पद्मावत
(नागमती-वियोग-खंड) के चित्रण भाव विभोर कर देते हैं।
नागमती चितउर-पथ हेरा । पिउ जो गए पुनि कीन्ह न फेरा ॥
नागर काहु नारि बस परा । तेइ मोर पिउ मोसौं हरा ॥
सुआ काल होइ लेइगा पीऊ । पिउ नहिं जात, जात बरु जीऊ ॥
भएउ नरायन बावन करा । राज करत राजा बलि छरा ॥
करन पास लीन्हेउ कै छंदू । बिप्र रूप धरि झिलमिल इंदू ॥
मानत भोग गोपिचंद भोगी । लेइ अपसवा जलंधर जोगी ॥
लेइगा कृस्नहि गरुड अलोपी । कठिन बिछोह, जियहिं किमि गोपी?॥
सारस जोरी कौन हरि, मारि बियाधा लीन्ह ? ।
झुरि झुरि पींजर हौं भई , बिरह काल मोहि दीन्ह ॥1॥
पिउ-बियोग
अस बाउर जीऊ । पपिहा निति बोलै `पिउ पीऊ’ ॥
अधिक काम दाधै सो रामा । हरि लेइ सुबा गएउ पिउ नामा ॥
बिरह बान तस लाग न डोली । रकत पसीज, भींजि गइ चोली ॥
सूखा हिया, हार भा भारी । हरे हरे प्रान तजहिं सब नारी ॥
खन एक आव पेट महँ ! साँसा । खनहिं जाइ जिउ, होइ निरासा ॥
पवन डोलावहिं, सीचहिं चोला । पहर एक समुजहिं मुख-बोला ॥
प्रान पयान होत को राखा ? । को सुनाव पीतम कै भाखा ?॥
आजि
जो मारै बिरह कै, आगि उठै तेहि लागि
हंस जो रहा सरीर मह, पाँख जरा, गा भागि ॥2॥
पाट-महादेइ
! हिये न हारू । समुझि जीऊ, चित चेतु सँभारू ॥
भौंर कँवल सँग होइ मेरावा । सँवरि नेह मालति पहँ आवा ॥
पपिहै स्वाती सौं जस प्रीती । टेकु पियास; बाँधु मन थीती ॥
धरतहिं जैस गगन सौं नेहा । पलटि आव बरषा ऋतु मेहा ॥
पुनि बसंत ऋतु आव नबेली । सो रस, सो मधुकर, सो बेली ॥
जिनि अस जीव करसि तू बारी । यह तरिबर पुनि उठिहि सँवारी ॥
दिन दस बिनु जल सूखि बिधंसा । पुनि सोई सरवर, सोइ हंसा ॥
मिलहिं
जो बिछुरे साजन, अंकस भेंटि अहंत ।
तपनि मृगसिरा जे सहैं, ते अद्रा पलुहंत ॥3॥
चढा
असाढ, गगन घन गाजा । साजा बिरह दुंद दल बाजा ॥
धूम, साम, धीरे घन धाए । सेत धजा बग-पाँति देखाए ॥
खडग-बीजु चमकै चहुँ ओरा । बुंद-बान बरसहिं घन घोरा ॥
ओनई घटा आइ चहुँ फेरी । कंत! उबारु मदन हौं घेरी ॥
दादुर मोर कोकिला, पीऊ । गिरै बीजु, घट रहै न जीऊ ॥
पुष्प नखत सिर ऊपर आवा । हौं बिनु नाह, मँदिर को छाँवा ?॥
अद्रा लाग, लागि भुइँ लेई । मोहिं बिनु पिउ को आदर देई ?॥
जिन्ह
घर कंता ते सुखी, तिन्ह गारौ औ गर्ब ।
कंत पियारा बाहिरै, हम सुख भूला सर्ब ॥4॥
सावन
बरस मेह अति पानी । भरनि परी, हौं बिरह झुरानी ॥
लाग पुनरबसु पीउ न देखा । भइ बाउरि , कहँ कंत सरेखा ॥
रकत कै आँसु परहिं भुइँ टूटी । रेंगि चली जस बीरबहूटी ॥
सखिन्ह रचा पिउ संग हिंडोला । हरियारि भूमि, कुसुंभी चोला ॥
हिय हिंडोल अस डोलै मोरा । बिरह झुलाइ देइ झकझोरा ॥
बाट असूझ अथाह गँभीरी । जिउ बाउर, भा फिरै भँभीरी ॥
जग जल बूड जहाँ लगि ताकी । मोरि नाव खेवक बिनु थाकी ॥
परबत
समुद, अगम बिच, बीहड घन बनढाँख ।
किमि कै भेंटौं कंत तुम्ह ? ना मोहि पाँव न पाँख ॥5॥
भा
भादों दूभर अति भारी । कैसे भौंर रैनि अँधियारी ॥
मंदिर सून पिउ अनतै बसा । सेज नागिनी फिरि फिरि डसा ॥
रहौं अकेलि गहे एक पाटी । नैन पसारि मरौं हिय फाटी ॥
चमक बीजु, घन गरजि तरासा । बिरह काल होइ जीउ गरासा ॥
बरसै मघा झकोरि झकोरि । मोर दुइ नैन चुवैं जस ओरी ॥
धनि सूखै भरे भादौं माहाँ । अबहुँ न आएन्हि सीचेन्हि नाहाँ ॥
पुरबा लाग भूमि जल पूरी । आक जवास भई तस झूरी ॥
थल
जल भरे अपूर सब, धरनि गगन मिलि एक ।
जनि जोबन अवगाह महँ दे बूडत ,पिउ ! टेक ॥6॥
लाग
कुवार, नीर जग घटा । अबहूँ आउ, कंत! तन लटा ॥
तोहि देखे, पिउ ! पलुहै कया । उतरा चीतु, बहुरि करु मया ॥
चित्रा मित्र मीन कर आवा । पपिहा पीउ पुकारत पावा ॥
उआ अगस्त, हरित-घन गाजा । तुरय पलानि चढे रन राजा ॥
स्वाति-बूँद चातक मुख परे । समुद सीप मोती सब भरे ॥
सरवर सँवरि हंस चलि आए । सारस कुरलहिं, खँजन देखाए ॥
भा परगास, काँस बन फूले । कंत न फिरे, बिदेसहि भूले ॥
बिरह-हस्ति
तन सालै, घाय करै चित चूर ।
वेगि आइ, पिउ ! बाजहु, गाजहु होइ सदूर ॥7॥
कातिक
सरद-चंद उजियारी । जग सीतल, हौं बिरहै जारी ॥
चौदह करा चाँद परगासा । जनहुँ जरैं सब धरति अकासा ॥
तम मन सेज करै अगिदाहू । सब कहँ चंद, खएउ मोहिं राहू ॥
चहूँ खंड लागै अँधियारा । जौं घर नाहीं कंत पियारा ॥
अबहूँ, निठुर ! आउ एहि बारा । परब देवारी होइ संसारा ॥
सखि झूमक गावैं अँग मोरी । हौं झुरावँ, बिछुरी मोरि जोरी ॥
जेहि घर पिउ सो मनोरथ पूजा । मो कहँ बिरह, सवति दुख दूजा ॥
सखि
मानैं तिउहार सब गाइ, देवारी खेलि ।
हौं का गावौं कंत बिनु, रही छार सिर मेलि ॥8॥
अगहन
दिवस घटा, निसि बाढी । दुभर रैनि, जाइ किमि गाढी ? ॥
अब यहि बिरह दिवस भा राती । जरौं बिरह जस दीपक बाती ॥
काँपै हिया जनावै सीऊ । तौ पै जाइ होइ सँग पीऊ ॥
घर घर चीर रचे सब काहू । मोर रूप-रँग लेइगा नाहू ॥
पलटि त बहुरा गा जो बिछोई । अबहुँ फिरै, फिरै रँग सोई ॥
वज्र-अगिनि बिरहिन हिय जारा । सुलुगि-सुलुगि दगधै होइ छारा ॥
यह दुख-दगध न जानै कंतू । जोबन जनम करै भसमंतू ॥
पिउ
सौ कहेहु सँदेसडा, हे भौंरा ! हे काग !
सो धनि बिरहै जरि मुई, तेहि क धुवाँ हम्ह लाग ॥9॥
पूस
जाड थर थर तन काँपा । सुरुज जाइ लंका-दिसि चाँपा ॥
बिरह बाढ, दारुन भा सीऊ । कँपि कँपि मरौं, लेइ हरि जीऊ ॥
कंत कहाँ लागौं ओहि हियरे । पंथ अपार, सूझ नहिं नियरे ॥
सौंर सपेती आवै जूडी । जानहु सेज हिवंचल बूडी ॥
चकई निसि बिछूरे दिन मिला । हौं दिन राति बिरह कोकिला ॥
रैनि अकेलि साथ नहिं सखी । कैसे जियै बिछोही पखी ॥
बिरह सचान भएउ तन जाडा । जियत खाइ औ मुए न छाँडा ॥
रकत
ढुरा माँसू गरा, हाड भएउ सब संख ।
धनि सारस होइ ररि मुई, पाउ समेटहि पंख ॥10॥
लागेउ
माघ, परै अब पाला । बिरह काल भएउ जड काला ॥
पहल पहल तन रूई झाँपै । हहरि हहरि अधिकौ हिय काँपै॥
आइ सूर होइ तपु, रे नाहा । तोहि बिनु जाड न छूटै माहा ॥
एहि माह उपजै रसमूलू । तू सो भौंर, मोर जोबन फूलू ॥
नैन चुवहिं जस महवट नीरू । तोहि बिनु अंग लाग सर-चीरू ॥
टप टप बूँद परहिं जस ओला । बिरह पवन होइ मारै झोला ॥
केहि क सिंगार, कौ पहिरु पटोरा । गीउ न हार, रही होइ डोरा ॥
तुम
बिनु कापै धनि हिया, तन तिनउर भा डोल ।
तेहि पर बिरह जराइ कै चहै उढावा झोल ॥11॥
फागुन
पवन झकोरा बहा । चौगुन सीउ जाइ नहिं सहा ॥
तन जस पियर पात भा मोरा । तेहि पर बिरह देइ झकझोरा ॥
तरिवर झरहि झरहिं बन ढाखा । भइ ओनंत फूलि फरि साखा ॥
करहिं बनसपति हिये हुलासू । मो कहँ भा जग दून उदासू ॥
फागु करहिं सब चाँचरि जोरी । मोहि तन लाइ दीन्ह जस होरी ॥
जौ पै पीउ जरत अस पावा । जरत-मरत मोहिं रोष न आवा ॥
राति-दिवस सब यह जिउ मोरे । लगौं निहोर कंत अब तोरे ॥
यह
तन जारों छार कै, कहौं कि `पवन ! उडाव’ ।
मकु तेहि मारग उडि परै कंत धरै जहँ पाव ॥12॥
चैत
बसंता होइ धमारी । मोहिं लेखे संसार उजारी ॥
पंचम बिरह पंच सर मारे । रकत रोइ सगरौं बन ढारै ॥
बूडि उठे सब तरिवर-पाता । भीजि मजीठ, टेसु बन राता ॥
बौरे आम फरैं अब लागै । अबहुँ आउ घर, कंत सभागे ! ॥
सहस भाव फूलीं बनसपती । मधुकर घूमहिं सँवरि मालती ॥
मोकहँ
फूल भए सब काँटे । दिस्टि परत जस लागहिं चाँटे ॥
फिर जोबन भए नारँग साखा । सुआ-बिरह अब जाइ न राखा ॥
घिरिन
परेवा होइ, पिउ ! आउ बेगि ,परु टूटि ।
नारि पराए हाथ है, तोह बिनु पाव न छूटि ॥13॥
भा
बैसाख तपनि अति लागी । चोआ चीर चंदन भा आगि ॥
सूरुज जरत हिवंचल तअका । बिरह -बजागि सौंह रथ हाँका ॥
जरत बजागिनि करु, पिउ ! छाहाँ । आइ बुझाउ, अँगारन्ह माहाँ ॥
तोहि दरसन होइ सीतल नारी । आइ आगि तें करु फुलवारी ॥
लागिउँ जरै, जरै जस भारू । फिर फिर भूंजेसि, तजेउँ न बारू ॥
सरवर-हिया घटत निति जाई । टूक-टूक होइ कै बिहराई ॥
बिहरत हिया करहु, पिउ ! टेका । दीठी-दवँगरा मेरवहु एका ॥
कँवल
जो मानसर बिनु जल गएउ सुखाइ ।
कवहुँ बेलि फिरि पलुहै जौ पिउ सींचै आइ ॥14॥
जेठ
जरै जग चलै लुवारा । उठहि बवंडर परहिं अँगारा ॥
बिरह गाजि हनुवंत होइ जागा । लंका-दाह करै तनु लागा ॥
चारिहु पवन झकोरे आगी । लंका दाहि पलंका लागी ॥
दहि भइ साम नदी कालिंदी । बिरह क आगि कठिन अति मंदी ॥
उठै आगि औ आवै आँधी । नैन न सूझ, मरौ दुःख-बाँधी ॥
अधजर भइउ, माँसु तनु सूखा । लागेउ बिरह काल होइ भूखा ॥
माँसु खाइ सब हाडन्ह लागै । अबहुँ आउ; आवत सुनि भागै ॥
गिरि,
समुद्र, ससि, मेघ, रबि सहि न सकहिं वह आगि ।
मुहमद सती सराहिए, जरै जो अस पिउ लागि ॥15॥
तपै
लागि अब जेठ-असाढी । मोहि पिउबिनु छाजनि भइ गाढी ॥
तन तिनउर भा, झूरौं खरी । भइ बरखा, दुख आगरि जरी ॥
बंध नाहिं औ कंध न कोई । बात न आव कहौं का रोई ?॥
साँठि नाहिं,जग बात को पूछा ?। बिनु जिउ फिरै मूँज-तनु छूँछा ॥
भइ दुहेली टेक बिहूनी । थाँभ नाहि उठि सकै न थूनी ॥
बरसै मेह, चुवहिं नैनाहा । छपर छपर होइ रहि बिनु नाहा ॥
कोरौं कहाँ ठाट नव साजा ?। तुम बिनु कंत न छाजन छाजा ॥
अबहूँ
मया-दिस्ट करि, नाह निठुर ! घर आउ ।
मँदिर उजार होत है, नव कै आई बसाउ ॥16॥
रोइ
गँवाए बारह मासा । सहस सहस दुख एक एक साँसा ॥
तिल तिल बरख बरख परि जाई । पहर पहर जुग जुग न सेराई ॥
सो नहिं आवै रूप मुरारी । जासौं पाव सोहाग सुनारी ॥
साँझ भए झुरु झुरि पथ हेरा । कौनि सो घरी करै पिउ फेरा ?॥
दहि कोइला भइ कंत सनेहा । तोला माँसु रही नहिं देहा ॥
रकत न रहा, बिरह तन गरा । रती रती होइ नैनन्ह ढरा ॥
पाय लागि जोरै धनि हाथा । जारा नेह, जुडावहु, नाथा ॥
बरस
दिवस धनि रोइ कै, हारि परी चित झंखि ।
मानुष घर घर बझि कै, बूझै निसरी पंखि ॥17॥
भई
पुछार, लीन्ह बनवासू । बैरिनि सवति दीन्ह चिलवाँसू ॥
होइ खर बान बिरह तनु लागा । जौ पिउ आवै उडहि तौ कागा ॥
हारिल भई पंथ मैं सेवा । अब तहँ पठवौं कौन परेवा ?॥
धौरी पंडुक कहु पिउ नाऊँ । जौं चित रोख न दूसर ठाऊँ ॥
जाहि बया होइ पिउ कँठ लवा । करै मेराव सोइ गौरवा ॥
कोइल भई पुकारति रही । महरि पुकारै `लेइ लेइ दही’
पेड तिलोरी औ जल हंसा । हिरदय पैठि बिरह कटनंसा ॥
जेहि
पखी के निअर होइ कहै बिरह कै बात ।
सोई पंखी जाइ जरि, तरिवर होइ निपात ॥18॥
कुहुकि
कुहुकि जस कोइल रोई । रकत-आँसु घुँघुची बन बोई ॥
भइ करमुखी नैन तन राती । को सेराव ? बिरहा-दुख ताती ॥
जहँ जहँ ठाढि होइ वनबासी । तहँ तहँ होइ घुँघुचि कै रासी ॥
बूँद बूँद महँ जानहुँ जीऊ । गुंजा गूँजि करै `पिउ पीऊ ‘॥
तेहि दुख भए परास निपाते । लोहू बुडि उठे होइ राते ॥
राते बिंब भीजि तेहि लोहू । परवर पाक, फाट हिय गोहूँ ॥
दैखौं जहाँ होइ सोइ राता । जहाँ सो रतन कहै को बाता ? ॥
नहिं
पावस ओहि देसरा:नहिं हेवंत बसंत ।
ना कोकिल न पपीहरा, जेहि सुनि आवै कंत ॥19॥
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