एन. डी.ए. के चार साल तक
कारगर परिणाम दिखा नहीं
:- केन्द्र में माननीय नरेन्द्र मोदी की सरकार को आये चार साल व्यतीत होने वाले हैं
जिस उद्देश्य को लेकर यह पार्टी सत्ता में आयी थी संभवतः वह उसके करीब तक अभी नही पहुच
सकी है। सारा ताना बाना तो पुराना ही है जो नये नये अधिकरियों व मंत्रियो को पाठ पढ़ा
देते है। जब तक बुनियादी स्तर पर काया कल्प नहीं होगा तब तक सीटों पर बैठे बाबू और
अधिकारी सुधरने वाले नहीं है। मैं विगत एक साल 30 जून 2017 से सेवानिवृत्त हुआ हूं
परन्तु अभी तक एक भी लाभ का हकदार भारत का केन्द्रीय सरकार नहीं दिला पायी है, एसे
में कैसे मेरी जीविका चल रही है ? इसकावर्णन करना भी मेरे लिए संभव नहीं है। जब इन्तजार
की सारी हदें परर कर लिया तो आज यह पोस्ट लिखने का साहस जुटा सका हॅू।
भ्रष्टाचार का बोलबाला है- भ्रष्टाचार अर्थात भ्रष्ट + आचार।
भ्रष्ट यानी बुरा या बिगड़ा हुआ तथा आचार का मतलब है आचरण। अर्थात भ्रष्टाचार का शाब्दिक
अर्थ है वह आचरण जो किसी भी प्रकार से अनैतिक और अनुचित हो। आम तौर पर सरकारी सत्ता
और संसाधनों के निजी फायदे के लिए किये जाने वाले बेजा इस्तेमाल को भ्रष्टाचार की संज्ञा
दी जाती है। निजी या सार्वजनिक जीवन के किसी भी स्थापित और स्वीकार्य मानक का चोरी-छिपे
उल्लंघन भी भ्रष्टाचार है। विभिन्न मानकों और देशकाल के हिसाब से भी इसमें तब्दीलियाँ
होती रहती हैं। भ्रष्टाचार का मुद्दा एक ऐसा राजनीतिक प्रश्न है जिसके कारण कई बार
न केवल सरकारें बदल जाती हैं। बल्कि यह बहुत बड़े-बड़े ऐतिहासिक परिवर्तनों का वाहक भी
रहा है। भ्रष्टाचार राज्य द्वारा लोगों की आर्थिक गतिविधियों में हस्तक्षेप की मात्रा
और दायरे पर निर्भर करती है। बहुत अधिक टैक्स वसूलने वाले निजाम के तहत कर-चोरी को
सामाजिक जीवन की एक मजबूरी की तरह लिया जाता है। इससे एक सिद्धांत यह निकलता है कि
जितने कम कानून और नियंत्रण होंगे, भ्रष्टाचार की जरूरत उतनी ही कम होगी। इस दृष्टिकोण के पक्ष पूर्व सोवियत संघ और चीन समते
समाजवादी देशों का उदाहरण दिया जाता है जहाँ राज्य की संस्था के सर्वव्यापी होने के
बावजूद बहुत बड़ी मात्रा में भ्रष्टाचार की मौजूदगी रहती है।
काले धन की मौजूदगी भी भ्रष्टाचार
का कारण- साठ और सत्तर
के दशक में कुछ विद्वानों ने अविकिसित देशों के आर्थिक विकास के लिए एक सीमा तक भ्रष्टाचार
और काले धन की मौजूदगी को उचित करार दिया था। अर्नोल्ड जे. हीदनहाइमर जैसे सिद्धांतकारों
का कहना था कि परम्पराबद्ध और सामाजिक रूप से स्थिर समाजों को भ्रष्टाचार की समस्या
का कम ही सामना करना पड़ता है। लेकिन तेज रक्रतार से होने वाले उद्योगीकरण और आबादी
की आवाजाही के कारण समाज स्थापित मानकों और मूल्यों को छोड़ते चले जाते हैं। परिणामस्वरूप
बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार की परिघटना पैदा होती है। सत्तर के दशक में हीदनहाइमर की
यह सिद्धांत खासा प्रचलित था। भ्रष्टाचार विरोधी नीतियों और कार्यक्रमों की वकालत करने
के बजाय हीदनहाइमर ने निष्कर्ष निकाला था कि जैसे-जैसे समाज में समृद्धि बढ़ती जाएगी,
मध्यवर्ग की प्रतिष्ठा में वृद्धि होगी और शहरी सभ्यता व जीवन-शैली का विकास होगा,
इस समस्या पर अपने आप काबू होता चला जाएगा। लेकिन सत्तर के दशक में ही युरोप और अमेरिका
में बड़े-बड़े राजनीतिक और आर्थिक घोटालों का पर्दाफाश हुआ। इनमें अमेरिका का वाटरगेट
स्केंडल और ब्रिटेन का पौलसन एफेयर प्रमुख था। इन घोटालों ने मध्यवर्गीय नागरिक गुणों
के विकास में यकीन रखने वाले हीदनहाइमर के इस सिद्धांत के अतिआशावाद की हवा निकाल दी।
हाल ही में जिन देशों में आर्थिक घोटालों का पर्दाफाश हुआ है उनमें छोटे-बड़े और विकसित-अविकसित
यानी हर तरह के देश (चीन, जापान, स्पेन, मैक्सिको, भारत, चीन, ब्रिटेन, ब्राजील, सूरीनाम,
दक्षिण कोरिया, वेनेजुएला, पाकिस्तान, एंटीगा, बरमूडा, क्रोएशिया, इक्वेडोर, चेक गणराज्य,
वगैरह) हैं। भ्रष्टाचार को सुविधाजनक और हानिकारक मानने के इन परस्पर विरोधी नजरियों
से परे हट कर अगर देखा जाए तो अभी तक आर्थिक वृद्धि के साथ उसके किसी सीधे संबंध का
सूत्रीकरण नहीं हो पाया है। उदाहरणार्थ, एशिया के दो देशों, दक्षिण कोरिया और फिलीपींस,
में भ्रष्टाचार के सूचकांक बहुत ऊँचे हैं। लेकिन, कोरिया में आर्थिक वृद्धि की दर खासी
है, जबकि फिलीपींस में नीची।
आंकड़े झूठे नहीं
:-2005 में भारत में ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल नामक एक संस्था द्वारा किये गये
एक अध्ययन में पाया गया कि 62% से अधिक भारतवासियों को सरकारी कार्यालयों में अपना
काम करवाने के लिये रिश्वत या ऊँचे दर्जे के प्रभाव का प्रयोग करना पड़ा। वर्ष 2008
में पेश की गयी इसी संस्था की रिपोर्ट ने बताया है कि भारत में लगभग 20 करोड़ की रिश्वत
अलग-अलग लोकसेवकों को (जिसमें न्यायिक सेवा के लोग भी शामिल हैं) दी जाती है। उन्हीं
का यह निष्कर्ष है कि भारत में पुलिस कर एकत्र करने वाले विभागों में सबसे ज्यादा भ्रष्टाचार
है। आज यह कटु सत्य है कि किसी भी शहर के नगर निगम में रिश्वत दिये बगैर कोई मकान बनाने
की अनुमति नहीं मिलती। इसी प्रकार सामान्य व्यक्ति भी यह मानकर चलता है कि किसी भी
सरकारी महकमे में पैसा दिये बगैर गाड़ी नहीं चलती।
निर्णय लेने व विवेकाधिकार
प्रयोग में भी भ्रष्टाचार
:- किसी को निर्णय लेने का अधिकार मिलता है तो वह एक या दूसरे पक्ष में निर्णय ले सकता
है। यह उसका विवेकाधिकार है और एक सफल लोकतन्त्र का लक्षण भी है। परन्तु जब यह विवेकाधिकार
वस्तुपरक न होकर दूसरे कारणों के आधार पर इस्तेमाल किया जाता है तब यह भ्रष्टाचार की
श्रेणी में आ जाता है अथवा इसे करने वाला व्यक्ति भ्रष्ट कहलाता है। किसी निर्णय को
जब कोई शासकीय अधिकारी धन पर अथवा अन्य किसी लालच के कारण करता है तो वह भ्रष्टाचार
कहलाता है। भ्रष्टाचार के सम्बन्ध में हाल ही के वर्षों में जागरुकता बहुत बढ़ी है।
जिसके कारण भ्रष्टाचार विरोधी अधिनियम -1988, सिटीजन चार्टर, सूचना का अधिकार अधिनियम
- 2005, कमीशन ऑफ इन्क्वायरी एक्ट आदि बनाने के लिये भारत सरकार बाध्य हुई है। बर्तमान
नरेन्द्र मोदी की सरकार को आये चार साल व्यतीत होने वाले हैं जिस उद्देश्य को लेकर
यह पार्टी सत्ता में आयी थी संभवतः वह उसके करीब तक अभी नही पहुच सकी है। सारा ताना
बाना तो पुराना ही है जो नये नये अधिकरियों व मंत्रियो को पाठ पढ़ा देते है। जब तक बुनियादी
स्तर पर काया कल्प नहीं होगा तब तक सीटों पर बैठे बाबू और अधिकारी सुधरने वाले नहीं
है।
नौकरशाही का भ्रष्टाचार :- यह सर्वविदित है कि भारत में नौकरशाही
का मौजूदा स्वरूप ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन की देन है। इसके कारण यह वर्ग आज भी अपने
को आम भारतीयों से अलग, उनके ऊपर, उनका शासक और स्वामी समझता है। अपने अधिकारों और
सुविधाओं के लिए यह वर्ग जितना सचेष्ट रहता है, आम जनता के हितों, जरूरतों और अपेक्षाओं
के प्रति उतना ही उदासीन रहता है। भारत जब गुलाम था, तब महात्मा गांधी ने विश्वास जताया
था कि आजादी के बाद अपना राज यानी स्वराज्य होगा, लेकिन आज जो हालत है, उसे देख कर
कहना पड़ता है कि अपना राज है कहां? उस लोक का तंत्र कहां नजर आता है, जिस लोक ने अपने
ही तंत्र की स्थापना की? आज चतुर्दिक अफसरशाही का जाल है। लोकतंत्र की छाती पर सवार
यह अफसरशाही हमारे सपनों को चूर-चूर कर रही है। कांग्रेस की 70 साल की नीतियां इतनी
निम्न स्तर पर आ चुकी हैं कि इसे सुधरने में ना जाने कितनी सरकारें आयेंगी व जायेंगी।
यह भी निश्चित है कि लोकतंत्र में यह हो भी पायेगा या नहीं।
ब्रिटिश हुकूमत से यह फला
फूला :- देश की पराधीनता
के दौरान इस नौकरशाही का मुख्य मकसद भारत में ब्रिटिश हुकूमत को अक्षुण्ण रखना और उसे
मजबूत करना था। जनता के हित, उसकी जरूरतें और उसकी अपेक्षाएं दूर-दूर तक उसके सरोकारों
में नहीं थे। नौकरशाही के शीर्ष स्तर पर इंडियन सिविल सर्विस के अधिकारी थे, जो अधिकांशत
अंग्रेज अफसर होते थे। भारतीय लोग मातहत अधिकारियों और कर्मचारियों के रूप में सरकारी
सेवा में भर्ती किए जाते थे, जिन्हें हर हाल में अपने वरिष्ठ अंग्रेज अधिकारियों के
आदेशों का पालन करना होता था। लॉर्ड मैकाले द्वारा तैयार किए गए शिक्षा के मॉडल का
उद्देश्य ही अंग्रेजों की हुकूमत को भारत में मजबूत करने और उसे चलाने के लिए ऐसे भारतीय
बाबू तैयार करना था, जो खुद अपने देशवासियों का ही शोषण करके ब्रिटेन के हितों का पोषण
कर सकें।
नौकरशाही की विरासत और चरित्र
जस का तस :- स्वतंत्रता-प्राप्ति
के बाद भारत में लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था के तहत तमाम महत्वपूर्ण बदलाव हुए, लेकिन
एक बात जो नहीं बदली, वह थी नौकरशाही की विरासत और उसका चरित्र। कड़े आंतरिक अनुशासन
और असंदिग्ध स्वामीभक्ति से युक्त सर्वाधिक प्रतिभाशाली व्यक्तियों का संगठित तंत्र
होने के कारण भारत के शीर्ष राजनेताओं ने औपनिवेशिक प्रशासनिक मॉडल को आजादी के बाद
भी जारी रखने का निर्णय लिया। इस बार अनुशासन के मानदंड को नौकरशाही का मूल आधार बनाया
गया। यही वजह रही कि स्वतंत्र भारत में भले ही भारतीय सिविल सर्विस का नाम बदलकर भारतीय
प्रशासनिक सेवा कर दिया गया और प्रशासनिक अधिकारियों को लोक सेवक कहा जाने लगा, लेकिन
अपने चाल, चरित्र और स्वभाव में वह सेवा पहले की भांति ही बनी रही। प्रशासनिक अधिकारियों
के इस तंत्र को आज भी ‘स्टील फ्रेम ऑफ इंडिया’ कहा जाता है। नौकरशाह मतलब तना हुआ एक
पुतला। इसमें अधिकारों की अंतहीन हवा जो भरी है। हमारे लोगों ने ही इस पुतले को ताकतवर
बना दिया है। वे इतने गुरूर में होते हैं कि मत पूछिए। वे ऐसा करने का साहस केवल इसलिए
कर पाते हैं कि उनके पास अधिकार हैं, जिन्हें हमारे ही विकलांग-से लोकतंत्र ने दिया
है।
नौकरशाहों की मानसिकता में
बदलाव की जरूरत :-
भारत में अब तक हुए प्रशासनिक सुधार के प्रयासों का कोई कारगर नतीजा नहीं निकल पाया
है। वास्तव में नौकरशाहों की मानसिकता में बदलाव लाए जाने की जरूरत है। हालांकि, नौकरशाही
पर किताब लिख चुके पूर्व कैबिनेट सचिव टी.एस.आर. सुब्रमण्यम के मुताबिक राजनीतिक नियंत्रण
हावी होने के बाद ही नौकरशाही में भ्रष्टाचार आया, अब उनका अपना मत मायने नहीं रखता,
सब मंत्रियों और नेताओं के इशारों पर होता है। हमारे राजनीतिज्ञ करना चाहें, तो पांच
साल में व्यवस्था को दुरुस्त किया जा सकता है, लेकिन मौजूदा स्थिति उनके लिए अनुकूल
है, इसलिए वो बदलाव नहीं करते। 2019 का आम चुनाव इतना आयान नहीं होगा । यह एनडीए सरकार
की अग्नि परीक्षा की घड़ी होगी। हम 70 साल भले गवांये हैं पर अगला 5 साल कुछ समझ कर
ही दिया जाएगा। अब जनता जागरुक हो चुकी है और केवल भाषण व धोषणायें सुनकर निर्णय करने वाली नही है।
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