भारत एक प्रजातंत्रात्मक गण्राज्य है। यहां
हमारे साहित्य और संस्कृति में अनादिकाल से ही गणतंत्र की परम्परा चली आ रही है। इसका
निर्वहन करते हुए परमब्रह्म द्वारा सृष्टि की उत्पत्ति की गयी। इसके उपरान्त यहां त्रिदेवों एवं त्रिशक्तियों की परम्परा का श्रीगणेश हुआ है।
फिर उन्ही से अभिप्रेरित होकर यम, वरूण, इन्द्र, अग्नि, वायु और जल आदि देवताओं के
सायुज्म से वे अपना कार्य सम्पादित करवाते चले आ
रहे हैं। वे अपने अन्यानेक सहायको, परिचरो, ऋषि-महर्षियों, सन्त महात्माओं तथा
महान पुरूषों के माध्यम से सृष्टि का संतुलित सृजन, संचालन तथा उत्सर्जन करते चले आ रहे हैं। इस क्रम मं पुरानी परम्परा के सभी
अच्छे तत्वों को ग्रहण करते हुए नयी परम्पराये भी जुड़ती चली आ रही हैं। इससे भारतीय
गणतंत्र का स्वरूप और निखरते हुए वर्तमान स्वरूप को प्राप्त हुआ है। हमें अपना इतिहास
देखने से यह पता चलता है कि यहां अनेक एसे परमतत्वों से परिपूर्ण महापुरूष -राम कष्ण
बुद्ध महाबीर जीजस तथा मोहम्मद साहब आदि अवतरित हुए ह,ै जो सभी सकारात्मक एवं संतुलित
प्रजा के कर्तव्यो व अधिकारों के प्रति सदैव सचेत रहे हैं। संस्कृृत साहित्य के महान कवि भवभूति ने ’’प्रतिमा
नाटक’’ नामक ग्रंथ में लिखा है -
स्नेहं दया च सौख्यं
च ,यदि वा जानकीमपि ।
आराधनाय लोकस्य
मुचते नास्ति में व्यथा।
श्रीमद भागवत गीता”, गीता कर्म और कर्म करने के सिद्धांतों के विषय
मे हमारे ज्ञान पटल को खोलने की एक महान कुंजी है। गीता हमे रास्ता और उस पर चलने का
तरीका सिखाती है, यह हमे रिवाज, प्रचलन या परिपाटी नहीं बतलाती है। इसका कारण है की
भोगोलिक संरचना, जलवायु, और सांस्कृतिक भिन्नता मे रिवाज, प्रचलन या परिपाटी भिन्न
हो सकती है, और उसका परिपालन करना हर परिस्थिति मे संभव नहीं हो सकता। भागवत गीता कर्म
को प्रधान मानती है, और यह सत्य है की संसार मे कर्म ही सबकुछ है। इस शब्द मे ही आपका
जीवन है, यह वह शब्द है, जिसका पालन करने से आपके जीवन को दिशा मिलती है। हर सभ्यता
और समाज मे समय के अनुसार कर्म के छोटे-बढ़े और अच्छे-बुरे की परिभाषा तय की जाती है।
आपकी सोच आपके कर्म की पहली सीढ़ी होती है। संसार का हर मनुष्य,सर्वदा कर्म मे ही लीन
होता है तथा तदनुसार उसे फल भी मिलता रहता है।
गोस्वामी तुलसीदास के विचार से वही धर्म सर्वोपरि
है जो समग्र विश्व के सारे प्राणियों के लिए शुभंकर और मंगलकारी हो और जो सर्वथा उनका
पोषक, संरक्षक और संवर्द्धक हो। उनके नजदीक धर्म का अर्थ पुण्य, यज्ञ, यम, स्वभाव,
आवार, व्यवहार, नीति या न्याय, आत्म-संयम, धार्मिक संस्कार तथा आत्म-साक्षात्कार है।
उनकी दृष्टि में धर्म विश्व के जीवन का प्राण और तेज है। सत्यतः धर्म उन्नत जीवन की
एक महत्त्वपूर्ण और शाश्वत प्रक्रिया और आचरण-संहिता है जो समष्टि-रुप समाज के व्यष्टि-रुप
मानव के आचरण तथा कर्मों को सुव्यवस्थित कर रमणीय बनाता है तथा मानव जीवन में उत्तरोत्तर
विकास लाता हुआ उसे मानवीय अस्तित्व के चरम लक्ष्य तक पहुंचाने योग्य बनाता है।
विश्व की प्रतिष्ठा धर्म से है तथा वह परम पुरुषार्थ है। इन तीनों धामों में उनका नैक प्राप्त करने के प्रयत्न को सनातन धर्म का त्रिविध भाव कहा गया ह। त्रिमार्गगामी इस रुप में है कि वह ज्ञान, भक्ति और कर्म इन तीनो में से किसी एक द्वारा या इनके सामंजस्य द्वारा भगवान की प्राप्ति की कामना करता है उसकी त्रिपथगामिनी गति है।
वह त्रिकर्मरत भी है। मानव-प्रवृत्तियों में सत्य, प्रेम और शक्ति, ये तीन सर्वाधिक ऊर्ध्वगामिनी वृत्तियां हैं। धर्म है आत्मा से आत्मा को देखना, आत्मा से आत्मा को जानना और आत्मा में स्थित होना।
उन्होंने सनातन धर्म की सारी विधाओं को भगवान की अनन्य सेवा की प्राप्ति के साधन के रुप में ही स्वीकार किया है। उनके समस्त साहित्य में विशेषतः भक्त - स्वभाव वर्णन, धर्म-रथ वर्णन, संत-लक्षण वर्णन, ब्राह्मण-गुरु स्वरुप वर्णन तथा सज्जन-धर्म निरुपण, आदि प्रसंगों में ज्ञान, विज्ञान, विराग, भक्ति, धर्म, सदाचार एवं स्वयं भगवान से संबंधित आत्म-बोध तथा आत्मोत्थान के सभी प्रकार के श्रेष्ठ साधनों का सजीव चित्रण किया गया है। उनके काव्य-प्रवाह में उल्लसित धर्म-कुसुम मात्र कथ्य नहीं बल्कि, अलभ्य चारित्र्य हैं जो विभिन्न उदात्त चरित्रों के कोमल वृत्तों से जगतीतल पर आमोद बिखेरते हैं।
विश्व की प्रतिष्ठा धर्म से है तथा वह परम पुरुषार्थ है। इन तीनों धामों में उनका नैक प्राप्त करने के प्रयत्न को सनातन धर्म का त्रिविध भाव कहा गया ह। त्रिमार्गगामी इस रुप में है कि वह ज्ञान, भक्ति और कर्म इन तीनो में से किसी एक द्वारा या इनके सामंजस्य द्वारा भगवान की प्राप्ति की कामना करता है उसकी त्रिपथगामिनी गति है।
वह त्रिकर्मरत भी है। मानव-प्रवृत्तियों में सत्य, प्रेम और शक्ति, ये तीन सर्वाधिक ऊर्ध्वगामिनी वृत्तियां हैं। धर्म है आत्मा से आत्मा को देखना, आत्मा से आत्मा को जानना और आत्मा में स्थित होना।
उन्होंने सनातन धर्म की सारी विधाओं को भगवान की अनन्य सेवा की प्राप्ति के साधन के रुप में ही स्वीकार किया है। उनके समस्त साहित्य में विशेषतः भक्त - स्वभाव वर्णन, धर्म-रथ वर्णन, संत-लक्षण वर्णन, ब्राह्मण-गुरु स्वरुप वर्णन तथा सज्जन-धर्म निरुपण, आदि प्रसंगों में ज्ञान, विज्ञान, विराग, भक्ति, धर्म, सदाचार एवं स्वयं भगवान से संबंधित आत्म-बोध तथा आत्मोत्थान के सभी प्रकार के श्रेष्ठ साधनों का सजीव चित्रण किया गया है। उनके काव्य-प्रवाह में उल्लसित धर्म-कुसुम मात्र कथ्य नहीं बल्कि, अलभ्य चारित्र्य हैं जो विभिन्न उदात्त चरित्रों के कोमल वृत्तों से जगतीतल पर आमोद बिखेरते हैं।
भारतीय गणतंत्र के प्रारम्भिक राजाओं, उनके कुल गुरूओं,
राज्याधिकारियों तथा प्रजाजनों ने इन परम्पराओं को बखूबी समझा , निर्वहन किया तथा असंतुलन
की स्थिति में उन्हीं में से उनका समाधान भी निकाला है। इन मानव मूल्यों के लोकतात्रिक
परम्पराओं का अनुसरण करने के कारण अशोक, चन्द्रगुन्त द्वितीय विक्रमादित्य तथा अकबर
आदि शासकों को महान शासक का दर्जा मिल चुका है। वे भारतीय लोकतंत्र व गणतंत्र के हमारे
प्रेरक एवं आदर्श माने जाते रहे हैं।
हमारे
इन आदर्शो व मानव पर सबसे ज्यादा कुठाराघात विदेशी आक्रमणकारियों ने किया है। अपने
तत्कालिक लाभ के लिए उन्होने हमारी विरासतो , परम्पराओं तथा संस्कृति को बहुत नुकसान
पहुचाया है। यवन आक्रमणकारी तथा अंग्रेज कभी भी लोकतंत्र के सच्चे हिमायती नहीं रहे
हैं। इन सब के बावजूद हमारे संविधान सभा के निर्माताओं ने विदेशियों द्वारा अपनायी
गई कुत्सित परम्पराओं को तिलांजलि देते हुए भारतीय गणतंत्र की मूल आत्मा को अपने संविधान
में समेटने का भरसक प्रयास किया है। इस परम्परा में जनता से अपनी बात कहने के लिए शास्त्रार्थ
, चर्चायें और बहुत सी युक्तियां अपनाती है। राजनीतिक दल व मीडिया आवश्यक कम अनावश्यक
बहसें भी बहुत करतें हैं परन्तु आम जनता से सम्बंधित मुद्दों के प्रति हम अपनी संवेदन
शीलता नहीं निीााते हैं या यूं कहे उसे नजरन्दाज करते जातें है। जब हमअपना कर्म नहीं
करेंगें तो वेसे ही दूसरा अनमनस्क की तरह व्यवहार करेगा। इससे आम जन या यूं कहें हम
सब की जरुरतें समयानुसार पूरी नहीं हो पाती हैं और प्रकान्तर से हम कुछ दे लेकर एक
एसी संस्कृति को बढ़ावा देने लगते हैं जिन्हें आगे चलकर कदाचार या भ्ररूटाचार कह सकतें
हैं। प्रत्येक आम जनता से जुड़ा कर्मचारी या अधिकारी अपना वही काम करता है जिसमें उसको
अथ्र यश या ऊपर का दबाब होता है। वह अपने अधीनस्थ या जनता के प्रति असंवेदनशील हो जाता
है। वह एक नई संस्कृति का संवाहक हो जाता हैं हम और आप भी इसे बढ़ावा देने में सहायक
बनते जाते है।
भ्रष्टाचार का
शाब्दिक अर्थ की बात
करें तो इसका मतलब होता है भ्रष्ट आचरण या bad conduct.अगर बाकी जीव-जंतुओं
की नज़र से देखा जाये तो human beings से अधिक करप्ट कोई हो ही नहीं सकता…हम अपने
फायदे के आगे कुछ नहीं देखते…हमारी वजह से ना जाने कितने जंगल तबाह हो गए…कितने
animal species extinct हो गए…और अभी भी हम अपने selfish needs के लिए हर पल दुनिया
में इतना प्रदूषण फैला रहे हैं हमने पृथ्वी के अस्तित्व को ही खतरे में डाल दिया
है।और ये सब bad conduct ही तो है! भ्रष्टाचार ही तो है; isn’t it. लेकिन दुनिया
करप्शन या भ्रष्टाचार को कुछ ऐसे डिफाइन करती है- “भ्रष्टाचार निजी लाभ के लिए (निर्वाचित
राजनेता या नियुक्त सिविल सेवक द्वारा) सार्वजनिक शक्ति का दुरुपयोग है।“ सरल शब्दों में कहें तो किसी
नेता या सरकारी नौकर द्वारा personal benefits के लिए अपने अधिकार का दुरूपयोग ही
भ्रष्टाचार है।
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