अक्षय
तृतीया भगवान
परशुराम जयन्ती के पावन
अवसर पर
ब्राह्मण
शब्द से ही इनका अर्थ पता चलता हे की ब्रह्म को जाननेवाले को ब्राह्मण कहते हे, 3 युगों
तक वैदिक सनातन धर्म में ज्ञान वर्ग को ब्राह्मण के नाम से जाना गया कर्म से ब्राह्मण
ने सदेव ज्ञान दिया, धर्म को मजबूत किया परन्तु कलयुग में ब्राह्मण और धर्म दोनों को
कही ना कही चोट पहुची.ब्राह्मण (विप्र, द्विज, द्विजोत्तम, भूसुर)
यह आर्यों की समाज व्यवस्था अर्थात वर्ण व्यवस्था का सर्वोच्च वर्ण है। भारत के
सामाजिक बदलाव के इतिहास में जब भारतीय समाज को हिन्दू के रुप में संबोधित किया जाने
लगा तब ब्राह्मण वर्ण, जाति में भी परिवर्तित हो गया। अब यह ब्राह्मण वर्ण हिन्दू समाज की एक जाति भी है। एतिहासिक रूप
से आर्यों की वर्ण व्यवस्था में चार वर्ण होते हैं। ब्राह्मण (आध्यात्मिकता के लिए उत्तरदायी), क्षत्रिय (धर्म रक्षक), वैश्य (व्यापारी) तथा शूद्र (सेवक, श्रमिक समाज)। यस्क मुनि की
निरुक्त के अनुसार - ब्रह्म जानाति ब्राह्मण: - ब्राह्मण वह है जो ब्रह्म (अंतिम
सत्य, ईश्वर या परम ज्ञान) को जानता है। अतः ब्राह्मण का अर्थ है - "ईश्वर का
ज्ञाता"। किन्तु हिन्दू समाज में एतिहासिक स्थिति यह रही है कि पारंपरिक पुजारी
तथा पंडित ही ब्राह्मण होते हैं। यद्यपि भारतीय जनसंख्या में ब्राह्मणों का प्रतिशत
कम है, तथापि धर्म, संस्कॄति, कला, शिक्षा, ज्ञान-विज्ञान तथा उद्यम के क्षेत्र में
इनका योगदान अपरिमित है।
अखंड भारत की सोच देने वाले आचार्य चाणक्य जी के काल तक
ब्रह्मिनो का ज्ञान वर्ग अपने कर्म को लेकर सजग था, धीरे धीरे नास्तिक मत के उदय के
कारण हिन्दू धर्म में कही बदलाव आते गए जेसे मूर्ति पूजा हुई उस समय कही वेदांतो के
साथ ज्ञान वर्ग के ब्रह्मिनो ने उनके साथ ज्ञान चर्चा कर मात दी परन्तु अनेक वेदांत
और नियम बन्ने से ब्रह्मिनो में ही आपसी मतभेद बढ़ने लग गए और धीरे धीरे ये बिखराव ने
विकराल रूप ले लिया जिसका असर सीधे तौर पे धर्म पर पड़ा.आजाद भारत में आते आते कुछ ब्राह्मण
अपने मूल कर्म से विमुख हुए, कही लन्दन तो कही ब्रिटिश ऑफिस में कार्य करते नजर आये.
मुग़ल काल में ब्राह्मण उभर आये क्यों की ब्रह्मिनो ने इस्लामिक पद्दति और उसका अनुसरण
नहीं किया परन्तु अंग्रेजी हुकूमत में ब्रह्मिनो ने आगे बढ़ते हुए अंग्रेजी और संस्कृति
को अपनाया भी जिसके कारण बड़ी संख्या में ब्राह्मण सरकारी विभागों में पाए गए हालाँकि
शुरू से ही सरकार के मार्ग दर्शन के लिए राजतंत्र में भी ब्राह्मण राजमहल में रहते
थे परन्तु सांस्कृतिक हास नहीं था उस समय.
भारत का सर्वोपरी नाम ब्राह्मणों की देन:-ब्राह्मण समुदाय ही था जिसके कारण हमारे देश का बच्चा-बच्चा
गुरुकुल में बिना किसी भेदभाव के समान रूप से शिक्षा पाकर एक योग्य नागरिक बनता था।
ब्राह्मण ही थे जो ऋषि मुनि कहलाते थे, जिन्होंने विज्ञान को अपनी मुट्ठी में कर रखा
था।भारत के स्वर्णिम युग में ब्राह्मण को यथोचित सम्मान दिया जाता था और उसी से सामाज
में व्यवस्था भी ठीक रहती थी। सदा से विश्व भर में जिन जिन क्षेत्रों में भारत का नाम
सर्वोपरी रहा है और आज भी है वे सब ब्राह्मणों की ही देन हैं, जैसे कि अध्यात्म, योग,
प्राणायाम, आयुर्वेद आदि। यदि ब्राह्मण जरा भी स्वार्थी होते तो यह सब अपने था अपने
कुल के लिए ही रखते दुनिया में मुफ्त बांटने की बजाए इन की कीमत वसूलते। वेद-पुराणों
के ज्ञान-विज्ञान को अपने मस्तक में धारने वाले व्यक्ति ही ब्राह्मण कहे गए और आज उनके
ये सब योगदान भूल कर हम उन्हें दोष देने में लगे है। ‘वसुधैव कुटुंबकं’ व ‘लोको सकलो
सुखिनो भवन्तु’ का जिस ब्राह्मण ने हमें मन्त्र दिया वह विभाजनवादी कैसे हो सकता है?
जो केवल अपनी ,परिवार, जाति, प्रांत या देश की नहीं बल्कि सकल जगत की मंगलकामना करने
का उपदेश देता है, वह स्वार्थी कैसे हो सकता है? इन सब प्रश्नों को साफ़ मन से, बिना
पक्षपात के विचारने की आवश्यकता है, तभी हम सही उत्तर जान पायेंगे। मुग़ल काल में ब्राह्मण
उभर आये क्यों की ब्रह्मिनो ने इस्लामिक पद्दति और उसका अनुसरण नहीं किया परन्तु अंग्रेजी
हुकूमत में ब्रह्मिनो ने आगे बढ़ते हुए अंग्रेजी और संस्कृति को अपनाया भी जिसके कारण
बड़ी संख्या में ब्राह्मण सरकारी विभागों में पाए गए. शुरू से ही सरकार के मार्ग दर्शन
के लिए राजतंत्र में भी ब्राह्मण राजमहल में रहते थे परन्तु उस समय सांस्कृतिक हास
नहीं था.
ब्राह्मणों की वर्तमान
स्थिति:- आधुनिक भारत के निर्माण के विभिन्न क्षेत्रों जैसे साहित्य, विज्ञान एवं प्रौद्यौगिकी,
राजनीति, संस्कृति, पाण्डित्य, धर्म में ब्राह्मणों का अपरिमित योगदान है। प्रमुख क्रांतिकारियों
और स्वतंत्रता सेनानियों मे बाल गंगाधर तिलक, चंद्रशेखर आजाद इत्यादि हैं। लेखकों और
विद्वानों में कालिदास, रबीन्द्रनाथ ठाकुर हैं। धीरे धीरे अंग्रेजी हुकूमते
अपने राज फेला रही थी वही एक और कुछ ब्राह्मण ऐसे भी थे जो गुरुकुल व्यवस्था और वैदिक
धर्म की पूर्ण रक्षा के लिए जीतोड़ कोशिश में लगे थे परन्तु जब अंग्रेजो की समझ आया
की ये गुरुकुल व्यवस्था भारत के स्वाभिमान और आत्मसम्मान की हड्डी हे तो उन्होंने इसे
तोड़ने का मन बना लिया और अपने कही ब्रिटिश विद्वान को लन्दन से बुलाया जिसमे लार्ड
मेकाले, राल्फ ग्रिफिथ जेसो को भारत बुलाया और श्री ग्रन्थ वेदों के अंग्रेजी अनुवाद
के नाम पर उसमे छेड़छाड़ करी गयी हालाँकि जो वैदिक वेद हे वो आज भी उसी स्वरुप में हे
अंग्रेजी अनुवाद से हिंदी में बदले गए वेदों में अंग्रेजो द्वारा कुछ बदलाव किये गए. जो वैदिक वेद है वो आज भी उसी स्वरुप में है. एक और जहा बड़ी तेजी से ब्रिटिश
विद्वान वेदों का अनुवाद कर रहे थे दूसरी तरफ गुरुकुल बंद करवा कर कान्वेंट की स्थापना
हो रही थी, अंग्रेजी संस्कृति को स्थापित कर वैदिक संस्कृति को मिटाया जा रहा था क्यों
की अंग्रेजो को समझ आ गया भारत की मजबूती यहाँ की संस्कृति हे, कल तक जो अंग्रेज भारत
में रहके हिंदी बोलते थे आज उन्होंने अंग्रेजी को फेलाने पे जोर दिया और हिंदी का हास
होता गया उसी में ब्राह्मण अगर अपने कर्तव्यों को समझकर वेदों के रक्षा के लिए उतर
जाते तो शायद वैदिक संस्कृति का इतना हास नहीं होता.
वैदिक
धर्म के इसी हास को लेकर मह्रिषी दयानंद जी ने आर्य समाज की स्थापना की ताकि पाखण्ड
और अंधविश्वास को दूर किया जा सके, कही धर्म सुधार आन्दोलन हुए परन्तु ब्रह्मिनो की
नजरंदाजी के कारण विफल होते गए और आन्दोलन खुद भ्रष्ट होते गए. धीर धीरे आरक्षण जेसी
व्यवस्था से शिक्षण पर असर पड़ना शुरू हुआ तब ब्रह्मिनो के सर पे भार आके गिरा जिसको
हटाने के लिए ब्रह्मिनो ने पूरी तरह अपने आप को आज के युग में ढाल कर वैदिक सभ्यता,संस्कार
और वेदों को पीछे छोड़ दिया.वैदिक धर्म के 4 हिस्से हे जिसे वर्ण कहा गया हे ब्राह्मण,
क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र धर्म में चारो का अपना महत्व हे, जब भी इनमे से कोई हिलता
गिरता हे तो उसके पीछे सभी गिरते जाते हे. क्षत्रिय वर्ण से जैन, बोद्ध और सिख धर्म
बने तो वैदिक मतों का हास हुआ ब्रह्मिन वर्ण से उनके कर्म विमुख हुए तब पाखण्ड का विस्तार
हुआ अब शुदो के प्रति नकारत्मक व्यवहार से देश में आरक्षण जेसी व्यवस्था सभी झेल रहे
हे जो किसी का भला नहीं कर सकती.
ब्रह्मिनो
को समझना होगा, युवाओ को जागना होगा अगर आज नहीं संभले तो कल कही के नहीं रहेंगे. जरा
सोचिये आप किस कुल में जन्मे हे उसका महत्व क्या हे, उसका सम्मान क्या और क्या ये जन्म
फिर से मिलेगा. बेशक आप बड़े डॉक्टर, इंजिनियर, सीए बन जाओगे परन्तु अगर भगवान को मानते
हो तो ये याद रखना उसी इश्वर ने आपको ब्राह्मण की डिग्री दी हे आपकी जिम्मेदारी हे
धर्म की रक्षा और ज्ञान की रक्षा आप अपने उस कर्त्तव्य से पीछे नहीं हट सकते.
ब्राह्मण होना एक दुधारी तलवार पर चलना:- आज के युग में ब्राह्मण होना एक दुधारी तलवार
पर चलने के समान है। यदि ब्राह्मण अयोग्य है और कुछ अच्छा कर नहीं पाता तो लोग कहते
हैं कि देखो हम तो पहले ही जानते थे कि इसे इसके पुरखों के कुकर्मों का फल मिल रहा
है। यदि कोई सफलता पाता है तो कहते हैं कि इनके तो सभी हमेशा से ऊंची पदवी पर बैठे
हैं, इन्हें किसी प्रकार की सहायता की क्या आवश्यकता? अगर किसी ब्राह्मण से कोई अपराध
हो जाए फिर तो कहने ही क्या, सब आगे पीछे के सामाजिक पतन का दोष उनके सिर पर मढने का
मौका सबको मिल जाता है। कोई श्रीकांत दीक्षित भूख से मर जाता है तो कहते हैं कि बीमारी
से मरा। ब्राह्मण बेचारा इतने दशकों से अपने अपराधों की व्याख्या सुन सुन कर ग्लानि
से इतना झुक चूका है कि वह कोई प्रतिक्रिया भी नहीं करता, बस चुपचाप सुनता है और अपने
प्रारब्ध को स्वीकार करता है। बिना दोष के भी दोषी बना घूमता है आज का ब्राह्मण। नेताओं
के स्वार्थ, समाज के आरोपों, और देशद्रोही ताकतों के षड्यंत्र का शिकार हो कर रह गया
है ब्राह्मण। आज बहुत से ब्राह्मण अपने पूर्वजों के व्यवसाय को छोड़ चुके हैं । बहुत
से तो संस्कारों को भी भूल चुके हैं । अतीत से कट चुके हैं किंतु वर्तमान से उनको जोड़ने
वाला कोई नहीं। ऐसे में भविष्य से से भी कोई आशा नहीं किया जा सकता है।
ब्राहमणों को छला गया:- इतिहास के किसी भी काल
में ब्राह्मण न तो धनवान थे और न ही शक्तिशाली। वन का प्रत्येक जन्तु मृग का शिकार
करना चाहता है, उसे खा जाना चाहता है। भारत का ब्राह्मण भी मृग के समान है। आज के ब्राह्मण
की वह स्थिति है जो नाजियों के राज्य में यहूदियों की थी। ब्राह्मणों की इस दुर्दशा
से किसी को भी सरोकार नहीं । जो राजनीतिक दल हिन्दू समर्थक माने गए हैं, उन्होंने भी
ब्राह्मणों के साथ सिर्फ छलावा ही किया है। ब्राह्मण सदा से निर्धन रहे हैं शुंग,कण्व
,सातवाहन आदि द्वारा किया गया शासन सभी विजातियों और विधर्मियों को कचोटता है। चाणक्य
ने चन्द्रगुप्त मौर्य की सहायता अखण्ड भारत की स्थापना करने में की थी । भारत का सम्राट
बनने के बाद, चन्द्रगुप्त ,चाणक्य के चरणों में गिर गया और उसने उसे अपना राजगुरु बनकर
महलों की सुविधाएँ भोगते हुए, अपने पास बने रहने को कहा। चाणक्य का उत्तर था, ‘मैं
तो ब्राह्मण हूँ, मेरा कर्म है शिष्यों को शिक्षा देना और भिक्षा से जीवनयापन करना’।
श्री कृष्ण की कथा में भी निर्धन ब्राह्मण सुदामा ही प्रसिद्ध है।
भिक्षाग्राही शोषक कैसे:- दूसरों का शोषण करने के
लिए शक्तिशाली स्थान और अधिकार-सम्पन्न पदवी की आवश्यकता होती है। या तो मन्दिरों में
पुजारी या धार्मिक कार्य में पुरोहित या वेतनहीन गुरु(अध्यापक) का काम ब्राह्मणों का
रहा है । उनके धनार्जन का एकमात्र साधन भिक्षाटन रहा है । इन स्थानों पर रहते हुए वे
कैसे दूसरे वर्गों का शोषण करने में समर्थ हो सकते हैं? निर्धन होना ब्राह्मण का एक
गुण माना गया है। समाज में सबसे माननीय स्थान संन्यासी ब्राह्मणों का था और उनके जीवनयापन
का साधन भिक्षा ही थी। ब्राह्मणों से यही अपेक्षा की जाती रही कि वे अपनी जरूरतें कम
से कम रखें और अपना जीवन ज्ञान की आराधना में अर्पित करें। सत्य तो यह है कि शोषण वही
कर सकता है जो समृद्ध हो और जिसके पास अधिकार हो। अब्राह्मण को पढने से किसी ने नहीं
रोका। श्रीकृष्ण यदुवंशी थे, उनकी शिक्षा गुरु संदीपनी के आश्रम में हुई, श्रीराम क्षत्रिय
थे उनकी शिक्षा पहले ऋषि वशिष्ठ के यहाँ और फिर ऋषि विश्वामित्र के पास हुई। ब्राह्मण
का तो काम ही था सबको शिक्षा प्रदान करना। दिन-रात अध्ययन व अभ्यास के कारण, वे सबसे
अधिक ज्ञानी माने गए, और ज्ञानी होने के कारण प्रभावशाली और आदरणीय भी। इसके कारण कुछ
अन्य वर्ग उनसे जलने लगे, किंतु इसमें भी उनका क्या दोष?
विद्या केवल ब्राह्मणों की पूंजी भी नहीं रही:-यदि विद्या केवल ब्राह्मणों की पूंजी रही होती तो
वाल्मीकि जी ‘रामायण’ कैसे लिखते और तिरुवलुवर ‘तिरुकुरल’ कैसे लिखते? अब्राह्मण संतो
द्वारा रचित इतना सारा भक्ति-साहित्य कहाँ से आता? जिन ऋषि व्यास ने महाभारत की रचना
की वे भी एक मछुआरन माँ के पुत्र थे। इन सब उदाहरणों से यह स्पष्ट है कि ब्राह्मणों
ने कभी भी विद्या देने से मना नहीं किया। यह केवल एक झूठी भ्रान्ति है जिसे गलत तत्वों
ने अपने फायदे के लिए फैलाया, और इतना फैलाया कि सब इसे सत्य मानने लगे।जिन दो पुस्तकों
में वर्ण(जाति नहीं) व्यवस्था का वर्णन आता है उनमें पहली तो है मनुस्मृति जिसके रचियता
मनु थे जो कि एक क्षत्रिय थे, और दूसरी है श्रीमदभगवदगीता जिसके रचियता व्यास थे जो
कि निम्न वर्ग की मछुआरन के पुत्र थे। यदि इन दोनों ने ब्राह्मण को उच्च स्थान दिया
तो केवल अपने ज्ञान एवं शील के कारण, किसी स्वार्थ के कारण नहीं।
भगवान परशुराम
का आंदोलन आततायी बाहुबलियों के विरुद्ध था। उनके समान त्यागी, अपरिग्रही, दानी कर्मठ, तत्काल निर्णय लेने वाला महायोद्धा मानव इतिहास में दूर दूर तक नहीँ नज़र आता है। वे सत्ता, वैभव और सुख की आकांक्षा से रहित थे और उनके सारे प्रयास भय एवं अत्याचार के विरुद्ध केंद्रित थे। उन्होने बिना किसी पूर्वाग्रह और पक्षपात के आततायी राजाओं का अंत कर जन सामान्य को सुरक्षा दी तथा शोषण से रक्षा की।
अतएव परशुराम के आदर्श को स्थापित करने हेतु ब्राह्मण समाज को उनके गुणों का अनुकरण करते हुये त्यागी, अपरिग्रही, निस्पृह, निर्मोही, निर्लोभी, शूर-वीर, पराक्रमी तथा पूर्वाग्रह और पक्षपात मुक्त होना पड़ेगा।
अग्निर्देवो द्विजातीनां मुनिनां ह्रदिदैवतम् । प्रतिमास्वल्पबुद्धीनां सर्वतः समदर्शनः।। ब्राह्मण वर्ग का सत्ता में आना शुभ संकेत है किंतु लोकोपकार तभी सँभव होगा जब वे सर्वोच्च कोटि अर्थात समदर्शी प्रकार के वास्तविक ब्राह्मण होंगे।
अतएव परशुराम के आदर्श को स्थापित करने हेतु ब्राह्मण समाज को उनके गुणों का अनुकरण करते हुये त्यागी, अपरिग्रही, निस्पृह, निर्मोही, निर्लोभी, शूर-वीर, पराक्रमी तथा पूर्वाग्रह और पक्षपात मुक्त होना पड़ेगा।
अग्निर्देवो द्विजातीनां मुनिनां ह्रदिदैवतम् । प्रतिमास्वल्पबुद्धीनां सर्वतः समदर्शनः।। ब्राह्मण वर्ग का सत्ता में आना शुभ संकेत है किंतु लोकोपकार तभी सँभव होगा जब वे सर्वोच्च कोटि अर्थात समदर्शी प्रकार के वास्तविक ब्राह्मण होंगे।
ब्राह्मण अहिंसा के लिए प्रसिद्ध :-पुरातन काल में जब कभी भी उन पर कोई विपदा आई,
उन्होंने शस्त्र नहीं उठाया, क्षत्रियों से सहायता माँगी।बेचारे असहाय ब्राह्मणों को
अरब आक्रमणकारियों ने काट डाला, उन्हें गोवा में पुर्तगालियों ने शूली पर चढ़ा कर मारा,
उन्हें अंग्रेज मिशनरी लोगों ने बदनाम किया, और आज अपने ही भाई-बंधु उनके शील और चरित्र
पर कीचड उछाल रहे हैं। इस सब पर भी क्या वे लड़े, क्या उन्होंने आन्दोलन किया ?औरंगजेब
ने बनारस, गंगाघाट और हरिद्वार में 150,000 ब्राह्मणों और उनके परिवारों की ह्त्या
करवाई, उसने हिन्दू ब्राह्मणों और उनके बच्चों के शीश-मुंडो की इतनी ऊंची मीनार खडी
की जो कि दस मील से दिखाई देती थी, उसने उनके जनेयुओं के ढेर लगा कर उनकी आग से अपने
हाथ सेके। किसलिए, क्योंकि उन्होंने अपना धर्म छोड़ कर इस्लाम को अपनाने से मना किया।
हजारों की संख्या में गौड़ सारस्वत कोंकणी ब्राह्मण सेंट जेवियर के अत्याचारों से तंग
होकर अपना सब कुछ गंवा कर गोवा छोड़ गए । किसी एक ने भी मुड़ कर वार नहीं किया। सेंट
जेवियर के नाम पर आज भारत के हर नगर में स्कूल और कॉलेज है और भारतीय अपने बच्चों को
वहां पढ़ाने में गर्व अनुभव करते हैं।कई हज़ार सारस्वत ब्राह्मण काश्मीर और गांधार के
प्रदेशों में विदेशी आक्रमणकारियों के हाथों मारे गए। आज ये प्रदेश अफगानिस्तान और
पाकिस्तान कहलाते हैं। वहां एक भी सारस्वत ब्राह्मण नहीं बचा है। क्या कोई एक घटना
बता सकते हैं कि इन प्रदेशों में किसी ब्राह्मण ने किसी विदेशी की हत्या या कोई भी
हिंसा का काम किया? आधुनिक समय आतंकवादियों ने काश्मीर घाटी के मूल निवासी ब्राह्मणों
को विवश करके काश्मीर से बाहर निकाल दिया। 500,000 काश्मीरी पंडित अपना घर छोड़ कर बेघर
हो गए, देश के अन्य भागों में शरणार्थी हो गये, और उनमे से 50,000 तो आज भी जम्मू और
दिल्ली के बहुत ही अल्प सुविधायों वाले अवसनीय तम्बुओं में रह रहे हैं। आतंकियों ने
अनगनित ब्राह्मण पुरुषों को मार डाला और उनकी स्त्रियों का शील भंग किया। क्या एक भी
पंडित ने शस्त्र उठाया, क्या एक भी आतंकवादी की ह्त्या की? फिर भी आज ब्राह्मण शोषण
और अत्याचार का पर्याय माना जाता है ।19वीं सदी में मेलकोट में दिवाली के दिन टीपू
सुलतान की सेना ने चढाई कर दी और वहां के 800 नागरिकों को मार डाला जो कि अधिकतर मंडयम
आयंगर थे। वे सब संस्कृत के उच्च कोटि के विद्वान थे। आज तक मेलकोट में दिवाली नहीं
मनाई जाती। इस हत्याकाण्ड के कारण यह नगर एक श्मशान बन गया। ये अहिंसावादी ब्राह्मण
पूर्ण रूप से शाकाहारी थे, और सात्विक भोजन खाते थे जिसके कारण उनकी वृतियां भी सात्विक
थीं और वे किसी के प्रति हिंसा के विषय में सोच भी नहीं सकते थे। उन्होंने तो अपना
बचाव तक नहीं किया। फिर भी आज इस देश में टीपू सुलतान की मान्यता है। उसकी वीरता के
किस्से कहे-सुने जाते हैं। और उन ब्राह्मणों को कोई स्मरण नहीं करता जो धर्म के कारण
मौत के मुंह में चुपचाप चले गए।
रिक्शा वाले ब्राह्मण :- बनारस के अधिकाँश रिक्शा वाले ब्राह्मण हैं। दिल्ली के रेलवे स्टेशन पर आपको ब्राह्मण कुली का काम करते हुए मिलेंगे।दिल्ली
में पटेलनगर के क्षेत्र में 50 % रिक्शा वाले ब्राह्मण समुदाय के हैं। आंध्र प्रदेश में 75 % रसोइये और घर की नौकरानियां ब्राह्मण हैं। इसी प्रकार देश के दुसरे भागों में भी ब्राह्मणों की ऐसी ही दुर्गति है, इसमें कोई शंका नहीं। गरीबी-रेखा से नीचे बसर करने वाले ब्राह्मणों का आंकड़ा 6% है। हजारों की संख्या में ब्राह्मण युवक अमरीका आदि पाश्चात्य देशों में जाकर बसने लगे हैं क्योंकि उन्हें वहां साफटवेयर इंजीनियर, वैज्ञानिक या डाक्टर का काम मिल जाता है। सदियों से जिस समुदाय के सदस्य अपनी कुशाग्र बुद्धि के कारण समाज के शिक्षक और शोधकर्ता रहे हैं, उनके लिए आज ये सब कर पाना कोई बड़ी बात नहीं। फिर भारत सरकार को उनके सामर्थ्य की आवश्यकता क्यों नहीं है ? क्यों भारत में तीव्र मति की अपेक्षा मंद मति को प्राथमिकता दी जा रही है? और ऐसे में देश का विकास होगा तो कैसे ? भारत के लोगों को गम्भीरता से इस पर विचार चिंतन व मनन करना चाहिए।
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