सखी या सखा भाव का सम्प्रदाय' 'निम्बार्क मत' की एक शाखा है। इस संप्रदाय में भगवान श्रीकृष्ण की उपासना सखी- सखा भाव से की जाती है। कवि नाभादास जी ने अपने 'भक्तमाल' में कहा है कि- "सखी सम्प्रदाय में राधा-कृष्ण की उपासना और आराधना की लीलाओं का अवलोकन साधक सखीभाव से कहता है। सखी सम्प्रदाय में प्रेम की गम्भीरता और निर्मलता दर्शनीय है। इस संप्रदाय के संस्थापक स्वामी हरिदास (जन्म संवत 1535 वि०) ने की थी। इस संप्रदाय के प्रसिद्द मंदिर वृंदावन मथुरा में श्री बांके बिहारी जी, निधिवन, राधा वल्लभ और प्रेम मंदिर आदि हैं। इसमें माधुर्य भक्ति और प्रेम भक्ति की जाती है । राधा कृष्ण की भांति सीताराम की उपासना में सखी भाव में उपासना होती है। स्वामी रामानन्द जी, गोस्वामी तुलसी दास जी, कवि नाभा दास जी और कवि अग्रदास जी इस कड़ी को आगे बढ़ाए हैं। इस माधुर्य उपासना में सखी भाव प्रिया - प्रियतम के प्रेम मिलन के भाव से पूजा और आराधना की जाती है। सखी भाव की तरह सखा भाव में कन्हैया कभी अपने दोस्त को पीठ पर लाद लेते हैं तो कभी दोस्त के पीठ पर बैठ लेते थे। कभी गेंद के लिए तो कभी फलादि के लिए लड़ते क्रीड़ा करते देखे गए हैं। इसी तरह सीताराम जी की उपासना में भगवान और मित्र का बराबर बराबर का भाव देखने को मिलता है।
सखा सम्प्रदाय के संस्थापक: श्रीमद् राम सखेंद्र जी महराज :-
श्रीमद् रामसखेंद्र जी महाराज ( निध्याचार्य जी महराज) का जन्म विक्रम संवत के 18वी सम्बत के आखिरी चरण या 18वीं शताब्दी के प्रथम भाग में चैत्र शुक्ल में राम नवमी को जयपुर में एक सुसंस्कृत गौड़ ब्राह्मण परिवार में हुआ था। राम सखा सम्प्रदाय 18वी संवत से प्रकाश में आया परन्तु सखी सम्प्रदाय तो सनातन काल से ही राम सखा ,राम सखी ,सीता सखी ,कृष्ण सखा ,कृष्ण सखी और राधा सखी आदि विविध रुपों में पुराणों व भक्ति साहित्य में पाया जाता रहा है। राम सखा जी के शिष्य गुरु की तरह निध्याचार्य उप नाम प्रयुक्त करने लगे थे।शील निधि सुशील निधि और विचित्र निधि उनके परम शिष्य थे। श्री 1008 सुखेन्द्र निध्याचार्य जी महाराज की तपोभूमि बड़ा अखाड़े के रूप में बहुत लोकप्रिय है। अयोध्या में चौथे गुरु अवध शरण ने उप नाम में परिवर्तन कर लिया। उचेहरा सहादौल और पुष्कर के आचार्यों ने न जाने कब से अपने उप नाम शरण प्रयोग करने लगे हैं।
जयपुर में बीता बचपन :- जयपुर में जन्में राम सखा जी जयपुर के रामलीला रिहल्सल में लक्ष्मण जी के रूप में भाग लेते थे। वे श्रीराम से इतना लगाव कर लिए कि वह वास्तव में उनका छोटा भाई होने का विश्वास करने लगे थे। एक दिन रिहल्सल के दौरान महाराज जी को भगवान राम का किरदार निभाना पड़ा था। जिसके परिणाम स्वरूप महाराज जी को भोजन नहीं मिल पाया था। महाराज जी ने पूरे दिन कुछ भी नहीं खाया और रात तक इतना परेशान थे कि वे पास के जंगल में चले गए और एक पेड़ के नीचे बैठ रोते रहे। रामलीला मंडली में युवा बच्चा गायब हो जाने के कारण हर कोई चिंतित था।
श्रीरामजी ने खुद खाना खिलाया :-
आधी रात तक जब महाराज जी पेड़ के नीचे रो रहे थे तब राम जी स्वयं स्वादिष्ट भोजन से भरे हाथों में सुनहरे बर्तन लेकर प्रकट हुए। प्रभु की मधुर वाणी सुनकर महाराज जी अभिभूत हो गए। दोनों ने एक-दूसरे को बड़े प्यार से गले लगाया। महाराज जी ने अपनी भूख को शांत किया और दोनों काफी देर तक बातें करते रहे। जिसके बाद भगवान राम अपने साथ लाए सभी सोने के बर्तनों को छोड़कर गायब हो गए।
मन्दिर के सोने के बर्तन गायब मिले :-
इधर जयपुर में जब राम मंदिर के पुजारियों ने मंदिर का दरवाजा खोला, तो वे सभी सोने के बर्तनों को गायब देखकर हैरान रह गए। बर्तन गायब होने की सूचना जयपुर नरेश तक पहुंची । राजा ने तुरंत लापता संपत्ति और चोर की गहन खोज का आदेश दिया। कुछ लोग जंगल में पहुंचे और देखा कि एक युवा लड़का अपने चारों ओर सोने के बर्तन के साथ पड़ा है। लोगों ने उनसे बर्तनों के बारे में पूछा तो महाराज जी ने उन्हें बताया कि राम जी ने उन्हें भोजन कराया, लेकिन बर्तनों को वापस नहीं ले गए। उन्हें लगा कि भगवान राम ने उन्हें अपने छोटे भाई के रूप में स्वीकार कर लिया है। इस समय तक महाराज जी जयपुर में ही थे। गलिता जयपुर के आचार्य ने उन्हें राम सखा उपाधि से विभूषित किया था । उनकी जन्मस्थली होने के कारण वे जयपुर छोड़कर पहले उडुपी और बाद में गुरु जी दीक्षा लेकर अयोध्या आएं थे।
राम सखे का गुरु घराना वैष्णव माध्व सम्प्रदाय है। यह एक संगठित समूह में नहीं होकर बिखरे हुए होते थे । इसके संस्थापक मध्वाचार्य ने इस सम्प्रदाय की स्थापना तेरहवीं शताब्दी के प्रारम्भिक दशकों में की थी। यह सम्प्रदाय भागवत पुराण पर आधारित होने वाला पहला सम्प्रदाय रहा है। उनके महत्त्वपूर्ण मन्दिर न तो वृन्दावन में हैं और ना कहीं अन्य जगह ही हैं। इस सम्प्रदाय के संस्थापक मध्वाचार्य दक्षिण के थे। उनका जन्म सन् 1199 ई. में हुआ था। जिस मन्दिर में वे रहते थे, वह अब भी 'उडीपी' नामक स्थान में विद्यमान है। वहाँ उन्होंने एक चमत्कारपूर्ण कृष्ण की मूर्ति स्थापित की थी, जो महाभारत के योद्धा अर्जुन ने बनाई बताते हैं। यह मूर्ति द्वारका से किसी जहाज़ में रख दी गई थी और मालाबार तट पर वह टकरा गया और नष्ट हो गया था।
माधव सम्प्रदाय की स्थापना:-
मध्वाचार्य की मृत्यु के 50 वर्ष बाद उनके शिष्य जयतीर्थ इस सम्प्रदाय के प्रमुख आचार्य हुए। इस संप्रदाय के गुरुओं ने तीर्थ उप नाम अपने नाम के आगे लगाना शुरू कर दिया। इस कारण राम सखा के गुरु वशिष्ठ भी वशिष्ठ तीर्थ के नाम से विख्यात रहे हैं। एक परवर्ती माध्व सन्त ईश्वरपुरी ने चैतन्यदेव को इस सम्प्रदाय में दीक्षित किया। इस नये नेता (चैतन्य) ने माध्व मत का अपनी दक्षिण की यात्रा में अच्छा प्रचार किया (1509- से 11 तक)। उन्होंने माध्वों को अपनी शिक्षा एवं भक्तिपूर्ण गीतों से प्रोत्साहित किया। इन्होंने उक्त सम्प्रदाय में सर्वप्रथम संकीर्तन एवं नगर कीर्तन का प्रचार किया। चैतन्यदेव की दक्षिण यात्रा के कुछ ही दिनों बाद कन्नड़ भाषा में गीत रचना आरम्भ हुई। माध्व संन्यासी शंकर के दशनामी सन्न्यासियों मे ही परिगणित हैं। स्वयं मध्व एवं उनके मुख्य शिष्य तीर्थ (दसनामियों में से एक) शाखा के थे। आदि शंकराचार्य ने हर दशनाम परंपरा को विभिन्न पीठों से जोड़ा। (1) तीर्थ (2) आश्रम (3) सरस्वती (4) भारती (5) वन (6) अरण्य (7) पर्वत (8) सागर (9) गिरि (10) पुरी।
सत्य की खोज राम सखे की उडुपी में दीक्षा :-
राम सखा महाराज जी जयपुर से निकलने के बाद विराट वैष्णव बन गए थे। उन्होंने सत्य का मार्ग खोजना शुरू कर दिया। राम सखेंद्र श्री राम जी के पिछ्ले जन्म से ही परम भक्त थे। वे युवास्था में तीर्थ यात्रा पर निकल पड़े थे। वे कर्नाटक के तीर्थ क्षेत्र उडुपी पहुंचे। श्रीमद् सखेंद्र जी महाराज ने माध्य संप्रदाय के आचार्य श्री वशिष्ठ तीर्थ से गुरु दीक्षा प्राप्त की थी। उन्होंने लिखा है -
"मध्य माध्य निज द्वैत मन मिलन द्वार हनुमान।
राम सखे विद सम्पदा उडुपी गुरु स्थान।।"
वहां के आचार्य ने उन्हें रामसखा की उपाधि दी थी। वे दक्षिण के उडीपि (कर्नाटक) में बड़ी तनमयता से गुरु की सेवा किये थे। वह अपने गुरु जी के साथ रहे और भगवान और उनके स्नेह को प्राप्त करने का कौशल सीख लिया था। उनका निवास नृत्य राघव कुंज के नाम से प्रसिद्व हुआ था ।
रामसखा जी का अयोध्या में आगमन:-
अयोध्या आकर राम सखा जी सरयू नदी के तट पर एक पर्णकुटी में भगवान को याद करते- करते अपना जीवन बिताया। वे प्रभु के दर्शन के लिए सरयू तट पर साधना करने लगे। उन्होंने भगवान राम के दर्शन का बहुत दिनों तक इंतजार किया।भगवान का विरह उन्हें असह्य होता जा रहा था। जब उनकी व्यथा बढ़ी तो वे प्रभु को उपालंभ भी देना शुरू कर दिए। संप्रदाय भासकर में उल्लिखित है -
“अरे शिकारी निर्दयी, करिया नृपति किशोर ।
क्यों तरसावत दरश को, राम सखे चित्त चोर ।।"
उनकी व्यथा देख एक बार प्रभु ने उन्हें अल्प समय के लिए दर्शन दिया। वे उनसे अंक में लिपट कर खूब रोए और खूब आनंद लिए। बाद में प्रभु जी अंतर्ध्यान हो गए। कुछ दिनों बाद फिर उन्हें दर्शन करने की तलब लगी। अब वे और बेचैन रहने लगे।जब उनकी बेचैनी असहय हो गई । उन्हें बेचैन मनोव्यथा जानकर इस बार रामजी माता सीता जी के साथ उन्हें युगल किशोर के दर्शन हुए। उनका सारा दुख दूर हो गया । प्रभु की झांकी का वर्णन : -
प्रभु श्री राम सीता की झांकी राम सखे जी के हृदय में एसे बैठ गया और उनके मुख से ये भाव निकले -
"बगिया शिर लाल हरी कलगी उर चंदन केसर खौर दिये।
मन मोहन राम कुमार सखी अनुभारी नहीं जग जन्म लिए।
पग नुपुर पीत कसी कछनी बन मालती के बन मॉल हिये।
बिहरे सरयू तट कुंजन में तनु राम सखे चित चोर लिए।।"
थोड़ी देर दर्शन के बाद प्रभु अंतर्ध्यान हो गए तो राम सखे
अब फिर रोना धोना शुरू कर दिया। इस व्यथा को लेकर वे चित्रकूट चले गए।
काछवाह राजा द्वारा अयोध्या में मन्दिर का निर्माण :-
बाद में अयोध्या में इसी नाम से एक मंदिर का निर्माण हुआ था।जो राम सखा की दूसरी गद्दी बनी। इसका निर्माण मैहर के तत्कालीन राजा दुर्जन सिंह कछवाह ने करवाया था। दुर्जन सिंह कछवाहा भारत में राजपूत जाति की उपजाति है। कुछ परिवारों ने कई राज्यों और रियासतों पर शासन किया है जैसे अलवर, अंबर (जिसे बाद में जयपुर कहा जाने लगा) और मैहर आदि । कुंवर दुर्जन सिंह राजा मान सिंह के चौथे पुत्र थे. इनकी माता का नाम सहोद्रा गौड़ था. यह अत्यंत ही साहसी और पराक्रमी योद्धा थे. कुंवर दुर्जन सिंह के वंशजों को दुर्जन सिंहोत राजावत के नाम से जाना जाता है।
चित्रकूट में आगमन:-
अयोध्या में बेचैनी पूर्ण समय बिताने के बाद, महाराज जी वहां से चित्रकूट चले गए और वहां कामद वन गिरी पर प्रमोदवन में अपनी प्रार्थना जारी रखी। बहुत दिनों तक दर्शन ना होने पर उनके मस्तिष्क में ये भाव आया । रूप सामर्थ्य चन्द्र में लिखा है -
"ते दिन ह्वे जो गए बिन देखे,ते दिन ह्वे जो गए बिन देखे।
ले चल कुटिल बदल जुल्फान छवि राज माधुरी वेशे।
केसर तिलक कंज मुख श्रम जल ललित लसत द्वई रेफे।
दशरथलाल लाल रघुवर बिनु बहुत जियब केही लेखे।
ते दिन ह्वे जो गए बिन देखे,ते दिन ह्वे जो गए बिन देखे।
डूब डूब उर श्याम सुरती कर प्राण रहे अवशेषे।
राम सखे विरहिन दोउ अखियां चाहत मिलन विशेषे।।"
सरयू तट की भांति एक बार फिर यहां राम ने अपने जुगुल किशोर स्वरूप का दर्शन दिया। इसके संबंध में कुछ लाइनें राम सखे इस प्रकार लिखी है -
"अवध पुरी से आइके चित्रकूट की ओर।
राम सखे मन हर लियो सुन्दर युगुल किशोर।"
भक्त भगवान का अब लुका छिपी का खेल होने लगा।अब प्रायः दर्शन होने लगे।वे इसका वर्णन सुनाते जाते और भक्त आनंदित होते रहते थे-
"आज की हाल सुनो सजनी मडये प्रकटी एक कौतुक भारी।
जेवत नारी बारात सभौ रघुनाथ लखे मिथिलेश उचारी।
श्री रघुवीर को देख स्वरूप भई मत विभ्रम गावनहारी।
भूली गयो अवधेश को नाम देने लगी मिथिलेश को गारी।।"
अब तक की साधना और भक्ति से राम सखे की कुंडलिनी जागृति हो गई थी।उनकी सुरति खुलने लगी थी।योग में जब चाहा दर्शन होने लगा था ।अब ध्यान लगाना नही पड़ता अपितु मानस पटल पर प्रभु की छवि खुद ब खुद आ जाती थी।
उनके भंडारे में सामान्य सा भोजन बनता तो खत्म नहीं होता।राम सखे जी ध्यान में रसोई की जो कल्पना करते वह प्रभु प्रकट कर देते थे। एक दिन खुद महराज जी ने प्रभु के लिए ध्यान में रसोई बनाई। प्रभु उसे पूरा किए। नाना प्रकार के स्वाद और व्यंजन बन। राम रसिकावली में राजा रघु राज सिंह ने लिखा है -
"करई ध्यान में विपुल भावना,
जैसी छवि की होय कामना।
ध्यान में एक दिन रस रांचे,
राम भोग बनबै चित सांचे।
जो व्यंजन मन राम बनाए ,
सो तेहि प्रगट होई आए।।"
श्री रामजी का धनुष बाण के साथ दर्शन :-
महाराज जी को उन सभी भौतिक चीजों में कोई दिलचस्पी नहीं थी, जो वे करना चाहते थे, वे अपने भगवान के बारे में अधिक जानते हैं और दुनिया में और कुछ भी उनके लिए मायने नहीं रखता था। जब वह ध्यान और प्रार्थना में व्यस्त रहते थे कुछ और महात्मा उससे प्रभावित हुए उनके वास्तविकता का परीक्षण करना चाहे। वह उनसे बोले यदि भगवान राम अपने धनुष वाण के साथ प्रकट हो तो मानेगे कि महात्मा जी उनके सच्चे सेवक है। महात्माओं के सुनने के बाद महराज जी चुप हो गये और इसका उत्तर नहीं दिये। किन्तु रामजी ने इसे नहीं छोड़ा । इसके कुछ देर के बाद रामजी धनुष बाण धारण किए हुए प्रकट हुए और सिद्व किये महराज जी उनके सच्चे भक्त है। महराज जी के सामने धनुष वाण के साथ लेकर देखने व मुस्कराने को महात्मा जन प्रभु जी का महराज जी पर आर्शीबाद मानने लगे।
कुएं में गिरे भगवान के विग्रह को खुद बाहर आना पड़ा :-
यहां राम सखा मंदिर और जानकी मंदिर आज भी इस परम्परा का निर्वहन कर रहे हैं। उनके भजनों का प्रभाव जल्द ही पन्ना के तत्कालीन महाराज (राजा) के ध्यान में आया। राजा महाराज जी के दर्शन करने आए और महाराज जी की भक्ति से बहुत प्रभावित हुए। यह भी कहा जाता है कि चित्रकूट में एक बार जब महाराज जी अपनी सुबह की दिनचर्या समाप्त करने के बाद अपने शालिग्राम भगवान की पूजा की तैयारी कर रहे थे, तभी अचानक से मूर्ति नीचे की ओर लुढ़क गई और पास के कुएं में गिर गई। इस कारण महाराज जी बहुत आहत व शोकाकुल हुए। रोते हुए उसने दुःख में एक दोहा का जाप किया। जैसे ही उन्होंने दोहा समाप्त किया, कुएं में पानी का स्तर नाटकीय रूप से बढ़ गया और मूर्ति ने उन्हें पानी पर नृत्य करते हुए देखा, महाराज जी अभिभूत हो गए और उन्होंने भगवान को दोनों हाथों से गले लगाया। इसके बाद महाराज जी खुशी-खुशी अपनी पूजा करने चले गए।
उचेहरा में अस्थाई प्रवास :-
कुछ महात्मा यह भी बताते हैं कि महाराज जी के एक शिष्य उनके साथ रहे, वे लोगों से भिक्षा माँगते थे और ठाकुर जी के लिए भोग भी तैयार करते थे। ठाकुर जी के भोग के बाद, कई महात्माओं के पास प्रसाद था और वे संतुष्ट होकर लौटे। चित्रकूट में रहने के बाद महाराज जी उचेहरा (अब सतना जिला) में गए।लेकिन उन्हें वहाँ बहुत अच्छा नहीं लगा और संवत 1831में मैहर चले गए।
मैहर में तपोसाधना :-
लखनऊ का नवाब आसफदौला उनका भक्त हो गया था
सुना जाता है कि एक बार एक गायक ने लखनऊ के नवाब आसफुद्दौला के समक्ष को निम्न पंक्तियाँ गाईं-
“प्यारे तेरी छबीं वर ।वि
श्रामी वंदन कुमार दशरथ के मार जुल्फें कारियों ।।
तीखी सजल लाल अज्जन युत लागत खोलन प्यारियाँ ।।
राम सखे दृग ओटन हमको दो ना पल भर न्यारियाँ।।"
उपरोक्त पंक्तियों को सुनने के बाद नवाब आसफुद्दौला बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने गायक से लेखक के बारे में पूछा। उन्होंने उसे महाराज जी के बारे में बताया और यह भी बताया कि वह मैहर में रहते हैं। उन्होंने नवाब को यह भी बताया कि महाराज जी द्वारा लिखी गई कई अन्य उत्कृष्ट पंक्तियाँ हैं और कई गायक संगीत के कौशल को जानने के लिए उनकी पंक्तियों को गाते हैं। नवाब उस गायक की सूचना से बहुत प्रभावित हुए थे। उन्होंने महाराज के लिए अपने संदेश के साथ अपने नाजिर सन्देशवाहक भेजा, जिसमें उनसे नवाब के स्थान लखनऊ आने और अपना भजन सुनाने का अनुरोध किया था। बदले में
उन्हें प्रति वर्ष लगभग 3 लाख की राशि के साथ भेंट करने की बात कही थी। महाराज जी ने नरमी से यह कहते हुए धीरे से मना कर दिया कि उनके पास भगवान राम के साथ कुछ कमी नहीं है। जिस नाजिर सन्देशवाहक को सुनिश्चित करने के लिए उसने धन की एक झलक दिखाई, उसके लिए भगवान ने आश्चर्य चकित कर दिया था। वह नवाब के पास लौट आया और उसने वह सब कह सुनाया जो उसने वहां देखा था।
मेंहर में अंतिम सांस :-
महाराज जी ने उन्नीसवीं संवत के प्रथम चरण यानी 1842 में मैहर में अमरता प्राप्त की। उनकी समाधि मैहर में ही है। उसे बड़ा अखाड़ा कहा जाता है। यहां राम जानकी मंदिर में आज भी इस पंथ की पुजा पद्वति प्रचलित है। राम सखेन्दु जी महराज के नाम से उनकी ख्याति आज भी विद्यमान है। (संदर्भ: भारतीय संस्कृति के रक्षक संत 51वें क्रम में उल्लखित )मैहर के पूर्व राजा की पत्नी ने भी दीक्षा प्राप्त की और साधु, महात्माओं के लिए जगह-जगह पर सहायता प्रदान की। राजस्थान के पुष्कर में राम सखा आश्रम में आज भी इस सम्प्रदाय के लोग पूजा आराधना करते है अयोध्या, चित्रकूट, पुष्कर और मैहर सबसे प्रमुख स्थान हैं। रीवा, नागोद आदि क्षेत्रों में महाराज जी के शिष्यों की भारी संख्या है।
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