Saturday, July 21, 2018

सन्तानों का बुजुर्गों के साथ बदलता नजरिया - डा. राधेश्याम द्विवेदी



समाज में नये युग की संतानों द्वारा अपने ही मां-बाप के प्रति बढ़ती उपेक्षा आज चरम सीमा तक पहुंच गया है। ज्यादातर देखा गया है कि खुद की संतानों द्वारा ही उन माँ-बाप को कोई महत्व नहीं दिया जाता, जिन्होंने उन संतानों को जन्म दिया, ,बड़ा किया, पढ़ाया- लिखाया और समाज में रहने के तौर-तरीके से अवगत कराया। आज के नये पीढ़ी की संतानों को ना जाने क्या हो गया है जो उन माँ-बाप यह कह कर चुप करा देते है कि तुम्हें क्या पता कि आज के जमाने में क्या हो रहा है, तुम क्या जानो क्या गलत है क्या सही, मेरे कामों में दखल मत दिया करो। अक्सर सुनने में आता है कि खुद की संतानों द्वारा एक मजबूर और असहाय माता-पिता को घर से निकाल दिया जाता या फिर उनसे उस समय अलग हो जाते है, जब वो उनकी सेवा के मोहताज रहते हैं।
ऐसे लोग ये क्यों भूल जाते है जब वो छोटे थे तो उनकी हर छोटी बड़ी जरूरतों को उस माँ बाप के द्वारा उसकी हैसियत के मुताबिक जरूर पूरा किया जाता था। उंगली पकड़ कर चलना सिखाने वाली उस शख्सियत को आज अपने ही संतानों द्वारा घर से क्यों निकाला जा रहा, जिसने उसे बड़े होने तक सर छुपाने की जगह दी थी? यदि आज के समाज में बनाये गए नए नए तौर तरीकों पर गौर करें तो आज नौजवान उस बूढ़े माँ-बाप को घरों में कैद कर के रखते हैं, ऐसे किसी समारोह में उन्हें शामिल नहीं किया जाता जहाँ उन्हें लगता है कि माँ बाप को ले जाने पर उनकी साख पर असर पड़ेगा। कौन समझाए इन नौजवानों को की तुम्हें समाज में उठने बैठने के तौर-तरीकों से उन्हीं माँ-बाप ने अवगत कराया है।
अक्सर ऐसी खबरें समाचार पत्रों में सुर्खियाँ बनती नजर आती है कि एक बूढी माँ को उनकी संतानों द्वारा ही घर से निकाल दिया गया, जिसके बाद वो बूढी माँ सड़कों पर रोटी मांग कर अपना गुजारा करती है। ऐसे लोग क्यूँ भूल जाते है कि जिस समय वो छोटे थे और उन्हें भूख लगती थी तो उसी माँ के पास दौड़ कर आते थे और माँ से कुछ खाने को मांगते थे, उस समय उस माँ ने तो नहीं कहा कि जाओ सड़कों पर मांग कर खाओ। क्यों आज उस माँ का तिरस्कार किया जा रहा है?
यह देखा गया है कि ज्यादातर युवक उस समय अपने माँ-बाप से अलग हो जाते हैं, जब उनकी शादी हो जाती है। जब युवक को संभालने बरगलाने वाली कोई असंस्कारी या नये तथाकथित ख्याल की बहू जाती है। जिस बहू को लाने के लिए माता पिता एड़ी चोटी का जोर लगा देते हैं। वही आधुनिकता की ओट लेकर अपने बागवान से अपने अशक्त सासु ससुर को बाहर करने का माध्यम बनती है। बेटियों को बचाने, पढ़ाने तथा सशक्त बनाने के अनेक सरकारी तथा सामाजिक प्रयास तथा अभियान चलाये जाते हैं, पर उन्हें संस्कारित तथा पूरे परिवार को एक में मिलाकार रखने की कोई विशेष अभियान नहीं देखा जाता है। बुजुर्गों को बाहर का रास्ता दिखाने में बेटे से ज्यादा बहुए /बेटियों की भूमिका होती है । अपना वर्चस्व स्थापित करने के चक्कर में अपने पति को गलत निर्णय करने के लिए विवस कर देती है। काश ! बेटियां आगे आकर अपनी जिम्मेदारी समझे तो बहुत कुछ समस्या का समाधान स्वमेव हो जाएगा। दादा-दादी ,नाना - नानी के आंखों का तारा ,माता - पिता का दुलारा बेटा , इस बहू के मोह-जाल में आकर अपने कर्तव्यों से विमुख हो जाता है। यहां तक कि बुजुर्ग की सम्पत्ति को हस्तगत कर उन्हें उनके हालात पर या दूसरे पारिवारिक सदस्य या समाज के जिम्मेदारी पर घर से निकाल देता है।
जब माँ बाप बूढ़े हो जाते है, उस वक्त वही माँ बाप उनके लिये एक बोझ लगने लगते है, जिसने उन्हें उस वक्त अपना प्यार दिया होता है जब वो बहुत छोटे थे। ऐसे लोग उन माँ-बाप को कैसे तकलीफ देने की सोच लेते हैं? ऐसे लोग ये भूल जाते है कि कल जब वो छोटे थे और उनकी बात कोई समझ नहीं पाता था तब सिर्फ एक हस्ती थी, जो उनके टूटे-फूटे अल्फाज भी समझ जाती थी। और आज ऐसी हस्ती के साथ अन्याय क्यूँ? ऐसे लोगों को अपने माँ-बाप का ध्यान भी ठीक उसी तरह रखना चाहिए जैसे उनके माँ-बाप ने उन्हें बचपन में रखा था। बचपन में जिस तरह उनकी एक आहट पर माँ उठ कर बैठ जाती थी और अपने सीने से लगा कर सुलाती थी, उस माँ के साथ ऐसा व्यवहार क्यों?
हमारी नई पीढ़ी को एक छोटा सा सुझाव है कि माता पिता घर के शोभा होते हैं विना पैसे के नौकर होते हैं जो ना केवल अपने सामथ्र्य भर सहयोग करते हैं अपितु बच्चों सम्पत्ति के संभालने में बहुत ही विश्वासपात्र सहयोगी होते हैं। अगर एसा कोई कर रहा हो तो तुरन्त अपने माता पिता को सम्मान के साथ वापस लाये तथा उनके बचे कुचे समय को अपने साथ बिताने में अनुकूल मदद करे।


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