ना जाने क्यों
भूमिजनों से आकर्षण नहीं
हो पाता है।
ना जाने क्यों
भूतजनों से मन विचलित
हो जाता है।
मन संबद्ध हुआ
विषयों में तो ये समय
कट जाता है।
रिक्त समय में वह अतीत की
यादों में खो जाता है।।
ना जाने क्यों
वृक्ष-शाखायें अब बेगानी लगती
हैं।
जिसे कभी ना छोड़ता था
रस गंधहीन सी लगती हैं।
समय ने मुझको अलग
किया तुम भी हमें बिसरा
बैठे।
मंद हंसी के पीछे भी
कुछ गुप्त कहानी लगती है।।
यह असार संसार
भले हो काम भले
ही ना आये।
पर कुछ करने
के खातिर यह माध्यम बन
जाता है।
अच्छे बुरे का अनुभव देता
ज्ञान अज्ञान यहां होता है।
अपनी क्षमता के हिसाब से
यह सदगति भी देता है।।
अभी बनवास ना खत्म हुआ
अभी ना शाप मिटा
है।
मातृभूमि से दूर दराज
में यह तन मन
अटका है।
दिन प्रतिदिन जो नये नये
अनुभव जीवन का आते हैं।
मन निश्चिन्त ना
हुआ अभी यह पल पल
में भटकाते हैं।
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