यह सन् 1987-88 का वाकया है मैं ओडिशा के कटक जिले में ललितगिरि नामक स्थान पर पुरातात्विक उत्खनन करवा रहा था। ललितगिरि पारादीप एक्सप्रेस वे से लगा एक गांव है। इसके उत्तर में सुखा पहाड़ है जो लगभग 3 किमी लंबा है और एक्सप्रेस वे से आरंभ होकर ललितगिरि तक जाता है। ललितगिरि का कुछ पश्चिमी हिस्सा सुखा पहाड़ के ढलान पर भी बसा है। इस पहाड़ का अधिकांश भाग निरंतर पत्थर खदान के कारण भूपट होगया है और अंततः उच्च न्यायालय के आदेश के अनुसार इस पर खनन कार्य में रोक लग गई। इस पहाड़ के शिखर पर एक माइक्रोवेव टावर है और वन विभाग ने काजू आदि फल तथा टिंबर वाले वृक्षों का जंगल विकसित किया है। गाँव के पूरब में एक कम उंचाई वाली पहाड़ी है जिसे नंडा पहाड़ कहते हैं जो गांव के पूर्वी छोर से शुरू होकर लगभग दो किमी लंबाई में फैला हुआ है। इन दोनों पहाड़ों में बौद्ध धर्म से संबंधित पुरातात्विक स्थलों की काफी पहले से खोज हुई थी और भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा सुखा पहाड़ से लगभग 50 -60 बुद्ध और बौद्ध देवी देवताओं की आदमकद पाषाण प्रतिमाएँ 20-25 वर्ष पूर्व नंडा पहाड़ पर लायी गयी थी और एक विशाल भवन बना कर सुरक्षित कर दिया गया था। नंडा शब्द का उडिया भाषा में अर्थ होता है गंजा और यह नाम इस पहाड़ी को इसलिए दिया गया था क्योंकि यह नितांत पथरीला है और वृक्ष एवं वनस्पतियां अत्यंत विरल थीं। इस पहाड़ी की चौड़ाई बहुत कम जो 100 से 50 मीटर है। गाँव की ओर वाले ढलान में मिट्टी का समुचित जमाव है और इस भाग में घास, झाड़ियां तथा बरगद के विशाल छायादार वृक्ष हैं शेष पथरीला हिस्सा ऊंचा नीचा खड्ड और खाइयों वाला है और मानवीय उपयोग में दुर्गम तथा दुष्प्रयोज्य है। यह नंडा पहाड़ पुरातत्व के साथ साथ वन्य जीव - जंतुओं तथा पशु पक्षियों के उपयुक्त आवास के रूप में समृद्ध है। इस पहाड़ी के उत्तर -पूर्व दिशा पर एक नदी बहती है जिसे गोबरी नई ( नदी )कहते हैं। ललितगिरि के अलावा इस पहाड़ी के अन्य सिरो पर भी गांव बसे हैं किंतु राजस्व गांव ललितगिरि लगता है। ललितगिरि की आबादी में प्रमुख रूप से खंडैत ( क्षत्रिय /कायस्थ), पत्थर के कारीगर/मूर्तिकार ( महाराणा सरनेम) हैं इसके साथ ही अधिकांश हिंदू जाति वर्ग के लोग हैं।
ललितगिरि में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की ओर से मैंने 1986 में उत्खनन कार्य प्रारंभ किया था। यहां के सभी वर्गों के अधिकांश लोग सुखुअा पहाड़ की खदान से जुड़े थे जिसमें पत्थर खुदाई, लोडिंग और ट्रांसपोर्ट से संबंधित पेटी ठेकेदारी के काम में लोग अच्छी आमदनी कर लेते थे किंतु उच्च न्यायालय के आदेश के कारण खदान का संपूर्ण कार्य बंद था और स्थानीय लोग भारी बेरोजगारी से झूझ रहे थे। कृषि योग्य भूमि कुछ लोगों के बीच ही सीमित थी इसलिए लोग अन्य रोजगार या मजदूरी पर ही निर्भर कर रहे थे। ऐसे समय में हमारे द्वारा उत्खनन कार्य एक वरदान साबित हुआ। मैंने यहां पांच वर्ष तक कार्य करवाया जो मेरे स्थानांतरण के बाद भी अनेकों वर्षों तक चलता रहा। हमारा आगमन यहां मरुस्थल में वर्षा की बूंदों के समान जीवनदायिनी हुआ। शीघ्र ही हम सबके दिलों में बस गए। वर्ष में लगभग 6 माह तक हम लोग यहां कैंप लगाते जिस दौरान 50 से 80 लोगों को काम मिल जाता था। थोड़े लोग वर्ष भर भी लगे रहते थे। हमारा कैंप गांव से लगे पहाड़ी ढलान पर लगता था जहां नीम और बरगद के पेड़ हमें छाया का लाभ देते थे। हमारे कैंप में आठ काबुल -पाल, एक स्विस काटेज और दो छोलदारी (सोल्जरी) तंबू होते थे। एक कच्चा छप्परवाला किचन तथा दो ओडिसन बरपाली लैट्रिन थी।
उत्खनन के दौरान यहाँ का मेरा प्रवास काफी व्यस्तता भरा होता था क्योंकि मैं ही कैंप आफिसर होता था और अच्छा -बुरा सब मेरी जिम्मेदारी होती थी। मेरा परिवार ( पत्नी सीमा एवं पुत्र आकाश / बाघा)
इस दौरान कभी - कभी 15 दिन से लेकर 1-2 माह तक साथ रहते थे। ये लोग यहां अपने मनोरंजन के कुछ न कुछ साधन खोज लेते थे। यहां पारंपरिक धार्मिक त्योहार बहुत होते हैं और गाँव के संभ्रांत घरों के साथ यह लोग पूरा आनंद उठाते थे। यहां के प्रत्येक शादी विवाह समारोह में हमारा जाना एक तरह से अनिवार्य होता था। प्रथम वर्ष में ही हमारी पुरातात्विक उपलब्धियाँ अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ख्याति अर्जित कर चुकी थी इसलिए देशी विदेशी पर्यटकों के साथ क्षेत्रीय जनता बडे़ समूहों में आती थी जिससे अनेक रोजगार बढ़ गए थे और लोगों में संपन्नता आगई थी। गाँव के लोग मुझे कालिया ठाकुर ( जगन्नाथ भगवान् का एक नाम) से पुकारने लगे थे और बहुत ही आदर देते थे। अक्सर स्कूल कालेजों के कार्यक्रम में मुझे मुख्य अतिथि के रूप में आमंत्रित किया जाता था।
उधर सीमा और बाघा की कैंप में दिन और रात चर्या कुछ भिन्न प्रकार की होती थी। दिन में कभी ये कुत्ताें को खाना खिलाते तो कभी गिलहरी को दाना चराते। कोई इन्हें पालतू नेवले से मिलाता कोई पेड़ में रहने वाले उदबिलाव के बच्चों को पलवाता। हमने वन्य जीवन का संरक्षण अपनी पहाड़ी पर कर रखा था और पचासों खरगोश बेधड़क घूमते थे जो दिन में भी हमारे तंबुओं और किचन स्टोर से खाने की सामग्री उठा लेते थे। एक लोमड़ी परिवार भी इनसे परच गया था और नियमित रूप से दाल चावल खाने रात में 8-9 बजे आता था। जब तक ये लोग रहते गांव के लोग और कुछ स्थानीय स्टाफ इनको घेरे रहता और पहाड़ में साथ चलते रहते। इस दौरान एक बार कुछ आदिवासी शिकारी सुखुअा पहाड़ से एक खरगोश का पीछा करते हुए धनुष में बाण चढाए हमारे कैंप तक आगए। सीमा आवाज सुनकर आगे आई तभी थका हारा खरगोश इनके पैरों में दुबक गया इन्हें देखकर शिकारी रुक गया, खरगोश थोड़ी देर में फिर दौडने लगा शिकारी पीछा करने के लिए बढता उसके पहले ही सीमा ने उसे रोक दिया। यह वहां मौजूद सबने देखी और यह दूर दूर तक चर्चित हुई।
पर्यटकों के बढ़ने के साथ काफी तरह के लोग अपने काम काज के लिए यहाँ आने लगे थे इनमें से एक नट परिवार था जिसने अपना डेरा डाल लिया था और हर सप्ताहांत में अपना खेल तमाशा दिखाकर अच्छी कमाई करने लगा था।
एक दिन सीमा और बाघा ढलान पर बरगद के पेड़ के नीचे बैठकर कुछ कैंपब्वाय और स्थानीय मित्रों के साथ गपशप कर रहे कि नट परिवार के दो लड़के नंडा पहाड़ के ऊपर से उतर रहे थे। कैंप गार्ड ने उनको रोक लिया। उनके हाथ में बांस का एक पिंजरा था जिसमें एक तीतर और एक तीतरी बंद थे। कैंप गार्ड इन लोगों की जीवन शैली से परिचित था और उसने भांप लिया था कि यह तीतर तीतरी का जोड़ा हमारे नंडा पहाड़ से ही पकडे़ गए हैं और वह उन्हें वहीं पास बैठे सीमा -बाघा के ग्रुप के पास ले गया। नट परिवार के दोनों लडके जो 15-16 वर्ष के थे सहमे से खड़े हो गए किंतु उन्होंने हौसला नहीं खोया था तुरंत अपनी नटविद्या का परिचय दिया और दो चार पैतरे खेल कर दिखा दिया। इस दौरान उन्होंने कबूल कर लिया कि रात में फंदा लगाया था जिसमें यह जोड़ा फंस गया है और अब इनका मांस पका कर खाएंगे। कैंप गार्ड ने धौंस जमाई और उसको आगाह किया कि उन्होंने फंदा कैसे लगाया जबकि यहां शिकार की मनाही है। उन लडकों ने हाथ जोड़कर माफी मांगी और भविष्य में न दोहराने की बात की। माफी का सीमा ने तुरंत इस शर्त पर कर दिया वे यह तीतर तीतरी का जोड़ा पिंजरे के साथ उसे देदें जिसपर वे तुरंत राजी होगए। सीमा ने पूरी कीमत 25 रुपये दिए और पक्षियों का जोड़ा रख लिया। वे लडके तत्काल निकल लिए और इधर कैंप के लोग तमाशबीन बनकर वहां इकट्ठा होने लगे।
अब दोनों पक्षियों की जांच पड़ताल शुरू होगई। थोड़ी देर में नजर आया कि तीतर के पैर में फंदे से गहरा कट लगा है जिससे बराबर खून बह रहा है और इस वजह से वह सुस्त तथा ढीला पड रहा है। इसलिए उसके उपचार हेतु फर्स्ट एड बाक्स से तुरंत बैंडेज आदि की व्यवस्था की गई और घाव के ऊपर पट्टी बांध दिया गया। बाघा ने ग्लूकोज मिला पानी पिलाया। खाने का सामान भी दिया गया किंतु लगभग दो घंटे के भीतर ही तीतर निढाल होगया और धीरे से उसकी गर्दन एक ओर लुढ़क गई। सभी दर्शनार्थियों में शोक व्याप्त होगया था और सीमा तथा बाघा सदमे में आगए थे।इस पिंजरे में दो कमरे थे एक मे तीतर था और दूसरे में तीतरी। तीतरी भयंकर रूप से शोकाकुल थी अपनी नजरों से अपने तीतर के निर्जीव शरीर को देखकर उसने आपा खो दिया था और अब एकाकी जीवन उसे स्वीकार नहीं था। अब यह संसार उसके लिए अर्थहीन था। लोगों ने देखा कि वह पिंजरे से अपना सिर पटक रही है और जब तक बात समझ में आती उसका सिर लहूलुहान हो चुका था। जल्दी से पिंजरे का दरवाजा खोल कर उसे बाहर निकाला गया किंतु तब तक उसके प्राण पखेरू उड चुके थे। कुदरत का यह अनोखा सच सबके सामने था। तीतरी अपने प्रियतम के लिए सती होगई थी। विरह का एक भी क्षण उसने अपने प्रियतम के स्मरण के बिन नहीं जिया और बिना समय जाया किए तत्काल ही प्राण त्याग कर उसका अनुसरण किया।
लगता है प्रेम के क्षेत्र में शहादत देने में पशु पक्षी मनुष्य से आगे हैं। संभवत:वे हृदय से प्यार करते हैं जिससे उनके प्यार में कुर्बानी का जज्बा होता है।
यादगार । ज्ञानवर्धक।
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