Monday, December 6, 2021

कर्म - भोग : श्रीमद्भभगवतगीता के आधार पर बहुत ही उपयोगी विचार। (सोसल मीडिया Niyojan चिन्तन ग्रुप से साभार)

 
पूर्व जन्मों के कर्मों से ही हमें इस जन्म में माता - पिता , भाई - बहन , पति - पत्नि , प्रेमी - प्रेमिका , मित्र - शत्रु , सगे - सम्बन्धी इत्यादि संसार के जितने भी रिश्ते नाते हैं , सब मिलते हैं । क्योंकि इन सबको हमें या तो कुछ देना होता है या इनसे कुछ लेना होता है ।
सन्तान के रुप में कौन आता है ?
वेसे ही सन्तान के रुप में हमारा कोई पूर्वजन्म का 'सम्बन्धी' ही आकर जन्म लेता है । जिसे शास्त्रों में चार प्रकार से बताया गया है --
ऋणानुबन्ध  :-पूर्व जन्म का कोई ऐसा जीव जिससे आपने ऋण लिया हो या उसका किसी भी प्रकार से धन नष्ट किया हो , वह आपके घर में सन्तान बनकर जन्म लेगा और आपका धन बीमारी में या व्यर्थ के कार्यों में तब तक नष्ट करेगा , जब तक उसका हिसाब पूरा ना हो जाये ।
शत्रु पुत्र  :- पूर्व जन्म का कोई दुश्मन आपसे बदला लेने के लिये आपके घर में सन्तान बनकर आयेगा और बड़ा होने पर माता - पिता से मारपीट , झगड़ा या उन्हें सारी जिन्दगी किसी भी प्रकार से सताता ही रहेगा । हमेशा कड़वा बोलकर उनकी बेइज्जती करेगा व उन्हें दुःखी रखकर खुश होगा ।
उदासीन पुत्र  :- इस प्रकार की सन्तान ना तो माता - पिता की सेवा करती है और ना ही कोई सुख देती है । बस , उनको उनके हाल पर मरने के लिए छोड़ देती है । विवाह होने पर यह माता - पिता से अलग हो जाते हैं ।
सेवक पुत्र  :- पूर्व जन्म में यदि आपने किसी की खूब सेवा की है तो वह अपनी की हुई सेवा का ऋण उतारने के लिए आपका पुत्र या पुत्री बनकर आता है और आपकी सेवा करता है । जो  बोया है , वही तो काटोगे । अपने माँ - बाप की सेवा की है तो ही आपकी औलाद बुढ़ापे में आपकी सेवा करेगी , वर्ना कोई पानी पिलाने वाला भी पास नहीं होगा ।
आप यह ना समझें कि यह सब बातें केवल मनुष्य पर ही लागू होती हैं । इन चार प्रकार में कोई सा भी जीव आ सकता है । जैसे आपने किसी गाय कि निःस्वार्थ भाव से सेवा की है तो वह भी पुत्र या पुत्री बनकर आ सकती है । यदि आपने गाय को स्वार्थ वश पालकर उसको दूध देना बन्द करने के पश्चात घर से निकाल दिया तो वह ऋणानुबन्ध पुत्र या पुत्री बनकर जन्म लेगी । यदि आपने किसी निरपराध जीव को सताया है तो वह आपके जीवन में शत्रु बनकर आयेगा और आपसे बदला लेगा।
इसलिये जीवन में कभी किसी का बुरा ना करें । क्योंकि प्रकृति का नियम है कि आप जो भी करोगे , उसे वह आपको इस जन्म में या अगले जन्म में सौ गुना वापिस करके देगी । यदि आपने किसी को एक रुपया दिया है तो समझो आपके खाते में सौ रुपये जमा हो गये हैं । यदि आपने किसी का एक रुपया छीना है तो समझो आपकी जमा राशि से सौ रुपये निकल गये।
ज़रा सोचिये , "आप कौन सा धन साथ लेकर आये थे और कितना साथ लेकर जाओगे ? जो चले गये , वो कितना सोना - चाँदी साथ ले गये ? मरने पर जो सोना - चाँदी , धन - दौलत बैंक में पड़ा रह गया , समझो वो व्यर्थ ही कमाया । औलाद अगर अच्छी और लायक है तो उसके लिए कुछ भी छोड़कर जाने की जरुरत नहीं है , खुद ही खा - कमा लेगी और औलाद अगर बिगड़ी या नालायक है तो उसके लिए जितना मर्ज़ी धन छोड़कर जाओ , वह चंद दिनों में सब बरबाद करके ही चैन लेगी ।"
मैं , मेरा , तेरा और सारा धन यहीं का यहीं धरा रह जायेगा , कुछ भी साथ नहीं जायेगा । साथ यदि कुछ जायेगा भी तो सिर्फ *नेकियाँ* ही साथ जायेंगी । इसलिए जितना हो सके *नेकी* करो *सतकर्म* करो ।       
                 ( डा. ज्ञानेन्द्र नाथ श्रीवास्तव)
माता पिता के बारे में एक अनुभव जनित तथ्य -
कहते हैं कि माँ तो माँ ही होती है और पिता भी पिता होता है जो संतान के लिये कुछ भी तप  त्याग कर सकते हैं। यह बात सत्य है। किंतु ऐसा भी देखने में आया है कि एक समय आता है जब माँ बाप भी संतान के साथ पूर्वाग्रह एवं पक्षपात से भर जाते हैं और उनकी सदाशयता तथा सहानुभूति सब लुप्त हो जाती है। जो माता पिता इस स्थिति को प्राप्त होते हैं उनकी भावना संतान के भौतिक जीवन को बहुत नकारात्मक रूप से प्रभावित करती है । ऐसे माता पिता अपना परलोक बिगाड़ते हैं या नहीं इसका तो कोई साक्ष्य नहीं होता है। 
बचपन में माता का दुलार और पिता का दंभ संतान के दुर्भाग्य का कारण बनता है । युवा एवं प्रौढ़ संतान के प्रति माता पिता की दुर्भावना संतान को दरिद्र बनाती है और उसके ऊपर विपत्तियाँ लाती है। 
बचने के साधन एवं उपाय:-
संतान को चाहिए कि वह माता पिता के गुण अवगुण का विश्लेषण किये विना उनके प्रति पूर्ण समादर एवं शिष्टाचार का भाव बनाये रखे। उनके दुर्वचनों को आशीर्वचन के रूप में देखे। उनकी निंदा न करे और अपनी पूर्ण क्षमता का उपयोग करते हुये उनकी इच्छा पूर्ति करे। उनकी मन से सेवा करे एवं उनके दुर्गुणों पर दृष्टिपात न करते हुये उनकी   मांस-मदिरा की चाहत को भी पूर्ण करे। ऐसी संतान हर बाधा विपत्ति को पार करने में समर्थ होगी। वह समृद्धिशाली होगा और उसका भौतिक जीवन परम सुखमय होगा एवं अध्यात्म में उसकी गति होगी। जिसने यह तप साध लिया वह महाविजयी होगा। उसे मंदिर या तीर्थ जाने और देवदर्शन की  आवश्यकता नहीं होगी।
जो संतान माता पिता पर एहसान जताती है वह दुख एवं विपत्तियों के सागर में निमग्न रहती है ।  बहू और दामाद के दुखों का कारण यही है कि वे अपने सास-ससुर को अपना नहीं पाते हैं और मानसिक दुरोभाव के कारण ही अनायास दुर्भाग्य को निमंत्रण दे बैठते हैं। यह संभव है कि बहू या दामाद के लिये सास-ससुर अच्छे न हो, वे अवसरवादी, स्वार्थी एवं दूषित मनोभाव वाले हो सकते हैं किंतु जिसे सौभाग्य चाहिए उसे इनके हर दुर्गुण को स्वीकारना ही पड़ेगा तभी प्रकृति प्रसन्न होकर सुख सौभाग्य का अवसर प्रदान करती है । यही धर्म है जिसे धारण करना है जिसका पालन करना है। 
विवाह एक सामाजिक प्रक्रिया है जो परिवार और समाज के लोग संपन्न कराते हैं। शारीरिक आकर्षण आयुजन्य होते हैं इसलिए प्रणय विवाह या गंधर्व विवाह भी संभव हैं और सामाजिक विधि विधान को संपन्न कर इनको सामाजिक मान्यता भी मिल जाती है। किंतु परस्पर समर्पण या विद्रोह का भाव बैपरने पर ही विकसित होता है। पति- पत्नी एक -दूसरे के गुण- दोष का विश्लेषण और विवेचन कर परस्पर क्षुब्ध या सुखी -संतुष्ट हो सकते हैं किंतु दोनों ही अपने माता-पिता या जन्मभूमि या पैतृक स्थान की निंदा नहीं सुन सकते हैं या सुनने के बाद प्रसन्न और अनुकूल नहीं रह सकते हैं। आप अपनी माता से भले ही कितना खीझते रहे हों या पिता से जेब खर्च के लिये कितना भी बहस करते रहे हों किंतु पत्नी उसका अंशमात्र भी करे तो आपको सहन नहीं होगा और पुन:श्च यही बात पत्नी के पैतृक संबंधों के प्रति लागू होती है वह भी अपनों के प्रति ऐसा कुछ भी सहन नहीं करेगी। इसलिये सुख का स्रोत है स्वीकार्यता । जो जैसा है उसको विना विश्लेषण के स्वीकार करें। इस तपस्या के द्वारा पति-पत्नी के मन का मिलन होता है। जिस गृहस्थी में पति-पत्नी के मन का मेल हो गया वहाँ लक्ष्मी-सरस्वती क्या ईश्वर स्वयं रहने लगता है।
गृहस्थ जीवन के लिये ये तप विवाह में सप्तपदी के सातवचनों के समय ( अग्नि प्रदक्षिणा करते समय सात भाँवर के साथ) सिखाये जाते हैं। किंतु समारोह के आडंबर, लेन देन के असंतोष, अतिथि एवं  संबंधियों के क्षुब्ध मन एवं आक्रोश (जो कि वर वधू की बारंबार न्योछावर से भी शांत नहीं होते) तथा धूम धाम से भंग-पवित्रता वाले वातावरण में वैसे ही अनसुने रह जाते हैं जैसे कृष्ण के शंखनाद से युधिष्ठिर के पूर्ण  सत्यवचन। अतएव  फल सुखद नहीं होता है और जीवन का सकारात्मक समय क्षुब्ध वातावरण में नकारात्मकता को निमंत्रण दे बैठता है। इसलिए आवश्यक है कि विवाह समारोह सादगीपूर्ण, आडंबरविहीन तथा लेन-देन की अपेक्षाओं से मुक्त हो, क्योंकि इसका उद्देश्य पवित्र है अत: वातावरण भी पवित्र होना चाहिए। अपेक्षाओं से सदा प्रदूषण बढता ही है।
               

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