बौद्ध धर्म में कालचक्र:- समय
की एक अवस्था को कालचक्र कहते है।. एक कालचक्र 20 कोडकोडी सागरोपम समय का होता है।
करोड़ की संख्या को पुनः करोड़ की संख्या से गुणा किया जाये उससे जो संख्या आये उसे कोड़ाकोडी
कहते है। दस कोड़ाकोडी पल्योपम का एक सागरोपम होता है। कालचक्र अथवा समय का चक्र प्रकृति
से सुसंगत रहते हुए ज्योतिषशास्त्र, सूक्ष्म ऊर्जा और आध्यात्मिक चर्या के मेल से बना
तांत्रिक ज्ञान है। बौद्ध खगोलविज्ञान के अनुसार ब्राह्माण्ड का एक पूरा चक्र चार स्थितियों-
शून्य, स्वरूप, अवधि और विध्वंस - से मिलकर बनता है। बौद्ध ग्रंथों के अनुसार कालचक्र
के तीन प्रकार हैं- बाह्र, आंतरिक और वैकल्पिक कालचक्र । बौद्ध धर्म में कालचक्र पूजा
विश्व शांति के लिए अद्भुत प्रार्थना मानी जाती है। इसे कालचक्रयान नाम से भी जाना
जाता है। कालचक्र अभिषेक द्वारा शांति, करुणा, प्रेम और अहिंसा की भावना को जन-जन तक
पहुंचाने का प्रयास किया जाता है। प्रसिद्ध तिब्बती विद्वान तारानाथ के अनुसार भगवान
बुद्ध ने चैत्र मास की पूर्णिमा को श्रीधान्यकटक के महान स्तूप के पास कालचक्र का ज्ञान
प्रसारित किया था। उन्होंने इसी स्थान पर कालचक्र मंडलों का सूत्रपात भी किया था। कालचक्र
पूजा का सामाजिक पक्ष भी है। इस पूजा के मूल में मानवता की भावना निहित है। कालचक्र
पूजा में शामिल होने के लिए जाति-धर्म का कोई बंधन नहीं है। विश्व कल्याण के लिए, सत्य,
शांति, अहिंसा, दया, करुणा, क्षमा जैसे मानवीय मूल्यों की स्थापना के लिए कालचक्र पूजा
विशेष महत्त्व रखती है। कालचक्र अनुष्ठान पर देश-दुनिया के लोग जाति और धर्म का भेदभाव
मिटाकर एकजुट होते हैं।
समसरा जीवन चक्र :- समसरा,
यानि जीवन चक्र को कभी वस्त्रों पर डिजाइन, कभी बर्तनों पर कलाकारी तो कभी लोक कथाओं के रूप में दर्शाया गया है द्य प्रथम
सदी के मध्य में प्राचीन ग्रीस और भारत दोनों के धार्मिक और दार्शनिक ग्रंथों में इस
कल्पना को कई बार वर्णित किया गया है। हालांकि यह विचारधारा कई पुरानी संस्कृतियों
के मूल में गहराई तक बसी है। यह मान्यता समकालीन तथा पाश्चात्य समय की समझ में कम प्रचलित
है।
प्राचीन विचारधारा
के अनुसार यह माना जाता है कि सभी जीव और प्राणीमात्र एक शरीर से दूसरे शरीर में प्रवेश
कर जन्म-दर-जन्म जीवन का आनन्द लेत हैं। यह पुनरावृत्ति और पुनः चक्रण होता है । कुछ विचारधाराओं में मान्यता
है कि हम विभिन्न जातियों और प्रजातियों के रूप में जन्म लेते हैं। वहीं पर कुछ ब्रह्माकुमारीज
समझते हैं कि हम अपने ही प्रकार के जीवन शरीर में जन्म लेते हैं। अर्थात् मनुष्य हमेशा
मनुष्य ही रहेंगे और हाथी हमेशा हाथी। इसी तरह अन्य जीव भी। सभी धर्म एवं संस्कृतियों
में यह एक विस्तृत समझ है कि हमारे जीवन में जो भी दुख या तकलीफें हैं वह हमारे अपने
ही कर्मों का फल है और वैसे ही कोई भी लाभ जैसे खुशी, प्रेम और सन्तुष्टता का आधार
भी कर्म है। चुनाव सर्वथा हमारा ही है। स्वनिर्मित प्रतिक्रियायें हैं। परम्परागत रीति
से समय चक्र अपने चार भागों के साथ घूमता रहता है जो मनःस्थिति के परिवर्तन का प्रतीक
है।( विशेषतः मनुष्य प्राणियों के संदर्भ में)
उस विशेष समयावधि में देखा जाये तो चक्र की कोई शुरुआत या अन्त नहीं है। क्रियाओं और प्रतिक्रियाओं की एक निरन्तर एवं शाश्वत कड़ी
है जिसकी गुणवत्ता हमारे अपने हाथ में है (सम्भवता मन में है)।
बदलती ऋतुएं
तथा तत्वों की अखण्डता समय के साथ पृथ्वी का बाह्य स्वरुप बदल देते हैं। प्रकृति के भ्रष्ट होने के पीछे का प्रेरक स्त्रोत
है। जब मनुष्य का मन शुद्ध और पवित्र और उसकी सोच उच्च होती है, तब पृथ्वी भी सुदृढ़
और सब्ज होती है। इसके विपरीत, जब मनुष्य की सोच अशुद्ध और नीच होती है, तो पृथ्वी
का अस्तित्व भी प्रदूषित और भ्रष्ट हो जाता है। जब मनुष्य अपना दैनिक जीवन इस समय चक्र
की स्मृति में रह व्यतीत करता है, वह एक विस्तृत दृष्टिकोण मन में निरंतर बनाये रखता
है। ऐसे मनुष्य को यह आभास रहता है कि उसकी सोच और कर्म का उसके निजी जीवन की गुणवत्ता
पर पर पड़ता है। इस तरह जीवन के प्रांगण में पर्वत शिखर पर खड़े होकर अपने जीवन की विहंगम
दृश्य का न केवल देखने का आनन्द लेते हैं , बल्कि अपने जीवन में कब और कैसे आगे बढ़ना
है इस बात की समझ रखते हैं। लेकिन वो साथ-साथ जीवन की विविधता का भी सम्मान करते हैं
और दूसरों का जैसा और जब वे चाहते हैं वैसा रहने की उनकी स्वतंत्रता का सम्मान करते
हैं। अहिंसा का ज्ञान हमें दूसरों के प्रति अधिक अविचलित और संवेदनशील बनाता है , परिणामस्वरूप,
हम दूसरों के प्रति सम्मान एवं आध्यात्मिक गरिमा से परिपूर्ण व्यवहार करते हैं। प्रत्येक
स्वयं ही अपने भाग्य का निर्माता है। आत्मा
के मूल घर लौटने से पहले, हर आत्मा को चार युगों से गुजरना पड़ेगा। जैसा कि हम कहते
हैं समय चक्र की भी पुरावृत्ति होता है।
समय चक्र निरन्तर बदलते रहते :- रात
दिन सुख दुख अमारी गरीबी छ मौसम जीवन की अवस्था आदि निरन्तर बदलते रहते हैं। ये परस्पर
विरोधी भी होते हैं और पूरक भी। एक के बिना दूसरे के अस्त्वि को समझा नहीं जा सकता
है। एक स्वभाविक क्रम में इन्का अस्त्तिव हमेशा रहता है और पहले वाले में दूसरा वाला
भी अन्तर्निहित होता है। इन अवयवों का स्वाभाविक क्रम में चलना ही समय चक्र बनता है।
सारी दुनिया की सारी गतिविधियां इसी में समाहित है। इसके स्वाभाविक गति से अधीर हुए
बिना जीव अपने परम लक्ष्य की ओर अग्रसर होता रहता है। ज्ञानी यती योगी इन चित्तवृत्तियों
से परे अपने योग में संलग्न रहकर संसारिक व अध्यात्मिक कर्म करता रहता है। अधीर सांसारिक
व्यक्ति समय की शाश्वतता को ना समझते हुए समय को दोषारोपित करता रहता है। वह अपने कर्म
पथ से विमुख हो जाता है। केवल अच्छे फल की प्रत्याशा करता रहता है।
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