हिंदू धर्म ग्रंथ पुराणों के अनुसार भगवान शिव ही समस्त सृष्टि के आदि कारण
हैं। उन्हीं से ब्रह्मा, विष्णु सहित समस्त सृष्टि का उद्भव होता हैं। जटाजूटधारी,
भस्म भभूत शरीर पर लगाए, गले में नाग, रुद्राक्ष की मालाएं, जटाओं में चंद्र और गंगा
की धारा, हाथ में त्रिशूल एवं डमरू, कटि में बाघम्बर और नंगे पांव रहने वाले शिव कैलास
धाम में निवास करते हैं। पार्वती उनकी पत्नी अथवा शक्त्ति है। गणेश और कार्तिकेय के
वे पिता हैं। शिव भक्त्तों के उद्धार के लिए वे स्वयं दौड़े चले आते हैं। सुर-असुर
और नर-नारी; वे सभी के अराध्य हैं। शिव की पहली पत्नी सती दक्षराज की पुत्री थी, जो
दक्ष-यज्ञ में आत्मदाह कर चुकी थी। उसे अपने पिता द्वारा शिव का अपमान सहन नहीं हुआ
था। इसी से उसने अपनी जीवन लीला समाप्त कर ली थी। 'सती' शिव की शक्त्ति थी। सती के
पिता दक्षराज शिव को पसंद नहीं करते थे। उनकी वेशभूषा और उनके गण सदैव उन्हें भयभीत
करते रहते थे। एक बार दक्ष ने यज्ञ का आयोजन किया और शिव का अपमान करने के लिये शिव
को निमन्त्रण नहीं भेजा। सती बिना बुलाए पिता के यज्ञ में गई। वहां उसे अपमानित होना
पड़ा और अपने जीवन का मोह छोड़ना पड़ा। उसने आत्मदाह कर लिया। जब शिव ने सती दाह का
समाचार सुना तो वे शोक विह्वल होकर क्रोध में भर उठे। अपने गणों के साथ जाकर उन्होंने
दक्ष-यज्ञ विध्वंस कर दिया। वे सती का शव लेकर इधर-उधर भटकने लगे। तब ब्रह्मा जी के
आग्रह पर विष्णु ने सती के शव को काट-काटकर धरती पर गिराना शुरू किया। वे शव-अंग जहां-जहां
गिरे, वहां तीर्थ बन गए। इस प्रकार शव-मोह से शिव मुक्त्त हुए। बाद में तारकासुर के
वध के लिए शिव का विवाह हिमालय पुत्री उमा (पार्वती) से कराया गया। परन्तु शिव के मन में
काम-भावना नहीं उत्पन्न हो सकी। तब 'कामदेव' को उनकी समाधि भंग करने के लिए भेजा गया।
परंतु शिव ने कामदेव को ही भस्म कर दिया। बहुत बाद में देवगण शिव पुत्र गणपति और कार्तिकेय
को पाने में सफल हुए तथा तारकासुर का वध हो सका। शिव के सर्वाधिक प्रसिद्ध अवतारों
में अर्द्धनारीश्वर अवतार का उल्लेख मिलता है। ब्रह्मा ने सृष्टि विकास के लिए इसी
अवतार से संकेत पाकर मैथुनी-सृष्टि का शुभारम्भ कराया था।
भगवान शिव की मूर्ति और लिंग दो रूपों में पूजा:-
लिंगपुराण
के
अनुसार
शिव
अविनाशी,
परब्रह्म
परमात्मा
हैं
।
भगवान
शिव
के
दो
रूप
हैं—सकल और निष्कल । रूप व कलाओं से युक्त होने के कारण उन्हें ‘सकल’ (समस्त अंग व आकार वाला ) कहा जाता है और लिंग रूप में अंग-आकार से रहित निराकार होने के कारण उन्हें ‘निष्कल’ कहते हैं । शिवलिंग शिव के निराकार स्वरूप का प्रतीक है । अन्य देवताओं के आविर्भाव के समय उनका साकार रूप प्रकट होता है, जबकि भगवान शिव के साकार और निराकार दोनों ही रूपों में दर्शन होते हैं । यही कारण है कि लोग लिंग और मूर्ति —दोनों ही रूपों में भगवान शिव की पूजा करते हैं । पूर्वकल्प में ब्रह्माजी और भगवान विष्णु के विवाद और अभिमान को मिटाने के लिए भगवान शिव ने अग्निस्तम्भ के रूप में अपना निष्कल स्वरूप प्रकट किया । उसी समय से संसार में भगवान शिव के निर्गुण लिंग व सगुण मूर्ति की पूजा प्रचलित हुई ।
चतुर्युगी
के
अंत
में
प्रलय
होने
पर
चारों
ओर
जल-ही-जल हो गया । उस प्रलय के जल में भगवान विष्णु कमल पर शयन कर रहे थे । उन्हें देखकर माया से मोहित ब्रह्माजी
ने
कहा—‘तुम कौन हो, जो इस तरह निश्चिन्त
होकर
सो
रहे
हो
?’ भगवान
विष्णु
ने
हंसते
हुए
ब्रह्माजी
से
कहा—‘वत्स ! बैठो ।’ यह सुनकर ब्रह्माजी
ने
गुस्से
से
कहा—‘तुम कौन हो जो मुझे वत्स कह रहे हो, तुम नहीं जानते कि मैं सृष्टि का कर्ता ब्रह्मा हूँ ।’
भगवान
विष्णु
ने
कहा—‘जगत का कर्ता, भर्ता, हर्ता मैं हूँ । तुम तो मेरे नाभिकमल से उत्पन्न हुए हो, अत: तुम मेरे पुत्र हो । मेरी माया से मोहित होकर तुम मुझे ही भूल गये ?’
दोनों
में
विवाद
होने
लगा
।
दोनों
ही
अपने
को
ईश्वर
सिद्ध
कर
रहे
थे
।
हंस
और
गरुड़
पर
चढ़कर
दोनों
आपस
में
युद्ध
करने
लगे
।
इससे
भयभीत
होकर
देवगणों
ने
कैलास
जाकर
भगवान
शिव
से
विवाद
को
शान्त
करने
की
गुहार
लगाई
।
अग्निस्तम्भ (Pillar of Fire) के समान ज्योतिर्लिंग का प्राकट्य
भगवान
शिव
इस
विवाद
की
शान्ति
के
लिए
एक
अति
प्रकाशवान
ज्योतिर्लिंग
(प्रकाशस्तम्भ
pillar of light या अग्निस्तम्भ pillar of fire) के रूप में प्रकट हुए । इस ज्वालामय
लिंग
का
कोई
ओर-छोर नजर नहीं आता था । उस लिंग को देखकर ब्रह्माजी
और
भगवान
विष्णु
सोचने
लगे
कि
हम
दोनों
के
बीच
में
यह
कौन-सी वस्तु आ गयी है ? उन्होंने
निश्चय
किया
कि
जो
कोई
इस
लिंग
के
अंतिम
भाग
को
छूकर
आएगा
वही
परमेश्वर
माना
जाएगा
।
उस लिंग के आदि व अंत को जानने के लिए भगवान विष्णु विशाल वराह का रूप धारण कर लिंग के नीचे की ओर गए और ब्रह्मा हंस का रूप धारण कर ऊपर की ओर उड़े । दोनों थक कर वापिस आ गए किन्तु दोनों को ही उस ज्योतिर्लिंग के ओर-छोर का पता नहीं लगा । दोनों ही विचार करने लगे कि यह क्या है जिसका कहीं न आदि है न अंत?
ब्रह्माजी और भगवान विष्णु ने उस अग्निस्तम्भ को साष्टांग प्रणाम कर प्रार्थना की—‘भगवन् ! हमें अपने यथार्थ स्वरूप का दर्शन कराइए ।’ तभी उन्हें ‘ॐ ॐ’ की ध्वनि सुनाई दी । उन्होंने देखा कि ज्योतिर्लिंग की दांयी ओर अकार, बांयी ओर उकार और बीच में मकार है । अकार सूर्य की तरह, उकार अग्नि की तरह और मकार चन्द्रमा की तरह चमक रहे थे । सम्पूर्ण वेदों में इस प्रणव को ब्रह्म कहा गया है । दोनों ने उन तीनों वर्णों के ऊपर साक्षात् ब्रह्म की तरह भगवान शिव को देखा ।
भगवान शिव ने उन्हें दिव्य ज्ञान देते हुए कहा—‘जो अग्निस्तम्भ तुम दोनों को पहले दिखाई दिया था, वह मेरा निर्गुण, निराकार और निष्कल स्वरूप है, जो मेरे ब्रह्मभाव को दिखाता है; यही वास्तविक स्वरूप है, इसी का ध्यान करना चाहिए और साक्षात् महेश्वर मेरा सकल रूप है । ब्रह्माजी और भगवान विष्णु द्वारा की गयी शिव पूजा का दिन शिवरात्रि कहलाता है। भगवान शिव
के दर्शन पाकर ब्रह्माजी और भगवान विष्णु ने विभिन्न वस्तुओं—चंदन, अगरु, वस्त्र, यज्ञोपवीत,
पुष्पमाला, हार, नूपुर, केयूर, किरीट, कुण्डल, पुष्प, नैवेद्य, ताम्बूल, धूप, दीप,
छत्र, ध्वजा, चंवर आदि से भगवान शिव की पूजा की और स्तुति करते हुए कहा—
नमो निष्कलरूपाय नमो निष्कलतेजसे ।
नम: सकलनाथाय नमस्ते सकलात्मने ।।
नम: सकलनाथाय नमस्ते सकलात्मने ।।
प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उन्हें अचल भक्ति का वरदान देते हुए कहा—‘तुम दोनों ज्योतिर्लिंग की उपासना कर सृष्टि का कार्य बढ़ाओ । आज के दिन तुम्हारे द्वारा मेरी पूजा होने से यह दिन परम पवित्र ‘शिवरात्रि’ के नाम से प्रसिद्ध होगा । इस समय जो मेरे लिंग और मूर्ति की पूजा करेगा, उसे पूरे वर्ष भर की मेरी पूजा का फल प्राप्त होगा । पूजा करने वालों के लिए मूर्ति और लिंग दोनों समान है, फिर भी मूर्ति से लिंग का स्थान ऊंचा है । शिवलिंग का पूजन सभी प्रकार के भोग और मोक्ष देने वाला है ।’उच्च कोटि के साधक ज्योतिर्लिंग का
ध्यान हृदय में, आज्ञाचक्र में या ब्रह्मरन्ध्र में करते हैं परन्तु साधारण लोगों के लिए पूजा का यह रूप अत्यन्त कठिन है । अत: भगवान शिव लिंग के रूप में प्रतिष्ठित हुए । उसी समय से संसार में शिवलिंग के पूजन की परम्परा शुरु हुई ।
ब्रह्ममुरारि सुरार्चितलिंगं निर्मलभासित शोभितलिंगं ।
जन्मदु:ख विनाशकलिंग तत्प्रणमामि सदाशिवलिंगं ।।
जन्मदु:ख विनाशकलिंग तत्प्रणमामि सदाशिवलिंगं ।।
(अर्थात्—जो लिंग स्वरूप में ब्रह्मा, विष्णु एवं समस्त देवताओं द्वारा पूजित है और निर्मल कान्ति से सुशोभित है, जो लिंग जन्मजय दु:ख का विनाशक है अर्थात् मोक्ष देने वाला है, उस सदाशिव लिंग को मैं प्रणाम करता हूँ ।)
महाशिवरात्रि व्रत :- महाशिवरात्रि का पावन पर्व हर साल फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी
तिथि को को मनाया जाता है। देश भर
के शिव मंदिरों और शिवालयों में तैयारियों को अंतिम रूप दिया जा रहा है। महाशिवरात्रि
का पावन दिन सभी कुंवारी कन्याओं को मनचाहा वर और विवाहित महिलाओं को अखंड सुहाग का
वरदान दिलाने वाला सुअवसर प्रदान करता है। अगर विवाह में कोई बाधा आ रही हो, तो भगवान
शिव और जगत जननी के विवाह दिवस यानी महाशिवरात्रि पर इनकी पूजा-अर्चना करने से मनोकामनाएं
अवश्य पूर्ण होती हैं। इस दिन व्रती को फल, पुष्प, चंदन, बिल्वपत्र, धतूरा, धूप, दीप
और नैवेद्य से चारों प्रहर की पूजा करनी चाहिए। दूध, दही, घी, शहद और शक्कर से अलग-अलग
तथा सबको एक साथ मिलाकर पंचामृत से शिव को स्नान कराकर जल से अभिषेक करें। चारों प्रहर
के पूजन में शिव पंचाक्षर 'ओम् नमः शिवाय' मंत्र का जप करें।
पूजन विधि :-महाशिवरात्रि व्रत का पूजन भी अन्य व्रत के भांति प्रातःकाल किया जाता है। जिसके लिए सूरज उगने से पूर्व नहा लेना चाहिए। उसके बाद अपने घर के पास
मौजूद किसी शिव मंदिर में जाकर भगवान शिव का जलाभिषेक और दुग्धाभिषेक करना चाहिए। इसके बाद शिवलिंग पर भांग, धतुरा, बेलपत्र, आख, आदि अर्पित करना चाहिए। माना जाता है अन्य फलों की तुलना में शिव जी को जंगली फल व् पत्तियां अधिक प्रिय है। इसके बाद धुप-दीप जलाकर शिव जी की आरती गानी चाहिए और प्रणाम करना चाहिए। व्रत रखने वाले व्यक्ति इस दिन कुछ नहीं खाते। वैसे अगर आप चाहे तो फलों के रस या फलों का सेवन कर सकते है। लेकिन भोजन या अन्न का सेवन नहीं करना चाहिए। हालांकि कुछ भक्त व्रत के दौरान रात्रि पूजन से पूर्व सायंकाल के
समय एक बार भोजन कर लेते है। तो इस वर्ष आप भी भोले बाबा का व्रत करके उन्हें प्रसन्न करें और उनसे अच्छे जीवनसाथी का आशीर्वाद लें।यह त्योहार पूरे भारतवर्ष, नेपाल, बांग्लादेश और दुनिया के उन सभी हिस्सों में मनाया जाता है जहाँ हिंदू जनसंख्या ज्यादा है।
यह त्योहार ग्रेगोरियन कैलेंडर के अनुसार फरवरी या मार्च में पड़ता है। हिंदू कैलेंडर के अनुसार, यह फाल्गुन मास के 14वें दिन और 13वीं रात्रि को पड़ता है, माना जाता है कि यह दिन भगवान शिव का “वर्ष का पसंदीदा दिन” है। हिन्दू वर्ष के दौरान मनाये जाने वाले बारह शिवरात्रि उत्सवों में से महा शिवरात्रि को सबसे पवित्र माना जाता है।
शिवरात्रि”
का अर्थ - “भगवान शिव की महान रात्रि,” फाल्गुन के 13वें दिन भगवान शिव के सभी भक्तों के द्वारा पूरी रात जागरण रखा जाता है। यह ज्यादातर हिन्दू उत्सवों से अलग है, जिन्हें दिन के समय मनाया जाता है। रात्रि के समय भगवान शिव की पूजा और आराधना उस दिन का स्मरण करने के लिए मनाया जाता है जब भगवान शिव ने “संसार का विनाश होने से बचाया था,” जिसे अंधकार से दर्शाया जाता है। फाल्गुन की 14वीं तिथि को हिन्दू पूरे दिन व्रत रखते हैं। वे भगवान शिव को फूल, बेलपत्र, और फल भी अर्पण करते हैं। वे दीप, अगरबत्ती जलाते हैं, गंगा और अन्य पवित्र नदियों में पवित्र स्नान करते हैं, योग ध्यान करते हैं, और पूरे दिन “ॐ नमः शिवाय” मंत्र का जप करते हैं। इस दिन भारतवर्ष के संपूर्ण मंदिर भक्तगणों के “हर हर महादेव!” के जयकारों से गूंजते हैं। साथ ही, वे मंदिर की घंटियां बजाते हैं और, इसके बाद शिवलिंग का चक्कर लगाते हैं, इसे जल या दूध से स्नान कराते हैं। अंत में, वे शुद्धता, ज्ञान और प्रायश्चित के प्रतीक के रूप में अपने माथे पर “पवित्र भस्म” की तीन रेखाएं लगाते हैं। महा शिवरात्रि की गतिविधिया- संपूर्ण भारत में हिन्दू मंदिरों के आसपास होने वाले उत्सवों और मेलों में जाएँ। मंदिर दीयों, फूलों और अन्य सजावटों से युक्त होंगे, और कई पर्यटक इसमें शामिल होते हैं। उत्तर भारत के मंडी शहर में होने वाला कार्यक्रम संभवतः सबसे बड़ा होता है जहाँ 81 मंदिर हैं। मध्य भारत में, महा शिवरात्रि के उत्सव के लिए महाकालेश्वर मंदिर भगवान शिव के सबसे प्रसिद्ध दर्शन स्थलों में से एक है। दक्षिण भारत में, कर्नाटक में विश्वनाथ मंदिर के पास होने वाले कार्यक्रम सबसे महत्वपूर्ण होते हैं।
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