Thursday, January 19, 2023

रामजी के ही सहचर सखा से राम सखा सम्प्रदाय बना --- डॉ.राधे श्याम द्विवेदी

रावण की मृत्यु के बाद उनके अनुचर सखा गण को राम आभार सहित अपने अपने धाम को जाने को कहा।पर कोई नहीं वापस गया। सभी सजी धजी अयोध्या देखने आ गए थे। 
         कंचन कलस बिचित्र संवारे। 
          सबहिं धरे सजि निज निजद्वारे॥ 
           बंदनवार पताका केतू। 
           सबन्हि बनाए मंगल हेतू।। 
        छः माह तक उन सबकी खूब आव भगत होती रही। उन्हें उपहार वस्त्र आभूषण देकर विदा किया गया।वे राम की छवि अपने हृदय में बसाकर लौट गए ,परंतु कई वीर सखा स्थाई रूप से अयोध्या वासी हो गए। जब रामजी बैकुंठ जा रहे थे तो अपने इन सखा वीरों को रामकोट और अयोध्या की रखवाली का दायित्व भी दे दिया था।
        श्री रुद्रयामलोक्त अयोध्या महात्म्य के अध्याय 6 श्लोक 30 से 46 के मध्य रामकोट की सुरक्षा में लगे सभी वीरों और सखाओं के स्थान के बारे में विस्तार से जानकारी दिया गया है। इनमे अनेक स्थल तो राम जन्म भूमि न्यास के अधिग्रहण क्षेत्र की सीमा में आते हैं। कुछ को तो न्यास अपनी नई संरचना में स्थान भी दे रहा है।
         रामकोट राजप्रासाद के मुख्य फाटक पर अंजनी नन्दन पवन पुत्र श्रीहनुमानजी का निवास है | उनके दक्षिण पाशर्व में श्रीसुग्रीवजी प्रतिष्ठित है। इसी दुर्ग से मिला हुआ अंगदजी का दुर्ग है | रामकोट के दक्षिण द्वार पर नल नील की स्थिति है। नवरत्न कुबेर जी से पूर्व में सुषेण रहते है | नवरत्न कुबेर नामक स्थान के उत्तर में गवाक्ष जी का स्थान है।रामकोट के पश्चिम द्वार पर दाधिवक्त्र जी प्रतिष्ठित हैं | उसी पश्चिम भाग में दाधिवक्त्र के उत्तर में स्थित द्वारदेश में दुर्गेश्वर के में से स्थान रहा है। उनके निकट शतवली जी का और कुछ दूर पर गन्धमादन जी का स्थान है।उससे आगे ऋषभ जी तथा उनके आगे शरभ जी , उनसे आगे पनस जी विराजमान हैं | राम दुर्ग के उत्तर द्वार पर प्रधान रक्षक का भार विभीषण जी पर रहा| उनके साथ उनकी स्त्री 'सरमादेवी' भी रहा करती हैं जो अयोध्या में हर्ष पूर्वक रहकर धर्मशील जनों की रक्षा और दुष्ट बुद्धि वालों का भक्षण करती है। शरमा जी के पूर्व में विघ्नेशवर देव का स्थान है। जिनके स्मरण मात्र से विघ्नों का लेश भी नहीं आ सकता है।विघ्नेशवर देवजी के पूर्व दिशा में बलवान श्री पिण्डारक जी का स्थान है। ये पापियों को दंड दिया करते हैं। पिण्डारक जी के पूर्व दिशा में बड़े ही बीर और मंगल करने वाले विभीषण जी के पुत्र मतगजेंद्र (मात गैंड) जी का स्थान है। ये अयोध्या के कोटपाल ( कोतवाल) हैं तथा सभी कामनाओं को पूर्ण करने वाले हैं। इनको रामकोट के उत्तर फाटक के पाशर्व स्थापित किया गया | इनके पूर्व दिशा में द्विविदजी का स्थान है। मतगजेंद्र जी के ईशान कोण में बुद्धिशाली मयंद जी बिराजते हैं।मयंद जी के दक्षिण दिशा की प्रधान रक्षा का भार जांबवान जी बिराजते हैं। जांबवान जी के दक्षिण तरफ केशरीजी बिराजते हैं। इस प्रकार दुर्ग रामकोट की चतुर्दिक रक्षा होती रही है।
        ब्रह्मा से इन लोगों ने बानर और रीक्ष का शरीर रामकाज के लिए धारण किया था। इनमें अथाह बल था। भगवान इन सबको अपना सखा मानते थे। इनकी प्रशंसा करते हुए राम गुरुदेव वशिष्ठ से कहते हैं --
           ए सब सखा सुनहु मुनि मेरे। 
           भए समर सागर कहँ बेरे।। 
            मम हित लागि जन्म इन्ह हारे। 
            भरतहु ते मोहि अधिक पिआरे।।
       इन सहचरों का भी प्रभु पर इतना प्रेम था कि वे लोग जी जान से युद्ध करने पर भी इसे प्रभु की सेवा में तुच्छ कार्य भी नहीं गिनते। भगवान द्वारा प्रशंसा किए जाने पर वे कहते हैं -- 
             सुनि प्रभु बचन लाज हम मरही।
             मसक कहूं खग पति हित करहीं।।
राम सखा सम्प्रदाय का विस्तार:-
सखी या सखा भाव का सम्प्रदाय' 'निम्बार्क मत' की एक शाखा है। इस संप्रदाय में भगवान श्रीकृष्ण की उपासना सखी- सखा भाव से की जाती है। कवि नाभादास जी ने अपने 'भक्तमाल' में कहा है कि- "सखी सम्प्रदाय में राधा-कृष्ण की उपासना और आराधना की लीलाओं का अवलोकन साधक सखीभाव से कहता है। सखी सम्प्रदाय में प्रेम की गम्भीरता और निर्मलता दर्शनीय है। इस संप्रदाय के संस्थापक स्वामी हरिदास (जन्म संवत 1535 वि०) ने की थी। इस संप्रदाय के प्रसिद्द मंदिर वृंदावन मथुरा में श्री बांके बिहारी जी, निधिवन, राधा वल्लभ और प्रेम मंदिर आदि हैं। इसमें माधुर्य भक्ति और प्रेम भक्ति की जाती है ।
            राम जी के अभिन्न सहचर सखाओं ने बाद में राम सखा संप्रदाय की स्थापना करके अपने प्रभु से जुड़ने और उनकी भक्ति को और गहरी बनाने का उपक्रम किया है। राधा कृष्ण की भांति सीताराम की उपासना में सखी भाव में उपासना होती है। स्वामी रामानन्द जी, गोस्वामी तुलसी दास जी, कवि नाभा दास जी और कवि अग्रदास जी इस कड़ी को आगे बढ़ाए हैं। इस माधुर्य उपासना में सखी भाव प्रिया - प्रियतम के प्रेम मिलन के भाव से पूजा और आराधना की जाती है। सखी भाव की तरह सखा भाव में कन्हैया कभी अपने दोस्त को पीठ पर लाद लेते हैं तो कभी दोस्त के पीठ पर बैठ लेते थे। कभी गेंद के लिए तो कभी फलादि के लिए लड़ते क्रीड़ा करते देखे गए हैं। इसी तरह सीताराम जी की उपासना में भगवान और मित्र का बराबर बराबर का भाव देखने को मिलता है। राम सखेंदु जी महाराज नेअठारहवीं संवत में इसकी स्थापना की थी।
        सखी सम्प्रदाय तो सनातन काल से ही राम सखा ,राम सखी ,सीता सखी ,कृष्ण सखा ,कृष्ण सखी और राधा सखी आदि विविध रुपों में पुराणों व भक्ति साहित्य में पाया जाता रहा है। राम सखा जी के शिष्य गुरु की तरह निध्याचार्य उप नाम प्रयुक्त करने लगे थे। शील निधि सुशील निधि और विचित्र निधि उनके परम शिष्य थे। श्री 1008 सुखेन्द्र निध्याचार्य जी महाराज की तपोभूमि बड़ा अखाड़े के रूप में मैहर में बहुत लोकप्रिय है। 
         राम सखा महाराज जी जयपुर से निकलने के बाद विराट वैष्णव बन गए थे। वे कर्नाटक के तीर्थ क्षेत्र उडुपी पहुंचे। श्रीमद् सखेंद्र जी महाराज ने माध्य संप्रदाय के आचार्य श्री वशिष्ठ तीर्थ से गुरु दीक्षा प्राप्त की थी। उन्होंने लिखा है -   
         "मध्य माध्य निज द्वैत मन मिलन द्वार हनुमान।
        राम सखे विद सम्पदा उडुपी गुरु स्थान।।"
       वहां के आचार्य ने उन्हें रामसखा की उपाधि दी थी। वे दक्षिण के उडीपि (कर्नाटक) में बड़ी तनमयता से गुरु की सेवा किये थे। उनका निवास नृत्य राघव कुंज के नाम से प्रसिद्व हुआ था । 
रामसखा जी का अयोध्या में आगमन:-
अयोध्या आकर राम सखा जी सरयू नदी के तट पर एक पर्णकुटी में भगवान को याद करते- करते अपना जीवन बिताया। वे प्रभु के दर्शन के लिए सरयू तट पर साधना करने लगे। जब उनकी व्यथा बढ़ी तो वे प्रभु को उपालंभ भी देना शुरू कर दिए। संप्रदाय भासकर में उल्लिखित है -
       “अरे शिकारी निर्दयी, करिया नृपति किशोर ।
       क्यों तरसावत दरश को, राम सखे चित्त चोर ।।"
        उनकी व्यथा देख एक बार प्रभु ने उन्हें अल्प समय के लिए दर्शन दिया। वे उनसे अंक में लिपट कर खूब रोए और खूब आनंद लिए। बाद में प्रभु जी अंतर्ध्यान हो गए। कुछ दिनों बाद फिर उन्हें दर्शन करने की तलब लगी। अब वे और बेचैन रहने लगे।जब उनकी बेचैनी असहय हो गई । उन्हें बेचैन मनोव्यथा जानकर इस बार रामजी माता सीता जी के साथ उन्हें युगल किशोर के दर्शन हुए। उनका सारा दुख दूर हो गया।
काछवाह राजा द्वारा अयोध्या में मन्दिर का निर्माण :-
बाद में अयोध्या में इसी नाम से एक मंदिर का निर्माण हुआ था।जो राम सखा की दूसरी गद्दी बनी। इसका निर्माण मैहर के तत्कालीन राजा दुर्जन सिंह कछवाह ने करवाया था।
कुंवर दुर्जन सिंह राजा मान सिंह के चौथे पुत्र थे. इनकी माता का नाम सहोद्रा गौड़ था. यह अत्यंत ही साहसी और पराक्रमी योद्धा थे. कुंवर दुर्जन सिंह के वंशजों को दुर्जन सिंहोत राजावत के नाम से जाना जाता है।
चित्रकूट में आगमन:-
अयोध्या में बेचैनी पूर्ण समय बिताने के बाद, महाराज जी वहां से चित्रकूट चले गए और वहां कामद वन गिरी पर प्रमोदवन में अपनी प्रार्थना जारी रखी। बहुत दिनों तक दर्शन ना होने पर उनके मस्तिष्क में ये भाव आया । रूप सामर्थ्य चन्द्र में लिखा है -
"ते दिन ह्वे जो गए बिन देखे,ते दिन ह्वे जो गए बिन देखे।
ले चल कुटिल बदल जुल्फान छवि राज माधुरी वेशे।
केसर तिलक कंज मुख श्रम जल ललित लसत द्वई रेफे।
दशरथलाल लाल रघुवर बिनु बहुत जियब केही लेखे।
ते दिन ह्वे जो गए बिन देखे,ते दिन ह्वे जो गए बिन देखे।
डूब डूब उर श्याम सुरती कर प्राण रहे अवशेषे।
राम सखे विरहिन दोउ अखियां चाहत मिलन विशेषे।।"
        सरयू तट की भांति एक बार फिर यहां राम ने अपने जुगुल किशोर स्वरूप का दर्शन दिया। इसके संबंध में कुछ लाइनें राम सखे इस प्रकार लिखी है -
"अवध पुरी से आइके चित्रकूट की ओर।
राम सखे मन हर लियो सुन्दर युगुल किशोर।"
        भक्त भगवान का अब लुका छिपी का खेल होने लगा।अब प्रायः दर्शन होने लगे।वे इसका वर्णन सुनाते जाते और भक्त आनंदित होते रहते थे-
"आज की हाल सुनो सजनी मडये प्रकटी एक कौतुक भारी।
जेवत नारी बारात सभौ रघुनाथ लखे मिथिलेश उचारी।
श्री रघुवीर को देख स्वरूप भई मत विभ्रम गावनहारी।
भूली गयो अवधेश को नाम देने लगी मिथिलेश को गारी।।"
         अब तक की साधना और भक्ति से राम सखे की कुंडलिनी जागृति हो गई थी।उनकी सुरति खुलने लगी थी।योग में जब चाहा दर्शन होने लगा था ।अब ध्यान लगाना नही पड़ता अपितु मानस पटल पर प्रभु की छवि खुद ब खुद आ जाती थी।
उचेहरा में अस्थाई प्रवास :-
कुछ महात्मा यह भी बताते हैं कि महाराज जी के एक शिष्य उनके साथ रहे, वे लोगों से भिक्षा माँगते थे और ठाकुर जी के लिए भोग भी तैयार करते थे। ठाकुर जी के भोग के बाद, कई महात्माओं के पास प्रसाद था और वे संतुष्ट होकर लौटे। चित्रकूट में रहने के बाद महाराज जी उचेहरा (अब सतना जिला) में गए।लेकिन उन्हें वहाँ बहुत अच्छा नहीं लगा और संवत 1831में मैहर चले गए।
मैहर में तपोसाधना :-
मैहर आकार वह नीलमती गंगा के तट पर उन्होंने एक पर्णकुटी में गणेश जी के सामने भजन किया। बड़ा अखाड़ा एक प्राचीन मंदिर है। यह मंदिर शिव भगवान जी को समर्पित है। बड़ा अखाड़ा मंदिर में आपको मंदिर और आश्रम देखने के लिए मिल जाता है। यह मंदिर शिव भगवान जी को समर्पित है। यहां पर शिव भगवान जी की बहुत बड़ा शिवलिंग मंदिर के छत पर बना हुआ है, जो बहुत ही सुंदर लगता है। इसके अलावा मंदिर में 108 शिवलिंग विराजमान है। उनके दर्शन भी आप यहां पर आकर कर सकते हैं। यहां पर आपको एक प्राचीन कुआं भी देखने के लिए मिल जाएगा। यहां पर राम जी का मंदिर, गणेश जी का मंदिर और हनुमान जी का मंदिर भी है। आप इन सभी मंदिरों में घूम सकते हैं। बड़ा अखाड़ा में आपको आश्रम भी देखने के लिए मिलता है। आश्रम का जो प्रवेश द्वार है। वह बहुत ही खूबसूरत है। आश्रम के प्रवेश द्वार में आपको हनुमान जी की प्रतिमा देखने के लिए मिलती है और शंकर जी की प्रतिमा देखने के लिए मिलती है, जो बहुत ही खूबसूरत लगती है। इस आश्रम के अंदर आपको बगीचा भी देखने के लिए मिल जाता है। यहां पर बहुत सारे ब्राह्मण विद्यार्थी रहते हैं, जिन्हें यहां पर शिक्षा दीक्षा दी जाती है।
 राम सखा जू महाराज :-
श्री राम सखा जू महाराज, हिंदू धर्म के माधव संप्रदाय के प्रतिपादक और अनुयायी थे, लगभग दो सौ साल पहले जयपुर से मैहर आए और मैहर में एक मठ की स्थापना की, जिसे "श्री राम सखेंद्र जू का अखाड़ा" कहा जाता है; कि उन्होंने अखाड़े में 'राम-जानकी' की एक छवि स्थापित की, जिसकी पूजा संप्रदाय के अनुयायी करते थे; कि कई व्यक्तियों ने अखाड़े को संपत्तियां दीं और मैहर के तत्कालीन शासक ने भी अखाड़े के रखरखाव और देवता की पूजा के लिए एक गांव दिया था। "बडा अखाड़ा" ट्रस्ट का गठन किया गया था और एक सोसायटी के रूप में पंजीकृत किया गया था।
 मेंहर में अंतिम सांस :-
महाराज जी ने उन्नीसवीं संवत के प्रथम चरण यानी 1842 में मैहर में अमरता प्राप्त की। उनकी समाधि मैहर में ही है। उसे बड़ा अखाड़ा कहा जाता है। यहां राम जानकी मंदिर में आज भी इस पंथ की पुजा पद्वति प्रचलित है। राम सखेन्दु जी महराज के नाम से उनकी ख्याति आज भी विद्यमान है। राजस्थान के पुष्कर में राम सखा आश्रम में आज भी इस सम्प्रदाय के लोग पूजा आराधना करते है अयोध्या, चित्रकूट, पुष्कर और मैहर सबसे प्रमुख स्थान हैं। रीवा, नागोद आदि क्षेत्रों में महाराज जी के शिष्यों की भारी संख्या है। 
पृथक राम सखा सम्प्रदाय का उद्भव ;-
श्रीमद् सखेंद्र जी महाराज (संभवतः निध्याचार्य जी महराज) का जन्म विक्रमसंवत के आखिरी चरण चैत्र शुक्ल में राम नवमी को जयपुर में एक सुसंस्कृत गौड़ ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उन्होंने श्री वशिष्ठ मुनि से गुरु दीक्षा प्राप्त की। गलिता के आचार्य ने उन्हें रामसखा की उपाधि दी थी। वे दक्षिण के उडीपि कर्नाटक में गये जहां बड़ी तनमयता से गुरु की सेवा की थी।उनका निवास नृत्य राघव कुंज के नाम से प्रसिद्व हुआ था । सखेंद्र जी महाराज को जब लगा कि भगवान राम ने उन्हें अपने छोटे भाई के रूप में स्वीकार कर लिया है। उसी क्षण महाराज जी ने घर छोड़ दिया और विराट वैष्णव बन गए।उन्होंने सत्यता का मार्ग खोजना शुरू कर दिया। वह अपने गुरु जी के साथ रहे और भगवान और उनके स्नेह को प्राप्त करने का कौशल सीखा। इस समय तक महाराज जी जयपुर में ही थे, लेकिन उनकी जन्मस्थली होने के कारण वे जयपुर छोड़कर अयोध्या पुरी चले गए। अयोध्या में गुरुजी के आवास का नाम नृत्य राघव कुंज के नाम से प्रसिद्व हुआ था। अयोध्या आकर उन्होंने सरयू नदी के तट के अलावा एक पर्णकुटी में भगवान को याद करने के लिए जीवन बिताया। महाराज जी को उन सभी भौतिक चीजों में कोई दिलचस्पी नहीं थी, जो वे करना चाहते थे, वे अपने भगवान के बारे में अधिक जानते हैं और दुनिया में और कुछ भी उनके लिए मायने नहीं रखता था। जब वह ध्यान और प्रार्थना में व्यस्त थे कुछ और महात्मा उससे प्रभावित हुए उनके वास्तविकता का परीक्षण करना चाहे। वह उनसे बोले यदि भगवान राम अपने धनुष वाण के साथ प्रकट हो तो मानेगे कि महात्मा जी उनके सच्चे सेवक है। महात्माओं के सुनने के बाद महराज जी चुप हो गये और इसका उत्तर नहीं दिये। किन्तु रामजी ने इसे नहीं छोड़ा । इसके कुछ देर के बाद रामजी प्रकट हुए और सिद्व किये महराज जी सच्चे भक्त है। यह महात्माओं के लिए एक पाठ था। वे अपने करनी के लिए दुखी हुए। वह उन्हें महराज जी के सामने धनुष वाण के साथ लेकर देखने व मुस्कराने को महराज जी के आर्शाबाद को मानने लगे।
अयोध्या में राम सखा के मंदिर:-
अयोध्या में श्रावण कुंज नृत्य राघव कुंज , सियाराम केलि कुंज चार शिला कुंज राम सखा जू महाराज राम सखा बगिया आदि पाच प्रमुख मंदिर इस सम्प्रदाय के हैं। श्रावण कुंज अयोध्या के नया घाट पर स्थित है। मान्यता के अनुसार गोस्वामी तुलसी दास जी ने यही रामचरित मानस के बालकंड की रचना की थी। नृत्य राघव कुंज मणिराम छावनी के निकट बासुदेव घाट स्थित है। राम सखा बगिया रानी बाग में एक विस्तृत भूभाग में स्थित है। नृत्य राघव कुंज बासुदेवघाट अयोध्या एक प्राचीन मंदिर है। यह राम सखा सम्प्रदाय का पुराना मंदिर है। सियावर केलि कुंज नागेश्वरनाथ मंदिर के पीछे स्थित है। यह राम सखा सम्प्रदाय का पुराना मंदिर है। चार शिला कुंज जानकी घाट अयोध्या में स्थित है। यह राम सखा सम्प्रदाय का पुराना मंदिर है। राम सखा मंदिर रानी बाग अयोध्या के वर्तमान महन्थ श्री अवध किशोर मिश्र ने मंदिर की परम्परा के बारे में बताया कि अयोध्या के कुल पाच मंदिर एक ही महन्थ जी के संरक्षण में पूजा अर्चनाकरते आ रहें थे। प्रथम गुरु श्रीमद् राम सखेन्द्र जू महराज थे। द्वितीय का नाम उपलब्ध नहीं हो पा रहा है। तृतीय महराज श्री शील निधि जू महराज थे। चतुर्थ श्री अवध शरण जू महराज तथा पंचम श्री रामभुवन शरण जू महराज रहे। षष्टम श्री कामता शरण जू महराज तथा सप्तम श्री रामेश्वर शरण जू महराज रहे। अष्टम महराज के रुप में वर्तमान महन्थ श्री अवध किशोर शरण जी है।इस परम्परा में मुस्लिम धर्म से सनातन धर्म में आये दो सन्तों ने कुछ समय तक इस परम्परा के प्रधान की भूमिका निभाई थी। इनके नाम श्री शीलनिधि महराज तथा श्री सुशील निधि महराज रहा। राम सखेन्दु जू महराज से लेकर कामता शरण महराज तक की परम्परा अखिल भारतीय स्तर पर प्रायः मिलती जुलती है । प्रतीत होता है कि अयोध्या मैहर चित्रकूट पुष्कर उडुपि तथा सतना आदि के सभी मंदिर एक ही परम्रा व नियंत्रण के अधीन दीर्घ समय तक रहे। बाद में सुविध तथा दुर्गमता के कारण सभी स्वतंत्र नियंत्रण मे चले गये।
                         लेखक परिचय - 
27.06.1957 को उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले में जन्में डॉ. राधेश्याम द्विवेदी ने अवध विश्वविद्यालय फैजाबाद से बी.ए. और बी.एड. की डिग्री,गोरखपुर विश्वविद्यालय से एम.ए. (हिन्दी),एल.एल.बी., सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय वाराणसी का शास्त्री, साहित्याचार्य , ग्रंथालय विज्ञान शास्त्री B.Lib.Sc. तथा विद्यावारिधि की (पी.एच.डी) "संस्कृत पंच महाकाव्य में नायिका" विषय पर उपार्जित किया। आगरा विश्वविद्यालय से प्राचीन इतिहास से एम.ए. तथा ’’बस्ती का पुरातत्व’’ विषय पर दूसरी पी.एच.डी.उपार्जित किया। डा. हरी सिंह सागर विश्व विद्यालय सागर मध्य प्रदेश से MLIS किया। आप 1987 से 2017 तक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण वडोदरा और आगरा मण्डल में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद पर कार्य कर चुके हैं। प्रकाशित कृतिः ”इन्डेक्स टू एनुवल रिपोर्ट टू द डायरेक्टर जनरल आफ आकाॅलाजिकल सर्वे आफ इण्डिया” 1930-36 (1997) पब्लिस्ड बाई डायरेक्टर जनरल, आकालाजिकल सर्वे आफ इण्डिया, न्यू डेलही। आप
अनेक राष्ट्रीय पोर्टलों में नियमित रिर्पोटिंग कर रहे हैं।
साहित्य, इतिहास, पुरातत्व और अध्यात्म विषयों पर आपकी लेखनी सक्रिय है।




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