Thursday, March 12, 2020

तथाकथित सेकुलरिज्म : राष्ट्र की अखण्डता बनाम निजता का मूल अधिकार डा. राधेश्याम द्विवेदी


                                             सुप्रीम कोर्ट
राष्ट्र की अखण्डता को चुनौती देने वाले राष्ट्रद्रोहियों को सरकार वैज्ञानिक तरीके से चिन्हित कर उनसे क्षतिपूर्ति की कानूनी कार्यवाही कर रही है तो कांग्रेस के प्रभाव से न्यायपालिका में आये हुए मीलार्ड इसे निजता का अधिकार कहकर उन्हें विशेषाधिकार दे संरक्षण कर रहे हैं। भारतीय लोकतंत्र में इससे बड़ा विभत्स स्वरुप कभी नहीं देखा गया है। यह भाजपा के शासन के स्थायित्व स्वरुप के प्रतिक्रिया स्वरुप सुनियोजित षडयंत्र के तहत एक बहुत बड़े वर्ग द्वारा प्रायोजित किया जा रहा है। इसकी जितनी निन्दा की जाय उतना कम है। भारत में लम्बे समय से कांग्रेस पार्टी का शासन रहा है। इसके लिए वह साम्यवादी पार्टियों के प्रभाव में भी रहा है। न्याय पालिका व्यूरोक्रेसी, मीडिया , अल्पसंख्यक , पिछड़े व दलित इसके हमेशा ही वोट बैंक रहे है। इनकी नीतियां व कार्यक्रम भी इन्हीं वर्ग विशेष के हित की रही हैं। घीरे धीरे कांग्रेस के वोट बैंक टूटता गया जिससे अनेक क्षेत्रीय पार्टियां भी अपना अस्तित्व कायम कर ली हैं। यदा कदा ये सरकार के गठन में महत्वपूर्ण भूमिका भी निभायी है। कांग्रेस के वोट बैंक से ही अनेक क्षेत्रीय पार्टियां भी अपना अस्तित्व कायम कर ली हैं। यदा कदा ये सरकार के गठन में महत्वपूर्ण भूमिका भी निभायी है। सनातन हिन्दू सदैव इससे प्रभावित तथा तिरस्कृत होता रहा है। राम जन्मभूमि तथा राष्ट्रवादी विचार को अपनाकर भाजपा ने कांग्रेस व साम्यवादी पार्टियों को लगातार कमजोर करती आ रही है। जब से मोदी सरकार दुबारा सत्ता में आयी है तब से कांग्रेस, वामपंथी, लुटियन जोन्स तथा कोलोनिजम सिस्टम वाले ज्यादा सक्रिय और उग्र हो गये हैं । धारा 370 को जम्बू काश्मीर से हटाना ,राम जन्मभूमि का विवाद सुलझाना तथा तीन तलाक आदि केस के शान्तिपूण समाधान को देखते हुए इन्हे अपना भविष्य असुरक्षित  लगने लगा है। वे तरह तरह के षडयंत्र को क्रियान्वित करने लगे और मोदी सरकार को अस्थिर करने के प्रयास करने लगे है।

                      न्यायालय के लिए इमेज नतीजे
तथाकथित सेकुलर और मुसलमानों की चाल
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में तथाकथित सेकुलर और मुसलमान इसलिए साथ साथ दिखाई पड़ते है. कि तथाकथित सेकुलर मुसलमानों के वोटों से अपनी सत्ता बचाए रखना चाहते हैं और मुसलमान सेकुलरों के सहारे इस देश में इस्लामी राज्य की स्थापना करना चाहते है। मुसलमान अपने स्वार्थ के लिए सेकुलरों का सहयोग करते है। सेकुलर विदेश से आयातित और सबसे अधिक भ्रामक शब्द हो गया है इसलिए भारत की किसी भी भाषा में सेकुलर के लिए कोई समानार्थी और पर्यायवाची अर्थ नहीं मिलता है। कुछ चालाक लोग हिंदी में सेकुलर के लिए धर्मनिरपेक्ष शब्द गढ़ दिये है। यद्यपि इस शब्द का उल्लेख न तो किसी भी धर्म के ग्रन्थ में मिलता है और न ही इसकी कोई परिभाषा कहीं मिलती है । अब सेकुलर शब्द का विपरीत शब्द सम्प्रदायवादी बना दिया गया तो यह शब्द एक ऐसा अमोघ अस्त्र बन गया कि अक्सर जिसका प्रयोग हिन्दुओं को प्रताड़ित करने, उनको अपराधी साबित करने और उन पर पाबंदियां लगाने के लिए किया जाने लगा है। परिणाम यह हुआ कि खुद को सेकुलर बताने वाला बड़े से बड़ा अपराधी और भ्रष्टाचारी भी लोगों की    दृष्टि में दूध का धुला बन गया और मोदी जैसे हजारों देशभक्त लोगों को अपराधी कहा जाने लगा है। ईशरत जहाँ जैसी आतंकवादी दिग्विजय सिंह जैसे गद्दार देशद्रोही ,ओसामा बिन लादेन, हाफिज सईद, मशर्रत आलम जैसे आतंकवादी और अलगाववादी भी सम्मानित किये जाने लगे हैं।
कॉलेजियम सिस्टम एक बहुत बड़ा षडयंत्र
जिस व्यवस्था के तहत सुप्रीम कोर्ट में नियुक्तियां की जातीं हैं उसे कॉलेजियम सिस्टम कहा जाता है। कॉलेजियम सिस्टम का भारत के संविधान में कोई विधिक प्रावधान नही हैं। यह सिस्टम 28 अक्टूबर 1998 को 3 जजों के मामले में आए सुप्रीम कोर्ट के फैसलों के जरिए प्रभाव में आया था। कॉलेजियम सिस्टम में सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस और सुप्रीम कोर्ट के 4 वरिष्ठ जजों का एक पैनल जजों की नियुक्ति और तबादले की सिफारिश करता है। भारत की न्यायिक प्रणाली में सिर्फ कुछ घरानों का ही कब्जा हो गया है। साल दर साल इन्ही घरानों से आये वकील और जजों के लड़के लड़कियां ही जज बनते रहते हैं। कॉलेजियम वकीलों या जजों के नाम की सिफारिस केंद्र सरकार को भेजती है. इसी तरह केंद्र भी अपने कुछ प्रस्तावित नाम कॉलेजियम को भेजती है. केंद्र के पास कॉलेजियम से आने वाले नामों की जांच व आपत्तियों की छानबीन की जाती है और रिपोर्ट वापस कॉलेजियम को भेजी जाती है। सरकार इसमें कुछ नाम अपनी ओर से सुझाती है। कॉलेजियमय केंद्र द्वारा सुझाव गए नए नामों और कॉलेजियम के नामों पर केंद्र की आपत्तियों पर विचार करके फाइल दुबारा केंद्र के पास भेजती है। इस तरह नामों को एक दूसरे के पास भेजने का यह क्रम जारी रहता है और देश में मुकदमों की संख्या दिन प्रति दिन बढ़ती जाती है। जब कॉलेजियम किसी वकील या जज का नाम केंद्र सरकार के पास दुबाराभेजती है तो केंद्र को उस नाम को स्वीकार करना ही पड़ता है। सुप्रीम कोर्ट तथा हाईकोर्ट में जजों की नियुक्ति तथा तबादलों का फैसला भी कॉलेजियम ही करता है. इसके अलावा उच्च न्यायालय के कौन से जज पदोन्नदत होकर सुप्रीम कोर्ट जाएंगे यह फैसला भी कॉलेजियम ही करता है। यह बात स्पष्ट हो गया है कि देश की मौजूदा कॉलेजियम व्यवस्था पहलवान का लड़का पहलवानबनाने की तर्ज पर जज का लड़का जजबनाने की जिद करके बैठी है। भले ही इन जजों से ज्यादा काबिल जज न्यायालयों में मौजूद हों. यह प्रथा भारत जैसे लोकतान्त्रिक देश के लिए स्वास्थ्यकर नही है. कॉलेजियम सिस्टम का कोई संवैधानिक दर्जा नही है इसलिए सरकार को इसको पलटने के लिए कोई कानून लाना चाहिए ताकि भारत की न्याय व्यवस्था में काबिज कुछ घरानों का एकाधिकार खत्म हो जाये। नागरिक कानून के विरोध व सरकारी सम्पत्ति को नुकसान पहुंचाने वाले अपराधियों को कालेजियम सिस्टम से नियुिक्त मी लार्ड अपने वफादार पार्टी के हित के लिए पूर्वाग्रह से मुक्त नहीं हो सकते है। इसके लिए वे अवकाश के दिन स्वतः संज्ञान देते हुए अदालते लगा लेते हैं तथा सरकार के नियमित कानून व्यवस्था के जिम्मदारियों को पूरा ना होने देने के आदेश पारित कर देते हैं।
कॉलेजियम सिस्टम में सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस और सुप्रीम कोर्ट के 4 वरिष्ठ जजों का एक फोरम जजों की नियुक्ति और तबादले की सिफारिश करता है। कॉलेजियम की सिफारिश दूसरी बार भेजने पर सरकार के लिए मानना जरूरी होता है. कॉलेजियम की स्थापना सुप्रीम कोर्ट के 5 सबसे सीनियर जजों से मिलकर की जाती है जिनके नाम इस प्रकार हैं- 1. माननीय श्री न्यायमूर्ति शरद अरविंद बोबड़े,  2. माननीय श्री न्यायमूर्ति एन.वी. रमना,  3. माननीय श्री न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा, 4. माननीय श्री न्यायमूर्ति आर.एफ. नरीमन एवं 5. माननीय श्री न्यायमूर्ति आर. बनुमथी
इलाहाबाद उच्च न्यायालय के जस्टिस गोविंद माथुर की नियुक्ति राजनीतिक प्रभाव से
राजस्थान के भूतपूर्व कांग्रेसी मुख्यमंत्री शिवचरन माथुर का भतीजा इलाहाबाद हाईकोर्ट का जस्टिस गोविंद माथुर है जिसने योगी सरकार द्वारा रिकबरी के आदेश तथा उनके नाम सार्वजनिक किये जाने को निजता के अधिकार का आवरण लगाकर रोक दिया है। उक्त मीलार्ड के चाचाजी पूर्व मुख्यमंत्री श्री शिवचरन माथुर ने दिनदहाड़े भरतपुर के राजा मानसिंह और उनके 2 सहयोगियों को गोली से मरवा दिया था। वर्ष 1985 के आठवीं विधानसभा चुनाव के दौरान भरतपुर के राजा मानसिंह राजस्थान की डीग विधानसभा से निर्दलीय चुनाव लड़ रहे थे। 20 फरवरी 85 को तत्कालीन मुख्यमंत्री शिवचरण माथुर भरतपुर के राजा राजा मान सिंह के खिलाफ चुनाव लड़ रहे कांग्रेस के प्रत्याशी विजेंद्र सिंह के समर्थन में चुनावी सभा के लिए डीग आए थे। चुनावी भाषण में तत्कालीन मुख्यमंत्री माथुर ने भरतपुर राजघराने पर गंदे और भद्दे कटाक्ष और प्रतिकूल टिप्पणी करना प्रारंभ कर दिया था। मुख्यमंत्री माथुर के समर्थकों ने राजा साहब के झंडों व बैनरों को फाड़ दिया। माथुर की सभा के पास ही राजा मान सिंह समर्थकों के साथ जनसंपर्क में व्यस्त थे। तत्कालीन मुख्यमंत्री माथुर द्वारा की गई टिप्पणी व समर्थकों के बेहूदा कार्यों के बारे में लोगों ने तत्काल ही राजा मान सिंह को अवगत करा दिया। राजा मान सिंह यह सुनकर आपा खो बैठे। उन्हें इतना ज्यादा गुस्सा आया कि वह स्वयं अपने जौंगा (जीप) के साथ तेजी से सभास्थल पहुंचे और मंच को धराशाई कर दिया। तौरण द्वार तोड़ दिया तथा अपनी जीप को मुख्यमंत्री माथुर के हैलीकॉप्टर से टकरा दिया। माथुर सभा किए बिना ही वापस लौट गए। राजा मान सिंह के खिलाफ पुलिस ने केस दर्ज कर लिया। अगले दिन 21 फरवरी 1985 को जब राजा मान सिंह डीग अनाज मंडी में बैठे थे तब मुख्यमंत्री माथुर के निर्देश पर पुलिस अधीक्षक कानसिंह भाटी ने उन्हें घेर कर उन पर फायरिंग किया। मान सिंह के साथ ही सुमेर सिंह और हरी सिंह को गोली लगी। भरतपुर अस्पताल में तीनों को मृत घोषित कर दिया गया। 22 फरवरी 1985 को दिल्ली से माखन लाल फोतेदार का माथुर को फोन आया कि आलाकमान का निर्देश था आप मुख्य मंत्री के पद से इस्तीफा दे दीजिये. इस तरह माथुर से त्यागपत्र लेकर हीरालाल देवपुरा को मुख्य मंत्री बनाया था।
सुप्रीम कोर्ट भी उपद्रवियों पर कार्यवाही से बच रही
सार्वजनिक संपत्ति के नुकसान पर सुप्रीम कोर्ट नाखुश फिर भी उन पर कार्यवाही से बच रही है। नागरिकता संशोधन एक्ट के खिलाफ देश के कई हिस्सों में विरोध प्रदर्शन हुए. कई जगहों पर विरोध प्रदर्शन ने हिंसक  रुख अख्तियार कर लिया। दिल्ली में जामिया मिलिया इस्लामिया के छात्रों ने भी विरोध प्रदर्शन के दौरान बसें और दूसरी गाड़ियां जला दीं. सोमवार को इस मामले में सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई हुई। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि छात्रों को शांतिपूर्ण प्रदर्शन का अधिकार है लेकिन कोर्ट ने प्रदर्शन के दौरान हुए सार्वजनिक संपत्ति के नुकसान पर नाखुशी जाहिर की। सुप्रीम कोर्ट ने छात्रों को चेतावनी देते हुए कहा कि अपनी बात रखने के लिए उन्हें सड़क पर उतरने का अधिकार है लेकिन वो अगर सार्वजनिक संपत्ति का नुकसान करेंगे तो कोर्ट उनकी बात नहीं सुनेगा। अक्सर विरोध प्रदर्शनों में सार्वजनिक संपत्ति का नुकसान होता है. कभी बसें जला दी जाती हैं, कभी ट्रेनों पर पथराव होता है, कभी सरकारी इमारतों में तोड़-फोड़ होती है, तो कभी सरकारी ट्रांसपोर्ट व्यवस्था का नुकसान किया जाता है। सरकारी और सार्वजनिक संपत्ति को लेकर सार्वजनिक संपत्ति नुकसान रोकथाम अधिनियम 1984 है. इसके प्रावधानों के मुताबिक अगर कोई व्यक्ति सरकारी या सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाने का दोषी साबित होता है तो उसे 5 साल की सजा हो सकती है. इसमें जुर्माने का भी प्रावधान है। ऐसे मामलों में दोषी पाए जाने पर सजा और जुर्माना दोनों हो सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने गाइडलाइंस में सार्वजनिक संपत्ति के नुकसान होने की स्थिति में सारी जिम्मेदारी नुकसान के आरोपी पर डाली है। गाइडलाइंस के मुताबिक अगर सार्वजनिक संपत्ति का नुकसान होता है तो कोर्ट ये मानकर चलती है कि नुकसान का आरोपी इसका जिम्मेदार है. आरोपी को खुद को निर्दोष साबित करना होता है. निर्दोष साबित होने तक कोर्ट उसे जिम्मेदार मानकर चलती है। भारत में नागरिकता कानून के खिलाफ देश के कई राज्यों में हिंसक प्रदर्शन हो रहे हैं। इन प्रदर्शनों के दौरान सरकारी व निजी संपत्ति को लगातार निशाना बनाया जा रहा है। यूपी, पश्चिम बंगाल सहित देश के कई राज्यों से बसों व गाड़ियों में आग लगाने के घटनाएं लगातार सामने आ रही हैं। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने तो कहा है कि नुकसान की भरपाई दंगाईयों की संपत्ति बेचकर की जाएगी।
सुप्रीम कोर्ट की गाइडलाइन
सार्वजनिक संपत्ति के नुकसान होने की स्थिति में सारी जिम्मेदारी नुकसान करने वाले आरोपी की होगी। आरोपी को खुद को निर्दोष साबित करना होता है। निर्दोष साबित होने तक कोर्ट उसे जिम्मेदार मानकर चलेगी। नरीमन समिति ने कहा था कि ऐसे मामलों में दंगाइयों से सार्वजिनक संपत्ति के नुकसान की वसूली की जाए। सार्वजनिक संपत्ति के बढ़ते नुकसान की घटनाओं में आरोपियों की धर पकड़ के लिए वीडियो रिकॉर्डिंग ने अहम भूमिका निभाई है। इसके चलते आरोपियों की पहचान करके उनपर कार्रवाई आसानी से की जा सकती है। यही नहीं सीसीटीवी के जरिए भी आरोपियों को पकड़ने में सफलता मिलती है।
लुटियन संस्कृति देश में सामंतवादी सोच का प्रतीक
15 दिसंबर 1911 को किंगवेज कैम्प में अपनी शाही यात्रा के दौरान, जार्ज पंचम और रानी मैरी ने 1911 के दिल्ली दरबार पर नई दिल्ली की नींव रखी। नई दिल्ली के बड़े हिस्सों के निर्माण की योजना एडविन लुटियन ,जिन्होंने पहली बार 1912 में दिल्ली का दौरा किया था तथा हर्बर्ट बेकर ने की थी, दोनों 20 वीं सदी के ब्रिटिश वास्तुकारों के प्रमुख थे। निर्माण का कार्य तुगलकाबाद के किले से शुरू किया जाना था, लेकिन यह दिल्ली-कलकत्ता ट्रंक लाइन की वजह से रोक दिया गया, जो कि किले से होकर गुजरती थी। वास्तव में निर्माण कार्य प्रथम विश्व युद्ध के बाद शुरू हुआ और 1931 में पूर्ण हुआ। शहर का नाम बदलकर लुटियंस दिल्ली कर दिया गया, जिसका उद्घाटन 10 फरवरी 1931 को किया गया। प्रधानमंत्री का कहना है कि उन्हें सबसे बड़ा अफसोस इस बात का है कि वे लुटियंस की दिल्लीको अपने पक्ष में नहीं कर पाए. इस जुमले को मूलतः उस क्षेत्र के लिए इस्तेमाल किया जाता था, जिसे करीब सौ साल पहले अंग्रेजों ने भारत की राजधानी के तौर बसाया था और वहां सरकारी इमारतें तथा बंगले बनवाए थे। एडविन लुटियंस इसके एक प्रमुख वास्तुकार थे, लेकिन (अच्छी किस्मत यह रही कि) नई राजधानी को लेकर उनके सभी विचारों को खारिज कर दिया गया था. इमारतों के लिए बलुही लाल पत्थर के इस्तेमाल, सड़कों पर गोलंबरों के निर्माण, पेड़ों-झाड़ियों को उगाने, राष्ट्रपति भवन को रायसीना पहाड़ी पर बनाने का विचार लुटियंस ने शुरू में नहीं दिया था। नई राजधानी की अधिकांश इमारतों (बंगलों समेत) के डिजाइन लुटियंस ने नहीं बल्कि दूसरे वास्तुकारों ने तैयार किए थे. फिर भी है तो यह लुटियंस की ही दिल्ली कही जाती रही। दूसरे शहरों के व्यवसायी लोग लुटियंस वाले घरों बस जाते हैं, तो सेवानिवृत्त हो चुके सरकारी अधिकारी लोग जिमखाना क्लब में चक्कर काटते रहते हैं. इस क्षेत्र की आबादी 3 लाख से कम यानी पूरे शहर की आबादी का 2 प्रतिशत ही होगी।
नागरिकता कानून 2019 को लेकर दिल्ली, उत्तर प्रदेश समेत देशभर में चल रहे विरोध प्रदर्शन के दौरान कई जगहों पर हिंसा भड़की है। उपद्रवी जगह-जगह सार्वजनिक संपत्ति को भारी नुकसान भी पहुंचा रहे हैं। इन उपद्रवियों ने विरोध प्रदर्शन के नाम पर कहीं पत्थर फेंक कर तोड़फोड़ किया, तो कई जगहों पर बसों में आग लगा दी। यहां तक की दिल्ली में 50 से अधिक लागों की जानें चली गयी हैं। विरोध प्रदर्शन के नाम पर जिस तरह सार्वजनिक संपत्तियों को नुकसान पहुंचाया जा रहा है, उसे लेकर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कहा कि नुकसान की भरपाई उपद्रवियों की संपत्ति जब्त करके की जाएगी।
क्या कहता है कानून
इस संबंध में एक कानून है, जिसका नाम है - प्रवेंशन ऑफ डैमेज टू पब्लिक प्रॉपर्टी एक्ट 1984) इसके तहत हिंसक विद्रोहों में दोषी पाए जाने पर छह महीने से लेकर 10 साल तक की जेल और जुर्माने का प्रावधान है। सुप्रीम कोर्ट ने भी इस संबंध में दिशा-निर्देश बनाए हुए हैं। इसके अनुसार, सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाने पर विद्रोहियों को इसका जम्मेदार ठहराया जा सकता है। आंध्र प्रदेश के एक मामले की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने हाल में निर्देश दिए कि अगर किसी विरोध प्रदर्शन में बड़े स्तर पर संपत्तियों की तोड़फोड़ व नुकसान को अंजाम दिया जाता है तो हाई कोर्ट स्वतः संज्ञान लेते हुए घटना व नुकसान की जांच के आदेश दे सकता है। साथ ही ऐसा अपराध करने वाले उपद्रवियों को भी जिम्मेदार ठहरा सकता है। कानून भी है और सजा का प्रावधान भी, लेकिन सबसे बड़ी चुनौती है दोषियों की पहचान करना। जन विद्रोहों के ज्यादातर मामलों में उनका नेतृत्व या संचालन करने वालों का कोई निश्चित चेहरा नहीं होता। और जहां ऐसा होता है, वहां कोर्ट में आसानी से साबित कर दिया जाता है कि उन्होंने हिंसा नहीं भड़काई या सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाने का आह्वान नहीं किया।
एक आंकड़े के अनुसार, पहचान न हो पाने के कारण सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाए जाने के मामलों में से महज 29.8 फीसदी मामलों में ही दोषियों को सजा मिल पाती है। सार्वजनिक संपत्ति को नुकसानरू देशभर में अब तक कितने मामले, कौन सा राज्य अव्वल रहा ? राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की हाल की एक रिपोर्ट के अनुसार साल 2017 में देशभर में सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाए जाने के करीब 8 हजार मामले दर्ज किए गए। यानी हर दिन करीब 20 ऐसे विद्रोह हुए जिसमें किसी न किसी रूप से सार्वजनिक संपत्ति को उपद्रवियों ने नुकसान पहुंचाया।


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