(बस्ती के छंदकार भाग 3 कड़ी 15)
डा. मुनि लाल उपाध्याय 'सरस'
आचार्य डॉ. राधेश्याम द्विवेदी
कविवर कृष्ण विहारी लाल "राही" बस्ती जनपद के बहुचर्चित गीतकार और कवि हैं। "विकास मार्ग” पत्रिका के सम्पादन के कारण जनपद का कोना- कोना उन्हें जानता है। यह इण्टर परीक्षा के बाद हिंदी विषय से साहित्यरत्न तक शिक्षा अर्जित किये हैं।
प्रकाशित साहित्य : 1. विकास गीत
राही जी की प्रथम रचना “विकास गीत” गीतों के सग्रह के रूप में छप चुकी है। गीतों में ग्राम्य जीवन के साथ प्रकृति के मनोहारी रूपों को अधिक संजोया गया है। सरल, सुगम भाषा में लिखे गये राही जी के गीत संवेदनात्मक गहराइयों को छूने में समर्थ हैं। गीतों में लयात्मकता के साथ- साथ भावुकता और तन्मयता भरी पड़ी है। उदबोधन परक गीतों से राही जी ने सदैव अग्रसारित होने का संदेश दिया है। प्रेरणास्पद गीत राष्ट्रीयता का स्वर फूंकने में समर्थ हैं। भारतीय किसानों के समानान्तर पुष्पित और पल्लवित राही जी के गीतों में ग्रामीण जीवन का उद्घोष बढ़े ही सम्यक रूप से किया गया है। इन्होंने लगभग 200 गीत और कुछ मुक्तक लिखा है। कवि सम्मेलन के मंचों पर राही जी के गीत गूंजे और सराहे गये हैं। आकाशवाणी से राही जी के सैकड़ों गीतों का प्रसारण हो चुका है। टेलीविजन से राही जी को करोड़ों श्रोताओं ने देखा और सुना है। राही जी पिछये 30 वर्षों ने जनपद के काव्यधारा को सहयोग प्रदान करते हुए उसके विकास में नि:स्वार्थ योगदान देते रहे हैं। उनका सहज व्यक्तित्व अपने में मनोहारी और आदर्श है। गीतों की सर्जना के साथ राही जी छन्दबद्ध रचना के शौकीन हैं। ये छन्दकार और कवियों का बडा स्वागत करते है तथा नवोदित कवियों को सदैव प्रोत्साहित करते रहे हैं ।
किसानी भोजपुरी गीत
ई धरती हीरा, मोती, सोनबा धन रोजै उगिले।
अन्न धन , फल, फूलबा उपजावै
हरियर फ़सिलि सुन्नर लहरावै।
बनयों, बगिया मा छवि का बढ़ायें,
मटिया से खेत घरवा के चमकावै ।
बाग-बग़चन, खेतवन मा जिनगी के रोशनी कइले
ई धरती हीरा, मोती, सोनबा धन रोजै उगिले।।
कहूं तऽ ई कोइला बनि जावै,
रंगवा, भरत, तेरूबा दरकार्वे ।
दुनिया ई चनिया से चमकायें,
सोनवा से ई घरवा के दमकावै।।
धरती पूत किसान जववन, लरिके देखि हरिसैईलै
ई धरती हीरा, मोती, सोनबा धन रोजै उगिले।।
खर-पतवार से मड़इया छवावै,
खदिया हरिहर तऽ ई बनवावै ।
कबो ई बालू- कन बनि जावै ,
ठोस कहूँ पाथर वनि जावे ।
यकरे अगवा सरगो बुझाला छोट अउ फीक तऽ भइले
ई धरती हीरा, मोती, सोनबा धन रोजै उगिले।।
ई मटिया चन्नन बनि महके
जेकरे लगवले मथवा दमकै।
मटियइ से ई जिनिगियो चमकै,
हियरा मनावतऽ रोज चहके ।
मील अकसवा ऊपरा से रखवार, जबर त ऽ भइलै
ई धरती हीरा, मोती, सोनबा धन रोजै उगिले।।
(नव सृजन त्रैमासिक जनवरी मार्च 1979 पृष्ठ 6 )
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