खोल के कान, भीख मांगने वाला
मूल लेखक: सन्त समीर
पुनः प्रस्तुति आचार्य डॉ राधे श्याम द्विवेदी
((भारत में एक दो नही 1800 से ऊपर गैर मुस्लिम सरचनाएं हिंदू बौद्ध और जैन सरचनाओं को तोड़कर या उसके मलवे पर बनी हुई है। इसके बाबजूद मुस्लिम कांग्रेसी सपाई वामपन्थी केवल और केवल सनातन हिन्दू धर्म के लोगों को सदाशयता का पाठ पढ़ाते हैं।यह एकतरफा कुर्बानी आखिर कब तक यह बहु संख्यक समाज करता रहेगा और जुल्मकार कब तक सनातनियों के सीने पर मूंग गलाते रहेंगे। हमे अपनी अस्मिता की रक्षा लोकतांत्रिक तरीके से करनी ही होगी। एक विद्धान श्री सीताराम गोयल की प्रारम्भिक रिपोर्ट “LIST OF MOSQUES IN VARIOUS STATES WHICH WERE BUILT AFTER DEMOLISHING THE HINDU TEMPLES” BY Sita Ram Goel / https:skanda 987 .files .wordpress.com के आधार पर तैयार की गयी सूची में ही 1800 से अधिक स्थलों की सूची प्रकाशित हो चुकी है। )। -(आचार्य डॉ राधे श्याम द्विवेदी)
आज काशी या मथुरा में एक बार फिर से भव्य मन्दिर का निर्माण होता है तो इस पर यह कहना सरासर गलत है कि ‘जो काम औरंगजेब ने किया वही काम अब आप करने जा रहे हैं, ऐसे में आप में और औरंगजेब में क्या अन्तर रह गया?’
सेकुलर इतिहासकार प्रो. इरफान हबीब पक्के मार्क्सवादी हैं और मार्क्सवादियों को ‘इतिहास’ का विशेष खाद-पानी उपलब्ध कराते रहे हैं। किसी की विचारधारा कोई भी हो, अगर वह जिद की हद तक व्यक्तित्व पर प्रभावी होने लगे तो एक प्रकार का मानसिक रोग ही बन जाता है, विशेषकर मार्क्सवाद के संदर्भ में। वे बयान तो दे देते हैं लेकिन लगता है, वे ऐसा मानते हैं कि भारत की जनता इतनी भोली है कि उसके पीछे की उनकी असल मंशा नहीं समझ पाएगी!
अभी हाल में मथुरा और काशी पर इरफान हबीब ने एक बयान दिया। उन्होंने कहा कि ‘औरंगजेब ने काशी और मथुरा में हिन्दू मन्दिरों को ध्वस्त किया था और यह करके उसने गलत किया था। यह साबित करने के लिए किसी सर्वेक्षण या अदालत के आदेश की आवश्यकता नहीं है कि वाराणसी और मथुरा में मन्दिर तोड़े गए थे, क्योंकि इतिहास की किताबों में पहले ही इसका उल्लेख किया गया है।’ यहां तक तो हबीब ने ठीक ही कहा।
लेकिन उनके इसी बयान का अगला हिस्सा उनके मार्क्सवादी एजेंडे को साफ कर गया। प्रो. हबीब ने आगे कहा कि ‘औरंगजेब ने जो किया, उसे तीन सौ साल बाद दुरुस्त करने का औचित्य नहीं है।’ उनके कहे के हिसाब से गत तीन सौ साल से वहां पर ‘मस्जिद’ बनी हुई है। उनका कहना है कि ‘औरंगजेब ने भले ही वहां मन्दिरों की जगह मस्जिदें बनवाई हों; लेकिन अब उन्हें तोड़कर फिर से मन्दिर बनाना उचित नहीं है, वह भी तब, जबकि देश में संविधान लागू है।’ वे कहते हैं कि ‘जो काम औरंगजेब ने किया, वही काम अब आप करने जा रहे हैं, तो ऐसे में आप में और औरंगजेब में क्या अन्तर रह गया?’
प्रो. इरफान यह नहीं बताते कि अगर पहले की गई गलती को दुरुस्त किया जाए तो इसमें परेशानी क्या है? अगर मन्दिर को तोड़कर बनाई गई मस्जिद केवल इसलिए बनी रहने दी जाए कि वह तीन सौ साल पहले से बनी हुई है, तो सवाल है कि सदियों तक मस्जिद के नीचे मौजूद मन्दिर की पृष्ठभूमि पर क्या विस्मृति की धूल चढ़ा दी जाए? क्या सदियों पहले से मस्जिद की जगह मौजूद आस्था के मन्दिर की तुलना में एक कौम के स्वाभिमान को तोड़ने के लिए नफरत के भाव से बनाई गई मस्जिद के ढांचे को बड़ा मान लिया जाए? अगर सचमुच कहीं कोई गलती है, तो उसे दुरुस्त करने का औचित्य आखिर क्यों नहीं? अतीत की इतनी बड़ी घटना को ‘जो हुआ सो हुआ’ कहकर भुला देना क्या इतना आसान है?
' औरंगजेब ने काशी और मथुरा में हिन्दू मन्दिरों को ध्वस्त किया था और यह करके उसने गलत किया था। यह साबित करने के लिए किसी सर्वेक्षण या अदालत के आदेश की आवश्यकता नहीं है कि वाराणसी और मथुरा में मन्दिर तोड़े गए थे, क्योंकि इतिहास की किताबों में पहले ही इसका उल्लेख किया गया है।’ – इरफान हबीब
मुगलों द्वारा मन्दिर को तोड़कर मस्जिद बना देना, एक इमारत को दूसरी इमारत में बदल देना भर नहीं था। यह दूसरी कौम की सम्पत्ति पर कब्जा कर लेना या उसे हड़प लेना तो था ही, बुतशिकन के अहंकारी भाव से दूसरी कौम के सांस्कृतिक और धार्मिक चिह्नों को मिटा देने का अभियान भी था। हो सकता है, कुछ लोगों को ‘रेसकोर्स रोड’ को ‘लोककल्याण मार्ग’ बना देना, ‘किंग्सवे’ को ‘राजपथ’ के अहंकार से नीचे उतार कर ‘कर्तव्य पथ’ में बदल देना, ‘इण्डियन पीनल कोड’ को ‘भारतीय न्याय संहिता’ बना देना, फैजाबाद को ‘अयोध्या’ का मूल नाम दे देना, ‘मुगल गार्डन’ को ‘अमृत उद्यान’ में रूपायित करना या कि इण्डिया गेट के पास किंग जार्ज पंचम की जगह नेताजी सुभाषचन्द्र बोस की प्रतिमा लगा देना अखरे या गलत और अनौचित्यपूर्ण लगे, पर सच तो यह है कि जो कौम विरासत के गौरव पर ध्यान नहीं दे सकती, वह अपना आत्मसम्मान और स्वाभिमान भी नहीं बचा सकती। अतीत के गौरव पर इतराना अलग बात है, पर एक स्वाभिमानी कौम के लिए वह ऊर्जा का स्रोत भी होता है।
यदि आज काशी या मथुरा में एक बार फिर से भव्य मन्दिर का निर्माण होता है तो इस पर यह कहना सरासर गलत है कि ‘जो काम औरंगजेब ने किया वही काम अब आप करने जा रहे हैं, ऐसे में आप में और औरंगजेब में क्या अन्तर रह गया?’ अगर यह समझाना पड़े कि औरंगजेब के काम में और अब के काम में बुनियादी अन्तर है, तो यह समझदारों की समझदारी पर तरस खाने वाली बात होगी। ऐसा नहीं था कि हिन्दुओं ने मथुरा या काशी में किसी मस्जिद को तोड़कर मन्दिर बनाया हो और तब औरंगजेब ने मन्दिर को तोड़कर दुबारा मस्जिद बनाई हो। सचाई यह है कि मुगल अंग्रेजों से पहले अंग्रेजों की तरह ‘भारत को सभ्यता का पाठ’ पढ़ा रहे थे।
अयोध्या में आज अगर राम का मन्दिर बना है तो यह किसी तरह की नफरत के वशीभूत नहीं है, बल्कि धर्म के प्रति आस्था दर्शाने और संस्कृति के प्रतीक को पुनर्जीवन देने जैसा है। यह कितना जरूरी था, इसका एहसास प्रो. हबीब की मार्क्सवादी नास्तिक भावनाओं के सहारे सम्भव नहीं है। यह भी याद रखना चाहिए कि मुसलमानों की एक बड़ी संख्या ने इस विरासत को महत्व को समझा है और राम मन्दिर को भरपूर समर्थन दिया है।
भारत बहुभाषी और अनेक मतावलम्बियों का निवास स्थल है। आज वक्त इस्लाम के अनुयायियों के लिए अपना बड़ा दिल दिखाने का है। आखिर वे भी यहीं की मिट्टी में जन्मे हैं, राम-कृष्ण उनके भी पूर्वज हैं। उन्होंने मान्यताएं भले बदल ली हों, पर पूर्वजों की विरासत और गौरवबोध साझा हैं। इतिहास पर कितनी भी लीपापोती की जाए, पर मन्दिर विरोधियों को भी पता है कि मुगलों ने इस देश के एक-दो नहीं, हजारों मन्दिरों को तोड़ा। बुतशिकनी का यह मनोभाव अफगानिस्तान जैसे देश में आज भी देखा जा सकता है, जहां आए दिन अब तक बौद्धों-हिन्दुओं के बचे हुए चिह्नों को जमींदोज किया जा रहा है।
हिन्दू समुदाय तोड़े गए हजारों मन्दिरों में से अगर आस्था के केवल तीन सबसे महत्वपूर्ण केन्द्रों को मांग रहा है तो समभाव रखते हुए मुस्लिम समुदाय को भी सहयोग का हाथ बढ़ाने के लिए आगे आना चाहिए। आग्रहों-पूर्वग्रहों के वशीभूत क्रिया-प्रतिक्रिया अलग बात है, पर भारत संसार में अकेला ऐसा देश है, जहां का बहुसंख्यक समाज अपने ही आस्था केन्द्रों के लिए दशकों से अदालती लड़ाई लड़ रहा है। संसार के समस्त मुस्लिम राष्ट्रों का अतीत और वर्तमान देखिए और सोचिए कि बहुसंख्यक स्थिति में क्या मुस्लिम समुदाय अपने आस्था केन्द्रों के लिए इस तरह से अदालती लड़ाई लड़ने की जहमत उठाता?
‘औरंगजेब ने जो किया, उसे तीन सौ साल बाद दुरुस्त करने का औचित्य नहीं है।’ उनके कहे के हिसाब से गत तीन सौ साल से वहां पर ‘मस्जिद’ बनी हुई है। उनका कहना है कि ‘औरंगजेब ने भले ही वहां मन्दिरों की जगह मस्जिदें बनवाई हों; लेकिन अब उन्हें तोड़कर फिर से मन्दिर बनाना उचित नहीं है, वह भी तब, जबकि देश में संविधान लागू है।’ – प्रो. हबीब
मजहब से पहले मुल्क को रखने वाले कुछ मुसलमान भले ही ऐसा करने की बात करते, पर सबसे पहले वे ही रास्ते से हटाए जाते। जो लोग हिन्दुत्व के उभार से भयभीत हैं और ‘गंगा-जमुनी तहजीब’ की दुहाई देते हैं, उन्हें यह याद रखना चाहिए कि यह ‘तहजीब’ अगर भारत में चरितार्थ हुई है तो वह यहां की जमीन या पेड़-पौधों और पशु-पक्षियों की वजह से नहीं हुई है, बल्कि ऐसा यहां के रहने वालों की मानसिकता की वजह से है। बहुसंख्यक समुदाय या कहें सनातनी समुदाय की मानसिकता सबके साथ मिल-जुलकर रहने की रही है, इसलिए यहां दुनिया का सबसे बड़ा लोकतन्त्र फल-फूल रहा है।
आज विरासत के पुनर्जागरण का अभियान जारी है। सनातन संस्कृति यही है कि वह खुद से पहले दूसरों का ख्याल करती है। यह भारत की संस्कृति ही है कि यहां अपने मुंह में रोटी का निवाला डालने से पहले आस-पड़ोस का ध्यान रखा जाता है कि कहीं कोई भूखा तो नहीं। हिन्दू दिल खोलकर सहयोग करते हैं। जाने कितनों की हज यात्रा हिन्दुओं के दिए दान के सहारे सम्भव हुई है। सनातन संस्कृति की जरा भी समझ रखने वाला यह समझ सकता है कि भारत का हिन्दू समुदाय उदार चित्त वाला है। इसलिए वह अपने स्वाभिमान के साथ कभी समझौता नहीं कर सकता। अपने आस्था चिन्हों को अपमानित होते नहीं देख सकता।
प्रो. हबीब अगर अपनी सेकुलर मानसिकता से बाहर आकर सोचेंगे तो पाएंगे कि अयोध्या, काशी, मथुरा में बात सिर्फ मंदिर की नहीं है, बल्कि बात है अपने गौरव को नए जोश के साथ जाग्रत करते हुए अपने आराध्य के प्रति सर्वस्व समर्पण की।
(आभार : पांचजन्य 22 फरवरी 2024
श्री सन्त समीर का आलेख
https://panchjanya.com/)
No comments:
Post a Comment