस्था के माध्यम से फैला था। राजकीय जिम्मेदारियों से मुक्त होने के बाद वह देशाटन व धर्म या़त्रा पर प्रायः चले जाया करते थे। उन्हांने श्री अयोध्याजी में श्री वेदान्ती जी से दीक्षा ली थी। उन्हें सीतापुर जिले का नौमिष पीठ बहुत पसन्द आया था। वहां श्री नारदानन्द सरस्वती के सानिध्य में वह रहने लगे थे। एक शिक्षक अपनी शिक्षण के विना रह नही सकता है। इस कारण पंडित जी नैमिषारण्य के ब्रहमचर्याश्रम के गुरूकुल में संस्कृत तथा आधुनिक विषयों की निःशुल्क शिक्षा देने लगे थे। उन्हें वहां आश्रम के पाकशाला से भोजन तथा शिष्यों से सेवा सुश्रूषा मिल जाया करती थी। गुरूकुल से जाने वाले धार्मिक आयोजनों में भी पंडित जी भाग लेने लगे थे। अक्सर यदि कही यज्ञानुष्ठान होता तो पण्डित जी उनमें जाने लगे थे। वह अपने क्षेत्र में प्रायः एक विद्वान के रूप में प्रसिद्व थे । 15 अपै्रल 1989 को 80 वर्ष की अवस्था में पण्डित जी ने अपने मातृभूमि में अतिम सासें लेकर परम तत्व में समाहित हो गये थे।
नैमिषारण्य का वर्णन पंडित जी ने इस प्रकार किया है :-

शुभ तपोभूमि ऋषि-मुनियों की, 
नैमिष’ ‘मिश्रिख’की पावन माटी।.
जहां अस्थिदान दे चुके दधीचि,
 यह त्याग तपस्या की परिपाटी।
यहां चक्र तीर्थ पावन पुनीत है,
 ललिता मैया की छवि सुभाटी ।
मैया सीता का धाम यहां , 
कण-कण में बसे श्रीराम सुहाटी।।1।।

तीर्थ नैमिष धाम की पहचान, 
बन रही यहां की गोमती मइया।
देव-ऋिषियों का गुणगान, 
कर रही यहां की प्यारी गइया।
ज्ञान गौरव भक्ति का भाव,
भर रही इसके तट के रहवइया।
तीर्थ-मठ-मंदिर-गुरु ऋषियों, 
का धाम यह है गुरुवइया।।2।।

धेनुए सुहाती हरी भूमि पर जुगाली किये, 
मोहन बनाली बीच चिड़ियों का शोर है।
अम्बर घनाली घूमै जल को संजोये हुए,
 पूछ को उठाये धरा नाच रहा मोर है।
सुरभि लुटाती घूमराजि है सुहाती यहां, 
वेणु भी बजाती बंसवारी पोर पोर है।
गूंजता प्रणव छंद छंद क्षिति छोरन लौ,
 स्नेह को लुटाता यहां नितसांझ भोर है।। 3।।

प्रकृति यहां अति पावनी सुहावनी है, 
पावन में पूतता का मोहन का विलास है।
मन में है ज्ञान यहां तन में है ज्ञान यहां,
 धरती गगन बीच ज्ञान का प्रकाश है।
अंग अंग रंगी है रमेश की अनूठी छवि,
 रसना पै राम राम रस का निवास है।
शान्ति सुहाती यहां हिय में हुलास लिये, 
प्रभु के निवास हेतु सुकवि मवास है।।4।।
            विद्यालय के वर्तमान प्रधानाचार्य जो पूर्व में एबीवीपी से सक्रिय रुप में जुड़े रहे आचार्य हरिओम शुक्ल की देखरेख विद्यालय अध्ययन -अध्यापन और अन्य सांस्कृतिक कार्यक्रमों को सुचारु रुप से संचालित कर रहा है।


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