Friday, October 10, 2025

मेरी चारोंधाम यात्रा (जगन्नाथ पुरी)✍️आचार्य डॉ राधेश्याम द्विवेदी


        21 सितंबर 2025

पुरी का समुद्री स्नान 
उड़ीसा के पुरी शहर का समुद्र स्नान बंगाल की खाड़ी का एक प्रसिद्ध स्नान है, जहाँ भक्तों और पर्यटकों का जमावड़ा लगता है, खासकर भगवान जगन्नाथ के मंदिर आने वाले लोग। स्वर्गद्वार सहित अन्य समुद्र तट पवित्र माने जाते हैं और यहाँ समुद्र में डुबकी लगाना पापों से मुक्ति दिलाने वाला माना जाता है। 
पुरी समुद्र तट अपने सुनहरे रेत, सुंदर सूर्योदय और सूर्यास्त के दृश्यों के साथ-साथ साहसिक गतिविधियों, रेत कला, और ऊँट व घोड़े की सवारी के लिए भी जाना जाता है।  
धार्मिक महत्व:- 
पुरी समुद्र तट को एक पवित्र स्थल माना जाता है, और यहाँ स्नान करने को भगवान जगन्नाथ के प्रति श्रद्धा व्यक्त करने जैसा समझा जाता है। स्वर्गद्वार जैसे स्थान विशेष रूप से पवित्र हैं, जहाँ डुबकी लगाने से पाप धोने में सहायता मिलती है। 

साईं श्री क्षेत्र लॉज में आगमन 
पुरी के सरकारी गोमती हवाई अड्डे से कल ही साईं श्री क्षेत्र लॉज में हम लोग आ गये थे। प्रातः समुद्र स्नान और चंदन तालाब स्नान दोनों का प्रोग्राम बन चुका था। यद्यपि हमने तो अपने लॉज में ही स्नान कर लिया था, फिर भी लोगों का देखी- देखा रहा नहीं गया और समुद्र तट पर , संभवत स्वर्ग द्वार जो पुरी के मुख्य मंदिर से पास ही में है ,वहां स्नान किया गया । पहले से कपड़े नहीं ले गए थे। सोचा था रामेश्वरम की तरह यहां भी बाजार होगा और अंडर वियर आदि खरीद लेगे। परन्तु यहां कोई दुकान नहीं था। यह बिल्कुल नया और बीरान सी शोर था।

समुद्र स्नान करने से कपड़े गीले थे और शरीर में रेत भरा हुआ था। मुझे तो यह समुद्र शांत नहीं दिखा । यद्यपि लोग इसे शांत समुद्र कहते हैं समुद्र की लहरों के साथ रेत की परतें भी बह रही थी और एक भारीपन का एहसास करा रही थी। भारी शरीर के कारण समुद्र से उठने में समय लग जाता था और तब तक दूसरी लहर जाती थी । मुझे इससे कोई भय तो नहीं था लेकिन मेरी पत्नी ने और लोगों की सहायता मांग कर मुझे समुद्र से बाहर निकलने में अपनी इच्छा व्यक्त की थी। यहां से नहा धोकर हम लोग अपने द्वारा नियत किए गए ऑटो रिक्शा से चंदन तालाब पहुंचे।
चंदन तालाब
श्री जगन्नाथ मंदिर के उत्तर दिशा में लगभग एक किलोमीटर की दूरी पर यह तालाब अवस्थित है। चंदन तालाब को चंदन तालाब,चंदन पुष्करिणी,चंदन पोखरी,नरेन्द्र तालाब तथा नरेन्द्र पुष्करिणी आदि नामों से भी जाना जाता है। इसका उपयोग विशेषकर भगवान जगन्नाथ की चंदन यात्रा के लिए ही होता है। यह तालाब कुल लगभग तीन एकड में फैला हुआ है जो पूरी तरह से स्वच्छ तथा शीतल जलाशय वाला है।यह लगभग 253.30 मीटर चौडा है तथा लगभग 266 मीटर लंबा है।तालाब के दक्षिण दिशा में एक पुल है जिसके द्वारा चंदन तालाब के चंदन घर को जोडा गया है। मदनमोहन आदि की चंदनयात्रा तथा नौका विहार के लिए पहले से ही गजदंत आकार की नौकाएं तैयार होती हैं, जो हंस की तरह दिखतीं हैं। इन्हें यात्रा से पूर्व ही हर प्रकार से सुसज्जित कर रखा जाता है। चंदन तालाब को बिजली की रोशनी से ऐसा आलोकित किया जाता है कि जैसे तालाब दिन के उजाले में परिणित हो गई हो।चंदन तालाब में कुल 21 दिनों तक जगन्नाथ जी विजय प्रतिमा मदनमोहन तथा अन्य देव-देवियों को (अक्षयतृतीया से आरंभ होकर)नौका विहार कराया जाता है।
 चंदन तालाब के बीचोबीच अवस्थित चंदन घर में उनके अत्यधिक स्नान कराने के कारण उनके आराम के लिए रखा जाता है। वहां पर समस्त देवगण साधारण मानव की तरह जलक्रीडा के उपरांत विश्राम करते हैं। उनके बदन पर शीतल चंदन का लेप लगाया जाता है। उन्हें मल मल कर नहलाया जाता है।वे चंदनघर में कुछ देर विश्रामकर पुनः श्री मंदिर लौट आते हैं।यह सिलसिला पूरे 21 दिनों तक चलता है।
समुद्र स्नान करने के बाद जब हम लोग ऑटो से चंदन तालाब आए तो इस विशाल तालाब को देखकर बहुत सुखद अनुभव हुआ पानी साफ था यह किनारे किनारे कहीं कुछ खरपतवार तैर रहे थे लेकिन इसमें स्नान करने से समुद्र की रेट शरीर से हट गए और शेयर पवित्र हो गया स्नान करने के बाद बगल में सीढ़ी पर जगन्नाथ जी के स्वरूप का दर्शन किया हनुमान जी का दर्शन किया और इसके बाद बाहर गेट पर जल जलपान कर आगे अपने लॉस के तरफ प्रस्थान किया। 
हरिहर भवन को प्रस्थान 
लाज पर गीले कपड़े और कुछ सामान थैली में डालकर हम लोग जगन्नाथ पुरी के प्रसिद्ध है पांडा के आवास पर गए जहां बहुत सारे तीर्थ यात्री हाल में बैठकर महाराज जी की प्रतीक्षा कर रहे थे एक व्यक्ति लोगों के तीन पुत्र तीन पीढ़ी के पूर्वजों का नाम और पता दर्ज कर रहा था उनके पास कई राज्य के तीर्थ यात्री आते हैं और अपने उपस्थिति दर्ज कराकर दान और अटका देकर जाते हैं। 
       तीर्थ  पुरोहित ने बताया कि उनके पिता मां का नाम हरिहर पंडा  है जिनकी आदम कद की मूर्ति इस व्यावसायिक परिसर के बाहर लगी हुई है । संयोग से पुरोहित का भी नाम अपने दादा के नाम पर ही हरिहर पंडा  था। उन्होंने जगन्नाथ पुरी के मंदिर के भोग के बारे में अनेक विकल्प सुझाए। एक सेर आधा सेर एक पाव और तरह-तरह के पकवान व्यंजन के भाव भी बताएं। छप्पन भोग और भी अनेक तरह के विकल्प सुझाए। जितने भी यात्री आए थे कोई स्वेच्छा से इस अटका या दान के लिए तैयार नहीं हुआ, लेकिन क्योंकि हम कितनी दूर से कितना खर्च करके इसी उद्देश्य से आए थे ।इसलिए सबसे पहले हमने अपना विकल्प 56 भोग का रु 5600/- का संकल्प किया और गुरु जी को चरण वंदन किया ।इसके बाद मुनीम ने पक्की रसीद काटी और अपना शुल्क ₹30 लिया। हमने देखा की तीर्थ यात्री इस तरह के वार्ताओं को पसंद नहीं करते और दबे मन से ही अपनी दक्षिना या अटका देने को इच्छुक होते थे। 
   जब पूरी टीम का यह प्रोग्राम पूरा हुआ तो आगे मंदिर दर्शन के लिए लोग निकले मंदिर दर्शन में तीर्थ पुरोहित महोदय का कोई भी सहयोग नहीं रहा। और यह केवल रसीद कटवा कर अपनी बैठकी का टैक्स लेकर किनारे हो गए। बाद में भोजन प्रसाद रूप में देर रात सबके लिए आ गया था।

हरिहर पंडा का अटका 
जगन्नाथपुरी का अटका को भी अपकर्म कहा जा सकता है। जगन्नाथ पुरी में भोगदान के लिए पंडा कोई न कोई निर्धारित शुल्क लेता है, वह अपनी सेवा और भगवान जगन्नाथ को भोग चढ़ाने के बदले में दक्षिणा स्वरूप अटका मांगते हैं, जो भक्त की इच्छा पर निर्भर करता है और हजार रुपये से कम नहीं होता है। इस शुल्क से जगन्नाथ मंदिर में तरह-तरह के भोग लगाने की बात कही जाती है। कुछ शुल्क मंदिर में जमा करने की बात कही जाती है। 
      पितृकर्म से वैदिक रूप में अटका कोई शास्त्र सम्मत संबंध नहीं होता है। पर व्यवहारिक रूप में तीर्थ पुरोहित खुले मंच से 'अटका' को अपना अधिकार कहते हैं। वैसे अटका का अर्थ किसी कार्य में बाधा या रुकावट आना होता है। इसे पंडा और पुरोहित द्वारा यजमान से कहना और मांगना उचित नहीं है। फिर भी व्यवहारिक रूप में यह प्रचलित है। सरकार के किसी सक्षम संगठन द्वारा स्वतः संज्ञान लेकर इस समस्या का निदान करना चाहिए।  
       तीर्थ में शुल्क इस बात पर निर्भर कर सकता है कि आप पंडा को किस काम के लिए भुगतान कर रहे हैं। उदाहरण के लिए, यदि आप मंदिर के भीतर किसी विशेष पूजा या अनुष्ठान के लिए पंडा को संलग्न करते हैं, तो शुल्क वाजिब है। पंडा द्वारा यह अपेक्षा की जाती है कि यजमान अपनी इच्छा से कुछ दक्षिणा दे। आप अपनी आर्थिक स्थिति के अनुसार जो चाहें नहीं दे पाते हैं, अपितु पंडा या पुरोहित के आदेश पर डांड देने के लिए बाध्य कर दिए जाते हैं। यह भी एक प्रकार से अपकर्म ही है।
सन्यासी और ब्रह्मचारी जो मंदिर में भगवान की सेवा करते हैं। उनका कार्य होता है कि वो समाज को भगवद-ज्ञान दें। अतः उनकी सेवा करना हमारी ज़िम्मेदारी बन जाती है। इसलिए मंदिरों में दान देने की प्रथा शुरू हुई, जो मुझे लगता है एक सही चीज़ है अगर सही जगह सही पात्र को किया जाए तो अति उत्तम है।
      जोर जबरदस्ती से लिया दान को झटका(अपकर्म) कहा जा सकता है ।
झटका शब्द किसी अचानक हुए आघात, शारीरिक या मानसिक सदमे के लिए प्रयोग होता है। पितृ पक्ष के दान या शुल्क के लिए इस शब्द का उपयोग बिल्कुल नहीं किया जाता है। ये तो एक भक्त की भावना आहत होने की अनुभूति है,जिसे कोई भुक्त भोगी ही अनुभव कर सकता है। यदि यजमान अपने तीर्थ के अनुभव इसे इस रूप में पाए तो दोष उसका नहीं अपितु उसे उस परिस्थिति में लाने वाले पंडे या तीर्थ पुरोहित का है। स्वेच्छया दान ना होने,जोर जबरदस्ती से डांड को झटका या अपकर्म कहा जा सकता है। इस परम्परा को पारदर्शी बनाकर अंकुश लगाया जाना चाहिए। अक्षम व्यक्ति से या अत्यंत गलत पात्र को किया दान मुफ्त कमाई का साधन और पुजारियों, ट्रस्टियों, मालिकों द्वारा मनमानी मौज का साधन तो हो सकता है शुद्ध वैदिक दान की श्रेणी में नहीं आ सकता है। यह उनके आध्यात्मिक उन्नति में बाधक और नरक गामी बनाता है। यदि प्राप्त दान अच्छे उद्देश्य में लगा तभी फली भूत होगा। अन्यथा जोर जबरदस्ती से लिया दान शुभ फल दायक कभी नहीं हो सकता है और पाने वाला नरक गामी होता है। 
    “माङव्य ऋषि” को गलत दण्ड देने वाले “धर्मराज” को “विदुर” बनकर दण्ड भोगना पड़ा था। “एकलव्य” से जबरन गुरु दक्षिणा लेने वाले “गुरु द्रोणाचार्य” को अपने प्राणों की आहुति महाभारत में देनी पड़ी। राम द्वारा बालि को छुपकर मारने के लिए कृष्णावतार में एक साधारण बहेलिए के हाथ प्राणोत्सर्ग करना पड़ा। राजा दशरथ के हाथ से श्रवण कुमार को बाण लगने की कीमत उन्हें जान देकर देनी पड़ी। 
       राष्ट्र कवि राम धारी सिंह दिनकर ने रश्मिरथी का अंतिम सातवे खण्ड में अपकर्म के बारे में इंगित करते हुए कहते 
हैं -- 
पुरुष की बुद्धि गौरव खो चुकी है,
सहेली सर्पिणी की हो चुकी है,
न छोड़ेगी किसी अपकर्म को वह,
निगल ही जायगी सद्धर्म को वह ।।

पुरी मंदिर दर्शन

भारत के चार धामों में से एक माना जाने वाला पुरी स्थित श्री जगन्नाथ मंदिर, ओडिशा राज्य के प्राचीन शहर पुरी में स्थित है। भगवान विष्णु के एक रूप, जगत के पालनहार भगवान जगन्नाथ को समर्पित इस प्राचीन मंदिर में हर साल लाखों श्रद्धालु बारहों महीने आते रहते हैं। प्रसिद्ध रथ यात्रा उत्सव के दौरान यह संख्या और भी बढ़ जाती है। कलिंग स्थापत्य शैली में निर्मित, इस मंदिर में मुख्य मंदिर के अलावा कई छोटे मंदिर भी हैं, जिनसे कई रोचक कहानियाँ जुड़ी हैं। इस पवित्र मंदिर के प्रमुख देवता भगवान जगन्नाथ, उनके भाई भगवान बलभद्र और उनकी बहन देवी सुभद्रा हैं। मंदिर की वास्तुकला अद्भुत है और इसके प्राचीन द्वार भी, जो प्राचीन काल की शानदार शिल्पकला की झलक प्रस्तुत करते हैं।

       जगन्नाथ मंदिर की ओर जाने वाला बड़ा डंडा (ग्रैंड रोड) सुबह से शाम और देर रात तक भक्तों से भरा रहता है और गतिविधियों से गुलज़ार रहता है। मंदिर के अंदर और बाहर, भीड़-भाड़ के बावजूद, पूरा माहौल अद्भुत रहता है। यह एक ऐसा पवित्र स्थान है जो जीवन में एक बार ज़रूर देखने लायक है।

        मुख्य मंदिर आंतरिक प्रांगण के मध्य में एक ऊँचे चबूतरे पर स्थित है। कलिंग स्थापत्य शैली में निर्मित इस मंदिर के चार भाग हैं: विमान, जगमोहन, नट मंडप और भोग मंडप। मंदिर में दो मंदिर संरचनाएँ हैं - रेखा देउल और पीठ देउल, जहाँ विमान रेखा देउल शैली की नागर शैली का है, जबकि जगमोहन पीठ देउल शैली का है।

      संपूर्ण मंदिर दो विशाल संकेंद्रित दीवारों से घिरा हुआ है, भीतरी दीवार को 'कूर्म प्राचीर' और बाहरी दीवार, जो 20 से 24 फीट ऊँची है, को 'मेघनाद प्राचीर' कहा जाता है। बाहरी दीवार में चार द्वार हैं - पूर्वी द्वार को सिंह द्वार, पश्चिमी द्वार को व्याघ्र द्वार, उत्तरी द्वार को हस्तिद्वार और दक्षिणी द्वार को अश्वद्वार कहा जाता है। जिन्हें बेहद रहस्यमयी माना जाता है। यह दरवाजे अलग-अलग दिशाओं में स्थित हैं।  इनको सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग, कलयुग, धर्म और ज्ञान का प्रतीक माना जाता है।

सिंह द्वार (पूर्व): पुरी के जगन्नाथ मंदिर में दर्शन का मुख्य प्रवेश द्वार सिंह द्वार है, जो मंदिर के पूर्व दिशा में स्थित है और मोक्ष का प्रतीक माना जाता है। इस द्वार पर जय और विजय नाम के भगवान विष्णु के द्वारपाल, साथ ही गरुड़ देव, शेर और अरुण स्तंभ विराजमान हैं।  

     पूर्वी भाग में खुले आसमान के नीचे से श्रद्धालुओं की कतारें लगनी शुरू हो जाती हैं। बीच बीच में वेंडर अपने समानों की बिक्री लाइन में घुस घुस कर करते हैं। बाद में शेड में कतारें आ जाती हैं। ये घुमावदार पैदल पथ पर स्टील के बेंच भी जुड़ी होती है और श्रद्धालु यदि आवश्यक समझे तो बैठ कर अपनी थकान दूर कर सकते हैं।

        केवल हिंदुओं को ही अनुमति है और भक्तों को मंदिर के नियमों का पालन करना होता है, जिसमें उपयुक्त पारंपरिक वेशभूषा पहनना और मोबाइल फोन, कैमरा, चमड़े की वस्तुएं आदि मंदिर परिसर में न ले जाना शामिल है। दर्शन करने का समय सुबह 5 बजे से रात 9 बजे तक है, जिसमें दोपहर 11:30 से 1:00 बजे तक भोग और पूजा के लिए दर्शन बंद रहते हैं।  

      मंदिर में प्रवेश सिंह द्वार/सिंह द्वार से करें क्योंकि यह अधिक शुभ है। फिर 22 सीढ़ियां चढ़ते समय, तीसरी सीढ़ी में काले पत्थर "यमशिला" पर अपने पैर रखना न भूलें। यमशिला पर पैर रखने से उन्हें अपने सभी पापों या गलत कामों से छुटकारा मिल जाएगा और वे स्वच्छ हृदय और मन से भगवान जगन्नाथ के पास पहुंचेंगे। 

      मन्दिर में भीड़ अत्यधिक होती है। गर्भ गृह के सामने सुरक्षा के मानक नहीं अपनाए जाते हैं। सब भगवान भरोसे श्रद्धालुओं के धक्का मुक्की पर छोड़ दिए जाते हैं। मंदिर द्वारा नियत प्रसाद काउंटर को लोग बाईपास करते देखे गए हैं। फूल पत्ती प्रसाद और माला आदि चढ़ाने के लिए साइड में पुजारी को दक्षिणा देकर भगवान जी को अर्पित कराया जा सकता है। मन्दिर से निकलने का अलग रास्ता है। यात्री बाहर निकल कर अपने को बेहतर अनुभव करते हैं। बाहर निकल कर बाजार से आवश्यक खरीददारी और जल जलपान किया जा सकता है।

लाज में प्रसादी ग्रहण 

मन्दिर दर्शन करके हम लोग पूरे ग्रुप में एकत्र होकर अपने ठहरने वाले लाज पर आए। अपना अपना सामान एकत्र किया। कमरा तो लाज वाले ने नहीं दिया परन्तु बैठने की अनुमति दे रखी थी। फिर पुरी मंदिर के तरफ से मालपुवा पूड़ी शब्ज़ी आदि प्रसाद के रूप में जो आया था उसे सभी यात्रियों को वितरित किया गया।

गोमती बस स्टेशन से यात्रा वापसी 

भोजन के बाद यात्री अपनी अपनी ऑटोरिक्शा करके गोमती बस स्टेशन रवाना हुए। जहां सब लोगों के पहुंचने के बाद यात्रा वापसी की तरफ चल पड़ी।

साक्षी मन्दिर दर्शन

कुछ आधे घंटे के बाद हमारी गाड़ी हल्की बूंदाबादी में एक मंदिर पर दर्शनार्थ रुकी।इसे साक्षी मन्दिर उर्फ सखीगोपाल मंदिर या सत्यवादी गोपीनाथ मंदिर के नाम से भी जाना जाता है, पुरी के पास स्थित है, जो भगवान कृष्ण को समर्पित है। 

यह मंदिर पुरी-भुवनेश्वर राजमार्ग पर पुरी से लगभग 20 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। ऐसी मान्यता है कि जगन्नाथ पुरी की यात्रा तब तक पूरी नहीं होती जब तक कि इस मंदिर के दर्शन न कर लें।  यहां दर्शन करने के बाद हम लोग उत्तर प्रदेश के लिए झारखंड के जरिए प्रस्थान किये।


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