आजकल गोस्वामी तुलसी दास जी के राम चरित मानस के एक चौपाई को आधार बनाकर कुछ नासमझ सुविधा- भोगी लोग समाज की परंपरागत व्यवस्था को त्रुटि पूर्ण बता रहे हैं। वे समाज में विद्वेष की भावना फैलाकर राजनीतिक लाभ लेना चाहते हैं। वास्तव में ना तो शास्त्रों ने और ना ही समाज ने इस वर्ग भेद को स्वीकृति दी है और ना ये सत्य को समझ पा रहे हैं।
शूद्र शब्द की व्युत्पत्ति:-
शुद्र नीच नही अपितु क्षुद्र (सामान्य) का प्रतिनिधित्व करने वाला शब्द है , इन्होंने अपनी मर्जी से समाज में अपनी जगह बनाई है। ये भारतीय समाज व्यवस्था में चक्राकार व्यवस्था में चतुर्थ क्रम के वर्ण है। इसे पहला क्रम मानकर पूरी शरीर संरचना का आधार भी कहा जा सकता है। यह कर्म के आधार पर निर्धारण किया जाता रहा है । किसी भी वर्ण का मानव अपनी मर्जी से अपना कर्म चुन भी सकता है और बदल भी सकता है। विश्वामित्र क्षत्रिय से ब्रह्मर्षि बन गए थे।स्कन्द पुराण में रत्नाकर नामक एक डाकू का वर्णन है जो देवर्षि नारद की प्रेरणा से राम नाम लेकर महान तपस्वी बनता है और अपना नाम वाल्मीकि रख लेता है। बादमें कर्मणा के बजाय जन्मना अवधारणा का विस्तार देखा गया है।
शूद्र शब्द मूलत: विदेशी है और संभवत: एक पराजित अनार्य जाति का मूल नाम था। वायु पुराण का कथन है कि शोक करके द्रवित होने वाले परिचर्यारत व्यक्ति शूद्र हैं। भविष्य पुराण में श्रुति की द्रुति (अवशिष्टांश) प्राप्त करने वाले शूद्र कहलाए गए हैं। वैदिक परंपरा अथर्ववेद में कल्याणी वाक (वेद) का श्रवण शूद्रों को विहित था। परंपरा है कि ऐतरेय ब्राह्मण का रचयिता महीदास इतरा (शूद्र) का पुत्र था। बाद में वेदाध्ययन का अधिकार शूद्रों से ले लिया गया था।
ऐतिहासिक संदर्भ :-
शूद्र जनजाति का उल्लेख डायोडोरस, टॉल्मी और ह्वेनत्सांग भी करते हैं। उत्तर वैदिक काल में शूद्र की स्थिति दास की थी अथवा नहीं इस विषय में निश्चित नहीं कहा जा सकता। वह कर्मकार और परिचर्या करने वाला वर्ग था।
महाभारत भी इस तथ्य को प्रमाणित करता है-
न विशेषोऽस्ति वर्णानां सर्वं ब्राह्ममिदं जगत्। ब्रह्मणा पूर्वसृष्टं हि कर्मभिर्वर्णतां गतम्॥
(महाभारत- शान्तिपर्व 188:10)
(अर्थात्-सारा मनुष्य-जगत् एक ब्रह्म की सन्तान है। वर्णों में कोई भेद नहीं है। ब्रह्मा के द्वारा रचा गया यह सारा संसार पहले सम्पूर्णतः ब्राह्मण ही था। मनुष्यों के कर्मों द्वारा यह वर्णों में विभक्त हुआ।)
मनु स्मृति में तो कहा है " जन्मना जायते शूद्रः"। यह वर्ण ,गुण और कर्म से होते हैं। गीता में कहा है, चातुवर्ण्यं मया श्रष्टम गुण कर्म विभागश: (4/13) अर्थात मैंने गुण व कर्म से चार वर्ण किये हैं।एक पिता के चार पुत्र चार वर्ण के हो सकते हैं । जिसकी बुद्धि ज्ञान प्रधान है वह ब्राह्मण, जिसकी न्याय रक्षा प्रधान है वह क्षत्रिय , किसी की व्यापार प्रधान वृत्ति है वह वैश्य और जिसकी बुद्धि केवल शरीर से सेवा करने की है वह शूद्र है। भगवान कृष्ण स्वयं क्षत्रिय वर्ण प्रधान थे। हमारे शरीर मे ही समझें तो सिर ब्राह्मण, भुजाएं क्षत्रिय, पेट वैश्य व पैर शूद्र हैं। कोई छोटा बड़ा नहीं, सबके सहयोग से शरीर का कार्य चलता है।
महाभारत सभी को जन्म से शुद्र बताता है :--
तावच्छूद्रसमो ह्येष यावद् वेदे न जायते।
तस्मिन्नेवं मतिद्वैधे मनु: स्वायम्भुवोब्रवीत्॥
(महाभारत वनपर्व 180 : 35)
(अर्थात् - जब तक बच्चे का संस्कार करके उसे वेद का स्वाध्याय न कराया जाय, तब तक वह शुद्र होता है। यह नियम स्वयंभू मनु द्वारा ही बनाया गया है। मनु महाराज क्षत्रिय राजा थे।)
भारतीय समाज सुधारक बी आर अम्बेडकर द्वारा लिखित पुस्तक हु वज़ द शूद्रस में ऋग्वेद, महाभारत और अन्य प्राचीन वैदिक धर्मग्रंथों का हवाला देते हुए वे कहते हैं कि शूद्र मूल रूप से आर्य थे।अंबेडकर आर्य जाति के सिद्धांत पर भी चर्चा करते हैं और अपनी पुस्तक में इंडो-आर्यन प्रवासन सिद्धांत को खारिज करते हैं। मध्य काल में कबीर, रैदास, पीपा प्रसिद्ध शूद्र संत हैं। असम के शंकरदेव द्वारा प्रवर्तित मत, पंजाब का सिक्ख संप्रदाय और महाराष्ट्र के बारकरी संप्रदाय ने शूद्र महत्त्व धार्मिक क्षेत्र में प्रतिष्ठित किया।
पुराणों में जो परम्पराएँ हैं, उनसे भी शूद्र शब्द 'शुच्' धातु से सम्बद्ध जान पड़ता है, जिसका अर्थ होता है, संतप्त होना। कहा जाता है कि ‘जो खिन्न हुए और भागे, शारीरिक श्रम करने के अभ्यस्त थे तथा दीन-हीन थे, उन्हें शूद्र बना दिया गया’।
समाज का प्रभाव :-
ब्राह्मणों द्वारा प्रस्तुत व्युत्पत्ति में शूद्रों की दयनीय अवस्था का चित्रण किया गया है, किन्तु बौद्ध व्युत्पत्ति में समाज में उनकी हीनता और न्यूनता का परिचय मिलता है। इन व्युत्पत्तियों से केवल इतना पता चलता है कि भाषा और व्युत्पत्ति सम्बन्धी व्याख्याएँ भी सामाजिक स्थितियों से प्रभावित होती हैं।
शूद्र दयनीय और उपेक्षित:-
उत्पत्ति के समय 'शूद्र वर्ण' की स्थिति दयनीय और उपेक्षित थी, यह बात ऋग्वेद और अथर्ववेद में वर्णित समाज के चित्रण से शायद ही सिद्ध होती है। इन संहिताओं में कहीं पर भी न तो 'दास' और आर्य के बीच और न शूद्र और 'उच्च वर्गों' के बीच भोजन और वैवाहिक प्रतिबंध का प्रमाण मिलता है।
इसका कोई आधार नहीं कि दास और शूद्र अपवित्र समझे जाते थे और न ही इसका कोई प्रमाण मिलता है कि उनके छू जाने से उच्च वर्णों के लोगों का शरीर और भोजन दूषित हो जाता था। अपवित्रता का सारा ढकोसला बाद में खड़ा किया गया, जब समाज 'कृषिप्रधान' होने के बाद वर्णों में बँट गया और ऊपर के वर्ण अपने लिए तरह-तरह की सुविधाएँ और विशेषाधिकार माँगने लगे।
शूद्र वर्ण का उद्भव:-
शूद्र वर्ण के उदभव के विषय में कहा गया है कि आंतरिक और बाहरी संघर्षों के कारण आर्य या आर्य-पूर्व लोगों की स्थिति ऐसी हो गई है। चूँकि संघर्ष मुख्यतया मवेशी के स्वामित्व को लेकर और बाद में भूमि को लेकर होता था, अत: जिनसे ये वस्तुएँ छीन ली जाती थीं, और जो अशक्त हो जाते थे, वे नए समाज में 'चतुर्थ वर्ण' कहलाने लगते थे। जिन परिवारों के पास इतने अधिक मवेशी हो गए और इतनी अधिक ज़मीन हो गई कि वे स्वयं सम्भाल नहीं पाते थे, तो उन्हें 'मज़दूरों' की आवश्यकता हुई और वैदिक काल के अन्त में ये शूद्र कहलाने लगे।
आर्थिक तथा सामाजिक विषमताओं के कारण आर्य और आर्येतर, दोनों के अन्दर श्रमिक समुदाय का उदय हुआ और ये श्रमिक आगे जाकर शूद्र कहलाए। समाज शास्त्रीय सिद्धान्त है कि 'वर्ग विभाजन' बराबर सजातीय असमानताओं से मूलतया सम्बद्ध होता है, किन्तु इस सिद्धान्त से शूद्रों और दासों की उत्पत्ति पर आंशिक प्रकाश ही पड़ता है। बहुत सम्भव है कि दासों और शूद्रों का नाम क्रमश: इन्हीं नामों की 'जनजातियों' के आधार पर रखा गया हो, जो भारतीय आर्यों के निकट सम्पर्क में रही हों। कालक्रम से आर्य - पूर्व आबादी के लोग और विपन्न आर्य भी इन वर्गों में शामिल हो गए होंगे। वैदिक काल के आरम्भिक लोगों में शूद्रों और दासों की जनसंख्या बहुत सीमित थी और उत्तरवर्ती वैदिक काल के अन्त से लेकर आगे तक शूद्र जिन अशक्तताओं के शिकार रहे हैं, वे आदि वैदिक काल में विद्यमान नहीं थीं।
महाभारत में चारो धर्मों की व्याख्या :-
:शाँतिपर्व’ के आरम्भ ही में भीष्म पितामह ने चारों वर्णों के धर्मों का वर्णन करते हुये कहा था— "अक्रोध, सत्य भाषण, धन को बाँट कर भोगना, क्षमा, अपनी स्त्री से सन्तान उत्पन्न करना, शौच, अद्रोह, सरलता और अपने पालनीय व्यक्तियों का पालन करना—ये नौ धर्म सभी वर्णों के लिये समान हैं।
जन्म नहीं कर्म से ब्राह्मण की उच्च पदवी :-
इन्द्रियों का दमन करना यह ब्राह्मणों का पुरातन धर्म है। इसके सिवाय स्वाध्याय का अभ्यास भी उनका प्रधान धर्म है, इसी से उनके सब कर्मों की पूर्ति हो जाती है। यदि अपने धर्म में स्थित, शान्त और ज्ञान-विज्ञान से तृप्त ब्राह्मण को किसी प्रकार के असत् कर्म का आश्रय लिये बिना ही धन प्राप्त हो जाय तो उसे दान या यज्ञ में लगा देना चाहिये। ब्राह्मण केवल स्वाध्याय से ही कृतकृत्य हो जाता है, दूसरे कर्म वह करे या न करे। दया की प्रधानता होने के कारण वह सब जीवों का मित्र कहा जाता है।” कोई व्यक्ति केवल जन्म से ब्राह्मण की उच्च पदवी का अधिकारी नहीं हो सकता, वरन् जो उस तरह के शुभ कर्म और त्याग का आचरण करेगा वही सम्मान और श्रद्धा का पात्र हो सकता है।
मानवीय कर्तव्यों की प्रमुखता :-
मानवीय कर्तव्यों का सर्वोच्च दिग्दर्शन कराने वाली ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ में भगवान कृष्ण ने स्वयं कहा है—
शमो दमस्तपः शौचं क्षाँति रार्जवमेव च।
ज्ञानं विज्ञानमस्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वमावगम्॥ 42॥
शौर्यम् तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम्।
दीनमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावगम्॥ 43॥
कृषिगोरक्ष्य वाणिज्यम् वैश्य कर्म स्वभावजम्॥ 44॥
परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यपि स्वभावजम्॥ 44
(गीता, अध्याय 18)
(अर्थात शम, दम, तप, शुद्धता, सहनशक्ति, सीधापन, ज्ञान, विज्ञान, आस्तिक्य ये सब स्वभाव ही से उत्पन्न हुये ब्राह्मण का कर्म है। स्वभाव ही से उत्पन्न क्षत्रिय के कर्म हैं, शौर्य, तेज धैर्य, दाक्षिण्य, युद्ध से न भागना दान तथा ईश्वर भाव। स्वभाव से उत्पन्न हुये वैश्य के कर्म हैं खेती, गोरक्षा तथा वाणिज्य। शूद्र का स्वाभाविक कर्म है परिचर्या।”)
एक ही वर्ण की प्रधानता:-
इस प्रकार गीता में स्वभाव को ही प्रधानता दी गई है।
इतना ही नहीं अधिकाँश शास्त्रों और पुराणों से यह भी प्रकट होता है कि पहले समय मनुष्य जाति का एक ही वर्ण था, चार वर्ण अथवा भिन्न-भिन्न जातियों की स्थापना बाद में हुई है। पहले सर्व वांग्मय प्रणव (ओंकार) ही एक मात्र वेद था। एक मात्र देवता नारायण थे और कोई नहीं। एक मात्र लौकिक अग्नि ही अग्नि थी और एकमात्र हंस ही एक वर्ण था।” इससे स्पष्ट जान पड़ता है कि प्राचीन समय में चार वर्णों के स्थान में एक ही वर्ण था। यही बात ‘महाभारत’ में कही गई है—
एक वर्ण मिदं पूर्वं विश्वमासीद् युधिष्ठिर।
कर्म क्रिया विभेदेन चातुर्वर्ण्यम् प्रतिष्ठितम्॥
न विशेषोऽस्ति वर्णानाम् सर्व ब्राह्ममिदं जगत्।
ब्रह्मणा पूर्व सृष्टं हि कर्मभिर्वर्णात् गतम्॥
(अर्थात्—”हे युधिष्ठिर, इस जगत में पहले एक ही वर्ण था। गुण-कर्म के विभाग से पीछे चार वर्ण स्थापित किये गये।
“वर्णों में कोई भी वर्ण किसी प्रकार की विशेषता नहीं रखता, क्योंकि यह सम्पूर्ण जगत ब्रह्ममय है। पहले सबको ब्रह्मा ने ही उत्पन्न किया है। पीछे कर्मों के भेद से वर्णों की उत्पत्ति हुई।”)
भिन्न-भिन्न युगों में बर्णभेद :-
“वायु-पुराण” में बतलाया गया है कि भिन्न-भिन्न युगों में मानव-समाज का संगठन विभिन्न प्रकार का था—
अप्रवृत्तिः कृतयुगे कर्मणोः शुभ पाययो।
वर्णाश्रम व्यवस्थाश्च तदाऽऽसन्न संकरः॥
त्रेतायुगे त्वविकलः कर्मारम्भ प्रसिध्यति।
वर्णानाँ प्रविभागाश्च त्रेतायाँ तु प्रकीर्तितः।
शाँताश्च शुष्मिणश्चैव कर्मिणो दुखनिस्तथा।
ततः प्रवर्त्तमानास्ते त्रेतायाँ जज्ञिरे पुनः॥
(वायु पुराण 8, 33, 49, 57)
(अर्थात्—”सतयुग में कर्मभेद, वर्णभेद, आश्रमभेद न था। त्रेतायुग में मनुष्यों की प्रकृतियाँ कुछ भिन्न-भिन्न होने लगीं, इससे कर्म-वर्ण आश्रम भेद आरम्भ हुये। तदनुसार शान्त, शुष्मी, कर्मी, और दुखी ऐसे नाम पड़े। द्वापर और कलि में प्रकृति-भेद और भी अभिव्यक्त हुआ, तदनुसार क्षत्रिय, ब्राह्मण, वैश्य, शूद्र नाम पड़े।”)
ब्रह्मा से उत्पत्ति :-
“सृष्टि के आदि में पहले चतुर्मुख ब्रह्मा ने ब्राह्मण ही बनाये। फिर दूसरे वर्ण उन्हीं ब्राह्मणों के वंश में अलग-अलग उत्पन्न हुये।”अनेक व्यक्ति “ऋग्वेद” के “ब्राह्मणोऽस्व मुखमासीद् बाहू राजन्या कृतः” वाले मन्त्र के आधार पर भगवान के विभिन्न अंगों से अलग-अलग वर्णों की उत्पत्ति बतला कर उनको ऊँचा नीचा सिद्ध करने का प्रयत्न करते हैं। पर “भविष्य महापुराण” के ब्रह्मपर्व (अध्याय 42) में इसको भ्रमपूर्ण बतलाते हुये लिखा है—
“यदि एक पिता के चार पुत्र हैं तो उन चारों की एक ही जाति होनी चाहिये। इसी प्रकार सब लोगों का पिता एक परमेश्वर ही है। इसलिए मनुष्य समाज में जातिभेद है ही नहीं। जिस प्रकार गूलर के पेड़ के अगले भाग, मध्य के भाग और जड़ के भाग तीनों में एक ही वर्ण और आकार के फल लगते हैं, उसी प्रकार एक विराट पुरुष, परमेश्वर के मुख, बाहु, पेट और पैर से उत्पन्न हुए मनुष्यों में (स्वाभाविक) जाति भेद कैसे माना जा सकता है?”
वास्तविक ब्राह्मण और शूद्र कौन :-
भारतवर्ष के मध्यकालीन और वर्तमान समय के इतिहास में जात-पाँत की समस्या बड़ी महत्वपूर्ण है। आजकल भारतवर्ष में जो कई हजार जातियाँ पाई जाती हैं उन सब का अस्तित्व प्राचीन काल से है। चार वर्णों का विभाजन अवश्य ही प्राचीन है। वेदों में यद्यपि चारों वर्णों का स्पष्ट रूप से उल्लेख नहीं है तो भी ब्राह्मण, राजन्य, पाणि, शूद्र आदि का नामोल्लेख कितने ही स्थानों पर मिलता है। उसके बाद की स्मृतियों में तो चारों वर्णों का पूरा वर्णन ही नहीं किया गया है वरन् उनके संयोग से उत्पन्न अनेक मिश्रित जातियों का भी विवरण दिया गया है। इससे यह कहा जा सकता है कि भारतीय समाज में जात-पाँत की प्रणाली अधिक नहीं तो कई हजार वर्ष पुरानी है।
समय के साथ जाति प्रथा में परिवर्तन:-
जात-पाँत की प्रथा के पुरानी होने पर भी पुराने और नये समय में बहुत बड़ा अन्तर हो गया है।
1. पहले जहाँ चार मुख्य जातियाँ और दस बीस उपजातियाँ थीं, वहाँ अब जातियों और उपजातियों की संख्या कई हजार तक पहुँच गई हैं। इनमें बहुसंख्यक जातियाँ तो दो-चार सौ वर्ष के भीतर ही उत्पन्न हुई हैं।
2. आरम्भ में यह विभाजन पूर्णतया कर्म पर आधारित था। इसका अर्थ यह है कि भगवान ने या नियति ने किसी को ब्राह्मण, क्षत्री या शूद्र नहीं बना दिया वरन् जो व्यक्ति या समूह जैसे कार्य करते थे वे वैसे ही माने जाते थे। पर ज्यों-ज्यों समय बीतता गया और लोगों में स्वार्थ तथा संकीर्णता के भाव प्रबल होते गये त्यों-त्यों जातिप्रथा में कठोरता आने लगी और अन्त में ऐसा समय आ पहुँचा जब कि लोगों को जाति और वर्ण का बदल सकना, एक जाति के व्यक्ति का दूसरी जाति में शामिल हो सकना असम्भव जान पड़ने लगा।
निष्कर्ष:- इस प्रकार सभी प्राचीन शास्त्रों, पुराणों, इतिहासों के प्रमाणों से यही सिद्ध होता है कि प्राचीन काल में वर्ण भेद नहीं था और बाद में जब चार वर्णों की व्यवस्था स्थापित भी की गई तो कर्म के अनुसार ही मनुष्यों का वर्ण माना जाता था। जैसे आज मुसलमानों और अंग्रेजों- अमेरिकनों में भी एक प्रकार का जाति-भेद पाया जाता है और उनके सामाजिक सम्बन्ध प्रायः उसी के अनुसार ही होते हैं, तो भी उनमें कट्टरता का भाव नहीं पाया जाता। नीची श्रेणी का कोई भी व्यक्ति विद्या और धन प्राप्त करके ऊँची श्रेणी में सम्मिलित हो जाता है और ऊंची श्रेणी का व्यक्ति अयोग्यता के फलस्वरूप नीची में पहुँच जाता है। इस प्रकार का श्रेणी विभाजन, जो कर्म और योग्यता के आधार पर स्वाभाविक रूप में हो, बुरा नहीं कहा जाता, वरन् उससे समाज की व्यवस्था में सहायता मिलती है।
वर्तमान समय में हिन्दू समाज में वर्ण-व्यवस्था तो नष्ट हो चुकी है और उसके स्थान पर बिना जड़ मूल की बिना आधार की जाति-प्रथा उत्पन्न हो गई है। इसको किसी दृष्टि से शास्त्रानुकूल या धर्म सम्मत नहीं कहा जा सकता और इस महा हानिकारक प्रथा को नष्ट किए बिना हिन्दू- समाज की स्थिति कदापि नहीं सुधर सकती। समरसता से चर्चा चिंतन मनन तो किया जा सकता है वैमनस्यता से ऊंच नीच का भाव समझना और भ्रम उत्पन्न करना एक समाज और राष्ट्र के लिए उचित नही है।
(लेखक सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद पर कार्य कर चुके हैं। वर्तमान में साहित्य, इतिहास, पुरातत्व और अध्यात्म विषयों पर अपने विचार व्यक्त करते रहते हैं।)
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