धर्म की व्यापकता - जीवन के सभी क्षेत्रों में धर्म व्याप्त है और धर्म के बिना जीवन जिया ही नहीं जा सकता। इसी “धर्म ने हम सबको धारण किया हुआ है और हमने जन्म से मृत्युपर्यन्त धर्म को धारण किया हुआ है। इस धर्म से उसी प्रकार अलग नहीं हुआ जा सकता, जिस प्रकार जल आर्द्रता से और अग्नि ऊष्मा से अलग नहीं हो सकती। संक्षेप में “धर्म”से अलग हो जाना असंभव है। संस्कृत भाषा में अर्थग्रथित शब्द बनाने की अद्भुत क्षमता रही है, किन्तु उसका भी जैसा उत्कृष्ट उदाहरण ‘धर्म’शब्द में मिलता है, वैसा अन्यत्र नहीं मिलता। भारतवर्ष ने जो कुछ सशक्त निर्माण-कार्य युग-युग में संपन्न किया है और कर रहा है, वह सब ‘धर्म” है। यह धर्म-भाव प्रत्येक हिंदू भारतवासी के हृदय में अनादिकाल से अंकित है। यदि यह प्रश्न किया जाये कि करोड़ों वर्ष प्राचीन भारतीय संस्कृति की उपलब्धि क्या है और यहाँ के जनसमूह ने किस जीवन-दर्शन का अनुभव किया था, तो इसका एकमात्र उत्तर यही है कि भारतीय-साहित्य, कला, जीवन, संस्कृति और दर्शन आदि सबकी उपलब्धि ‘धर्म’ है। इन सभी के बाद भी इस देश में धर्म (सनातन जीवन-मूल्य) की उपेक्षा हो रही है और उसे ‘मजहब’ (सम्प्रदाय=रिलिजन) से जोड़ा जा रहा है।
धर्म भारत की आत्मा- धर्म भारत की आत्मा है इसे सेकुलर कह अपमानित मत कीजिए। भारत का संविधान, राज्य, सरकार और सरकार के सभी अंग कार्यपालिका विधायिका तथा न्यायपालिका को भारतवर्ष के सनातन मूल भाव का सम्मान करते हुए उसकी आत्मा को चोट पहुचाने वाले कोई विचार नहीं लाना चाहिए। भारत की आत्मा को उसके साहित्य दर्शन स्थापत्य तथा प्राकृतिक तत्व जड़ चेतन में खोजने या आत्मसात करने से मिल जाएगी। इसे अनुभव करके जाना जा सकता है। कभी यह पंचभैतिक रुप में भी दिखलायी पड़ सकता है तो कभी निराकार भी इसका अस्तित्व विद्यमान रहता है। अतः यदि हमारी आंखें इसे देख ना सकें या हम इसे अनुभव ना कर सकें तो इसके अस्तित्व को नकारने का हमें अधिकार भी नहीं हैं। पहले हमें स्वयं को जिज्ञासु होना होगा और बाद में हम इसके अधिकारी स्वमेव बनते जाएगें।
‘यतो धर्मस्ततो जयः’- भारत का सुप्रीम कोर्ट कहता है ‘यतो धर्मस्ततो जयः’ अर्थात् जहाँ धर्म है विजय वहीँ है। जबकि भारत का संविधान कहता है कि भारत एक धर्म निरपेक्ष (साफ कर दूँ कि धर्म निरपेक्ष का अर्थ सभी धर्मों को मानना नहीं होता, इसका अर्थ है किसी भी धर्म को न मानना) राष्ट्र है। क्या समझा जाये इससे ? क्या भारत का सर्वोच्च न्यायलय संविधान विरोधी है या फिर भारतीय संविधान कानून का विरोधी है ? हम जानते हैं कि ऐसा कुछ नहीं है। यह केवल एक अंतर है राष्ट्र की सोच का और राष्ट्र के नेताओं की सोच का,जो इन दोनों जगह परिलक्षित हो रहा है। ‘धर्मेण हन्यते व्याधिः हन्यन्ते वै तथा ग्रहाः। धर्मेण हन्यते शत्रुः यतो धर्मस्ततो जयः।‘ धर्म से व्याधि दूर होता है, ग्रहों का हरण होता है, शत्रु का नाश होता है । जहाँ धर्म है, वहीं जय है ।
हम जानते हैं कि ‘यतो धर्मस्ततो जयः’ यह माननीय उच्चतम न्यायालय का ध्येय वाक्य है। इसके साथ अशोक का चक्र भी माननीय उच्चतम न्यायालय ने अपना रखा है। अशोक चक्र के साथ ‘सत्यमेव जयते’ वाक्य को ना लेकर ‘यतो धमः ततो जयः’ को लिया गया है। इसका अर्थ है कि जहाँ धर्म है, वहीं विजय है। विश्व के सबसे बड़े लोकप्रिय ग्रन्थ महाभारत में पचासों स्थानों पर एक वाक्य आया है। श्रीमद् भगवद्गीता में भी यह वाक्य बार बार आया है।
भारत के उच्चतम न्यायालय (Suprime
court of India) ने इस वाक्य को बड़े ही आदर से ग्रहण करके अपना ध्येय-वाक्य बनाया है और अपने प्रतीक-चिह्न की नीचे यह वाक्य अंकित किया है। सन 2000 में उच्चतम न्यायालय के 50 वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य में 2 रूपये मूल्य का सिक्का भी जारी किया गया था, उसमें भी यह वाक्य उत्कीर्ण था। यह ध्येय वाक्य किसी एक संस्था का पेटेन्ट भी नहीं हो सकता है। चूंकि यह भारतीय आत्मा वेद, उपनिषद व पुराण के सूत्र वाक्य होते हैं। इसलिए इसे कोईभी व्यक्ति या संस्था सम्मान के साथ अंगीकार कर सकता है। इसका तात्पर्य यह नही कि वह संस्था शत
प्रतिशत किसी पंथ या सम्प्रदाय के बंधन से बंध गया है और वह किसी अन्य पंथ या सम्प्रदाय के साथ अन्याय या अहित कर सकता है। यह केवल हमारे सोचने के ढ़ंग पर निर्भर करता है।
ध्येय वाक्य किसी का पेटेन्ट भी नहीं - बृहन्मुंबई महानगरपालिका का भी ध्येय-वाक्य ‘यतो धर्मस्ततो जयः’ है और उसके भवन पर यह वाक्य उत्कीर्ण देखा जा सकता है। यह किसी एक पंथ या सम्प्रदाय का बोधक कत्तई नहीं है। कूचबिहार रियासत (पश्चिम बंगाल) का भी ध्येय-वाक्य ‘यतो धर्मस्ततो जयः’ है और उसके प्रतीक चिह्न में भी यह अंकित है। इसी प्रकार स्वामी विवेकानंद की शिष्या भगिनी निवेदिता द्वारा राष्ट्रीय ध्वज जो का प्रारूप तैयार किया गया था, उसमें वज्र और ‘वन्देमातरम’ के साथ ‘यतो धर्मस्ततो जयः’ का यह वाक्य भी अंकित था। इतना ही नही जयपुर के अलबर्ट हॉल म्यूजियम की दीवार पर भी बड़े गर्व से ‘यतो धर्मस्ततो जयः’ उत्कीर्ण किया गया है।
एक अघोरी और एक शव का वार्तालाप -
गहन अंधकार में एक बुझती चिता के समीप बैठा एक अघोरी चिंतन में डूबा हुआ था तभी चिता से उठकर एक शव ने मंद स्वर में पूछा- किन विचारों में खोये हो अघोरी ? तुम्हे समय का भान भी नहीं रहा, ऐसी क्या चिंता है ? क्या मैं तुम्हारी कोई सहायता कर सकता हं?
अघोरी बोला- राष्ट्र और धर्म का परस्पर क्या संबंध है? इसमें कौन प्राथमिक है? राष्ट्र और धर्म के भाव में द्वंद होने पर किस हित का चयन करना आवश्यक है?
शव ने कहा- भारतवर्ष की भौगोलिक संरचना में राष्ट्रीयता का भाव उसी काल से है जबसे धर्म की अवधारणा है, जबसे जबसे सभ्यता है तबसे धर्म है अतः राष्ट्र रूपी संज्ञा का विशेषण धर्म है। वर्ण, मत, आचार-विचार और अनेकानेक भेद होने के उपरांत भी भारत एक राष्ट्र बना हुआ है इसका कारण धर्म ही है. इससे छोटा यूरोप अनेक टुकड़ों में टूट गया, हमसे बड़े क्षेत्रों में फैली सभ्यताएं नष्ट हो गई पर हजारो वर्षों के आक्रमण के उपरांत भी हमारा भारत देश बचा हुआ है, इतने बड़े बड़े आघात के बाद भी इसकी चेतना बनी हुई है, क्या कभी सोचा है इस बारे में?
शव ने अपना वक्तव्य जारी रखते हुए आगे कहा-क्योकि धर्म इस देश का प्राण है, अनेक संप्रदाय मिलकर इस धर्म की एकता को मजबूत करते रहे हैं। यह सूर, तुलसी, नानक, दादू, मीरा और रसखान का देश है। पर अब विदेशियों ने यह समझ लिया है कि इस देश को जीतना है तो धर्म को हराना होगा।ये हमलावर हजारों वर्ष तक राज्य को हराते रहे पर अंततः स्वयं हारते रहे। देश को जीतने के प्रयास में अब उनकी रण नीति बदल गई है। अब वे राज्य से नही लड़ रहे, धर्म से लड़ रहे हैं। मस्जिदों से डर और आतंक कायम करके वे कहना चाहते हैं कि यदि तुम सुरक्षित रहना चाहते हो तो मुसलमान को सहो, उसकी हर नाजायज हरकत को बर्दाश्त करो। विविध चर्चों के द्वारा वे धर्मान्तरण नही कर रहे, राष्ट्रान्तरण कर रहे हैं।
राष्ट्र एक शरीर है और धर्म इसकी आत्मा है। हम धर्म की ओर लौटेंगे तो राष्ट्र की जीत होगी- ‘धर्मेण हन्यते व्याधिः हन्यन्ते वै तथा ग्रहाः। धर्मेण हन्यते शत्रुः यतो धर्मस्ततो जयः।‘ धर्म से व्याधि दूर होता है, ग्रहों का हरण होता है, शत्रु का नाश होता है । जहाँ धर्म है, वहीं जय है । इतना बोलकर शव पुनः चिता में गिर पड़ा और अघोरी उठकर अपने कर्मक्षेत्र में निकल पड़ा।
इस कहानी से सीख मिलती है कि सनातन विश्वास और मान्यताओं को अंगीकार करते हुए अपने कर्म को करना ही हमारा कर्म है व धर्म भी। यह कदापि किसी के लिए ना तो बाधक है और नाही अवरोधक।
- ॐ असतो मा सद्गमय।
- तमसो मा ज्योतिर्गमय।
- मृत्योर्माऽमृतं गमय।
- ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति: ॥
OM! Lead us from the unreal to the real!
Lead us from darkness to light!
Lead us from death to immortality!!
Om may peace, peace and peace be there in material, physical and spiritual existences!!
केन्द्रीय विद्यालय संगठन के बारे में माननीय सवोच्च न्यायालय का असंगत ख्याल- केन्द्रीय विद्यालय संगठन का ध्येय वाक्य ‘असतो मा सदगमय तमसो मा ज्योतिर्गमय मृत्योर्मामृतमगमय’ (हमको) असत्य से सत्य की ओर ले चलो। अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो। मृत्यु से अमरता की ओर ले चलो। यह प्रार्थना या ध्येय वाक्य किसी पंथ का नातो विरोधी है और ना ही अवरोधी। इसमें शास्वत सत्य का आवाहन किया गया है। भारत के बुद्धजीवियों को माननीय न्यायालय में सच्चाई के भारतीय आत्मा का पक्ष को मजबूती के साथ रखना चाहिए। माननीय न्यायालय में माननीयों के चयन में भी इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि माननीय जन कानून के साथ भारतीय संस्कृति धर्म एवं दर्शन में कितनी रुचि रखते हैं, अथवा कितना दक्ष हैं । यदि हम इस दिशा में हम चूक जाएगें तो हमारे माननीय हमें गलत मार्ग चलने को प्रेरित कर सकते हैं।
केन्द्रीय विद्यालय संगठन के बारे में माननीय सवोच्च न्यायालय का असंगत ख्याल- केन्द्रीय विद्यालय संगठन का ध्येय वाक्य ‘असतो मा सदगमय तमसो मा ज्योतिर्गमय मृत्योर्मामृतमगमय’ (हमको) असत्य से सत्य की ओर ले चलो। अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो। मृत्यु से अमरता की ओर ले चलो। यह प्रार्थना या ध्येय वाक्य किसी पंथ का नातो विरोधी है और ना ही अवरोधी।
ReplyDeleteअत्यंत उपयुक्त कथन हियाँ यह किसी का विरोधी नही अपितु सभी को रोशनी और रास्ता दिखाने वाला है
सुंदरम।।🤗🙏
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