द्विवेदी ब्राह्मण
का
परिचय
,कर्तव्य
और
आधार
(भाग 1)
(आचार्य मोहन प्यारे द्विवेदी 'मोहन' के जयन्ती के अवसर पर 8अप्रैल1917 को पूर्व प्रकाशित)
आचार्य डॉ.राधेश्याम द्विवेदी
(टिप्पणीः-
इस श्रंखला को उपलब्घ प्रमाणों
के आधार पर तैयार किया
गया है। इसे और प्रमाणिक बनाने
के लिए सुविज्ञ पाठकों व विद्वानों के
विचार व सुझाव सादर
आमंत्रित है।)
यास्क
मुनि की निरुक्त के
अनुसार- ”ब्रह्म जानाति ब्राह्मणः ”यानि ब्राह्मण वह है जो
ब्रह्म (अंतिम सत्य, ईश्वर या परम ज्ञान)
को जानता है। “ईश्वर ज्ञाता” को ब्राह्मण कहा
जाता है। हिन्दू समाज में ऐतिहासिक स्थिति यह है कि
पारंपरिक पुजारी तथा पंडित ही अब ब्राह्मण
कहते हैं। ब्राह्मण या ब्राह्मणत्व का
निर्धारण माता-पिता की जाती के
आधार पर ही होने
लगा है। स्कन्दपुराण में षोडशोपचार पूजन के अंतर्गत अष्टम
उपचार में ब्रह्मा द्वारा नारद को यज्ञोपवीत के
आध्यात्मिक अर्थ में बताया गया है।
जन्मना जायते शूद्रः
संस्कारात् द्विज उच्यते।
शापानुग्रहसामर्थ्यं
तथा क्रोधः प्रसन्नता।
अतः
आध्यात्मिक दृष्टि से यज्ञोपवीत के
बिना जन्म से ब्राह्मण भी
शुद्र के समान ही
होता है। भारत में ब्राह्मण अब वर्ण नहीं
अपितु हिन्दू समाज की एक ‘जाति’
भी है, ब्राह्मण को ‘विप्र’,
‘द्विज’, ‘द्विजोत्तम’ या
‘भूसुर’ भी
कहा जाता है।
न
जटाहि न गोत्तेहि
न जच्चा होति ब्राह्मणो।
यम्हि सच्चं च धम्मो च
सो सुची सो च ब्राह्मणो॥
अर्थात भगवान बुद्ध कहते हैं
कि “ब्राह्मण न तो जटा से होता है, न गोत्र से और न जन्म से। जिसमें सत्य है, धर्म
है और जो पवित्र है, वही ब्राह्मण है। कमल के पत्ते पर जल और आरे की नोक पर सरसों की
तरह जो विषय-भोगों में लिप्त नहीं होता, मैं उसे ही ब्राह्मण कहता हूं।
तसपाणे वियाणेत्ता
संगहेण य थावरे।
जो न हिंसइ तिविहेण तं वयं बूम माहणं।।
अर्थात महावीर स्वामी
कहते हैं कि “जो इस बात को जानता है कि कौन प्राणी त्रस है, कौन स्थावर है। और मन,
वचन और काया से किसी भी जीव की हिंसा नहीं करता, उसी को हम ब्राह्मण कहते हैं।
न
वि मुंडिएण समणो न ओंकारेण बंभणो।
न मुणी रण्णवासेणं कुसचीरेण न तावसो॥
अर्थात महावीर स्वामी
कहते हैं कि “सिर मुंडा लेने से ही कोई श्रमण नहीं बन जाता। ‘ओंकार’ का जप कर लेने से ही कोई ब्राह्मण नहीं बन जाता। केवल जंगल
में जाकर बस जाने से ही कोई मुनि नहीं बन जाता। वल्कल वस्त्र पहन लेने से ही कोई तपस्वी
नहीं बन जाता। शतपथ ब्राह्मण में ब्राह्मण के कर्तव्यों की चर्चा करते हुए उसके अधिकार
इस प्रकार कहे गये हैं- अर्चा, दान, अजेयता ,अवध्यता। ब्राह्मण के कर्तव्य:-
ब्राह्मण के कर्तव्य इस प्रकार हैं- ‘ब्राह्मण्य’(वंश की पवित्रता), ‘प्रतिरूपचर्या’ (कर्तव्यपालन) ‘लोकपक्ति’
(लोक को प्रबुद्ध करना) ब्राह्मण स्वयं को ही संस्कृत करके विश्राम नहीं लेता था, अपितु
दूसरों को भी अपने गुणों का दान आचार्य अथवा पुरोहित के रूप में करता था।आचार्यपद से
ब्राह्मण का अपने पुत्र को अध्याय तथा याज्ञिक क्रियाओं में निपुण करना एक विशेष कार्य
था।
ब्राह्मणों के मुख्य छ कर्तव्य -
स्मृति ग्रन्थों में ब्राह्मणों के मुख्य छ कर्तव्य (षट्कर्म) बताये गये हैं-
,पठन , पाठन, यजन , याजन ,दान ,प्रतिग्रह। इनमें पठन, यजन और दान सामान्य तथा पाठन,
याजन तथा प्रतिग्रह विशेष कर्तव्य हैं। आपद्धर्म के रूप में अन्य व्यवसाय से भी ब्राह्मण
निर्वाह कर सकता था, किन्तु स्मृतियों ने बहुत से प्रतिबन्ध लगाकर लोभ और हिंसावाले
कार्य उसके लिए वर्जित कर रखे हैं। गौड़ अथवा लक्षणावती का राजा आदिसूर ने ब्राह्मण
धर्म को पुनरुज्जीवित करने का प्रयास किया, जहाँ पर बौद्ध धर्म छाया हुआ था। हिन्दू
ब्राह्मण अपनी धारणाओं से अधिक धर्माचरण को महत्व देते हैं। यह धार्मिक पन्थों की विशेषता
है। धर्माचरण में मुख्यतः है यज्ञ करना। दिनचर्या
इस प्रकार है - स्नान, सन्ध्या वन्दन,जप, उपासना, तथा अग्निहोत्र। अन्तिम दो यज्ञ अब केवल कुछ ही परिवारों में होते हैं।
ब्रह्मचारी अग्निहोत्र यज्ञ के स्थान पर अग्निकार्यम् करते हैं। अन्य रीतियां हैं अमावस्य तर्पण तथा श्राद्ध।
भारद्वाज गोत्र के द्विवेदी
ब्राह्मण के नौरत्न आधार:-
1. गोत्रः- भारद्वाज
2.वेदः- आयुर्वेदः
3. उपवेदः- घनुर्वेद
4.शाखाः-मध्याह्न्वी
5. सूत्र:- कात्यायन
6. प्रवरः- त्रि प्रवर /पंच प्रवर: त्रिप्रवर (आंगिरस, वार्हस्पत्यऔर भारद्वाज)
7. शिखा:- दक्षिण
8. पादः- दक्षिण
9. देवताः- शिव
सनाढ्य गोत्रावली के पृष्ठ 16 के अनुसार -
द्विवेदी/दूबे अल्ल (अल्ल शब्द का मतलब है वंश का नाम या उपगोत्रज नाम. जैसे- पाँड़े, त्रिपाठी, मिश्र, आदि होता है) इस वंश कुल का वेद यजुर्वेद है। इसके गोत्रर्षि भरद्वाज जी हैं। इस कुल वंश का प्रवर ( किसी गोत्र के अंतर्गत विशेष प्रवर्तक मुनि या संतति ) का नाम आंगिरस, वार्हस्पत्य, भारद्वाज है। पुनः सनाढ्य गोत्रावली पृष्ठ (3) के अनुसार - यजुर्वेद के अल्ल वालों का उपवेद-धनुर्वेद, शाखा-मध्यन्दिनी, सूत्र- कात्यायन, शिखा व पाद दक्षिण और देवता शिव हैं।
(क्रमश:)
आचार्य डॉ राधेश्याम द्विवेदी
लेखक परिचय:-
(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए सम सामयिक विषयों,साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं।)
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