Monday, February 20, 2023

अनेक संप्रदाय और तीर्थ धामों में प्रस्फुटित हुआ राम सखा संप्रदाय✍️ डॉ. राधे श्याम द्विवेदी

                         मधवाचार्य जी
माध्व वैष्णव( ब्रह्म) सम्प्रदाय द्वारा अनुप्राणित:-
राम सखा संप्रदाय, मूलतः ' माध्व वैष्णव( ब्रह्म) सम्प्रदाय' की एक शाखा है, जो एक संगठित समूह में नहीं बल्कि बिखरे स्वरूप में मिलता है। इसके अलावा रामानंद संप्रदाय से भी इसका लिंक मिलता है। संत राम सखे राम सखा संप्रदाय के संस्थापक रहे हैं । माधव सम्प्रदाय के संस्थापक मध्वाचार्य जी थे। जिसे भगवान नारायण की आज्ञा से वायु देव ने भक्ति सिद्धांत की रक्षा के लिए मंगलूर के वेलालि गांव में माघ शुक्ल सप्तमी संवत 1295 विक्रमी को अवतरित कराया था। माधवाचार्य ने अपने शिष्य पद्मनाभ तीर्थ (प्राप्त सिद्धि 1317-- 1324) के साथ तुलुनाडु क्षेत्र के बाहर तत्त्व वाद(द्वैत) का प्रसार करने के एक मठ की स्थापना की। वे द्वैत दार्शनिक और विद्वान थे । उनके शिष्य नरहरि तीर्थ , माधव तीर्थ और अक्षरोभ तीर्थ इस मठ के उत्तराधिकारी बने। 
                              जयतीर्थ जी
    अक्षोभ तीर्थ के शिष्य श्री जयतीर्थ ( सी. 1345 - सी. 1388 ) एक हिंदूवादी, द्वंद्वात्मकतावादी, नीतिशास्त्री और माधवाचार्य पीठ के छठे पुजारी थे। माधवाचार्य के कार्यों की उनकी ध्वनि व्याख्या के कारण उन्हें द्वैत विचारधारा के इतिहास में सबसे महत्वपूर्ण संतों में से एक माना जाता है । द्वैत ग्रंथों पर विस्तार करने के उनके अग्रणी प्रयासों को 14 वीं शताब्दी के दार्शनिक जयतीर्थ ने आगे बढ़ाया ।
उत्तरादि मठ की प्रबलता :-
माधवाचार्य द्वारा स्थापित अष्ट मठों में मुख्य मठ उत्तरादि मठ का प्रमुख तुलुनाडु क्षेत्र के बाहर द्वैत वेदांत ( तत्ववदा ) को संरक्षित और प्रचारित करने के लिए पद्मनाभ तीर्थ नाम पड़ा है। उत्तरादि मठ तीन प्रमुख द्वैत मठों या मठात्रय में से एक है, जो जयतीर्थ के माध्यम से पद्मनाभ तीर्थ के वंश में माधवाचार्य के वंशज हैं । जयतीर्थ और विद्याधिराज तीर्थ के बाद, उत्तरादि मठ कवींद्र तीर्थ (विद्याधिराज तीर्थ के एक शिष्य) और बाद में विद्यानिधि तीर्थ (रामचंद्र तीर्थ के एक शिष्य) के वंश में जारी रहा। उत्तरादि मठ में पूजे जाने वाले मूल राम और मूल सीता की मूर्तियों का एक लंबा इतिहास है और वे अपनी महान दिव्यता के लिए पूजनीय हैं। उत्तरादि मठ प्रमुख हिंदू मठवासी संस्थानों में से एक है। इस मठ को पहले "पद्मनाभ तीर्थ मठ" के नाम से भी जाना जाता था। उत्तरादि मठ मुख्य मठ था जो पद्मनाभ तीर्थ , नरहरि तीर्थ , माधव तीर्थ , अक्षोब्य तीर्थ , जयतीर्थ , विद्याधिराज तीर्थ और कविंद्र तीर्थ के माध्यम से माधवाचार्य से उतरा था, इसलिए इस मठ को "आदि मठ" के रूप में भी जाना जाता है। इसे "मूल मठ" या "मूल संस्थान" या "श्री माधवाचार्य का मूल महासंस्थान" भी कहा जाता है। राम सखा के गुरु वशिष्ठ तीर्थ इसी परम्परा का प्रतिनिधित्व करते रहे हैं।
                         राम सखा जी महराज
राम सखा की आध्यात्मिक यात्रा:-
राम सखा संप्रदाय के संस्थापक का जयपुर में जन्म उडुपी में दीक्षा अयोध्या और मैहर में तप साधना से विकसित और प्रस्फुटित हुआ है। श्रीमद् रामसखेंद्र जी महाराज ( निध्याचार्य जी महराज) का जन्म विक्रम संवत के 18वी सम्बत के आखिरी चरण या 18वीं ईसवी शताब्दी के प्रथम भाग में चैत्र शुक्ल में राम नवमी को जयपुर में एक सुसंस्कृत गौड़ ब्राह्मण परिवार में हुआ था। बचपन में उनका संस्कार असाधारण अलौकिक और दिव्य था।
साधु संतों और भगवान के भक्तों के प्रति उनके मन में बड़ा आदर भाव था। राम के स्मरण मात्र से ही वे आत्म मुग्ध हो जाया करते थे। वे भगवान के जन्म जात सखा थे।
रामानंदी सम्प्रदाय गलिता से भी लगाव:-
गलताजी जयपुर से 10 कि.मीअरावली पहाड़ियोंमें एक पहाड़ी दर्रे के अंदर निर्मित है । 15वीं शताब्दी की शुरुआत से गलताजी वैष्णव रामानुज संप्रदाय से संबंधित हिंदू तपस्वियों के लिए एक शरणस्थल रहा है। यहां पर गालव नाम के एक संत यहां रहते थे, ध्यान करते थे और तपस्या करते थे। राजानुज/ रामवत/रामनदी सम्प्रदाय में राम और सीता के स्वरूप का पूजा किया जाता है। कहा जाता है कि यह लंबे समय से योगियों के व्यवसाय में है; पयोहारी कृष्णदास, एक रामानुजी संत, यानी रामानुज सम्प्रदाय के अनुयायी 15वीं शताब्दी की शुरुआत में गलता आए और अपनी योगिक शक्तियों से अन्य योगियों को वहां से खदेड़ दिया। गलता उत्तरी भारत का पहला वैष्णव रामानुज पीठ था और रामानुज संप्रदाय के सबसे महत्वपूर्ण घटना में से एक बन गया। कृष्णदास जी पयाहारी ने गलता (जयपुर) में रामानंदी सम्प्रदाय की प्रमुख मंच की स्थापना की थी। गलताजी को रामानुज संप्रदाय में उत्तर तोताद्रि भी कहते हैं। रामानुज सम्प्रदाय की एक प्रमुख गद्दी जयपुर में गलता के पास स्थित रही है। गलताजी (जयपुर) के साथ अयोध्यामें भी एक मठ है।
           यद्धपि जयपुर गलिता उडुपी चित्रकूट और मैहर आदि तीर्थों में घूमते फिरते हुए राम सखा जी का राम सखा नामक ये नया संप्रदाय 18वी संवत से प्रकाश में आया परन्तु सखी सम्प्रदाय का प्रभाव तो सनातन काल से ही राम सखा ,राम सखी ,सीता सखा सीता सखी ,कृष्ण सखा ,कृष्ण सखी , राधा सखा और राधा सखी के विविध रुपों में पुराणों व भक्ति साहित्य में पाया जाता रहा है।
अलग अलग उपाधियों को अंगीकार करना:-
जिस प्रकार राम सखा के गुरु वशिष्ठ तीर्थ उपाधि को विभूषित कर रहे थे। जिसका अर्थ यह होता है कि उसे सभी शास्त्रों का पूर्ण ज्ञान हो गया है। ठीक उसी तरह राम सखा जी के शिष्य गुरु की तरह निध्याचार्य उप नाम प्रयुक्त करने लगे थे। तात्पर्य अनेक शास्त्रीय निधियां ये अपने में समाहित किए हुए हैं। शील निधि सुशील निधि और विचित्र निधि उनके परम शिष्य हुए थे। श्री निध्याचार्य जी महाराज की तपोभूमि मैहर के बड़ा अखाड़े के रूप में बहुत लोकप्रिय है। अयोध्या में चौथे गुरु अवध शरण ने अपने उपनाम में परिवर्तन कर लिया। निधि उपाधि की पूर्णता को त्यागते हुए दास्य वा भक्ति भाव की प्रधानता वाली उपाधि " शरण "अपनाई जाती है। उचेहरा सहडौल और पुष्कर के आचार्यों ने न जाने कब से अपने उप नाम। "शरण" प्रयोग करने लगे हैं।
       राम सखा महाराज जी जयपुर से निकलने के बाद विराट वैष्णव बन गए थे। उन्होंने सत्य का मार्ग खोजना शुरू कर दिया। राम सखेंद्र श्री राम जी के पिछ्ले जन्म से ही परम भक्त थे। वे युवास्था में तीर्थ यात्रा पर निकल पड़े थे। वे कर्नाटक के तीर्थ क्षेत्र उडुपी पहुंचे। महाराज जी ने माध्य संप्रदाय के आचार्य श्री वशिष्ठ तीर्थ से गुरु दीक्षा प्राप्त की थी। उन्होंने लिखा है -
"मध्य माध्य निज द्वैत मन
मिलन द्वार हनुमान।
राम सखे विद सम्पदा
उडुपी गुरु स्थान।।"
       वे दक्षिण के उडीपि (कर्नाटक) में बड़ी तनमयता से गुरु की सेवा किये थे। वह अपने गुरु जी के साथ रहे और भगवान और उनके स्नेह को प्राप्त करने का कौशल सीख लिया था। 
जयपुर में बीता बचपन :- जयपुर में जन्में राम सखा जी जयपुर के रामलीला अभ्यास में लक्ष्मण जी के रूप में भाग लेते थे। वे श्रीराम से इतना लगाव कर लिए कि वह वास्तव में उनका छोटा भाई होने का विश्वास करने लगे थे। एक दिन राम लीला प्रशिक्षण के दौरान महाराज जी को भगवान राम का किरदार निभाना पड़ा था। जिसके परिणाम स्वरूप महाराज जी को भोजन नहीं मिल पाया था। महाराज जी ने पूरे दिन कुछ भी नहीं खाया और रात तक इतना परेशान थे कि वे पास के जंगल में चले गए और एक पेड़ के नीचे बैठ रोते रहे। रामलीला मंडली में युवा बच्चा गायब हो जाने के कारण हर कोई चिंतित था।
श्रीरामजी ने खुद खाना खिलाया :-
आधी रात तक जब महाराज जी पेड़ के नीचे रो रहे थे तब राम जी स्वयं स्वादिष्ट भोजन से भरे हाथों में सुनहरे बर्तन लेकर प्रकट हुए। प्रभु की मधुर वाणी सुनकर महाराज जी अभिभूत हो गए। दोनों ने एक-दूसरे को बड़े प्यार से गले लगाया। महाराज जी ने अपनी भूख को शांत किया और दोनों काफी देर तक बातें करते रहे। जिसके बाद भगवान राम अपने साथ लाए सभी सोने के बर्तनों को छोड़कर गायब हो गए।
मन्दिर के सोने के बर्तन गायब मिले :-
इधर जयपुर में जब राम मंदिर के पुजारियों ने मंदिर का दरवाजा खोला, तो वे सभी सोने के बर्तनों को गायब देखकर हैरान रह गए। बर्तन गायब होने की सूचना जयपुर नरेश तक पहुंची । राजा ने तुरंत लापता संपत्ति और चोर की गहन खोज का आदेश दिया। कुछ लोग जंगल में पहुंचे और देखा कि एक युवा लड़का अपने चारों ओर सोने के बर्तन के साथ पड़ा है। लोगों ने उनसे बर्तनों के बारे में पूछा तो महाराज जी ने उन्हें बताया कि राम जी ने उन्हें भोजन कराया, लेकिन बर्तनों को वापस नहीं ले गए। उन्हें लगा कि भगवान राम ने उन्हें अपने छोटे भाई के रूप में स्वीकार कर लिया है। इस समय तक महाराज जी जयपुर में ही थे। उनकी जन्मस्थली होने के कारण वे जयपुर छोड़कर पहले उडुपी और बाद में गुरु जी से दीक्षा लेकर अयोध्या आएं थे।
रामसखा जी का अयोध्या में आगमन:-
अयोध्या आकर राम सखा जी सरयू नदी के तट पर एक पर्णकुटी में भगवान को याद करते- करते अपना जीवन बिताया। वे प्रभु के दर्शन के लिए सरयू तट पर साधना करने लगे। उन्होंने भगवान राम के दर्शन का बहुत दिनों तक इंतजार किया।भगवान का विरह उन्हें असह्य होता जा रहा था। जब उनकी व्यथा बढ़ी तो वे प्रभु को उपालंभ भी देना शुरू कर दिए। संप्रदाय भास्कर में उल्लिखित है -
“अरे शिकारी निर्दयी, करिया नृपति किशोर ।
क्यों तरसावत दरश को, राम सखे चित्त चोर ।।"
      उनकी व्यथा देख एक बार प्रभु ने उन्हें अल्प समय के लिए दर्शन दिया। वे उनसे अंक में लिपट कर खूब रोए और खूब आनंद लिए। बाद में प्रभु जी अंतर्ध्यान हो गए। कुछ दिनों बाद फिर उन्हें दर्शन करने की तलब लगी। अब वे और बेचैन रहने लगे।जब उनकी बेचैनी असहय हो गई । उन्हें बेचैन मनो व्यथा जानकर इस बार रामजी माता सीता जी के साथ उन्हें युगल किशोर के दर्शन हुए। उनका सारा दुख दूर हो गया । सन्त राम सखा आजीवन राम की सरस भक्ति का प्रसार किए। भगवान की सरस झांकी का चिन्तन करते हुए उन्होंने साकेत धाम में प्रवेश किया था।
प्रभु की झांकी का वर्णन : -
प्रभु श्री राम सीता की झांकी राम सखे जी के हृदय में एसे बैठ गया और उनके मुख से ये भाव निकले -
"बगिया शिर लाल हरी कलगी
उर चंदन केसर खौर दिये।
मन मोहन राम कुमार सखी
अनुभारी नहीं जग जन्म लिए।
पग नुपुर पीत कसी कछनी
बन मालती के बन मॉल हिये।
बिहरे सरयू तट कुंजन में
तनु राम सखे चित चोर लिए।।"
          थोड़ी देर दर्शन के बाद प्रभु अंतर्ध्यान हो गए तो राम सखे अब फिर रोना धोना शुरू कर दिया।
काछवाह राजा द्वारा अयोध्या में मन्दिर का निर्माण :-
उनका निवास नृत्य राघव कुंज बना। अयोध्या में इसी नाम से एक मंदिर का निर्माण हुआ था। जो राम सखा की दूसरी गद्दी बनी। इसका निर्माण मैहर के तत्कालीन राजा दुर्जन सिंह कछवाह ने करवाया था। दुर्जन सिंह कछवाहा भारत में राजपूत जाति की उपजाति है। उनके कुछ परिवारों ने कई राज्यों और रियासतों पर शासन किया है जैसे अलवर, अंबर (जिसे बाद में जयपुर कहा जाने लगा) और मैहर आदि । कुंवर दुर्जन सिंह राजा मान सिंह के चौथे पुत्र थे। इनकी माता का नाम सहोद्रा गौड़ था. यह अत्यंत ही साहसी और पराक्रमी योद्धा थे. कुंवर दुर्जन सिंह के वंशजों को दुर्जन सिंहोत राजावत के नाम से जाना जाता है।
चित्रकूट में आगमन:-
अयोध्या के बड़े बड़े सन्त और महात्मा उनका दर्शन पाने के लिए लालायित रहते थे। इससे उनके यहां बहुत भीड़ भाड़ रहने लगी। अवध में इस भीड़ भाड़ से बचने और भगवान राम का मनोवांछित दर्शन ना पाने व्यथा के कारण तथा अयोध्या में बेचैनी पूर्ण समय बिताने के बाद, महाराज जी वहां से चित्रकूट चले गए और वहां कामद वन गिरी पर प्रमोदवन में अपनी प्रार्थना जारी रखी। निरंतर प्रभु के चिन्तन ध्यान और भक्ति के कारण चित्रकूट में अनेक सिद्धियां उनके चरणों की दासी हो गई।
    प्रभु का मिलन और वियोग तथा दर्शन बातचीत का लुका छिपी जारी रहा। एक बार ज्यादा दिनों तक दर्शन ना होने पर उनके मस्तिष्क में ये भाव आया । रूप सामर्थ्य चन्द्र में लिखा है -
"ते दिन ह्वे जो गए बिन देखे,ते दिन ह्वे जो गए बिन देखे।
ले चल कुटिल बदल जुल्फान छवि राज माधुरी वेशे।
केसर तिलक कंज मुख श्रम जल ललित लसत द्वई रेफे।
दशरथलाल लाल रघुवर बिनु बहुत जियब केही लेखे।
ते दिन ह्वे जो गए बिन देखे,ते दिन ह्वे जो गए बिन देखे।
डूब डूब उर श्याम सुरती कर प्राण रहे अवशेषे।
राम सखे विरहिन दोउ अखियां चाहत मिलन विशेषे।।"
    सरयू तट की भांति एक बार फिर यहां राम ने अपने जुगुल किशोर स्वरूप का दर्शन दिया। इसके संबंध में कुछ लाइनें राम सखे इस प्रकार लिखी है -
"अवध पुरी से आइके चित्रकूट की ओर।
राम सखे मन हर लियो सुन्दर युगुल किशोर।"
            भक्त भगवान का अब लुका छिपी का खेल होने लगा। अब प्रायः दर्शन होने लगे। वे इसका वर्णन सुनाते जाते और भक्त आनंदित होते रहते थे-
"आज की हाल सुनो सजनी मडये प्रकटी एक कौतुक भारी।
जेवत नारी बारात सभौ रघुनाथ लखे मिथिलेश उचारी।
श्री रघुवीर को देख स्वरूप भई मत विभ्रम गावनहारी।
भूली गयो अवधेश को नाम देने लगी मिथिलेश को गारी।।"
         अब तक की साधना और भक्ति से राम सखे की कुंडलिनी जागृति हो गई थी। उनकी सुरति खुलने लगी थी।योग में जब चाहा दर्शन होने लगा था । अब ध्यान लगाना नही पड़ता अपितु मानस पटल पर प्रभु की छवि खुद ब खुद आ जाती थी। उनके भंडारे में सामान्य सा भोजन बनता तो खत्म नहीं होता। राम सखे जी ध्यान में रसोई की जो कल्पना करते वह प्रभु प्रकट कर देते थे। एक दिन खुद महराज जी ने प्रभु के लिए ध्यान में रसोई बनाई। प्रभु उसे पूरा किए। नाना प्रकार के स्वाद और व्यंजन बन जाया करते थे।राम रसिकावली में राजा रघुराज सिंह ने लिखा है
"करई ध्यान में विपुल भावना,
जैसी छवि की होय कामना।
ध्यान में एक दिन रस रांचे,
राम भोग बनबै चित सांचे।
जो व्यंजन मन राम बनाए ,
सो तेहि प्रगट होई आए।।"
श्री रामजी का धनुष बाण के साथ दर्शन :-
महाराज जी को उन सभी भौतिक चीजों में कोई दिलचस्पी नहीं थी, जो वे करना चाहते थे, वे अपने भगवान के बारे में अधिक जानते हैं और दुनिया में और कुछ भी उनके लिए मायने नहीं रखता था। जब वह ध्यान और प्रार्थना में व्यस्त रहते थे कुछ और महात्मा उससे प्रभावित हुए उनके वास्तविकता का परीक्षण करना चाहे। वह उनसे बोले यदि भगवान राम अपने धनुष वाण के साथ प्रकट हो तो मानेगे कि महात्मा जी उनके सच्चे सेवक है। महात्माओं के सुनने के बाद महराज जी चुप हो गये और इसका उत्तर नहीं दिये। किन्तु रामजी ने इसे नहीं छोड़ा । इसके कुछ देर के बाद रामजी धनुष बाण धारण किए हुए प्रकट हुए और सिद्व किये महराज जी उनके सच्चे भक्त है। महराज जी के सामने धनुष वाण के साथ लेकर देखने व मुस्कराने को महात्मा जन प्रभु जी का महराज जी पर आर्शीबाद मानने लगे।
कुएं में गिरे भगवान के विग्रह को खुद बाहर आना पड़ा :-
यहां राम सखा मंदिर और जानकी मंदिर आज भी इस परम्परा का निर्वहन कर रहे हैं। उनके भजनों का प्रभाव जल्द ही पन्ना के तत्कालीन महाराज (राजा) के ध्यान में आया। राजा महाराज जी के दर्शन करने आए और महाराज जी की भक्ति से बहुत प्रभावित हुए। यह भी कहा जाता है कि चित्रकूट में एक बार जब महाराज जी अपनी सुबह की दिनचर्या समाप्त करने के बाद अपने शालिग्राम भगवान की पूजा की तैयारी कर रहे थे, तभी अचानक से मूर्ति नीचे की ओर लुढ़क गई और पास के कुएं में गिर गई। इस कारण महाराज जी बहुत आहत व शोकाकुल हुए। रोते हुए उसने दुःख में एक दोहा का जाप किया। जैसे ही उन्होंने दोहा समाप्त किया, कुएं में पानी का स्तर नाटकीय रूप से बढ़ गया और मूर्ति ने उन्हें पानी पर नृत्य करते हुए देखा, महाराज जी अभिभूत हो गए और उन्होंने भगवान को दोनों हाथों से गले लगाया। इसके बाद महाराज जी खुशी-खुशी अपनी पूजा करने चले गए।
उचेहरा में अस्थाई प्रवास :-
कुछ महात्मा यह भी बताते हैं कि महाराज जी के एक शिष्य उनके साथ रहे, वे लोगों से भिक्षा माँगते थे और ठाकुर जी के लिए भोग भी तैयार करते थे। ठाकुर जी के भोग के बाद, कई महात्माओं के पास प्रसाद था और वे संतुष्ट होकर लौटे। चित्रकूट में रहने के बाद महाराज जी उचेहरा (अब सतना जिला) में गए।लेकिन उन्हें वहाँ बहुत अच्छा नहीं लगा और संवत 1831विक्रमी (अर्थात 1774 ई.)में मैहर चले गए।
मैहर में तपोसाधना :-
उन्होंने मेहर राज्य के नीलमती गंगा के तट पर पर्णकुटी में गणेश जी के सामने भजन किया और मानसिक ध्यान पूजा और भगवद भजन में लग गए। बड़ा अखाड़ा एक प्राचीन मंदिर है। यह मंदिर शिव भगवान जी को समर्पित है। कम उम्र में रामलीला में शामिल होने के कारण, महाराज जी संगीत के साथ-साथ लेखन कौशल में भी पारंगत थे। उनका लेखन कौशल उनके कई पवित्र लेखन जैसे दोहावली, कवितावली से स्पष्ट होता है। उन्होंने कई पवित्र लेखन जैसे अष्टयाम, स्वाधिष्ठान- प्रतिपादक और नृत्य राघव मिलन भी लिखे जो वास्तव में अभूतपूर्व हैं

उन्होंने अनेक भाव पूर्ण और सरस दोहे भी लिखे हैं।उन्होंने द्वैत-भूषण नामक एक संस्कृत लेखन को लिखा था। अब महराज जी नित्य प्रति प्रभु का दर्शन पाने लगे थे।इस स्वरूप का वर्णन अपने पदों के माध्यम से करने लगे थे। उनके भक्त उसे याद करके घूमते फिरते और लोगों को सुनाया करते थे।
                         नवाब आसफ़ुद्दौला
अनेक सिद्धियों के ज्ञाता:-
नवाब आसफ़ुद्दौला अवध का एक रंगीन मिज़ाज और दरियादिल नवाब था । उसके बारे में कहा जाता है जिसे न दे मौला, उसे दे आसफ़ुद्दौला। लखनऊ का नवाब आसफदौला राम सखा महराज का भक्त हो गया था सुना जाता है कि एक बार एक गायक ने लखनऊ के नवाब आसफुद्दौला के समक्ष को निम्न पंक्तियाँ गाईं-
प्यारे तेरी छबीं वर ।
विश्रामी वंदन कुमार दशरथ के मार जुल्फें कारियों ।।
तीखी सजल लाल अज्जन युत लागत खोलन प्यारियाँ ।।
राम सखे दृग ओटन हमको दो ना पल भर न्यारियाँ।।"
       उपरोक्त पंक्तियों को सुनने के बाद नवाब आसफुद्दौला बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने गायक से लेखक के बारे में पूछा। उन्होंने उसे महाराज जी के बारे में बताया और यह भी बताया कि वह मैहर में रहते हैं। उन्होंने नवाब को यह भी बताया कि महाराज जी द्वारा लिखी गई कई अन्य उत्कृष्ट पंक्तियाँ हैं और कई गायक संगीत के कौशल को जानने के लिए उनकी पंक्तियों को गाते हैं। नवाब उस गायक की सूचना से बहुत प्रभावित हुए थे। उन्होंने महाराज के लिए अपने संदेश के साथ अपने नाजिर सन्देश वाहक भेजा, जिसमें उनसे लखनऊ आने और अपना भजन सुनाने का अनुरोध किया था। बदले में उन्हें प्रति वर्ष लगभग 3 लाख की राशि के साथ भेंट करने की बात कही थी। महाराज जी ने नरमी से यह कहते हुए धीरे से मना कर दिया कि उनके पास भगवान राम के साथ कुछ कमी नहीं है। जिस नाजिर सन्देश वाहक को सुनिश्चित करने के लिए उसने धन की एक झलक दिखाई, उसके लिए भगवान ने आश्चर्य चकित कर दिया था। वह नवाब के पास लौट आया और उसने वह सब कह सुनाया जो उसने वहां देखा था।
मेंहर में अंतिम सांस :-
महाराज जी विक्रमीय उन्नीसवीं संवत के प्रथम चरण यानी 1842 विक्रमी (अर्थात 1785 ई.) में मैहर में अपना शरीर त्याग कर अमरता प्राप्त की। उनकी समाधि मैहर में ही है। उसे बड़ा अखाड़ा कहा जाता है। यहां राम जानकी मंदिर में आज भी इस पंथ की पुजा पद्वति प्रचलित है। राम सखेन्दु जी महराज के नाम से उनकी ख्याति आज भी विद्यमान है। मैहर के पूर्व राजा की पत्नी ने भी दीक्षा प्राप्त की और साधु, महात्माओं के लिए जगह-जगह पर सहायता प्रदान की। राजस्थान के पुष्कर में राम सखा आश्रम में आज भी इस सम्प्रदाय के लोग पूजा आराधना करते है । अयोध्या, चित्रकूट, पुष्कर और मैहर सबसे प्रमुख स्थान हैं। रीवा, नागोद आदि क्षेत्रों में महाराज जी के शिष्यों की भारी संख्या है।
                       डा. राधे श्याम द्विवेदी 
(लेखक सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद पर कार्य कर चुके हैं। वर्तमान में साहित्य, इतिहास, पुरातत्व और अध्यात्म विषयों पर अपने विचार व्यक्त करते रहते हैं।)


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