Wednesday, December 14, 2022

श्री सम्प्रदाय के श्रीयामुनाचार्यजी राजा भी और सन्त भी (श्रीसनातन सम्प्रदाय परम्परा 18 )आचार्य डा. राधे श्याम द्विवेदी

अल्पायु में पिता की छत्रछाया छिनी :-
संवत् 965 में आचार्य नाथमुनि अवतरित हुए हैं। उनके पुत्र का नाम ईश्वरमुनि तथा पौत्र थे यामुनाचार्य। ये सभी वैष्णव संप्रदाय से जुड़े हुए थे। बालक यामुनाचार्य 916 ई./ विक्रमी संवत् 1010 को दक्षिणात्य आषाढ़ माह के उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में काट्टुमन्नार् कोविल, वीर नरायणपुराम , वर्तमान मदुरा के मन्नारगुडी गांव में पैदा हुए थे। बाद में इन्हे आळवन्दार् के नाम से जाना जाने लगा। वे अभी मात्र दस वर्ष के थे कि पिता ईश्वरमुनि की मृत्यु हो गई। पौत्र को भगवान के सहारे छोड़कर दादा नाथ मुनि ने संन्यास ले लिया था। 
अलौकिक प्रतिभा:-
 यामुनाचार्य का लालन-पालन पिता के अभाव में उनकी दादी तथा माता ने किया था। बचपन से ही उनकी अलौकिक प्रतिभा सामने आ गई थी। उनके गुरु थे, भाष्याचार्य। उनसे शिक्षा पाकर वह थोड़े समय में ही शास्त्रों में पारंगत हो गए थे। उनका स्वभाव मधुर प्रेम मय और उदार था, इसलिए उनकी ओर लोग खिंचे चले आते। श्री आळवन्दार ने अपना विद्याध्यन, अपनी प्रारंभिक शिक्षा महाभष्य भट्टर् से प्राप्त किया था। पांड्य राज के महा पंडित कोलाहल को शास्त्रार्थ में परास्त करने के उपलक्ष्य में वहां के महारानी ने उन्हें आधा राज्य सौंप दिया था।
पंडितों में कर लेने की प्रथा:-
 उन दिनों सामान्य और हारे हुए पंडितों को मुख्य और जीते हुए पंडित को कर चुकाना पडता था। उस समय पांड्य राजा के राजदरबार के विद्वान पंडित, राज पुरोहित कोलाहल थे। जो अन्य पंडितो को हरा कर आनंदित होता था। इधर श्री यामुन मुनि की विद्वता की ख्याति फैल रही थी जो राजा पांड्य के कानों तक पहुंची। उन्हें अपने महा पंडित पर विश्वास था ही, अतः कुतुहल बस श्री यामुन मुनि को कोलाहल से शास्त्रार्थ करने के लिए आमंत्रित किया।
यामुनाचार्य के गुरु भाष्याचार्य एक बार राजा के दरबारी ‘कोलाहल नामक दिग्विजयी पंडित से शास्त्रार्थ में हार गए।
 एक बार आर्थिक तंगी के कारण यामुनाचार्य गुरु दो-तीन वर्ष तक महा पंडित कोलाहल को कर नहीं दे पाए। एक दिन कोलाहल का एक शिष्य ‘वंजि’ आया और बकाया कर की वसूली के लिए वहां बैठे यामुनाचार्य को अपशब्द बोल दिया। गुरु की अनुपस्थिति में बारह वर्षीय यामुन मुनि शिष्य ने वंजि से कह दिया अपने गुरु तथा राजा को मेरा संदेश दे देना कि मैं उन महापंडित ‘कोलाहल’ जी से शास्त्रार्थ करके उन्हें पराजित कर दूंगा।
        कोलाहल अपने प्रतिनिधियों को पंडितों के पास भेज कर उनसे कर वसुल करने को कहते थे। इसे सुनकर महाभाष्य भट्टर् चिन्तित हो जाते हैं और यामुनाचार्य जी से कहते हैं के वो इसका ख्याल रखेंगे। यामुनाचार्यजी एक श्लोक भेजते हैं, जिसमे वह स्पष्ट रूप से कहते है, वह उन सब कवियों का जो अपना स्वप्रचार के लिये अन्य विद्वानों पर अत्याचार करते है, उनका नाश करेंगे। यह देखकर कोलाहल को गुस्सा आता है और अपने सैनिकों को यमुनाचार्य को राजा के अदालत में लाने के लिए भेजता है। 
        यामुनाचार्यजी उन्हें बताते हैं कि वह केवल तभी आएगें जब उसे उचित सम्मान की पेशकश की जाएगी।
जब यह बात राजा तथा पंडित तक पहुंची, तो वह तिलमिला उठे। राजा ने यामुनाचार्य को लाने के लिए सवारी (पालकी )भेज दी। तब तक गुरु भाष्याचार्य भी आ चुके थे। वह डरे हुए थे । शिष्य ने कहा, आप चिंता न करें। मैं उन्हें पराजित कर हर वर्ष देने वाले कर से आपको मुक्ति दिला दूंगा।
यामुनाचार्य जी जब पालकी पर बैठ कर आ रहे थे तो राजा और रानी ने उन्हें झरोखों से देखा। रानी को आचार्य श्री के चेहरे पर दिव्य तेज दिखाई दिया। उन्होंने महाराज जी से कहा कि ये कोई दिव्य पुरुष हैं, कोलाहल पंडित इनसे जीत नहीं पाएंगे।
         रानी राजा को बताती है कि उन्हे यकीन है कि यामुनाचार्य जी जीतेगा और यदि वह हारेंगे तो वह राजा का सेवक बन जाएंगी। पांडव देश की रानी शर्त रखी थी - अगर वह जीतते नही तो, रानी एक नौकर बन जाएगी। 
उधर राजा को भरोसा था कि कोलाहल जीतेंगे और वो कहते हैं कि अगर यामुनाचार्य जी जीतते हैं, तो राजा उन्हे आधा राज्य दे देंगे। यामुनाचार्य जी राज सभा में आते हैं। दरबार लगा, दोनों पंडित अपने अपने आसन पर विराजमान हो गए।
घमण्ड का मर्दन:-
दोनो विद्वानो के मध्य शास्त्रार्थ शुरू हो गया। उस समय रानी भी वहां उपस्थिति थी। कोलाहल ने घमंड में भरकर आचार्य श्री से कहा आप जो कुछ भी कहेंगे मैं उसका खण्डन कर दूंगा। इस पर यमुनाचार्य ने कहा मैं तीन बातें कह रहा हूं। इनमे से किसी एक का तुम खंडन कर दोगे तो मैं तुम्हारा शिष्य हो जाऊंगा। यह कहकर उन्होंने कोलाहल पण्डित से तीन बातें कही ,जो इस प्रकार है --
पहला – आप ( अक्की आलवान ) के माताजी बंध्या (बाँझ ) स्त्री नहीं है।
दूसरा – हमारे राजा धार्मिक पुण्यवान है, हमारे राजा समर्थ (काबिल/योग्य/सक्षम) है।
तीसरा – राजा की पत्नी (महारानी) पतिव्रता स्त्री और साधु स्वभाव की है।
       यह प्रश्न कर यमुनाचार्य ने कहा अब इन तीनो का खण्डन अपने शास्त्रार्थ के नैपुण्य से करिये । ये तीन प्रश्न सुनकर कोलाहल दंग रह गए । वह एक भी प्रश्न का खण्डन नही कर पाए क्योंकि, इन प्रश्नो का खंडन स्वयं की माता को बाँझ बताना , राजा को अधर्मी बतलाना और महारनी के पतिव्रत्य पर आक्षेप लगाना होता। वह ऐसे असमंजस मे पड गए की अगर वह जवाब दे तो राजा बुरा मान जायेंगे और अगर इसका समाधान नही (खण्डन) करें तो भी राजा बुरा मानेंगे । इस प्रकार वह एक बालक से हार मान ली। इसी विपरीत चिंतित अवस्था मे वह यामुनाचार्य से अपनी पराजय स्वीकार कर लेते है। यमुनाचार्य को ही इन प्रश्नो का खंडन कर समाधान करने की बात कहते है । इसके उत्तर मे यामुनाचार्य कुछ इस प्रकार कहते है।
पहला – शास्त्रों के अनुसार , वह माँ बाँझ (निस्संतान) होती है जिसका एक ही पुत्र/पुत्री हो (आप अपनी माँ की एकलौती संतान हो, अतः आपकी माँ एक बाँझ (निस्संतान) स्त्री है ) ।
दूसरा – शास्त्रों में बतलाया है की , प्रजा के पाप पुण्य में राजा का भी भाग होता है, ऐसे में प्रजा के पाप का भागी होने से पुण्यवान नहीं कहलाता । हमारे राजा बिलकुल भी काबिल/समर्थ नही है क्योंकि वह केवल अपने राज्य का ही शासन करते है पूरे साम्राज्य के अधिपति नही है।
तीसरा – शास्त्रों के अनुसार राजा में अन्य देव भी विद्यमान रहते है , विवाह के समय कन्या को , पहले वेद मंत्रों से देवतावों को अर्पित करते है। इस कारण रानी को पवित्र नही मानते है।
        कोलाहल’ यामुनाचार्य के सक्षम और आधिपत्य को स्वीकार करते हुए अपने आप को यमुनाचार्य से पराजित मानकर उनके शिष्य बन जाते है । राजा ने ही निर्णय सुनाया। बारह वर्षीय बालक से हमारे ‘कोलाहल’ हार गए। राजा ने अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार आधा राज्य दे दिया। महान बहादुरी और ज्ञान के साथ, यामुनाचार्य जी ने कोलाहल के खिलाफ शास्त्रार्थ जीता। कोलाहल इतने प्रभावित हो जाते हैं कि वो भी यामुनाचार्य जी का शिष्य बन जाते हैं। बाद में रानी भी उनकी शिष्य बन जाती हैं। राजा द्वारा वादा किए गए अनुसार यामुनाचार्य को आधा राज्य भी मिलता है। रानी ने उन्हें “आळवन्दार्” नाम उपाधि में दिया – वह जो उनकी रक्षा करने आये थे ।
यामुनाचार्य की अभी केवल बारह वर्ष की आयु थी, अपनी प्रखर बुद्धि के बल पर पांडव राज्य का आधा हिस्सा अपने अधिकार में कर लिया। 
      यामुनाचार्य शाश्त्रों के आधार पर दिव्य स्पष्टीकरण से विशिष्टाद्वैत सिद्धान्त की स्थापना करते है । महारानी उन्हें आळवन्दार नाम से सम्बोधित करती हैं (जिसका मतलब हैं की वह जो उनकी रक्षा करने , सब पर विजय पाने के लिए आये हैं) और उनकी शिष्या बन जाती हैं । राजा महारानी को दिए वचन अनुसार यामुनाचार्यजी को अपनाआधा राज्य दे देता है |
श्री रंगनाथ के सेवक बने :-  
यामुनाचार्य जब 35 साल के हुए थे तो अपने देहावसान काल में नाथ मुनि ने अपने शिष्य प्रवर राम मिश्र से कहा --
"ऐसा न हो कि यामुन राजकाज में ही अपना अमूल्य समय बिता दे , विषय भोग में ही उनकी आयु बीत जाए।" नाथ मुनि के देहावसान के बाद एक दिन यामुनाचार्य से राम मिश्र मिलने आए। वह यामुनाचार्य के दादाजी के शिष्य थे। वे उन्हें सम्पत्ति का अधिकार सौंपने के लिए अपने साथ ले चलने को तैयार किए।उन्होंने कहा महाराज आप मेरे साथ चलें। आपके दादाजी बहुत बड़ा खजाना छोड़ गए थे, इसे संभाल लीजिए। राजा यामुनाचार्य उसके साथ हो लिए। पैंतीस वर्षीय राजा को रंगनाथ मंदिर पहुंचाया गया। रास्ते में राम मिश्र का स्पर्श पा लेने तथा उनके भगवदविचार सुन लेने के कारण राजा यामुनाचार्य का हृदय बदल गया। वह भी रंगनाथ के सेवक बनकर वहीं रहने लगे। उन्होंने अपना राज्य भी त्याग दिया। उनके हृदय में वैराग्य का उदय हुआ,माया और राज भोग की प्रवृति का नाश हो गया।
श्रीरंगजी की स्तुति :-
 यामुनाचार्य जी ने शुद्ध अंतर्मन से भगवान श्रीरंगजी की इस प्रकार स्तुति की --"हे परम पुरुष,मुझ अपवित्र , उदंड,निष्ठुर और निर्लज्ज को धिक्कार है,जो स्वेक्षाचारी होते हुए आपका पार्षद होने की इच्छा रखता है। आपके पार्षद भाव को बड़े बड़े योगीश्वरों के अग्र गण्य तथा ब्रह्मा शिव और संकादि को भी पाना दूर रहा,मन में सोच भी नहीं सकते।" उन्होंने बड़े सादगी और विनम्रता से कहा," आपके दास्य भाव में ही सुख का अनुभव करने वाले सज्जनों के घर में मुझे कीड़े की भी योनि मिले , पर दूसरे के घर में मुझे ब्रह्मा जी की भी योनि ना मिले।"
       वे भगवान के भक्त हो गए ,उनके अधरों पर भक्ति की रसमयी वाणी विहार करने लगी। इस प्रकार उन्होंने अपने दादा द्वारा छोड़ा गया सच्चा धन प्राप्त कर लिया। श्री यामुनाचार्य ने भगवान को पूर्ण पुरुषोत्तम माना,जीव को अंश और ईश्वर को अंशी के रूप में निरूपित किया है।जीव और ईश्वर नित्य पृथक हैं। उन्होंने कहा कि जगत ब्रह्म का परिणाम है।ब्रह्म ही जगत के रूप में परिणत है।जगत ब्रह्म का शरीर है।ब्रह्म जगत के आत्मा है। आत्मा और शरीर अभिन्न है। इसलिए जगत ब्रह्मात्मक है। ब्रह्म सविशेष सगुण, अशेष कल्याण गुण गण सागर सर्व नियंता है।जीव स्वभाव से ही उनका दास दास है, भक्त है। भक्ति जीव का स्वधर्म है ,आत्म धर्म है। भक्ति शरणागत का पर्याय है। भगवान अशरण शरण हैं।
यमुनाचार्य की रचनाएँ :-
यमुनाचार्य जी ने अनेक रचनाएँ संस्कृत में रची हैं। उनकी प्रसिद्ध कृतियाँ निम्नलिखित हैं-
आगम-प्रमाण्य, सिद्धित्रय (आत्मसिद्धि, संवितसिद्धि, ईश्वरसिद्धि), गीतार्थसंग्रह, चतुश्लोकी, और स्तोत्ररत्न
महापुरुष निर्णय, नित्यमऔर मायावाद खण्डनम।
 उनका आल बंदार स्रोत बड़ा ही मधुर है। उन्होंने भगवान से अनन्य भक्ति का ही वरदान मांगा। उनके लिए भगवान ही परमाश्रय थे। उन्हीं के चरणों में शरण लेने में उन्हें बन्धन मुक्ति दीख पड़ी। वे अपने समय के महान दार्शनिक, अनन्य भक्त और विचारक थे।
गुरु के संकेत को समझा और पूरा किया:-
रामानुजाचार्य, यामुनाचार्य की शिष्य-परम्परा में थे। 1041 ई में जब यामुनाचार्य की मृत्यु निकट थी, तब उन्होंने अपने शिष्य द्वारा रामानुज को अपने पास बुलवाया। लेकिन उनके पहुंचने से पहले ही यामुनाचार्य की मृत्यु हो चुकी थी।वहाँ पहुंचने पर रामानुज ने देखा कि यामुनाचार्य की तीन अंगुलियां मुड़ी हुई थीं। इससे उन्होंने समझ लिया कि यामुनाचार्य उनके माध्यम से 'ब्रह्मसूत्र', 'विष्णुसहस्रनाम' और 'अलवन्दारों' जैसे दिव्य सूत्रों की टीका करवाना चाहते हैं।
यामुनाचार्य के मृत शरीर को प्रणाम कर रामानुज ने उनकी अंतिम इच्छा पूरी करने का वचन दिया। उन्होंने यामुनाचार्य को प्रणाम किया और कहा -"भगवान्! मुझे आपकी आज्ञा शिरोधार्य है, मैं इन तीनों ग्रन्थों की टीका अवश्य लिखूंगा अथवा लिखवाऊंगा।" रामानुज के यह कहते ही यामुनाचार्य की तीनों अंगुलियां सीधी हो गईं। इसके बाद श्रीरामानुज ने यामुनाचार्य के प्रधान शिष्य पेरियनाम्बि जिसे महापुराण भी कहा जाता है, से विधिपूर्वक वैष्णव दीक्षा ली और भक्तिमार्ग में प्रवृत्त हो गए। उनके मन में तीन कामनाएं थी, जिसको रामानुजा- चार्य ने पूरा किया।     

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