ब्रह्मा जी ने
आदि देव भगवान की खोज करने के लिए कमल की नाल के छिद्र में प्रवेश कर जल में अंत
तक ढूंढने का प्रयास किया था, परंतु
भगवान उन्हें कहीं भी नहीं मिले। वह अपने अधिष्ठान भगवान को खोजने में सौ वर्ष व्यतीत
कर दिये। अंत में उन्होने समाधि ले ली। इस समाधि द्वारा उन्होंने अपने अधिष्ठान को
अपने अंतःकरण में प्रकाशित होते देखा। शेष जी की शैय्या पर पुरुषोत्तम भगवान अकेले
लेटे हुए दिखाई दिये। ब्रह्मा जी ने पुरुषोत्तम भगवान से सृष्टि रचना का आदेश
प्राप्त किया और कमल के छिद्र से बाहर निकल कर कमल कोष पर विराजमान हो गये। इसके
बाद संसार की रचना पर विचार करने लगे। यह सम्पूर्ण जगत ब्रह्मा जी के मन और शरीर
से उत्पन्न हुये हैं। जब उन्हें लगा कि
मेरी सृष्टि में वृद्धि नहीं हो रही है तो उन्होंने अपने शरीर को दो भागों में
विभक्त कर दिया जिनका नाम का और या (काया) हुआ। उन्हीं दो भागों में से एक से
पुरुष तथा दूसरे से स्त्री की उत्पत्ति हुई। पुरुष का नाम मनु और स्त्री का नाम
शतरूपा कहा गया। मनु और शतरूपा ने ही मानव संसार की शुरुआत की।
पहले वेद एक था।
ओंकार में संपूर्ण वांगमय समाहित था। एक देव नारायण था। एक अग्नि और एक वर्ण था।
वर्णों में कोई वैशिष्ट्यर नहीं था सब कुछ ब्रह्मामय था। सर्वप्रथम ब्राह्मण बनाया
गया और फिर कर्मानुसार दूसरे वर्ण बनते गए। सभी व्यक्ति विराट पुरुष की संतान हैं
और सभी थोड़ा बहुत ज्ञान भी रखते हैं तो भी वो अपने आप को ब्राह्मण नहीं कहते। एक
निरक्षर भट्टाचार्य मात्र ब्राह्मण के घर जन्म लेने से अपने आपको ब्राह्मण कहता
है। और न केवल वही कहता है अपितु भिन्न-भिन्न समाजों के व्यक्ति भी उसे पण्डितजी
कहकर पुकारते हैं। लोकाचार और सब न्यायों में वह सब प्रमाणों में बलवान माना जाता
है। सर्व ब्रह्मामयं जगत अनुसार सब कुछ ब्रह्म है और ब्रह्म की संतान सभी ब्राह्मण
हैं। ब्राह्मण का शब्द दो शब्दों से बना है। ब्रह्म़रमण। इसके दो अर्थ होते हैं,
ब्रह्मा देश अर्थात वर्तमान वर्मा देशवासी,द्वितीय
ब्रह्म में रमण करने वाला। ऋग्वेद के अनुसार ब्रह्म अर्थात ईश्वर को रमण करने वाला
ब्राहमण होता है। कर्म के आधार पर ब्राहमण क्षत्रिय वैश्य शूद्र चार वर्णो की
उत्पत्ति हुई। यह कोई एक मापदण्ड से अनुप्रणित ना होकर पूर्णतः कर्म पर आधारित था।
ब्राह्मण (आचार्य, विप्र, द्विज,
द्विजोत्तम) यह वर्ण व्यवस्था का वर्ण है। ऐतिहासिक रूप हिन्दु वर्ण
व्यवस्था में चार वर्ण होते हैं। ब्राह्मण (ज्ञानी ओर आध्यात्मिकता के लिए
उत्तरदायी), क्षत्रिय (धर्म रक्षक), वैश्य
(व्यापारी) तथा शूद्र (सेवक, श्रमिक समाज)।
ब्राह्मणोत्पतिमार्तन्ड
के पृष्ठ संख्या 449 में पं. हरिकृष्ण शर्मा
ने साफ लिखा है कि पहले विष्णु के नाभी कमल से ब्रह्मा जी हुये ब्रह्मा का
ब्रह्मर्षिनाम करके पुत्र हुआ। उसके वंश
में पारब्रह्म नामक पुत्र हुआ। उसका कृपाचार्य पुत्र हुआ कृपाचार्य के दो पुत्र हुये उनके छोटा पुत्र
शक्ति था। शक्ति के पांच पुत्र हुये पाराशर प्रथम पुत्र से पारीक हुये, दूसरे पुत्र सारस्वत के सारस्वत , तीसरे ग्वाला ऋषि
से गौड़ चैथे पुत्र गौतम से गुर्जर गौड़ , पांचवें पुत्र
श्रृंगी से उनके वंश शिखवाल छठे पुत्र दाधीच से दायमा या दाधीच हुये थे। यास्क
मुनि के निरुक्त के अनुसार- ”ब्रह्म जानाति ब्राह्मणः ”यानि ब्राह्मण वह है जो ब्रह्म (अंतिम सत्य, ईश्वर
या परम ज्ञान) को जानता है। “ईश्वर को जानने वाले ज्ञाता”
को ब्राह्मण कहा जाता है। ब्राह्मण शब्द का प्रयोग अथर्वेद के
उच्चारण कर्ता ऋषियों के लिए किया गया था। फिर प्रत्येक वेद को समझनेके लिए ग्रन्थ
लिखे गये उन्हें भी ब्रह्मण साहित्य कहा
गया है।
भारत में सबसे
ज्यादा विभाजन या वर्गीकरण ब्राह्मणों में ही है। हिन्दू समाज में ऐतिहासिक स्थिति
यह है कि पारंपरिक पुजारी तथा पंडित ही अब ब्राह्मण कहते हैं। ब्राह्मण या
ब्राह्मणत्व का निर्धारण माता-पिता की जाती के आधार पर ही होने लगा है।
स्कन्दपुराण में षोडशोपचार पूजन के अंतर्गत अष्टम उपचार में ब्रह्मा द्वारा नारद
को यज्ञोपवीत के आध्यात्मिक अर्थ में बताया गया है।
जन्मना
जायते शूद्रः संस्कारात् द्विज उच्यते।
शापानुग्रहसामर्थ्यं
तथा क्रोधः प्रसन्नता।
अतः आध्यात्मिक दृष्टि
से यज्ञोपवीत के बिना जन्म से ब्राह्मण भी शुद्र के समान ही होता है। भारत में
ब्राह्मण अब वर्ण नहीं अपितु हिन्दू समाज की एक ‘जाति’
भी है, ब्राह्मण को ‘विप्र’,
‘द्विज’, ‘द्विजोत्तम’ या
‘भूसुर’ भी कहा जाता है।
ब्राह्मण का जीवन
त्याग अथवा बलिदान का जीवन होता है। उसका प्रत्येक कार्य अपने लिए नहीं वरन् समाज
के लिए होता है। ब्राह्मण स्वयं के लिए कुछ नहीं करता। इसी कारण उसे समाज में
विशेष सम्मान की दृष्टि से देखा जाने लगा। अपनी साधारण सी आवश्यकता रख कर
ज्ञान-विज्ञान की अनवरत साधना, और उससे
समाज को उन्नत एवं स्वस्थ बनाने का परम पुनीत कर्तव्य एवं महान जिम्मेदारी
ब्राह्मण पर ही है। किसी भी समाज एवम राष्ट्र का पहला सम्बंध ब्राम्हण से होता है
। वेदानुसार -“हरातत् सिच्यते राष्ट्र ब्राह्मणो यत्र जीयते”
अर्थात जिस देश का ब्राह्मण हारता है वह देश खोखला हो जाता है। इसमें
कोई सन्देह नहीं कि राष्ट्र की जागृति, प्रगतिशीलता एवं
महानता उसके ब्राह्मणों (बुद्धिजीवियों) पर आधारित होती है। ब्राह्मण राष्ट्र
निर्माता होता है, मानव हृदयों में जागरण का संगीत सुनाता है,
समाज का कर्णधार होता है। देश काल पात्र के अनुसार सामाजिक व्यवस्था
में परिवर्तन करता है और नवीन प्रकाश चेतना प्रदान करता है। त्याग और बलिदान ही
ब्राह्मणत्व की कसौटी है। प्राचीन काल से ही ब्राम्हण अपने दायित्वों का निर्वहन
करते आये है और करते ही रहेन्गे हम सभी ब्राम्हणो को अपने गौरवशाली इतिहास की
जानकारी होनी चाहिए और अपने कर्तव्यों का भी हममे अभी भी वह क्षमता है कि हम समाज
का पुनर्निर्माण कर सकते है ।
ब्राह्मण के
कर्तव्य:- ब्राह्मण के कर्तव्य इस प्रकार हैं-
‘ब्राह्मण्य’ (वंश
की पवित्रता), ‘प्रतिरूपचर्या’ (कर्तव्यपालन)
‘लोकपक्ति’ (लोक को प्रबुद्ध करना)
ब्राह्मण स्वयं को ही संस्कृत करके विश्राम नहीं लेता था, अपितु
दूसरों को भी अपने गुणों का दान आचार्य अथवा पुरोहित के रूप में करता था।आचार्यपद
से ब्राह्मण का अपने पुत्र को अध्याय तथा याज्ञिक क्रियाओं में निपुण करना एक
विशेष कार्य था। स्मृति ग्रन्थों में ब्राह्मणों के मुख्य छ कर्तव्य (षट्कर्म)
बताये गये हैं- ,पठन , पाठन, यजन , याजन ,दान ,प्रतिग्रह। इनमें पठन, यजन और दान सामान्य तथा पाठन,
याजन तथा प्रतिग्रह विशेष कर्तव्य हैं। आपद्धर्म के रूप में अन्य
व्यवसाय से भी ब्राह्मण निर्वाह कर सकता था, किन्तु
स्मृतियों ने बहुत से प्रतिबन्ध लगाकर लोभ और हिंसावाले कार्य उसके लिए वर्जित कर
रखे हैं। गौड़ अथवा लक्षणावती का राजा आदिसूर ने ब्राह्मण धर्म को पुनरुज्जीवित
करने का प्रयास किया, जहाँ पर बौद्ध धर्म छाया हुआ था।
हिन्दू ब्राह्मण अपनी धारणाओं से अधिक धर्माचरण को महत्व देते हैं। यह धार्मिक पन्थों
की विशेषता है। धर्माचरण में मुख्यतः है यज्ञ करना। दिनचर्या इस प्रकार है - स्नान,
सन्ध्या वन्दन,जप, उपासना,
तथा अग्निहोत्र। अन्तिम दो यज्ञ अब केवल कुछ सीमित परिवारों में
होते हैं। ब्रह्मचारी अग्निहोत्र यज्ञ के स्थान पर अग्निकार्यम् करते हैं। अन्य
रीतियां अमावस्य तर्पण तथा श्राद्ध कर्म करना होता है।
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