रावण रामायण का एक विशेष पात्र और केंद्रीय प्रतिचरित्र है। वह लंका का राजा था। वह अपने दस सिरों के कारण भी जाना जाता था (साधारण से दस गुणा अधिक मस्तिष्क शक्ति), जिसके कारण उसका नाम दशानन {दश (दस) + आनन (मुख)} भीथा। उसके जन्म मृत्यु तथा शव के बारें में कुछ रोचक जानकारियां प्रस्तुत किया जा रहा है।
जन्म का कारण :- हिन्दू धर्म में रावण के जन्म के तीन प्रमुख कारण बतलाये गये हैं।
1. जय विजय को श्राप :-एक बार पांच वर्ष के जान पड़ते सनकादि मुनि सभी लोकों की यात्रा पर निकले। जब वे बैकुंठ लोक के दरवाजे पर श्री हरी विष्णु के दर्शन करने पहुंचे तो दरवाजे पर खड़े दो द्वारपालों जय-विजय ने उन्हें वहीं रोक लिया और अन्दर नहीं जाने दिया। सनकादि मुनियों को इस पर क्रोध आ गया। उन्होंने उसी समय उन दोनों को श्राप दिया कि तुमने एक मुनि का अपमान किया है। इसलिए तुम मृत्युलोक में उस योनी में जन्म लोगे जहाँ काम, क्रोध और लोभ का वास होगा। उन्होंने ने सनकादि मुनियों से क्षमा मांगने लगे। उन्होंने कहा, “भगवन हम अवश्य अपराधी हैं और हमें अपने अपराध का उचित दंड मिला है। हम इस दंड के लिए तैयार हैं परन्तु हम पर कुछ दया कीजिये और कोई ऐसा उपाय कीजिये कि ऐसी पापी योनि में जन्म लेकर भी हम भगवान् का नाम लेते रहें।” सनकादि मुनि भगवान् विष्णु को प्रणाम कर आगे की यात्रा पर चले गये। इसके बाद उन्होंने अपने द्वारपालों को बताया कि एक बार बैकुंठ में प्रवेश करती हुयी लक्ष्मी जी को भी तुमने रोका था और उन्होंने भी तुम्हें श्राप दिया था। तुम दैत्य योनि में जन्म लोगे और मैं भी मृत्युलोक में जन्म लेकर तुम्हारा संहार करूँगा। इस प्रकार तुम शीघ्र ही यहाँ वापस आओगे।
2.
हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु की कथा :- श्राप के कारण जय विजय ने महर्षि कश्यप की पत्नी दिति
के गर्भ से जन्म लिया। उनके नाम हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु रखे गए। दोनों बहुत ही बलवान
थे। उन्होंने जल्दी ही उत्पात मचाना आरम्भ कर दिया।तब हिरण्याक्ष लड़ने के लिए एक प्रतिद्वंदी
की तलाश करने लगा। उसी समय भगवान् विष्णु वराह अवतार लेकर धरती को हिरण्याक्ष की कैद
से छुड़ाने पहुंचे। पहले उन्होंने धरती को समुद्र से बाहर निकाल कर उनके स्थान
पर पहुँचाया। उसके बाद उन्होंने हिरण्याक्ष का संहार कर दिया। हिरण्याक्ष की मृत्यु
के बाद हिरण्यकशिपु ने पूरे परिवार को संभाला और उसके बाद ब्रह्मा जी की तपस्या करने
लगा। ब्रह्मा जी ने उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर उसे उसके द्वारा माँगा गया वरदान दिया।
जिसके अनुसार उसकी मृत्यु किसी मनुष्य, पशु, देवता, दैत्य, नाग आदि से न हो। अस्त्र-शस्त्र
से, पृथ्वी आकाश में कहीं भी उसकी मृत्यु न हो। हिरण्यकशिपु की मृत्यु का कारण उसी
का सबसे छोटा पुत्र प्रह्लाद बना। जो भगवान् विष्णु का भक्त था। हिरण्यकशिपु के बार-बार
समझाने पर भी जब प्रह्लाद ने अपनी भक्ति का त्याग न किया तो हिरण्यकशिपु ने उसे मरवाने
के बहुत प्रयास किये। इसी प्रयास में एक खम्भे से भगवान विष्णु नृसिंह का अवतार लेकर
प्रकट हुए और हिरण्यकशिपु का अंत कर दिया। इसके बाद ही त्रेतायुग में हिरण्याक्ष और
हिरण्यकशिपु या यूँ कहें कि जय-विजय का जन्म रावण और कुम्भकर्ण के रूप में हुआ।
3. राजा प्रतापभानु की कथा :- रामचरितमानस के अनुसार कैकेय देश में
सत्यकेतु नमक एक राजा थे। उनके दो पुत्र हुए बड़े पुत्र का नाम प्रतापभानु और छोटे का
अभिमर्दन था। नियम अनुसार राजा सत्यकेतु के बाद प्रतापभानु को राजा बनाया गया। प्रतापभानु
सरे काम वेदों और शास्त्रों के अनुसार ही करते थे। वे ब्राह्मणों और संतो का विशेष
आदर करते थे। उन्होंने सारी पृथ्वी पर विजय पताका फहरा कर अपना साम्राज्य स्थापित कर
लिया।एक बार राजा प्रतापभानु जंगल में शिकार कर रहे थे। तभी अचानक उन्हें एक जंगली
सूअर मिला। उसका पीछा करते-करते प्रतापभानु जंगल के अन्दर पहुँच गए और रास्ता भटक गए।
सूअर भी न जाने कहाँ जाकर छिप गया। वहां उन्हें एक मुनि दिखाई दिए। वह एक कपटी मुनि
था। पहले वह एक राज्य का राजा हुआ करता था। एक युद्ध में वह राजा प्रतापभानु के हाथों
हार गया था। वह भेष बदल कर वाही जंगल में रहने
लगा। परन्तु इस बात का ज्ञान राजा प्रतापभानु को न था। जब राजा प्रतापभानु उसे मिले
तो उस कपटी मुनि ने अपनी बातों से राजा प्रतापभानु का विश्वास जीत लिया। उस मुनि ने
राजा प्रतापभानु से कहा कि उसके जीवन में संकट सिर्फ ब्राह्मणों के शाप से ही आ सकता
है। इसलिए सभी ब्राह्मणों को निमत्रण देकर उन्हें भोजन करवाओ। इस प्रकार सभी ब्राह्मण
तुम्हारे अधीन हो जाएँगे और तुम्हारे जीवन में कभी कोई कष्ट नहीं आएगा। लेकिन
ये भोजन मैं बनाऊंगा। वही राक्षस था जो जंगली सूअर का भेष धारण कर राजा प्रतापभानु
को यहाँ लेकर आया था। उस राक्षस का नाम कालकेतु था। उनका संहार भी राजा प्रतापभानु
ने ही किया था। अब दोनों मिल कर राजा प्रतापभानु से बदला के लिए एक चक्रव्यूह
रचा। सोते हुए राजा को मायावी राक्षस उसके राज्य में छोड़ आया।तीन दिन बाद वही राक्षस
कालकेतु पुरोहित का भेष बना कर राजा प्रतापभानु के पास गया और जंगल की बात याद करवाई।
उसके बाद राजा प्रतापभानु ने एक लाख ब्राह्मणों को निमंत्रण भेजा। राक्षस ने बहुत सारे
व्यंजन बनाये। उसनेकई जानवरों के मांस को और ब्राह्मणों के मांस को भी पकाया। जब ब्राह्मण
भोजन ग्रहण करने बैठे तभी आकाशवाणी हुयी। जिससे सभी ब्राह्मणों को पता चला कि उनके
सामने मांस परोसा गया है। इतना पता चलते ही सभी ब्राह्मणों ने राजा प्रतापभानु को श्राप
दिया कि वो आगे जाकर राक्षस बन जाएँगे। इधर उस कपटी मुनि को ये खबर मिलते ही उसने आस-पास
के सभी राजाओं को एकत्रित किया और राजा प्रतापभानु के राज्य पर आक्रमण कर दिया। फिर
जो युद्ध हुआ उसमे सत्यकेतु का सारा वंश समाप्त हो गया।वही राजा प्रतापभानु बाद में
रावण के रूप में जन्मा और उसका भाई अभिमर्दन कुम्भकर्ण के रूप में। राजा प्रतापभानु
का मंत्री धर्मरूचि रावण के सौतेले भाई विभीषण के रूप में जन्मा।
रावण के गुण :- रावण को चारों वेदों का ज्ञाता कहा गया है। संगीत के क्षेत्र में भी रावण की विद्वता
अपने समय में अद्वितीय मानी जाती है। वीणा बजाने में रावण सिद्धहस्त था। उसने एक वाद्य
बनाया भी था जिसे जो आज के बेला या वायलिन का ही मूल और
प्रारम्भिक रूप है जिसे अब रावण हत्था कहा जाता है।रामकथा
में रावण ऐसा पात्र है, जो राम के उज्ज्वल चरित्र को उभारने काम करता है। रावण में अनेक गुण भी
थे। वह एक कुशल राजनीतिज्ञ , महापराक्रमी , अत्यन्त बलशाली , अनेकों शास्त्रों का ज्ञाता
प्रकान्ड विद्वान पंडित एवं महाज्ञानी था। रावण के शासन काल में लंका का वैभव अपने
चरम पर था इसलिये उसकी लंकानगरी को सोने की लंका अथवा सोने की नगरी भी कहा जाता है। रावण एक कुशल राजनीतिज्ञ, सेनापति और वास्तुकला का मर्मज्ञ होने के साथ-साथ
ब्रह्मज्ञानी तथा बहु-विद्याओं का जानकार था। उसे मायावी इसलिए कहा जाता था कि वह इंद्रजाल,
तंत्र, सम्मोहन और तरह-तरह के जादू जानता था। उसके पास एक ऐसा विमान था, जो अन्य किसी
के पास नहीं था। इन सभी के कारण सभी उससे भयभीत रहते थे। ब्रह्माजी के पुत्र पुलस्त्य
ऋषि हुए। उनका पुत्र विश्रवा हुआ। विश्रवा की पहली पत्नी भारद्वाज की पुत्री देवांगना
थी जिसका पुत्र कुबेर था। विश्रवा की दूसरी पत्नी दैत्यराज सुमाली की पुत्री कैकसी
थी जिसकी संतानें रावण, कुंभकर्ण और विभीषण थीं।
रावण
बुरा बना तो सचमुच में ही प्रभु श्रीराम की इच्छा से। होइए वही जो राम रचि राखा। एक
बुराई उसकी सारी अच्छाइयों पर पानी फेर देती है । विद्वान और प्रकांड पंडित होने से
अच्छे साबित नहीं हो जाते। अच्छा होने के लिए नैतिक बल का होना जरूरी है। कर्मों का
शुद्ध होना जरूरी है। शिव का परम भक्त, यम और सूर्य तक को अपना प्रताप झेलने के लिए
विवश कर देने वाला, प्रकांड विद्वान, सभी जातियों को समान मानते हुए भेदभावरहित रक्ष
समाज की स्थापना करने वाला रावण आज बुराई का प्रतीक माना जाता है इसलिए कि उसने दूसरे
की स्त्री का हरण किया था।
भारत
में रावण की पूजा :- भारत में ही ऐसे बहुत से स्थान
हैं जहां आज भी रावण की पूजा विधिवत तरीके से की जाती है। यह लोग रावण की पूजा उसके
पांडित्य के आधार पर करते हैं। इनमें से कुछ जगहें तो ऐसी हैं जहां
के निवासी रावण को अपना रिश्तेदार भी मानते हैं और इसलिए वे रावण का दहन नहीं बल्कि
पूजा करते हैं। कुछ जगहों पर रावण के पांडित्य के कारण भी उसे पूजा जाता है। इन
सभी स्थानों पर रावण की पूजा इसलिए की जाती हैं क्योंकि यहां के लोग रावण को उसकी अच्छाई
देखकर पूजते हैं। वैसे रावण बहुत विद्धावन और कर्मकांणी ब्रहाम्ण माना जाता
है, जो भगवान शिव का परम भक्त है और साथ में ही वह सभी शास्त्रों औऱ वेदों में भी परांगित
है।
रावण का शव रेगला श्रीलंका का जंगल (गुफा) :- लंकाधिपति रावण के वध के बाद हमेशा
से ही मतभेद रहे है. रावणवध के रावण के अंतिम संस्कार की जिम्मेदारी विभीषण को थी लेकिन
सिंहासन सँभालने की जल्दी में विभीषण रावण के शव को वहीं छोड़ गए । जिसके बाद नागकुल
के लोग ले गए उनको विश्वास था रावण अभी पूरी तरह से नहीं मरा है उसको फिर से जिन्दा
किया जा सकता है।
उन्होंने रावण को फिर से जीवित करने की कई बार कोशिश
भी की लेकिन उन्हें कामयाबी नहीं मिली। हारकर उन्होंने कई प्रकार के रसायनों
का प्रयोग कर रावण के शव को ममी के रूप में रख दिया
। कहा जाता है रेगला के घने जंगल में एक विशाल पर्वत है जिसमें एक खतरनाक गुफा
स्तिथ है जिसे रावण के गुफा के नाम से जाना जाता है, क्योंकि रावण ने उसी गुफा
उसी गुफा बर्षो तपस्या को थी. श्रीलंका पुरातत्व विभाग ने दावा किया है रावण की लाश
आज भी श्रीलंका के रेगला जंगल में इसका प्रमाण पाया गया है. रेगला के उस गुफा में कोई नही जाता क्योंकि रावण के शव की
रक्षा कई खूंखार जानवर और नागकुल के नाग करते है. रावण की ताबूत 18 फ़ीट लंबी
और 5 फ़ीट चौड़ी है. इतने सालों के बाद भी रावण की ताबूत आज भी रेगला
के घने जंगल में सुरक्षित है.
ReplyDeletevary nice good information
अदभुत और बहुत ही सुन्दर
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