साहित्य के क्षेत्र में राष्ट्रीय फलक पर बस्ती का कोई सानी नहीं है। आचार्य द्विजेश मिश्र, लक्षिराम भट्ट, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, लक्ष्मी नारायण लाल, लक्ष्मीकांत वर्मा, पं. सुरेश धर द्विवेदी भ्रमर, ताराशंकर नाशाद, पं. माता प्रसाद त्रिपाठी दीन, जोकरेश, मुनिलाल उपाध्याय सरस ऐसे नाम हैं जिन्होंने ¨हदी साहित्य के क्षेत्र में बस्ती को राष्ट्रीय ख्याति दिलाई। साहित्यकारों की वर्तमान पीढ़ी साहित्य सृजन कर्म में पूरी शिद्दत से जुटी हुई है। अष्टभुजा शुक्ल, डा. रामकृष्ण लाल जगमग, हरीश दरवेश, सत्येंद्र नाथ मतवाला, भद्रसेन सिंह बंधू, रामाज्ञा मौर्य, डा. विजय प्रकाश सागर, जगदंबा प्रसाद भावुक, शिवा त्रिपाठी, डा. राम नरेश सिंह मंजुल, मुरली मनोहर ¨सिंह, डा. शंकर जी ¨ सिंह, डा. अनुराग मिश्र गैर, डा. सत्यव्रत, रहमान अली रहमान जैसे कई ऐसे नाम हैं जो साहित्य सृजन में जुटे हुए हैं। आज डा. मुनिलाल उपाध्याय सरस जी की आठवी पुण्य तिथि है। इसलिए उनकी
स्मृति में उन्हें स्मरण करना अपना धर्म समझता हूं। उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले के बस्ती सदर
तहसील के बहादुर व्लाक में नगर क्षेत्र में सीतारामपुर (खड़ौवा खुर्द) नामक गांव में
डा.मुनिलाल उपाध्याय ‘सरस’ जी का जन्म 10.04.1942 ई. में में श्री केदार नाथ उपाध्याय
के परिवार में हुआ था। अपना परिचय उन्होंने खुद इस प्रकार व्यक्त किया है -
हिन्दी से
एम. ए. फिर संस्कृत से किया वही,इतिहास द्वय में फिर वही वही जानिये।
साहित्य से रत्न हूं औ साहित्याचार्य
संस्कृत से,बस्ती छन्दकारन पर पी.एच-डी. बखानिये।।
गूंज बलिदान का प्रणेता हूं
सुविज्ञ सुधी,कवि महाकवियों की चरणधूलि मानिये।
मुनिलाल उपाध्याय सरस है
उपनाम,नगर निवास जिला बस्ती बखानिये।।
----- (साहित्य परिक्रमा यात्रा बृतान्त भाग 3 पृ.
10 से साभार)
शिक्षा जगत के अग्रणी
साधक:– डा. सरस 1 जुलाई
1963 से किसान इन्टर कालेज मरहा,कटया बस्ती में सहायक अध्यापक के रूप में पहली नियुक्ति
पाये थे। जहां वह जून 1965 तक अध्यापन किये थे। वह मार्च 1965 में नगर बाजार में जनता
माध्यमिक विद्यालय के संस्थापक प्रधानाध्यापक हुए। 1965 से 2006 तक जनता उच्चतर माध्यमिक
विद्यालय नगर बाजार बस्ती आजीवन प्रधानाचार्य पद के उत्तरदायित्व का निर्वहन भी किये।
अध्यापन के साथ ही साथ सरस जी ने हिन्दी, संस्कृत, मध्यकालीन इतिहास, प्राचीन इतिहास
संस्कृति एवं पुरातत्व विषय से एम. ए. करने के बाद हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग का
साहित्यरत्न, तथा सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय वाराणसी का साहित्याचार्य उपाधि
भी प्राप्त किये थे। वे अच्छे विद्वान कवि तथा शिक्षा जगत के एक महान हस्ती थे। उन्हें
राष्ट्रपति द्वारा दिनांक 5.9.2002 को वर्ष 2001 का शिक्षक सम्मान भी मिल चुका है।
उनकी लगभग 4 दर्जन पुस्तकें प्रकाशित.
'बाल त्रिशूल' विधा का प्रवर्तन किया. बाल पत्रिका 'बालसेतु' (मासिक हिंदी बालपत्र);का
संपादन-प्रकाशन किया. वे बाल साहित्यकारों के लिए भी एक सेतु जैसे थे .अपने खर्चे
पर बस्ती में बाल साहित्यकार सम्मलेन किया करते थे.बहुत मिलनसार और सह्रदय इंसान थे. बालसाहित्य- विवेकानंद, साहित्य
परिक्रमा; बाल बताशा विवेकानंद बालखंडकाव्य, नेहा-सनेहा, जलेबी, झँइयक झम, चरण
पादुका; आकाशवाणी तथा दूरदर्शन से दर्जनों प्रसारण। पुरस्कार-सम्मान-बाल कल्याण
संस्था कानपुर,नागरी बालसाहित्य संस्थान बलिया। वह
जून 2006 तक अपने पद पर रहकर लगभग 42 साल तक शिक्षा जगत जे जुड़े रहे। अगौना कलवारी
में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल स्मारक व्याख्यानमाला, कविसम्मेलन तथा कन्याओं के विद्यालय
को खुलवाने में उनकी महती भूमिका रही है। डा. सरस जी ने वाराणसी के काशी विद्यापीठ
से ’’बस्ती के छन्दकार’’ विषय पर डा. केशव प्रसाद सिंह के निर्देशन
में पी.एच .डी. की उपधि अर्जित की है। जिसमें बस्ती जिले वर्तमान में बस्ती मण्डल के
250 वर्षों के विखरे पड़े साहित्यिक बृतान्तों को एक में संजोया है। इसे तीन भागों में
प्रकाशित कराया गया है। इसमें लगभग 100 कवियों को स्थान दिया गया हैं आधे से ज्यादा
कवियों को सांगोपांग वर्णन तथा उपलब्ध रचनाओं का एकाधिक नमूना प्रदर्शित करते हुए चित्रित
किया गया हैं सामग्री के अभाव में लगभग आधा शतक कवियों का संक्षिप्त उपलब्धियां तथा
परिचय प्रस्तुत किया गया है। इस परिचय के आधार पर भविष्य में काम करने वाले अध्येता
को काफी सहुलियत होने का अनुमान किया गया है। डा. सरस पचीसों बार आकाशवाणी तथा दूरदर्शन
के गोरखपुर तथा लखनऊ के केन्द्रो पर अपना कार्यक्रम प्रस्तुत किया है। उन्होंने बाल
साहित्य कला अवकास संस्थान की स्थापना करके अखिल भारतीय बाल साहित्यकार सम्मेलन करके
50 से अधिक राष्ट्रीय स्तर के बाल साहित्यकारों को सम्मानित किया है। साथ ही ‘‘बालसेतु’’ नामक त्रयमासिक पत्रिका प्रकाशन भी किया
है।
सेवामुक्त होने के बाद वह अयोध्या के नयेघाट स्थित परिक्रमा मार्ग पर केदार
आश्रम बनवाकर रहने लगे। उनका जीवन एक बानप्रस्थी जैसा हो गया था और वह निरन्तर भगवत्
नाम व चर्चा से जुड़े रहे। 70 वर्षीया डा. सरस की मृत्यु 30 मार्च 2012 को लखनऊ के बलरामपुर
जिला चिकित्सालय में हुई थी। उनकी मृत्यु से शिक्षा तथा साहित्य जगत में एक बहुत ही
अपूर्णनीय क्षति हुई थी। आज उनके आठवें पुण्यतिथि के पावन अवसर पर मैं उनके प्रखर व्यक्तित्व
का श्रद्धा के साथ स्मरण करता हॅू और उनके द्वारा दिखाये गये मार्ग पर चलने का संकल्प
लेता हू ।
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