डा. राधेश्याम द्विवेदी ’नवीन’
पंडित मोहन प्यारे द्विवेदी ’’मोहन’’ का जन्म संवत
1966 विक्रमी तदनुसार 01 अप्रैल 1909 ई. में उत्तर प्रदेश के बस्ती जिला के हर्रैया
तहसील के कप्तानगंज विकास खण्ड के दुबौली दूबे नामक गांव मे एक कुलीन परिवार में हुआ
था। इनके पिता जी का नाम पंडित रामनाथ तथा पितामह का नाम पण्डित देवी पल्ट था। पंडित
जी का ननिहाल कप्तानगंज के निकट स्थित राजाजोत गांव में था। उनका बचपन वहुत ही कष्ट
के साथ बीता था। उनके ननिहाल के लोगों ने अपने पास रखकर पंडित जी को कप्तानगंज के प्राइमरी
विद्यालय में प्राइमरी शिक्षा तथा हर्रैया से मिडिल स्कूल में मिडिल कक्षाओं की शिक्षा
दिलवायी थी। बाद में संस्कृत पाठशाला विष्णुपुरा से संस्कृत विश्वविद्यालय की प्रथमा
तथा संस्कृत पाठशाला सोनहा से मध्यमा की पढाई पूरी किया था। पंडित जी को पड़ोस के गांव
करचोलिया में 1940 ई. में वहां के प्रधानजी के सहयोग तथा शिक्षा विभाग में भाग दौड़कर
एक दूसरा प्राइमरी विद्यालय खोलना पड़ा था। जो आज भी चल रहा है। 1955 में वह प्रधानाध्यापक
पद पर वहीं आसीन हुए थे। इस क्षेत्र में शिक्षा की पहली किरण इसी संस्था के माध्यम
से फैला था। वेसिक शिक्षा विभाग के अन्य जगहों में भी उन्हे स्थान्तरण पर जाना पड़ा
था। वर्ष 1971 में पण्डित जी प्राइमरी विद्यालय करचोलिया से अवकाश ग्रहण कर लिये थे।
उनके पढ़ाये अनेक शिष्य अच्छे अच्छे पदों को सुशोभित कर रहे हैं।
सन्त जीवन:-राजकीय जिम्मेदारियों से मुक्त होने के बाद वह देशाटन
व धर्म या़त्रा पर प्रायः चले जाया करते थे। उन्हांने श्री अयोध्याजी में श्री वेदान्ती
जी से दीक्षा ली थी। उन्हें सीतापुर जिले का मिश्रिख तथा नौमिष पीठ बहुत पसन्द आया
था। वहां श्री नारदानन्द सरस्वती के सानिध्य में वह रहने लगे थे। एक शिक्षक अपनी शिक्षण
के विना रह नही सकता है। इस कारण पंडित जी नैमिषारण्य के ब्रहमचर्याश्रम के गुरूकुल
में संस्कृत तथा आधुनिक विषयों की निःशुल्क शिक्षा देने लगे थे। उन्हें वहां आश्रम
के पाकशाला से भोजन तथा शिष्यों से सेवा सुश्रूषा मिल जाया करती थी। गुरूकुल से जाने
वाले धार्मिक आयोजनों में भी पंडित जी भाग लेने लगे थे। अक्सर यदि कही यज्ञानुष्ठान
होता तो पण्डित जी उनमें जाने लगे थे। वह अपने क्षेत्र में प्रायः एक विद्वान के रूप
में प्रसिद्व थे। ग्रामीण परिवेश में होते हुए घर व विद्यालय में आश्रम जैसा माहौल
था। घर पर सुबह और शाम को दैनिक प्रार्थनायें होती थी। इसमें घड़ी धण्टाल व शंख भी बजाये
जाते थे। दोपहर बाद उनके घर पर भागवत की कथा नियमित होती रहती थी । उनकी बातें बच्चों
के अलावा बड़े बूढे भी माना करते थे। वह श्रीकृष्ण जन्माष्टमी वे वड़े धूमधाम से अपने
गांव में ही मनाया करते थे। वह गांव वालों को खुश रखने के लिए आल्हा का गायन भी नियमित
करवाते रहते थे। रामायण के अभिनय में वे परशुराम का रोल बखूबी निभाते थे। 15 अपै्रल
1989 को 80 वर्ष की अवस्था में पण्डित जी ने अपने मातृभूमि में अतिम सासें लेकर परम
तत्व में समाहित हो गये थे।
प्रकाण्ड विद्वान तथा चिन्तक:- वह नियमित रामायण अथवा श्रीमद्भागवत का अध्ययन किया करते थे। संस्कृत का ज्ञान
होने के कारण पंडित जी रामायण तथा श्रीमद्भागवत के प्रकाण्ड विद्वान तथा चिन्तक थे।
उनहें श्रीमद्भागवत के सौकड़ो श्लोक कण्ठस्थ थे। इन पर आधारित अनेक हिन्दी की रचनायें
भी वह बनाये थे। वह ब्रज तथा अवधी दोनों लोकभाषाओं के न केवल ज्ञाता थे अपितु उस पर
अधिकार भी रखते थे। वह श्री सूरदास रचित सूरसागर का अध्ययन व पाठ भी किया करते रहते
थे। उनके छन्दों में भक्ति भाव तथा राष्ट्रीयता कूट कूटकर भरी रहती थी। प्राकृतिक चित्रणों
का वह मनोहारी वर्णन किया करते थे। वह अपने समय के बड़े सम्मानित आशु कवि भी थे। भक्ति
रस से भरे इनके छन्द बड़े ही भाव पूर्ण है। उनकी भाषा में मुदुता छलकती है। कवि सम्मेलनों
में भी हिस्सा ले लिया करते थे। अपने अधिकारियों व प्रशंसको को खुश करने के लिए तत्काल
दिये ये विषय पर भी वह कविता बनाकर सुना दिया करते थे। उनसे लोग फरमाइस करके कविता
सुन लिया करते थे। जहां वह पहुचते थे अत्यधिक चर्चित रहते थे। धीरे धीरे उनके आस पास
काफी विशाल समूह इकट्ठा हो जाया करता था। वे समस्या पूर्ति में पूर्ण कुशल व दक्ष थे।
नैमिषारण्य का वर्णन:-
शुभ तपोभूमि ऋषि-मुनियों की, ‘नैमिष’ ‘मिश्रिख’की पावन माटी।.
जहां अस्थिदान दे चुके दधीचि, यह त्याग तपस्या की परिपाटी।
यहां चक्र तीर्थ पावन पुनीत है, ललिता मैया की छवि सुभाटी ।
मैया सीता का धाम यहां , कण-कण में बसे श्रीराम सुहाटी।।1।।
तीर्थ नैमिष धाम की पहचान, बन रही यहां की गोमती मइया।
देव-ऋिषियों का गुणगान, कर रही यहां की प्यारी गइया।
ज्ञान गौरव भक्ति का भाव, भर रही इसके तट के रहवइया।
तीर्थ-मठ-मंदिर-गुरु ऋषियों, का धाम यह है गुरुवइया।।2।।
धेनुए सुहाती हरी भूमि पर जुगाली किये, मोहन बनाली बीच चिड़ियों का शोर है।
अम्बर घनाली घूमै जल को संजोये हुए, पूछ को उठाये धरा नाच रहा मोर है।
सुरभि लुटाती घूमराजि है सुहाती यहां, वेणु भी बजाती बंसवारी पोर पोर है।
गूंजता प्रणव छंद छंद क्षिति छोरन लौ, स्नेह को लुटाता यहां नितसांझ भोर है।।
3।।
प्रकृति यहां अति पावनी सुहावनी है, पावन में पूतता का मोहन का विलास है।
मन में है ज्ञान यहां तन में है ज्ञान यहां, धरती गगन बीच ज्ञान का प्रकाश है।
अंग अंग रंगी है रमेश की अनूठी छवि, रसना पै राम राम रस का निवास है।
शान्ति सुहाती यहां हिय में हुलास लिये, प्रभु के निवास हेतु सुकवि मवास है।।4।।
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