अपने सामाजिक तथा धार्मिक कर्तव्य का निर्वहन
करते- करते मैंने अपनी अधिकांश जिन्दगी का बहुमूल्य समय व्यतीत कर लिया है। आज अपने
को आत्मचिन्तन करने का एक कारण पाया जिसे उद्घाटित करना अपना कर्तव्य समझ रहा हॅं।
प्राचीन काल में सामाजिक व्यवस्था के दो स्तंभ होते थे- वर्ण और आश्रम। मनुष्य की प्रकृति -गुण, कर्म और स्वभाव-के आधार पर मानव मात्र
का वर्गीकरण चार वर्णो में हुआ है। व्यक्तिगत संस्कार के लिए उसके जीवन का विभाजन चार
आश्रमों में किया गया है। ये चार आश्रम
-(1) ब्रह्मचर्य, (2) गार्हस्थ्य, (3) वानप्रस्थ और (4) संन्यास हैं।
अमरकोश (7.4)पर टीका करते हुए भानु जी दीक्षित ने आश्रम शब्द की व्याख्या इस प्रकार की है- “आश्राम्यन्त्यत्र अनेन वा श्रमु तपसि घञ् यद्वा आ समंताछ्रमोऽत्र स्वधर्मसाधनक्लेशात्।“
(अर्थात्
जिसमें सम्यक् प्रकार से श्रम किया जाए वह आश्रम है अथवा आश्रम जीवन की वह स्थिति है
जिसमें कर्तव्यपालन के लिए पूर्ण परिश्रम किया जाए।) आश्रम का अर्थ अवस्था विशेष, विश्राम
का स्थान तथा ऋषि मुनियों के रहने का पवित्र स्थान आदि भी किया गया है।
सनातन धर्म
में चार आश्रम
:- सनातन धर्म में पूर्ण उम्र के सौ वर्ष माना गया है। इस मान से जीवन को चार भाग में
विभक्त किया गया है। उम्र के प्रथम 25 वर्ष को शरीर, मन और बुद्धि के विकास के लिए
निर्धारित किया है। इस काल में ब्रह्मचर्य आश्रम में रहकर धर्म, अर्थ और काम की शिक्षा
ली जाती है। उसे माता पिता व गुरु ही समाज के अनुरुप ढ़ालते हैं। दूसरा गृहस्थ आश्रम
25 से 50 साल की अवधि के लिए मोटे रुप में माना गया है। इसी प्रकार 50 से 75 वर्ष को
वानप्रस्थ कहा गया है। ब्रह्मचर्य और गृहस्थ आश्रम में रहकर धर्म, अर्थ और काम के बाद
व्यक्ति को 50 वर्ष की उम्र के बाद वानप्रस्थ आश्रम में रहकर धर्म और ध्यान का कार्य
करते हुए मोक्ष की अभिलाषा रखना चाहिए अर्थात उसे मुमुक्ष हो जाना चाहिए। जहां मानव
अपनी सांसारिक जिम्मेदारियों को पूर्णकर जंगल में तप और साधना के लिए जाता रहा है।
बड़े से बड़े राजा भी इस चर्या का अनुकरण करते रहे हैं। जो इस नीति से हटकर कार्य करता
है वह भारतीय सनातन संस्कृति, दर्शन और धर्म की धारा का नहीं है। इस सनातन पथ पर जो
नहीं है वह भटका हुआ माना जाता है। 75 से ऊपर
के शेष जीवन को सन्यास की श्रेणी में रखा गया है। इस अवधि में वह पूर्णतः सभी सांसारिक
दायित्वों में मुक्त होकर भगवत भजन व साधना में लीन हो जाता है और आम लोगों से बहुत
ही कम मिला जाता है। आज के पोस्ट में मैं गृहस्थ आश्रम के दाम्पत्य जीवन के विविध उपादानों
पर ही किंचित चर्चा करने का प्रयास करुंगा।
जीवन में
खट्टा-मीठा अनुभव :-जीवन में अगर खट्टा-मीठा
ना हो तो जीवन जीने का मजा ही नहीं | फीका और बेस्वाद जीवन नीरस हो जाता है | खट्टे
मीठे अनुभव ही जीवन को दिशा प्रदान करते हैं और मनुष्य को सन्मार्ग की ओर ले जाते हैं
| जो इनसे हार मान लेते हैं वह अंधेरे में डूब जातें हैं और जो इसको जीत लेते हैं वह
मंजिल को पा लेते हैं | एक व्यक्ति के लिए अपनी राय बनाना अच्छी बात है मगर उसे कमजोर
बनाना दूसरी बात है अगर आप किसी के काम नहीं आ सकते तो उसकी सफलता में बाधक भी ना बने|
जीवन में कुछ ऐसे ही खट्टे-मीठे अनुभव प्राप्त होते हैं जिन्हें भुलाना चाहते हुए भी
आप भूल नहीं पाते और कुछ ऐसे होते हैं जिन्हें बार-बार याद करने से सुख का अनुभव होता
है | कुछ व्यक्ति आपकी उपाधियों और ज्ञान से परिचित होते हुए भी आपकी आलोचना करते हैं
और कुछ आपका अनुसरण करते हैं | कुछ आपके ऊपर गर्व करते होंगे और कुछ आपके जैसा बनना
चाहते होंगे |कुछ अपने पद को लेकर बस इसी दंभ में जीते होंगे कि उनसे बेहतर कोई नहीं
और उनसे आगे कोई नहीं निकल सकता और न ही वह किसी को बिना उनकी मंशा के आगे बढ़ने देंगे
| हमेशा ईश्वर पर विश्वास रखो |ईश्वर सब देखता है और देर-सवेर इंसाफ जरूर करता है
| चाहे इस लोक में चाहे उस लोक में करनी का फल हमेशा मिलता है इसलिए हमेशा अच्छे कर्म
करो ,दूसरों का भला चाहो दूसरों के मार्ग में कभी भी बाधक मत बनो हमेशा साधक का फर्ज़
अदा करो | किसी को अपशब्द मत कहो ,मीठी वाणी बोलो और सरस व्यवहार रखो दूसरों की तरक्की
से ईर्ष्या और द्वेष मत करो | कर्म करो फल की इच्छा मत करो |
गृहस्थ के कर्तव्य :- गृहस्थ आश्रम 25 से 50 वर्ष की आयु के लिए निर्धारित है, जिसमें धर्म, अर्थ
और काम की शिक्षा के बाद विवाह कर पति-पत्नी धार्मिक जीवन व्यतीत करते हुए काम का सुख
लेते हैं। परिवार के प्रति अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह करते हैं। गृहस्थ काल में व्यक्ति
सभी तरह के भोग को भोगकर परिपक्व हो जाता है। उक्त उम्र में व्यवसाय या अन्य कार्य
को करते हुए धर्म को कायम रखते हैं। व्यक्ति अपने माता पिता गुरु तथा उम्रदराजों, सेवायोजकांे
तथा सेवकों के साथ रहते हुए धर्म को कायम रखता है। यदि वह एसा नहीं कर पाता है तो यह
जिम्मेदारी उसके परिवेशगत लोगों की भी बनती है और वे भी इसके लिए नौतिक रुप में दोषी
होते है। जो धर्म को कायम ना रखकर उस पर तर्क-वितर्क करता है या उसका मजाक उड़ाता है,
तो दुख उसका साथ नहीं छोड़ता है। वेदों में उल्लेखित विवाह करने के पश्चात गृहस्थ को
संध्योपासन, व्रत, तीर्थ, उत्सव, दान, यज्ञ, श्राद्ध कर्म, पुत्री और पुत्र के संस्कार,
धर्म और समाज के नियम व उनकी रक्षा का पालन भी करना चाहिए। सभी वैदिक कर्तव्य तथा नैतिकता
के नियमों को मानना चाहिए। नहीं मानने के लिए भी वेद स्वतंत्रता देता है, क्योंकि वेद
स्वयं जानते हैं कि स्वतंत्र वही होता है जो मोक्ष को प्राप्त है।
कर्तव्य ना पालन से समाज में विकृतियाँ :- मनमाने नियमों को मानने वाला समाज बिखर जाता है। वेद विरुद्ध कर्म करने वाले
के कुल का क्षय हो जाता है। कुल का क्षय होने से समाज में विकृतियाँ उत्पन्न होती है।
एसा समाज कुछ काल के बाद अपना अस्तित्व खो देता है। भारत के एसे बहुत से समाज हैं जो
अब अपना मूल स्वरूप खोकर अन्य धर्म और संस्कृति का हिस्सा बन गए हैं। अन्य धर्म और
संस्कृति का हिस्सा बनने के कारण उनके पतन का भी समय तय है। एसा वेदज्ञ कहते हैं, क्योंकि
वेदों में भूत, भविष्य और वर्तमान की बातों के अलावा विज्ञान जहाँ समाप्त होता है वेद
वहाँ से शुरू होते हैं।
दाम्पत्य जीवन करामाती :- वैवाहिक जीवन चिंताएं और परेशानियां दूर कर देता है, बस उसे ख़त्म न करें.
हाल ही में न्यूज़ीलैंड की यूनिवर्सिटी ऑफ़ ओटागो के क्लिनिकल साइकोलोजिस्ट केट स्कॉट
की अगुवाई में एक अध्ययन में ये बात सामने आई है. इस अध्ययन में विश्व स्वास्थ्य संगठन,
डब्लूटीओ के सर्वे भी शामिल किए गए हैं. ये सर्वे डब्लूटीओ के विश्व मानसिक स्वास्थ्य
यानी वर्ल्ड मेंटल हेल्थ, डब्लूएमएच ने पिछले दशक में कराए थे. वैवाहिक जीवन तनाव,
अवसाद और चिंता से मुक्ति दिलाता है. "हमें
हमेशा जीवन में कोई ऐसा व्यक्ति चाहिए होता है- स्त्री को पुरुष, पुरुष को स्त्री.
जिससे आप अपने मन की बात खुल कर कह सकें. जिससे आप सब कुछ बात सकें. अगर आप के मन में
निरंतर कोई चिंता, कोई अवसाद घिरा रहेगा तो उसका शरीर पर लगातार बुरा असर पड़ता है.
यह अगर आप किसी से बांट लेंगें तो तय है की जो कष्ट है जो न सिर्फ़ मानसिक बल्कि शारीरिक
भी है क्योंकि ये पूरी एक जैव रासायनिक प्रक्रिया है स्ट्रैस की जिसके तहत शरीर पर
बुरा असर पड़ता है."इस शोध में यह भी देखा गया है की शादीशुदा जिंदगी में डिप्रेशन
का असर औरत और मर्द पर अलग अलग तरह से होता है. यानी पुरूष, स्त्रियों से कम डिप्रेस्ड
होते हैं. डॉ यतीश अग्रवाल बताते हैं कि ऐसा क्यों है, "औरतों को कुछ मनोविकार
अधिक होते हैं तो पुरषों को भी कुछ मनोविकार अधिक होते हैं. इसके जैव रासायनिक कारण
हैं. जो न्युरोट्रांसमीटर्स हमारे मस्तिष्क में सक्रिय रहते हैं हमें अच्छी अनुभूति
देते हैं ज़िन्दगी में. उसमें उतार चढ़ाव अधिक हों तो वह स्त्री हो या पुरुष दोनों
में ही उसका असर दिखता है. स्त्रियों में यह ज़्यादातर होता हैं क्योंकि उनकी प्रजनन
क्षमता में जो उतार चढ़ाव उसके सेक्स हारमोंस में होते हैं वे वहां कहीं पर रिफ्लेक्ट
करतें हैं." ये मुश्किल न आए इसलिए शादी की ज़िंदगी में बने रहना और निभाए रखना
लाज़िमी है. एक फ़ायदा और भी है.
वैवाहिक
जीवन में आर्थिक और सामाजिक कारण :- वैवाहिक जीवन में
आर्थिक और सामाजिक कारण अवश्य होते हैं। किन्तु प्रधान कारण मनोवैज्ञानिक होते हैं।
पति-पत्नी में अनेक अज्ञात भावनाएं प्रसुप्त इच्छाएं पुराने संस्कार, कल्पनाएं होती
हैं। जो अप्रकट रूप से प्रकाशित हो जाती है। प्रायः दो प्रेमी प्रसन्नता से वैवाहिक
सूत्र में आबद्ध होते हुए देखे गए हैं। किन्तु विवाह के कुछ काल पश्चात उनका पारस्परिक
आकर्षण न्यून होता देखा जाता है। बाद में तो वे परस्पर घृणा तक करने लगते हैं। इस घृणा
के कारण प्रायः आन्तरिक होते हैं।
गृहस्थाश्रम पति और पत्नी की साधना
का आश्रय है। वहाँ जीवन की धर्म, अर्थ और काम की साधना की जाती है। पति-पत्नी दोनों
एक दूसरे के पूरक हैं, सहायक हैं, मित्र हैं। दोनों का कार्य एक दूसरे के गुणों की
अभिवृद्धि करना है, क्षुद्रताओं का उन्मूलन करना है और परस्पर एक अभिन्नता बनाये रखना
है। इसके लिए प्रत्येक को संयम, सहनशीलता एवं स्वार्थ त्याग अपने अंदर विकसित करना
चाहिए।
पत्नी साधिका :- पत्नी साधिका है। जिस प्रकार एक साधक अपने
प्रभु की साधना में अपना सर्वस्व समर्पण कर देता है, उसी प्रकार अपने मन में द्वेष
की भावना न रखकर पति को अपना आराध्य मानकर अपना भला और बुरा सब कुछ सौंप दे। यदि पति
कुमार्गगामी हो, तो प्रेम प्रशंसा और युक्ति द्वारा उसका परिष्कार करे। कुमर्गढायन
एक मानसिक रोग है। अशिक्षा, अंधकार और मूढ़ता की निशानी है। इस रोग के उपचार के लिए
समझाने, तर्क, बुद्धि तथा स्वास्थ्य की दृष्टि से कुमार्ग की हीनता प्रदर्शित करने
की आवश्यकता है। निराश होने के स्थान पर समझाने से अधिक लाभ हो सकता है। पितृ ऋण के
उद्धार का एक मात्र साधन दाम्पत्य जीवन की शाँति है। संतान का उत्पादन और सुशिक्षण
योग्य दम्पत्ति के बिना कदापि संभव नहीं है। योग्य माता-पिता, उचित वातावरण, घरेलू
संस्कार पुस्तकों तथा सत्संग द्वारा योग्य संतान उत्पन्न होती है। योग्य संतान के इच्छुकों
को सर्वप्रथम स्वयं अपना परिष्कार एवं सुधार करना चाहिए।
दाम्पत्य जीवन का उद्देश्य “भोग“ नहीं, उन्नति :- दाम्पत्य जीवन का उद्देश्य “भोग“ नहीं, उन्नति
है। सब प्रकार की उन्नति के लिए दाम्पत्य जीवन आपको अवसर प्रदान करता है। यहाँ पहिले
शरीर, फिर सामाजिक जीवन, व्यक्तिगत जीवन और आध्यात्मिक जीवन की उन्नति के साधनों को
एकत्रित करना चाहिए। उन साधनों को अपनाना चाहिए जिससे परस्पर का द्वेष नष्ट हो और आत्मरति
एवं आत्म प्राप्ति की ओर दोनों जीवन-साथी विकासमान हों। जब दोनों एक दूसरे की उन्नति
में सहयोग प्रदान करेंगे तो निश्चय ही अभूतपूर्व गति उत्पन्न होगी। स्त्री-पुरुष का दाम्पत्य सम्बन्ध आत्म-पक्ष
के लिए है। यज्ञ में ईश्वरीय शक्तियों का विकास, आत्म भाव का विस्तार, उच्च ग्रन्थों
द्वारा मानव जीवन को परिपुष्ट करने के लिए दाम्पत्य जीवन का निर्माण किया है। इसलिए
स्त्री-पुरुष को विषय वासना का गुलाम नहीं बनना चाहिए। भोग से जितनी दूर रहा जाये,
उतना ही उत्तम है।
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