इतिहास
एवं विस्तार :- बांसी भारत के मानचित्र पर 27040‘ उत्तरी अक्षांस तथा
820 56‘ पश्चिमी देशान्तर पर स्थित है। यह राप्ती नदी के किनारे बसा हुआ
है जिसके इस पार मेंहदावल व डुमरियागंज तथा उस पार विस्कोहर , चिल्हिया तथा उस्का बाजार
है। नदी के तट पर ही राजा साहब का राजमहल है और प्राचीन समय में यहां नरकट के जंगल
हुआ करते थे तथा नांव द्वारा पार किया जाता था। बरसात में यह नदी अपने पूरे आकार में
फैल जाती है तथा अन्य दिनों में सूखकर संकरी हो जाती है। कहा जाता है कि बांसी को राजा
बंसदेव ने बसाया था। अनुश्रूतियों के अनुसार वे निकुम्भ दिखित एवं सूर्यवंशी वंश से
सम्बन्धित थे। प्रारम्भिक दिनों में वे लाहौर के पास श्रीनगर के निवासी थे। उनका प्रथम
पूर्वज जो यहां आया वह रुपनारायण अथवा श्रीनेत्र था। बस्ती जिले या वर्तमान मण्डल में
राजपूतों का आगमन की पहली सूचना 13वीं शताव्दी का मध्यकाल माना जाता है। बांसी
राजघराने में राजाओ में पहले प्रथम नवागत राजपूत सरनत थे। जिसे मूलतः सूर्यवंशी कहा गया है। ये सर्व
प्रथम गोरखपुर एवं पूर्वी बस्ती में 1275 ई. के लगभग में आये थे। इसके बाद वे मुख्यतः
मगहर में बसे। इस मंडल का प्रथम राजपूत वंश श्रीनेत या सरनत था। इसके प्रधान चन्द्रसेन
ने गोरखपुर तथा पूर्वी बस्ती से डोमकटारों को निकाला था। चन्द्रसेन दिल्ली के सम्राट
द्वारा कार्य मुक्त किये जाने के बाद पुनः श्रीनगर जाने के लिए कहे जाते हैं। कहा जाता
है कि चन्द्रसेन इस वंश का 29वां या 34वां
शासक था। चन्द्रसेन के चार पुत्र थे । इनमें सबसे
बड़ा जगधर सिंह डोमनगर की लड़ाई में शहीद हो गये थे। दूसरे वारिस जय सिंह को सतासी वा
बांसी की सम्पत्ति मिली थी। चन्द्रसेन की मृत्यु के बाद उनका पुत्र जयसिंह उत्तराधिकारी
बना। उनका राप्ती नदी के दक्षिण बांसी में राज्य था। तीसरे वारिस विजयी सिंह को मगहर का राज तथा चैथे रणधीर सिंह को उनौला की जागीर
मिली थी। विजई सिंह के कई वंशजों के बारे में जानकारी नहीं मिलती है। वे मगहर परगना
के पूर्वी भाग को लिए हुए थे।हम उस सूची को नहीं पढ़ सकते जो राजा राय सिंह के समय का
है जो निःसंतान मरे थे। वे सहर सिंह या हाती सिंह जो उनौला के राजा के एक लड़के गो गोद
लिए थे। उनके चार पुत्र थे इनमें सबसे बड़े वंशदेव सिंह थे। उनकी 34वी पीढ़ी के वंसज राजा बंसदेव सिंह
ने बांसी शहर को स्थापित किया लेकिन स्थानीय मुस्लिम द्वारा उन्हें हटा दिया गया। 1484
में उनकी मृत्यु के बाद शुक्ल ब्राह्भण द्वारा उनकी संपत्ति जब्त कर ली गई थी। ये मगहर के राजा बने और वहां एक सौनिक छावनी बनाये
थे। इसे मुसलमानों ने छीन लिया था। वे बांसी के क्षेत्र को कब्जाकर अपनी राजधानी बनाये
थे। बांसी के राजा बासुदेव सिंह की मृत्यु 1484 ई में हुई थी।इनकी मृत्यु के बाद यह
सम्पत्ति शेरगढ़ के शुक्ल ब्राह्मण द्वारा जप्त कर ली गयी थी। राजा वंशदेव की विधवा
अपने मायके मैनपुरी चैहान राजा के पास चली गयी थी। वंशदेव के मरणोपरान्त उनकी विधवा
को अपने मायके में पुत्र हुआ था इसका नाम रतनसेन था। इसने बस्ती लौटकर कथेला के राजा की सहायता से अपने देश
के अपहरण कर्ताओं को अपने देश से भगाया और उनसे अपना भूभाग पुनः छीन अपने पिता के संपत्ति वापस जीत ली रतनसेन का उत्तराधिकारी उनका पुत्र राजा तेज सिंह (
1514-1560) हुआ । 1560 में संग्राम सिंह उनका उतराधिकारी हुआ था । उन्होंने 1583 तक
राज किया था। अवध के नबाबों का अस्तित्व बढ़ने पर तथा साम्राज्य की कार्यवाही के दौरान
मगहर के श्रीनेत राजा को अपने देश से हटाकर बांसी उनके आवास में वापस भेज दिया गया
था। यहां पर सरनत क्षत्रियों ने 1570 ई. में अपनी राजधानी स्थापित किया था, जब मुसलमानों
के द्वारा उन्हें मगहर छोड़ने के लिए बाध्य किया गया था। शहर के दक्षिण पूर्व किनारे
उनका एक किला बना हुआ था जो ब्राहमण के शाप से 1750 ई.में खण्डहर में परिवर्तित हो
गया है। 1768 ई. में यहां के राजा ने तेगधर का एक मंदिर का निर्माण कराया था। यह शहर
अनाज का एक प्रमुख व्यवसायिक केन्द्र था। बांसी के राजा संग्राम सिंह (1560-1583) के दो पुत्र साकेत सिंह (1583-1611) और राम प्रताप
सिंह (1611-1649) बारी बारी से राज किये थे। संग्राम सिंह के उतराधिकारियों ने
अपने पुत्र गजेन्द्र सिंह(1649-1678) को राज दिया जो 1678 तक शासन किये थे। इसके बाद राजा राम सिहं
( 1678- 1716) एक प्रसिद्ध राजा हुए। उन्होने कल्हण राजा को अपने में मिला लिया। वे
1687 में गौस और रसूलपुर का पुरा भाग कल्हण राजा केसरी सिंह से छीनकर अपने में मिला
लिया। इस प्रकार राम सिंह को अपनी सुरक्षा हेतु उत्तर के बंजारों से लड़ना पड़ा था। इसमें
उनका ज्येष्ठ पुत्र भगवन्त सिंह मारा गया था। राजा राम सिंह के बाद उनका छोटा पुत्र
माधो सिंह (1716 – 1732 ) राजा बना बाद में
भगवन्त सिंह के लड़के तेज सिंह ( 1732-1743)के बीच अधिकार की लड़ाई हुई। संयोग से दोनों
के बीच समझोता हुआ और भतीजे को 1732 में राज मिला। राजा तेज सिंह 1743 में दिवंगत हुए
उनके तीन पुत्र थे। इनमें सबसे बड़े रंजीत सिंह
( 1743- 1748) थे। इस राजा को अपने भाई दलजीत सिंह से लड़ना पड़ा था जो कानपुर के शिवराजपुर
के राजा का शरण लिए हुए था। यहां वह अवध के नबाब शुजाउद्दौला के पक्ष में रहा। उसकी
सहायता से यह अपने भाई पर पुनः आक्रमण किया । यह युद्ध बांसी से 6 मील पूर्व पनघटा
घाट पर हुआ। यहां दोनो भाई मारे गये। परिणाम स्वरुप रणजीत और दलजीत के शिशु लड़के राजा बहादुर सिंह (1748-1777) और सर्वजीत सिंह ( 1748-1808) संयुक्त रुपसे बांसी के राजा हुए
।ं बाद में ये नरकटा में रहने लगे थे। बहादुर सिंह 1777 में निःसंतान मर गया था। जगत
सिंह ने उनके हिस्से को जप्त करने के लिए आक्रमण किया परन्तु सर्वजीत सिंह ने बुटवल
के राजा से सहायता लेकर खुला युद्ध किया और पूरे क्षेत्र का राजा बन बैठा। अपने सम्बंधियों और आश्रितों को राजघराने का( BIRTS) ब्रिटिस
हिस्सा देने के बावजूद सम्पत्ति समय के साथ साथ कम होती गयी।इनमें सबसे बड़ा बखिरा का
इलाका था।यह एक जारज अवैध संतान को दिया गया था। इस वंश के उत्तराधिकारियों ने
1858 के विद्रोह में सब कुछ गंवा दिया था।
मूल बांसी
शाखा के राजा सर्वजीत सिंह बिना किसी असली वारिस के 1803 में दिवंगत हो चुके थे।पांच
वर्श तक बांसी का रात उनकी विधवा रानी रंजीत कुंवर (1808-13 )ने संभाला । उन्होंने उनौला के राजा हरिहर
सर्फराज सिंह के पुत्र श्री प्रकाश सिंह (1813-40 )को दत्तक पुत्र के रुप में ग्रहण
किया।1815 व 1816 ई. में जिले के उत्तरी क्षेत्र बांसी तथा मगहर में सियारमार एक खानाबदोस
जाति के लोगों ने लूटपाट करना शुरू कर दिया था। इन्हें स्थानीय जमीदारों का समर्थन
भी मिला हुआ था वे पुलिस वालों को मारते थे तथा सरकारी खजाना लूट लेते थे। बांसी में
सात पुलिसवालों को मारकर 6 को घायल कर उन्हाने कानून व्यवस्था को चुनौती दे रखी थी।
परिणाम यह हुआ कि सात पुलिस सिपाही अपना जीवन गवां बैठे तथा छः सिपाही घायल हो गये
थे।1815 व 1816 ई. में जिले के उत्तरी क्षेत्र बांसी तथा मगहर में सियारमार एक खानाबदोस
जाति के लोगों ने लूटपाट करना शुरू कर दिया था। इन्हें स्थानीय जमीदारों का समर्थन
भी मिला हुआ था वे पुलिस वालों को मारते थे तथा सरकारी खजाना लूट लेते थे। बांसी में
सात पुलिसवालों को मारकर 6 को घायल कर उन्हाने कानून व्यवस्था को चुनौती दे रखी थी।
परिणाम यह हुआ कि सात पुलिस सिपाही अपना जीवन गवां बैठे तथा छः सिपाही घायल हो गये
थे। श्रीप्रकाश सौम्य स्वभाव के थे। उनमें प्रबन्धकीय क्षमता नहीं थी। उन्के जीवन काल
में ही रात्य का बहुत बड़ा हिस्सा अन्यों में चला गया था। जबकि ब्रिटिस (BIRTS) को मालिक
की ही सम्पत्ति माना जाता था और मालिकाना राजा को ही दिया जाता था। वह 1840 में दिवंगत
हुए उसके बाद उनका बड़ा पुत्र राजा महिपत या महिपाल (1840- 63) तक शासकहुआ। बाद में
उनकी सम्पत्तियों की देखभाल उनका छोटा भाई महेन्द्र सिंह 1863 68 भी करते रहे थे।
1857 के विद्रोह के दौरान दोनों भाई निष्ठा के साथ राष्ट्रभक्ति में जुटे रहे और कानून
व्यवस्था को बनाये रखे। वे बलरामपुर तथा अन्य जगहों के भगोढ़े आन्दोलनकारियों को आश्रय
भी देते रहे। वे बांसी तहसील में सरकारी खजानों का संरक्षण भी करते रहे। राजा महिपाल
सिंह को नगर के राजा की जप्त की हुई सम्पत्ति देकर अंग्रजों ने सम्मानित किया था। राजा
महेन्द्र सिंह को 1863 में उत्तराधिकार मिला था। उन्हें आगरा के दरबार में चैम्पियन
आफ द स्टार आफ इण्डिया की उपाधि प्रदान की गई थी। उनकी मृत्यु 1668 में हुई थी। उनके
पुत्र राजा राम सिंह द्वितीय को 1863- 1913 को उत्ताधिकार मिला था। 1886 में दुराचरण
के कारण उनके पिता को मिली उपाधि वापस ले ली गयी थी। परन्तु दस वर्ष बाद पुनः उपाधि
लौटा दी गयी थी। राजा सार्वजनिक जीवन से अलग हट गये थे। उनकी सम्पत्ति उनके पुत्र लाल
रत्न सिंह द्वितीय 1913 18 को उत्तराधिकार में मिला था। यह राज्य इस समय अपनी उन्नति
की अवस्था में था।1907 में संपूर्ण संपत्ति बांसी में 76,338 एकड़ , रसूलपुर में 16,435 एकड़ , बस्ती में
12,110 थी। इसमें बस्ती और मगहर और गोरखपुर के बड़ी संख्या के गांवों को अपने अधीन कर
लिया था। राजा की ननकार की भूमि राजस्व मुक्ति थी और यह लगभग 86 गांवों में थी। इनमें
25 गांवों में स्वयं राजा के कब्जे थे।शेष उनके करिन्दों व सहायकों के कब्जे थे। उन्हें
इस सम्पत्ति के उप भू स्वामियों से कर प्राप्त होता था। 1857 की स्वतंत्रता की लड़ाई
में बांसी से रू. 4,626 /- जप्त कर लिया गया था।
अगले राजा पशुपति प्रताप
नरायन सिंह बहादुर का जन्म 14 अगस्त 1904 में हुआ थां उनका गोदनामा 1918 में हुआ था।
अगले राजा रुद्रप्रताप सिंह का जन्म 15 9 1926 मृत्यु 8-7-2018 दिल्ली में 93 वर्ष
की उम्र में हुआ था। रूद्र नारायण प्रताप सिंह का उनके दिल्ली स्थित आवास पर स्वर्गवास हो गया। 93 वर्षीय
राजा की सेहत ठीक नहीं थी। वह दिल्ली स्थित अपने आवास पर ही रहते थे। राजा की मौत
9-7-20118 की खबर बांसी कस्बे में पहुंचते ही अनक लोगों ने अपनी दुकानें बंद कर लीं,
पूरे कस्बे का माहौल उदास हो गया था। उनके पुत्र उ. प्र. सरकार के आबकारी मंत्री राजा
जय प्रताप सिंह ने अपनी सारी शासकीय कार्यक्रम स्थगितकर राजा साहब के अन्त्येष्टि तथा
अन्य धार्मिक क्रियाओं में संलिप्त हो गये थे। वे सेना की नौकरी से मुक्त होकर दिल्ली
में रहते थे। वे रतन सेन इन्टर कालेज बांसी तथा रतन सेन डिग्री कालेज के प्रबन्धक भी
रहे।अगले क्रम में उनके पुत्र राजा जय प्रताप सिंह इस घराने के बर्तमान उत्तराधिकारी
हैं।बस्ती मण्डल में सबसे प्राचीन राजवंश तथा सबसे बड़े भूभाग पर फैला रहने के कारण
इनके रिश्तेदारों आश्रितों तथा प्रजाजनों को सर्वाधिक जमींदारी तथा अनुदान प्राप्त
हुआ था।
राजा
जय प्रताप सिंह का जन्म 7 सितंबर 1953 को बिहार के बक्सर जिले के डुमराव नामक स्थान
में हुआ इन्होने मुंबई यूनिवर्सिटी से 1974 में बी. ए. किया इनके पिता का नाम राजा
रुद्रप्रताप सिंह हैं उनकी पत्नी का नाम रानी वसुंधरा कुमारी है और उनके दो पुत्र हैं
बड़े पुत्र का नाम कुंवर अधिराज प्रताप सिंह है और छोटे पुत्र का नाम कुमार अभय प्रताप
सिंह है 1989 में चुनाव लड़े फिर बांसी विधानसभा से 7 बार चुनाव जीते अब उत्तर प्रदेश
सरकार में मंत्री हैं
29.12.1989 को बस्ती
जिले के उत्तरी भाग को सिद्धार्थ नगर नामक पृथक जिला घोषित किया गया। इसका मुख्यालय
नौगढ़ बनाया गया। बांसी तहसील में बांसी, मिठवल तथा खेसरहा विकासखण्ड बचे। बांसी तहसील
के पूर्व में गोरखपुर,दक्षिण में रुधैली, पश्चिम में इटवा व डुमरियागंज तथा उत्तर में
नौगढ़ तहसीलें हैं। इसका अधिकतर भाग बूढ़ी राप्ती तथा बरार नदियों की मिट्टी से बना है।
यहां तहसील चिकित्सालय, मुसफ न्यायालय तथा डिग्रीकालेज आदि बने हैं। श्रीनेत
राजपूत समय-समय पर गुरिल्ला युद्ध कर खलीलुर्रहमान की सेना के सैनिकों को मार डालते
थे, हथियार आदि लूट लेते थे. खलीलुर्रहमान की जान को भी खतरा था इसलिए उसने अपने किले
से बाहर निकलना बंद कर दिया. उसे नौ किलोमीटर दूर मस्जिद में नमाज पढ़ने जाना होता था
इसलिए उसने इतनी लम्बी सुरंग बनवाई.
यहां राप्ती नदी के दाहिने
किनारे पर एक विशाल ईंटों का किला है। यह एक ऊंचे खेड़े पर स्थित है। शहर के दक्षिण
पूर्वी किनारे पर एक हिन्दू मन्दिर एवं एक मस्जिद है जो बहुत ज्यादा पुरानी नहीं है।
ये सभी व्यक्तिगत मिल्कियत में है। 1962-63 में पुराविदों को यहां बड़ी मात्रा में मिट्टी
के पात्र, चिनह मूर्तियां मिली हैं। पुरातात्विक प्रमाणों में लाल मृदभाण्ड परम्परा
के पात्रावशेष ख् अंगूठी के छल्ले मिले हैं। इन्हें पूर्वएतिहासिक काल का बताया गया
है। (भारती 8 प्रथम पृ. 118-20/आईएआर 1962-63 पृ. 33)
bht achha article hai dwivedi ji....mubarak ho !
ReplyDeletehum bhi usi ilaqe ke hain aur lucknow men rahte hain.ap se baat karna chahte hain...keya ap ka mobile no. mil sakta hai?
wasiullah
क्या ये सारी जानकारी एथेंटिक है? कोई रेफरेंस है क्या इन सारी जानकारी का??
ReplyDeleteकोई सिर्फ 9 km की सुरंग मस्जिद जाने के लिए नही बनवाएगा। उससे कम खर्चे में वो अपने हुजरे के बगल में मस्जिद बनवा सकता था।
ReplyDeleteItna purana Raj Gharana aaj bhi basi vidhansabha kshetra par Raj kar raha hai.. lekin area ka vikas Aaj Tak nhi kar paye.. it's shamefull! Sorry but sharm aani chahiye inke anuyayiyon ko.
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