12 सितंबर 2025
10 सितंबर 2025 को उत्तर प्रदेश के बस्ती से प्रस्थान कर 11 सितम्बर 2025 को अयोध्या और भरत कुंड भदरसा में पिंडदान कर 12 सितंबर 2025 को काशी गंगा स्नान करके पिशाच मोचन वाराणसी में पिंडदान और तर्पण किया था। लगभग दोपहर को बिहार गया श्राद्ध और तर्पण के लिए प्रस्थान किया था। बिहार प्रवेश कर औरंगाबाद में पुनपुन नदी का पिंडदान के लिए विशेष महत्व है। गयाजी जाने से पहले यहां स्नान तर्पण और पिंडदान करना आवश्यक माना जाता है। पौराणिक कथाओं के अनुसार भगवान श्रीराम और अहिल्याबाई होलकर ने भी यहां पिंडदान किया था। श्री राम सीता और लक्ष्मण के साथ सबसे पहले यहीं पिंडदान किया था।
प्राचीन काल से पुनपुन नदी घाट पर पिंडदान और तर्पण करने के बाद गया के 52 वेदी पर पिंडदान और तर्पण करने की परंपरा रही है। इसके बाद श्री राम जी ने गया जाकर पूर्ण पिंडदान किया, जिसके कारण इसे मोक्ष दायिनी का प्रथम द्वार माना जाता है। पौराणिक कथाओं के अनुसार, इस स्थल पर गयासुर राक्षस का चरण है। गयासुर राक्षस को वरदान प्राप्त था कि सर्वप्रथम उसके चरण की पूजा होगी। उसके बाद ही गया में पितरों को पिंडदान होगा। आदिगंगा पुनपुन में पिंडदान करने के बाद ही गयाजी में किया गया पिंडदान पितरों को स्वीकार्य होता है।
माना यह भी जाता है कि महाभारत युग में भगवान श्रीकृष्ण भी यहां आए थे। मान्यता यह भी है कि पुनपुन क्षेत्र में मरने वाले व्यक्ति के पार्थिव देह को दूसरी जगह नहीं ले जाना चाहिये। पुनपुन तट पर दाह संस्कार करने से जीव को सद्गति प्राप्त हो जाती है।
पुनपुन नदी गंगा की एक सहायक नदी है। यह झारखंड के पलामू जिले से निकलती है और झारखंड और बिहार के चतरा , गया ,औरंगाबाद, जहानाबाद और पटना जिलों से होकर बहती है । पटना में पुनपुन नदी के नाम पर ही पुनपुन नाम का एक स्थान है। फतुहा बिहार राज्य के पटना ज़िले का एक उपनगर है। यहाँ पुनपुन नदी का गंगा नदी से संगमस्थल बनाकर गंगा में बिलीन हो जाती है। गरुड़ पुराण में कहा गया है कि प्राचीन काल में कीकट (मगध) राज्य (वर्तमान झारखंड) के दक्षिणी भाग के पलामू वन में सनक, सनंदन, सनातन, कपिल और पंचशिख ऋषि घोर तपस्या कर रहे थे। तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्मा प्रकट हुए। ऋषियों ने ब्रह्मा के चरण धोने के लिए जल की खोज की। जब उन्हें जल नहीं मिला तो ऋषियों ने अपना पसीना एकत्र किया। जब उस पसीने को कमंडल में रखा जाता तो कमंडल उल्टा हो जाता। इस प्रकार कमंडल के बार-बार घूमने से अनायास ही ब्रह्मा के मुख से पुनपुना शब्द निकल पड़ा। इसके बाद वहां से जल की एक अविरल धारा निकल पड़ी। इस कारण ऋषियों ने उसका नाम पुनपुना रखा, जो अब पुनपुन नाम से प्रसिद्ध है।
ब्रह्मदेव ने सप्त ऋषियों को आशीर्वाद देते हुए कहा था कि जो कोई भी इस नदी के तट पर पिंडदान करेगा, उसके पूर्वज स्वर्ग जाएंगे। जिससे इसे आदि गंगा कहा जाने लगा। ब्रह्माजी ने कहा था -
''पुनपुना नदी सर्वषु पुण्या,
सदावह स्वच्छ जल शुभप्रदा।''
तभी से पितृ पक्ष के दौरान पुनपुन नदी के तट पर पहला पिंडदान करने की परंपरा सदियों से चली आ रही है।
मोक्ष का प्रथम द्वार :-
कहा जाता है कि भगवान राम एक बार अपने पूर्वजों की आत्मा की शांति के लिए माता जानकी के साथ इसी पुनपुन नदी घाट पर आए थे। उन्होंने सबसे पहले यहीं पिंडदान किया था। इसके बाद उन्होंने गया जाकर पूर्ण पिंडदान किया, जिसके कारण इसे मोक्ष का प्रथम द्वार माना जाता है। गया के पहले बीच रास्ते में पुनपुन गया में भी पिंडदान का स्थल स्थित है। यह स्थान गया के पिण्ड तर्पण शृंखला में दर्ज है। सुविधा के लिहाज से ये स्थल नया था। एवम् भीड़ कम थी और पंडे भी नए-नए थे । इस नदी के घाट कच्चे है। इसमें उतरना खतरे से खाली नहीं है। इसी नदी के जल से पिंडदान होता है। प्रायः सब सीनियर सिटीजन ही होते हैं और राज्य सरकार को इसका विकास सही ढंग से ना करना कर्तव्य और मानवता के प्रति घोर लापरवाही है।
सुविधा के लिहाज से यह अयोध्या के भदरसा भरत कुंड और पिशाच मोचन वाराणसी से बहुत ही निम्न कोटि का रहा।
फिलहाल दान चढ़ावा में कोई किसी तरह का जोर जबरदस्ती नहीं था और सब लोग अपनी इच्छा समर्थ के अनुसार पैसा खर्च कर रहे थे। यहां भीख मांगने वाले भिखारियों की संख्या ज्यादा थी।
यहां का पिण्ड दान पूरा करके दोपहर बाद गया जी के लिए प्रस्थान किया और शाम को समय से गया पहुंच गए । शाम का भोजन राजा मैरिज हाल मानपुर रोड गया जी में बना और सभी आराम से अपने-अपने कमरों में शिफ्ट हो गए।
वैसे तो देश में 55 से ज्यादा ऐसी जगहें हैं जहां पिंडदान किया जाता है, लेकिन बिहार के गया में इसका खास महत्व है। यही वह जगह है जहां परंपरा, कथा और आस्था तीनों एक साथ मिलते हैं। यही वजह है कि आज भी कोई बेटा या बेटी जब अपने पितरों की आत्मा की शांति चाहता है, तो पहला ख्याल गया का ही आता है।
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