जयपुर से प्रारम्भिक प्रयास
हिन्दू संस्कृति विश्व की प्रचीनतम
संस्कृति में अपना विशिष्ट स्थान रखती है इसका दर्शन हमारे धार्मिक एवं लौकिक
साहित्यों तथा पुरातत्व के विपुल प्रमाणों में प्राप्त होता है। हमारे देश के
विद्वान,
चिन्तक एवं मनीषी ‘विश्वबंधुत्व‘ एवं ‘बसुधौव कुटुम्बकम‘ की
भावना से ओतप्रोत हो चिन्तन, तपश्चर्या तथा उचित पात्रों में
प्रवचन एवं उपदेश देकर इस ज्ञान को अक्षुण्य बनाये रखे हैं। वे आत्मप्रचार तथा व्यक्तिगत
महत्वाकांक्षा नहीं रखते थे और प्रायः अपने ज्ञान को दैवी शक्तियों से सम्बद्ध
करते हुए जन साधारण में धार्मिक, सामाजिक एवं अध्यात्मिक
संतुलन तथा सामंजस्य का प्रयास करते रहते थे। सनातन हिन्दू धर्म मुख्यत पांच
संप्रदाय हैं- 1. वैष्णव, 2. शैव,
3. शाक्त, 4 स्मार्त और 5. वैदिक संप्रदाय। वैष्णव संप्रदाय के बहुत से उप संप्रदाय भी हैं- जैसे
बैरागी, दास, रामानंद, वल्लभ, निम्बार्क, माध्व,
राधावल्लभ, सखी, गौड़ीय
आदि।
श्रीमद् सखेंद्र
जी महाराज ( निध्याचार्य जी महराज) का जन्म विक्रम संवत के आखिरी चरण चैत्र शुक्ल
में राम नवमी को जयपुर में एक सुसंस्कृत गौड़ ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उन्होंने
श्री वशिष्ठ मुनि से गुरु दीक्षा प्राप्त की थी। गलिता के आचार्य ने उन्हें रामसखा
की उपाधि दी थी। वे दक्षिण के उडीपि (कर्नाटक) गये जहां बड़ी तनमयता से गुरु की
सेवा किये थे। उनका निवास नृत्य राघव कुंज के नाम से प्रसिद्व हुआ था । बाद में
अयोध्या में इसी नाम से एक मंदिर का निर्माण हुआ था।
उन्होंने जयपुर
में रामलीला रिहल्सल में लक्ष्मण जी के रूप में भाग लेते लेते श्री राम से इतना
लगाव कर लिए कि वह वास्तव में उनका छोटा भाई होने का विश्वास करने लगे। एक दिन
रिहल्सल के दौरान महाराज जी को भगवान राम का किरदार निभाना पड़ा था,
परिणाम स्वरूप महाराज जी को भोजन नहीं मिल पाया था। महाराज जी ने
पूरे दिन कुछ भी नहीं खाया और रात तक इतना परेशान थे कि वे पास के जंगल में चले गए
और एक पेड़ के नीचे बैठ रोते रहे। रामलीला मंडली में युवा बच्चा गायब हो जाने के
कारण हर कोई चिंतित था। आधी रात तक जब महाराज जी पेड़ के नीचे रो रहे थे तब राम जी
स्वयं स्वादिष्ट भोजन से भरे हाथों में सुनहरे बर्तन लेकर प्रकट हुए। प्रभु की
मधुर वाणी सुनकर महाराज जी अभिभूत हो गए। दोनों ने एक-दूसरे को बड़े प्यार से गले
लगाया। महाराज जी ने अपनी भूख को शांत किया और दोनों काफी देर तक बातें करते रहे।
जिसके बाद भगवान राम अपने साथ लाए सभी सोने के बर्तनों को छोड़कर गायब हो गए।
जयपुर में वापस
जब राज्य के राम मंदिर के पुजारियों ने मंदिर का दरवाजा खोला,
तो वे सभी सोने के बर्तनों को गायब देखकर हैरान रह गए। बर्तन गायब
होने की सूचना जयपुर नरेश तक पहुंची । राजा ने तुरंत लापता संपत्ति और चोर की गहन
खोज का आदेश दिया। कुछ लोग जंगल में पहुंचे और देखा कि एक युवा लड़का अपने चारों ओर
सोने के बर्तन के साथ पड़ा है। लोगों ने उनसे बर्तनों के बारे में पूछा और महाराज
जी ने उन्हें बताया कि राम जी ने उन्हें भोजन कराया, लेकिन
बर्तनों को वापस नहीं ले गए। उन्हें लगा कि भगवान राम ने उन्हें अपने छोटे भाई के
रूप में स्वीकार कर लिया है।
अयोध्या में आगमन
उक्त घटना के बाद
महाराज जी ने घर छोड़ दिया और विराट वैष्णव बन गए। उन्होंने सत्य का मार्ग खोजना
शुरू कर दिया। वह अपने गुरु जी के साथ रहे और भगवान और उनके स्नेह को प्राप्त करने
का कौशल सीखा। इस समय तक महाराज जी जयपुर में ही थे, लेकिन
उनकी जन्मस्थली होने के कारण वे जयपुर छोड़कर अयोध्या पुरी चले गए। अयोध्या में
गुरुजी के आवास का नाम नृत्य राघव कुंज के नाम से प्रसिद्व हुआ था। अयोध्या आकर
उन्होंने सरयू नदी के तट के अलावा एक पर्णकुटी में भगवान को याद करने के लिए जीवन
बिताया। महाराज जी को उन सभी भौतिक चीजों में कोई दिलचस्पी नहीं थी, जो वे करना चाहते थे, वे अपने भगवान के बारे में
अधिक जानते हैं और दुनिया में और कुछ भी उनके लिए मायने नहीं रखता था। जब वह ध्यान
और प्रार्थना में व्यस्त थे कुछ और महात्मा उससे प्रभावित हुए उनके वास्तविकता का
परीक्षण करना चाहे। वह उनसे बोले यदि भगवान राम अपने धनुष वाण के साथ प्रकट हो तो
मानेगे कि महात्मा जी उनके सच्चे सेवक है। महात्माओं के सुनने के बाद महराज जी चुप
हो गये और इसका उत्तर नहीं दिये। किन्तु रामजी ने इसे नहीं छोड़ा । इसके कुछ देर के
बाद रामजी प्रकट हुए और सिद्व किये महराज जी उनके सच्चे भक्त है। महराज जी के
सामने धनुष वाण के साथ लेकर देखने व मुस्कराने को महराज जी के आर्शीबाद को मानने
लगे।
चित्रकूट में आगमन
अयोध्या में समय
बिताने के बाद, महाराज जी वहां से निकल गए और
चित्रकूट चले गए और प्रमोदवन में अपनी प्रार्थना जारी रखी। यहां राम सखा मंदिर और
जानकी मंदिर आज भी इस परम्परा का निर्वहन कर रहे हैं। उनके भजनों का प्रभाव जल्द
ही पन्ना के तत्कालीन महाराज (राजा) के ध्यान में आया। राजा महाराज जी के दर्शन
करने आए और महाराज जी की भक्ति से बहुत प्रभावित हुए। यह भी कहा जाता है कि
चित्रकूट में एक बार जब महाराज जी अपनी सुबह की दिनचर्या समाप्त करने के बाद अपने
शालिग्राम भगवान की पूजा की तैयारी कर रहे थे, तभी अचानक से
मूर्ति नीचे की ओर लुढ़क गई और पास के कुएं में गिर गई। इस कारण महाराज जी बहुत आहत
व शोकाकुल हुए। रोते हुए उसने दुःख में निम्नलिखित दोहा का जाप किया
“अरे शिकारी निर्दयी, करिया नृपति किशोर ।
क्यों
तरसावत दर्शन बिन, राम सचित चित्त ।।
जैसे ही उन्होंने
दोहा समाप्त किया, कुएं में पानी का स्तर
नाटकीय रूप से बढ़ गया और मूर्ति ने उन्हें पानी पर नृत्य करते हुए देखा, महाराज जी अभिभूत हो गए और उन्होंने भगवान को दोनों हाथों से गले लगाया। इसके
बाद महाराज जी खुशी-खुशी अपनी पूजा करने चले गए।
उचेहरा व मैहर का प्रवास
कुछ महात्मा यह
भी बताते हैं कि महाराज जी के एक शिष्य उनके साथ रहे,
वे लोगों से भिक्षा माँगते थे और ठाकुर जी के लिए भोग भी तैयार करते
थे। ठाकुर जी के भोग के बाद, कई महात्माओं के पास प्रसाद था
और वे संतुष्ट होकर लौटे। चित्रकूट में रहने के बाद महाराज जी उचेहरा (अब सतना
जिला) में गए। लेकिन उन्हें वहाँ बहुत अच्छा नहीं लगा और मैहर चले गए जहाँ नीलमती
गंगा के तट पर उन्होंने एक पर्णकुटी में गणेश जी के सामने भजन किया। कम उम्र में
रामलीला में शामिल होने के कारण, महाराज जी संगीत के साथ-साथ
लेखन कौशल में भी पारंगत थे। उनका लेखन कौशल उनके कई पवित्र लेखन जैसे दोहावली,
कवितावली से स्पष्ट होता है। उन्होंने कई पवित्र लेखन जैसे अष्टयाम,
स्वाधिष्ठान- प्रतिपादक और नृत्य राघव मिलन भी लिखे जो वास्तव में अभूतपूर्व
हैं। उन्होंने द्वैत-भूषण नामक एक संस्कृत लेखन को लिखा था। सुना जाता है कि एक
बार एक गायक ने लखनऊ के नवाब को निम्न पंक्तियाँ गाईं-
“प्यारे तेरी छबीं वर ।
विश्रामी
वंदन कुमार दशरथ के मार जुल्फें कारियों ।।
तीखी
सजल लाल अज्जन युत लागत खोलन प्यारियाँ ।।
राम
सखे दृग ओटन हमको दो ना पल भर न्यारियाँ।।
उपरोक्त
पंक्तियों को सुनने के बाद नवाब बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने गायक से लेखक के
बारे में पूछा। उन्होंने उसे महाराज जी के बारे में बताया और यह भी कि वह मैहर में
रहता था। उन्होंने नवाब को यह भी बताया कि महाराज जी द्वारा लिखी गई कई अन्य
उत्कृष्ट पंक्तियाँ हैं और कई गायक संगीत के कौशल को जानने के लिए उनकी पंक्तियों
को गाते हैं। नवाब सूचना से बहुत प्रभावित थे। उन्होंने महाराज के लिए अपने संदेश
के साथ अपना सन्देशवाहक भेजा, जिसमें उनसे नवाब के
स्थान पर आने और एक अलग संपत्ति में अपना भजन करने का अनुरोध किया गया, जो उन्हें प्रति वर्ष लगभग 3 लाख की राशि के साथ
भेंट की जाएगी। महाराज जी ने नरमी से यह कहते हुए धीरे से मना कर दिया कि उनके पास
भगवान राम के साथ कुछ कमी नहीं है। जिस सन्देशवाहक को सुनिश्चित करने के लिए उसने
धन की एक झलक दिखाई, उसके लिए भगवान ने आश्चर्य चकित कर दिया
था। वह नवाब के पास लौट आया और उसने वह सब देखा जो उसने देखा था।
महाराज जी ने
उन्नीसवीं संवत के प्रथम चरण यानी 1842 में
मैहर में अमरता प्राप्त की। उनकी समाधि मैहर में ही है। उसे बड़ा अखाड़ा कहा जाता
है। यहां राम जानकी मंदिर में आज भी इस पंथ की पुजा पद्वति प्रचलित है। राम सखेन्दु
जी महराज के नाम से उनकी ख्याति आज भी विद्यमान है। (संदर्भ: भारतीय संस्कृति के
रक्षक संत 51वें क्रम में उल्लखित ) राजस्थान के पुष्कर में
राम सखा आश्रम में आज भी इस सम्प्रदाय के लोग पूजा आराधना करते है। अयोध्या,
चित्रकूट, पुष्कर और मैहर सबसे प्रमुख स्थान हैं।
रीवा, नागोद आदि क्षेत्रों में महाराज जी के शिष्यों की भारी
संख्या है। मैहर के पूर्व राजा की पत्नी ने भी दीक्षा प्राप्त की और साधु, महात्माओं के लिए जगह-जगह पर सहायता प्रदान की।
No comments:
Post a Comment