Monday, June 30, 2025

बेशर्म राजनीति#आचार्य डॉ राधेश्याम द्विवेदी


शायरीइन से उम्मीद न रख 
हैं ये सियासत वाले
ये किसी से भी कहीं 
मोहब्बत नहीं करने वाले।।

सेकुलर के नाम पर 
बहुमत को गाली देने वाले।
अपना उल्लू सीधा करते 
औरों को हलालने वाले।।

ना कोई जाति, ना कोई मज़हब, 
ना कोई धर्म है।
ना समाज, ना कोई इनका 
सामाजिक कर्म है।।

राष्ट्रधर्म था सर्वोपरि
 जिनके लिए वह कोई और थे
आज़ कल के नेताओं की
 राजनीति बहुत बेशर्म है।।

हमारे कुछ इने गुने लोगों की 
करतूत तो देखो।
हर तरफ़ जातिवाद की 
आग सुलगा रखी है।।

और क्या कहें इस देश की 
बेशर्म राजनीति को 
पूरे देश दुनिया की 
बुनियाद हिला रखी है।।

बेशर्म नेताओं की 
बेशर्म राजनीति हो गई ।
इनके हाथों से 
समाज की दुर्गति हो गई ।।

वक्त रहते ही  
सोई जनता को जागना होगा।
जनता को लूटना 
नेताओं की नीति हो गई ।।

बेशर्म राजनीति ने 
समाज को काट छांट दिया
हर वर्ग हर धर्म को 
जाति पातीओ में बांट दिया।।

पढ़े लिखे नहीं 
केवल कहने को डिग्री ले लिया।
बॉयमनस के बीज 
घोलते रहे जिंदगानी जो दिया।।

Thursday, June 26, 2025

69वें जन्म दिवस पर विशेष: आचार्य डॉ. राधेश्याम द्विवेदी ‘नवीन’


नाम राधेश्याम द्विवेदी है मेरा उपनाम 
पुस्तकालय सूचनाधिकारी काम करता।
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग मेरा 
आगरा मण्डल से जीवन यापन होता ।।
भारद्वाज गोत्र सरयूपारीय विप्र हूं मै
बुद्ध जन्मस्थली पावन बस्ती में रहता ।।

संक्षिप्त जीवनवृति ;- 
27 जून 1957 ई. को जन्मे डा.राधेश्याम द्विवेदी ने अवध विश्व विद्यालय फैजाबाद से बी.ए.और बी.एड. की डिग्री, गोरखपुर विश्वविद्यालय से एम.ए. (हिन्दी), एल.एल.बी.,सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय वाराणसी का शास्त्री, साहित्याचार्य, ग्रंथालय विज्ञान की (B.Lib.Sc.) डिग्री तथा “संस्कृतपंच महाकाव्येषु प्रमुख नायिकानाम् चरित्र चित्रणम तुलनात्मकम अध्ययनमच” संस्कृत साहित्य की विद्यावारिधि Ph.D. ) की डिग्री उपार्जित किया है।आगरा विश्वविद्यालय से प्राचीन इतिहास से एम.ए.डिग्री तथा ’’बस्ती का पुरातत्व : प्रारंभ से छठी शताब्दी ई तक” विषय पर दूसरी पी.एच.डी. उपार्जित किया। डा. हरी सिंह गौड़ सागर विश्व विद्यालय से पुस्तकालय विज्ञान का मास्टर डिग्री(MLIS) प्राप्त किया।आप बस्ती जिले के न्यायालयों में 1979 से 1987 तक अधिवक्ता के रूप में अपनी सेवाएं दी। राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में रचनाएं (लेख कहानी कविता और बाल साहित्य) प्रकाशित होती रही। बस्ती से प्रकाशित होने वाले साप्ताहिक ‘अगौना संदेश’ के तथा ‘नवसृजन’ त्रयमासिक का प्रकाशन व संपादन भी किया। 12 मार्च 1987 से भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण वडोदरा/आगरा मण्डल में Asstt. Librarian. Gr 1 तथा 2014 से भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण आगरा मण्डल आगरा में Assistant Library and Information Officer (राजपत्रित)पद पर कार्य कर चुके हैं। 
प्रकाशित कृतिःइन्डेक्स टू एनुवल रिपोर्ट टू द डायरेक्टर जनरलआफ आकाॅलाजिकल सर्वे आफ इण्डिया” भारत सरकार, 1930-36 (1997) पब्लिस्ड बाई डायरेक्टर जनरल, आकालाजिकल सर्वेआफ इण्डिया, न्यू डेलही। अनेक राष्ट्रीय पोर्टलों में नियमित रिर्पोटिंग कर रहे हैं।
Pravakta.com से सैकड़ों रचनाएं प्रकाशित हुई हैं। Poorvanchalmedia.com में बस्ती जिले के ब्यूरो चीफ के रूप में सफलता पूर्वक कार्य किए। 
Hindimedia.in पर अब भी आप देखे जा सकते हैं।
liveaaryaavatt.com पर अब भी आप की रचनाएं देखी जा सकती हैं।
BNTlive.com पर भी आप नियमित देखे जा सकते हैं। उगता भारत, वॉयस ऑफ बस्ती, विजयदूत आदि के आप नियमित लेखक हैं ।आकाश वाणी गोरखपुर और आगरा से समय समय पर रचनाएं प्रसारित हुई। 
अप्रकाशित रचनाएं:- 
भार्गव वंश का उद्भव तथा भगवान परशुराम की लोक रंजक लीलायें”
22 अध्याय में तथ्य परक ऐतिहासिक विश्लेषण किया गया है।
आगरावली :- 
इस संग्रह में आगरा के स्मारकों को दर्शाती कविताओं की संख्या अभी सात है। ये कविताएं आगरा में सेवा के आखिरी दिनों में लिखी गई है। 
शाश्वत मूल्यों की रचनावली :- 
इस संग्रह में कुल कविताओं की संख्या लगभग 30 है। 
राष्ट्रीय राजनीतिक रचनाएं :- 
इस संग्रह में कुल कविताओं की संख्या लगभग 36 है। 
ग्राम्यालोक :- 
इस संग्रह में कुल कविताओं की संख्या लगभग 17 है। 
श्रृंगारिक नगमे :- 
इस संग्रह में कुल कविताओं की संख्या लगभग 44 है। वियोग शृंगार के 20 रचनाएं हैं।
     इस समय इतिहास के अदभुत रहस्य rsdwivedi.com ब्लॉग पर अपने विचार रखते रहते हैं। स्मृति शेष डा. मुनि लाल उपाध्याय 'सरस' के “ बस्ती मण्डल के छन्दकार” तृतीय भाग के प्रकाशन की योजना में प्रयत्नरत हैं।
पता स्थाई: ग्राम मरवटिया पाण्डेय, पोस्ट बरहटा थाना कप्तान गंज जिला बस्ती 272131
वर्तमान पता: 8/ 2785,निकट लिटिल फ्लावर स्कूल, आनन्द नगर,कटरा, जिला बस्ती 272001
(मोबाइल नंबर: 8630778321
वर्डसप नम्बर: 9412300183)
(ईमेल: rsdwivediasi@gmail.com)


विश्व के एक विकसित देश पर कुछ छड़िकाएं #आचार्य डॉ राधेश्याम द्विवेदी



1.समरथ को नहीं दोष गुसाईं ।

सत्य सनातन और पुरातन बात हई 
तुलसी ने मानस रामायण में कहई।
शुभ अरु असुभ सलिल सब बहई।
सुरसरि कोउ अपुनीत न कहई॥
समरथ कहुँ नहिं दोषु गोसाईं।
रबि पावक सुरसरि की नाईं॥


 2. पिछलग्गू बना बेस बनाता है।

एक समरथी दबदबा बनाने के लिए 
बादशाहत को जबरन बनाता है।
विश्व के दो मतावलंबी देशों में
हथियार सप्लाई कर उकसाता है।
सहायता के नाम पर दबाव डाल
पिछलग्गू बना अपना बेस बनाता है।।


3.फूट डाल हथियार सप्लाये ।

खुद ही कातिल खुद ही मसीहा 
खुद नोबल को लेना चाहे ।
अदभुत है इनकी दरियादिली
फूट डाल हथियार सप्लाये ।
उकसाकर लड़ाई लड़बाएं 
मध्यस्थता का स्वांग रचाये।।




Tuesday, June 24, 2025

भारतीय संसदीय इतिहास के कालेअध्याय के 50 साल#आचार्य डॉ राधेश्याम द्विवेदी

आपातकाल क्या है?

यह किसी देश के संविधान या कानून के अंतर्गत कानूनी उपायों और धाराओं को संदर्भित करता है जो सरकार को असाधारण स्थितियों, जैसे युद्ध, विद्रोह या अन्य संकटों, जो देश की स्थिरता, सुरक्षा या संप्रभुता तथा भारत के लोकतंत्र के लिये खतरा पैदा करते हैं, पर त्वरित एवं प्रभावी ढंग से प्रतिक्रिया करने में सक्षम बनाता है।

50 साल पहले क्या थी परिस्थितियां:- 

मामला 1971 में हुए लोकसभा चुनाव का था, जिसमें तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी जी ने अपने मुख्य प्रतिद्वंद्वी राज नारायण को पराजित किया था। लेकिन चुनाव परिणाम आने के चार साल बाद राज नारायण ने हाईकोर्ट में चुनाव परिणाम को चुनौती दी। उनकी दलील थी कि इंदिरा गांधी ने चुनाव में सरकारी मशीनरी का दुरूपयोग किया, तय सीमा से अधिक पैसे खर्च किए और मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए ग़लत तरीकों का इस्तेमाल किय। अदालत ने इन आरोपों को सही ठहराया। इसके बावजूद इंदिरा गांधी टस से मस नहीं हुईं। यहाँ तक कि कांग्रेस पार्टी ने भी बयान जारी कर कहा था कि इंदिरा का नेतृत्व पार्टी के लिए अपरिहार्य है।

संसद में भारी बहुमत की सरकार रही:- 

1967 और 1971 के बीच, प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने सरकार और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी के साथ ही संसद में भारी बहुमत को अपने नियंत्रण में कर लिया था। केंद्रीय मंत्रिमंडल की बजाय, प्रधानमंत्री के सचिवालय के भीतर ही केंद्र सरकार की शक्ति को केंद्रित किया गया।

उच्च न्यायालय द्वारा 6 साल के लिए बेदखल :- 

12 जून 1975 को इंदिरा गांधी को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने दोषी पाया और छह साल के लिए पद से बेदखल कर दिया। इंदिरा गांधी पर वोटरों को घूस देना, सरकारी मशीनरी का गलत इस्तेमाल, सरकारी संसाधनों का गलत इस्तेमाल जैसे 14 आरोप सिद्ध हुए लेकिन आदतन श्रीमती गांधी ने उन्हें स्वीकार न करके न्यायपालिका का उपहास किया । राज नारायण ने 1971 में रायबरेली में इंदिरा गांधी के हाथों हारने के बाद मामला दाखिल कराया था। जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा ने यह फैसला सुनाया था। इंदिरा गांधी जी के अपील पर 24 जून 1975 को सुप्रीम कोर्ट ने उच्च न्यायालय के आदेश बरकरार रखा, लेकिन इंदिरा को प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बने रहने की इजाजत दी ।1975 की तपती गर्मी के दौरान अचानक भारतीय राजनीति में भी बेचैनी दिखी। यह सब हुआ इलाहाबाद उच्च न्यायालय के उस फ़ैसले से जिसमें इंदिरा गांधी को चुनाव में धांधली करने का दोषी पाया गया और उन पर छह वर्षों तक कोई भी पद संभालने पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। 

25 जून 1975 को आपातकाल घोषित:- 

इंदिरा गांधी ने इस फ़ैसले को मानने से इनकार करते हुए सर्वोच्च न्यायालय में अपील करने की घोषणा की और 25 जून को आपातकाल लागू करने की घोषणा कर दी गई।

21 महीने रहा ये काला आपात काल:- 

25 जून 1975 से 21 मार्च 1977 तक का 21 महीने की अवधि में भारत में आपातकाल घोषित था। तत्कालीन राष्ट्रपति फ़ख़रुद्दीन अली अहमद ने तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी के कहने पर भारतीय संविधान की अनुच्छेद 352 के अधीन आपातकाल की घोषणा कर दी।

आपातकाल की न्यायिक समीक्षा नहीं हो सकता था,:- 

38वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 1975: इसके द्वारा राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा को न्यायिक समीक्षा से मुक्त कर दिया गया।

प्रेस पर सेंसरशिप:- 

1975 के आपातकाल के दौरान, सरकार ने प्रेस की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगाया, राजनीतिक विरोधियों को गिरफ्तार किया, और जबरन नसबंदी जैसे कई मनमाने फैसले लिए। सरकार ने समाचार पत्रों और पत्रिकाओं पर सेंसरशिप लगा दी, जिससे वे सरकार की आलोचना नहीं कर पा रहे थे. 

गिरफ्तारियां:

सरकार ने राजनीतिक विरोधियों, कार्यकर्ताओं और पत्रकारों को बिना किसी आरोप के गिरफ्तार कर लिया. राजनीतिक विरोधियों को गिरफ्तार कर लिया, और नागरिक अधिकारों को निलंबित कर दिया। यह भारत के इतिहास में एक काला अध्याय माना जाता है। 

जबरन नसबंदी:

1976 में, संजय गांधी के नेतृत्व में, सरकार ने बड़े पैमाने पर पुरुष नसबंदी अभियान चलाया, जिसमें लोगों को उनकी इच्छा के विरुद्ध देश भर में अनिवार्य पुरुष नसबंदी का आदेश दिया। इस पुरुष नसबंदी के पीछे सरकार की मंशा देश की आबादी को नियंत्रित करना था। इसके अंतर्गत लोगों की इच्छा के विरुद्ध नसबंदी कराई गयी। कार्यक्रम के कार्यान्वयन में संजय गांधी की भूमिका की सटीक सीमा विवादित है। रुखसाना सुल्ताना एक समाजवादी थीं जो संजय गांधी के करीबी सहयोगियों में से एक होने के लिए जानी जाती थींऔर उन्हें पुरानी दिल्ली के मुस्लिम क्षेत्रों में संजय गांधी के नसबंदी अभियान के नेतृत्व में बहुत कुख्याति मिली थी।

संविधान का दुरुपयोग:- 

आपातकाल लगाने के लिए संविधान के कुछ प्रावधानों का दुरुपयोग किया गया, जिससे नागरिक अधिकारों का उल्लंघन हुआ। नागरिकों के मौलिक अधिकारों को निलंबित कर दिया गया, जिससे सरकार को बिना किसी कानूनी प्रक्रिया के लोगों को गिरफ्तार करने और हिरासत में लेने की अनुमति मिल गई. 

मीसा और डीआईआर का दुरुपयोग:- 

आंतरिक सुरक्षा अधिनियम (मीसा) और रक्षा और आंतरिक सुरक्षा नियम (डीआईआर) जैसे कानूनों का दुरुपयोग किया गया ताकि लोगों को बिना किसी आरोप के गिरफ्तार किया जा सके और उन्हें हिरासत में रखा जा सके. 

लोकतंत्र का दमन:- 

आपातकाल ने भारतीय लोकतंत्र को गहरा आघात पहुंचाया और सरकार की आलोचना करने वाली आवाजें दबा दी गईं. आपातकाल के दौरान हुई इन मनमानीयों के कारण, इसे भारत के इतिहास में एक काला अध्याय माना जाता है. 


लेखक परिचय:-

(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए सम सामयिक विषयों,साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं।

 (मोबाइल नंबर +91 8630778321; 

वॉर्ड्सऐप नम्बर+919412300183)







Monday, June 23, 2025

मेजर डा.अभिषेक द्विवेदी के 44वें जन्म दिन पर सस्नेह हार्दिक शुभकामनाएं और आशीर्वाद


तुम पास रहो या दूर रहो 
या अपने कामों में व्यस्त रहो।
हम मात पिता की यादों में 
हर पल तुम ही तुम रहते हो।।
तुम फूलो फलों खुश भी रहो 
मेरी चिन्ता कभी मत करना।
हम सूखे दरख़्त हैं इस युग के 
हमे उसकी मर्जी तक रहना।।
भवसागर पार करे या डुबो दे 
सब अच्छा ही अच्छा करता है।
अब उसका ही सहारा है सबको 
जो जिसको आए करता है।।
तेरी बाग रहे सदा हरी व भरी
तुम सबको छाया फल देते रहना।
जीवन जो कुछ भी मिला तुझे
उसको धन्यवाद देते रहना।।
उस कठिन समय में संघर्ष
कुछ कर्म विशेष करने रहना।
इस दुनिया में कुछ स्थाई नहीं
सत्कर्म में सदैव लगे रहना।।

Saturday, June 21, 2025

दक्षिण एशिया में शक्ति पूजा के विविध आयाम#आचार्य डॉ राधेश्याम द्विवेदी


हिन्दू धर्म में चार प्रमुख सम्प्रदाय हैं-वैष्णव, शैव, शाक्त और स्मार्त। ये सम्प्रदाय, हिन्दू धर्म के भीतर विभिन्न देवताओं और दर्शनों पर ध्यान केंद्रित और हिन्दू धर्म के भीतर विभिन्न विश्वासों और प्रथाओं को दर्शाते हैं, फिरभी वे सभी एक ही सनातन धर्म का हिस्सा हैं।
1. वैष्णव:- 
यह सम्प्रदाय भगवान विष्णु को सर्वोच्च मानते हैं और उनकी विभिन्न अवतारों और स्वरूपों की पूजा करते हैं।
2. शैव:- 
यह सम्प्रदाय भगवान शिव को सर्वोच्च मानते हैं और उनकी विभिन्न अवतारों और स्वरूपों की पूजा। उनकी पूजा करते हैं।
3. शाक्त:- 
यह सम्प्रदाय देवी (शक्ति) को सर्वोच्च मानते हैं और उनकी विभिन्न स्वरूपों की पूजा करते हैं।
4. स्मार्त:- 
यह सम्प्रदाय, पांच देवताओं (गणेश, विष्णु, शिव, सूर्य और देवी) को एक समान मानते हैं और उनकी पूजा करते हैं।
शाक्तधर्म शक्ति की साधना का विज्ञान:- 
हिन्दू धर्म के चार प्रमुख सम्प्रदायों में से शाक्त एक प्रमुख संप्रदाय एवम् पूजा- साधना की पद्धति है। शाक्तवाद दक्षिण एशिया में विभिन्न देवी परम्पराओं को नामित करने वाला आम शब्द है, जिसका सामान्य केन्द्र बिन्दु देवियों की पूजा है। शाक्त शब्द का अर्थ शक्ति (देवी) की पूजा करने वाला होता है । यह शक्ति की साधना का विज्ञान है। इसके मतावलंबी शाक्त धर्म को भी प्राचीन वैदिक धर्म के बराबर ही पुराना मानते हैं। उल्लेखनीय है कि इस धर्म का विकास वैदिक धर्म के साथ ही साथ या सनातन धर्म में इसे समावेशित करने की ज़रूरत के साथ ही हुआ है।
शक्ति साधना के विभिन्न स्वरूप:- 
.तांत्रिक परंपराएं:- 
शक्ति पूजा में तांत्रिक परंपराएं भी शामिल हैं, जो देवी की पूजा के लिए विशिष्ट अनुष्ठानों और मंत्रों का उपयोग करती हैं। 
२.चौसठ योगिनियों के रूप में योगदान:- 
योगिनियों की उत्पत्ति के बारे में विभिन्न कथाएं हैं। एक कथा के अनुसार, देवी काली ने दैत्य घोर का वध करने के लिए 64 योगिनियों का रूप धारण किया था। 
चौसठ योगिनी हिंदू धर्म की तांत्रिक परंपरा में देवी शक्ति के 64 रूपों का एक समूह है।ये योगिनियां देवी के विभिन्न पहलुओं का प्रतिनिधित्व करती हैं, जैसे ज्ञान, शक्ति, सौंदर्य और करुणा आदि। चौसठ योगिनी मंदिरों को अक्सर गोलाकार या आयताकार संरचनाओं में बनाया जाता है, जिनमें प्रत्येक में 64 छोटे कक्ष होते हैं, जो प्रत्येक योगिनी को समर्पित होते हैं। यहां सूर्य के गोचर के आधार पर ज्योतिष और गणित की शिक्षा दी जाती प्रदान की जाती थी। इनके मंदिर में 64 कमरे होते हैं और हर कमरे में भघवान शिव और योगिनी की मूर्ति स्थापित होती है। इसी कारण इसे चौसठ योगिनी मंदिर कहा जाता है। दिन ढलने के पश्चत यहां तंत्र साधक(अघोरी) आते हैं और भगवान शिव की योगिनियों को जाग्रत करने का प्रयास करते हैं। मंदिर को "तांत्रिक विश्वविद्यालय" के रूप में भी जाना जाता है, क्योंकि यह माना जाता है कि यहां तंत्र-मंत्र की शिक्षा दी जाती थी। सात माताएँ या सप्तमातृका (ब्राह्मी, माहेश्वरी, कौमारी, वैष्णवी, वाराही, इंद्राणी (ऐंद्री) और चामुंडी), चंडी और महालक्ष्मी से मिलकर नौ-मातृका समूह बनाती हैं। प्रत्येक मातृका को एक योगिनी माना जाता है और वह 8 अन्य योगिनियों से जुड़ी होती है जिसके परिणामस्वरूप 64 के बजाय 81 (9 गुणा 9) का समूह बनता है।
३.ग्राम देवी - देवता की पूजा -:
भारतीय गांवों में, विभिन्न ग्राम देवताओं (गांव के देवी-देवताओं कली मां, समय मां और दिवहारे बाबा आदि) की भी पूजा की जाती है, जो अक्सर शक्ति के स्थानीय रूप होते हैं। 
४.नवरात्रि पूजन और शत चण्डी यज्ञ का विधान :- 
नवरात्रि एक प्रमुख त्योहार है जो देवी दुर्गा की पूजा के लिए समर्पित है। यह त्योहार साल में दो बार मनाया जाता है, एक बार वसंत ऋतु में और दूसरी बार शरद ऋतु में। शक्ति पूजा का भौतिक रूप इन आयोजनों में दिखाई देता है।
५. कीर्तन जागरण और देवी गीतों का विशेष आयोजन :- 
देवी स्तुति कीर्तन की प्रस्तुति, लोकगीत ने परिवेश में भक्ति, आध्यात्मिकता और सकारात्मकता का संचार किया जाता है।समाज व मंडल वासियों के सहयोग से कार्यक्रम होता है। विभिन्न स्थानों से कलाकारों को बुलाया जाता है। उन्होंने बताया कि नवरात्रि शक्ति पर्व में हम सभी इस शक्ति को सकारात्मक शक्ति के रूप में स्वयं में महसूस किया जाता है।
दक्षिण एशिया में शक्ति पूजा के विविध आयाम :- 
शक्ति पूजा के कई आयाम हैं, जिनमें दुर्गा, काली, सरस्वती, लक्ष्मी, पार्वती और त्रिपुर सुंदरी जैसी विभिन्न देवियों की पूजा शामिल है। शक्ति पूजा में देवी को ब्रह्मांड की ऊर्जा और शक्ति का स्रोत माना जाता है। शक्ति पूजा का दर्शन यह है कि देवी ही ब्रह्मांड की ऊर्जा और शक्ति का स्रोत हैं, और उनकी पूजा करने से व्यक्ति को आध्यात्मिक और भौतिक आशीर्वाद मिल सकता है। यह पूजा जीवन के विभिन्न पहलुओं, जैसे कि ज्ञान, धन, साहस, और प्रेम में सफलता प्राप्त करने के लिए की जाती है। 
देवी के विभिन्न स्वरूप :- 
शक्ति पूजा में देवी के विभिन्न रूपों की पूजा की जाती है, प्रत्येक का अपना महत्व और गुण है। दुर्गा को शक्ति, साहस और विजय की देवी माना जाता है। काली को समय, परिवर्तन और विनाश की देवी माना जाता है। सरस्वती को ज्ञान, कला और संगीत की देवी माना जाता है। लक्ष्मी को धन, समृद्धि और वैभव की देवी माना जाता है। पार्वती को प्रेम, उर्वरता और भक्ति की देवी माना जाता है।शाक्त लोग माँ देवी की पूजा शक्ति के रूप में , विभिन्न रूपों में करते हैं। इन रूपों में काली , पार्वती / दुर्गा , लक्ष्मी और सरस्वती शामिल हो सकते हैं । हिंदू धर्म की वह शाखा जो देवी की पूजा करती है, जिसे देवी के रूप में जाना जाता है, शक्तिवाद कहलाती है । शक्तिवाद के अनुयायी शक्ति को ब्रह्मांड की सर्वोच्च शक्ति के रूप में पहचानते हैं। देवी को अक्सर पार्वती (शिव की पत्नी) या लक्ष्मी (विष्णु की पत्नी) के रूप में दर्शाया जाता है। उन्हें अन्य रूपों में भी दर्शाया गया है, जैसे कि सुरक्षात्मक दुर्गा या हिंसक काली । शक्तिवाद तांत्रिक हिंदू धर्म से निकटता से जुड़ा हुआ है, जो मन और शरीर की शुद्धि के लिए अनुष्ठान और अभ्यास सिखाता है। सती और शिव एक ही ब्रह्मांडीय सिक्के के दो पहलू :- 
देवी सती और भगवान शिव की कहानी, जो एक शक्तिशाली यज्ञ से शुरू होती है और शिव के ससुर द्वारा अपमान और पत्नी सती के बाद में आत्मदाह के साथ समाप्त होती है, शक्ति की नींव रखती है। इस बात से चिंतित कि प्रतिशोधी शिव का तांडव दुनिया को नष्ट कर देगा, महाविष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से सती के शरीर को 51 या 108 टुकड़ों में काट दिया। 
शाक्त धर्म के विविध स्वरूप:- 
शाक्त संप्रदाय देवी शक्ति (आदिशक्ति) को सर्वोच्च देवता मानते हैं और उनकी पूजा करते हैं।आदिशक्ति अर्थात माता पार्वती की उपासना करने वाला सम्प्रदाय शाक्त सम्प्रदाय कहलाता है। शाक्त संप्रदाय के अनुयायी देवी शक्ति के विभिन्न रूपों और अवतारों की भी पूजा करते हैं, जैसे कि दुर्गा, काली, लक्ष्मी, आदि. शाक्त संप्रदाय के कुछ प्रसिद्ध उपसंप्रदाय हैं: श्री विद्या, काली, आदि।'शक्ति की पूजा' शक्ति के अनुयायियों को अक्सर 'शाक्त' कहा जाता है। शाक्त न केवल शक्ति की पूजा करते हैं, बल्कि उसके शक्ति-आविर्भाव को मानव शरीर एवं जीवित ब्रह्माण्ड की शक्ति या ऊर्जा में संवर्धित, नियंत्रित एवं रूपान्तरित करने का प्रयास भी करते हैं। विशेष रूप से माना जाता है कि शक्ति, कुंडलिनी के रूप में मानव शरीर के गुदा आधार तक स्थित होती है। जटिल ध्यान एवं यौन- यौगिक अनुष्ठानों के ज़रिये यह कुंडलिनी शक्ति जागृत की जा सकती है। इस अवस्था में यह सूक्ष्म शरीर की सुषुम्ना से ऊपर की ओर उठती है। मार्ग में कई चक्रों को भेदती हुई, जब तक सिर के शीर्ष में अन्तिम चक्र में प्रवेश नहीं करती और वहाँ पर अपने पति-प्रियतम शिव के साथ हर्षोन्मादित होकर नहीं मिलती। भगवती एवं भगवान के पौराणिक संयोजन का अनुभव हर्षोन्मादी-रहस्यात्मक समाधि के रूप में मनों-दैहिक रूप से किया जाता है, जिसका विस्फोटी परमानंद कहा जाता है कि कपाल क्षेत्र से उमड़कर हर्षोन्माद एवं गहनानंद की बाढ़ के रूप में नीचे की ओर पूरे शरीर में बहता है।
मान्यता :- 
हिन्दुओं के शाक्त सम्प्रदाय में भगवती काली और ललिता को ही दुनिया की पराशक्ति और सर्वोच्च देवता माना जाता है । यह पुराण वस्तुत: 'दुर्गा चरित्र' एवं 'दुर्गा सप्तशती' के वर्णन के लिए प्रसिद्ध है। इसीलिए इसे शाक्त सम्प्रदाय का पुराण भी कहा जाता है। शास्त्रों में कहा गया है- 'मातर: सर्वभूतानां गाव:' यानी गाय समस्त प्राणियों की माता है। इसी कारण आर्य संस्कृति में पनपे शैव, शाक्त, वैष्णव, गाणपत्य, जैन, बौद्ध, सभी धर्म-संप्रदायों में उपासना एवं कर्मकांड की पद्धतियों में भिन्नता होने पर भी वे सब गौ के प्रति आदर भाव रखते हैं। हिन्दू धर्म के अनेक सम्प्रदायों में विभिन्न प्रकार के तिलक, चन्दन, हल्दी और केसर युक्त सुगन्धित पदार्थों का प्रयोग करके बनाया जाता है। वैष्णव गोलाकार बिन्दी, शाक्त तिलक और शैव त्रिपुण्ड्र से अपना मस्तक सुशोभित करते हैं।
शक्ति पीठ इस सम्प्रदाय के प्रमुख आकर्षण केन्द्र रहे :- 
माता सती के शरीर के अंग और आभूषण दक्षिण एशिया के भारतीय उपमहाद्वीप में विभिन्न स्थानों पर धरती पर गिरे। ये पवित्र स्थान 51 शक्ति पीठ हैं, जिनमें से प्रत्येक संस्कृत वर्णमाला के 51 अक्षरों से जुड़ा हुआ है। शक्ति और काल भैरव सभी पीठों में मुख्य देवता होते हैं। धर्म ग्रंथ “शाक्त सम्प्रदाय” में देवी दुर्गा के संबंध में 'श्रीदुर्गा भागवत पुराण' एक प्रमुख ग्रंथ है, जिसमें १०८ देवी पीठों का वर्णन किया गया है। उनमें से भी ५१-५२ शक्ति पीठों का बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसी में दुर्गा सप्तशति भी है। इसके अलावा कालिका पुराण, शाक्त महाभागवत और ६५ तंत्र प्रमुख हैं।
      'दर्शन' शाक्तों का यह मानना है कि दुनिया की सर्वोच्च शक्ति स्त्रेण है। इसीलिए वे देवी को ही ईश्वर रूप में पूजते हैं। दुनिया के सभी धर्मों में ईश्वर की जो कल्पना की गई है, वह पुरुष के समान की गई है। अर्थात ईश्वर पुरुष जैसा हो सकता है, किंतु शाक्त धर्म दुनिया का एकमात्र ऐसा धर्म है, जो सृष्टि रचनाकार को जननी या स्त्रेण मानता है। सही मायने में यही एकमात्र धर्म स्त्रियों का धर्म है। शिव तो शव है, शक्ति परम प्रकाश है। 
शक्ति पूजा का इतिहास :- 
सिंधु घाटी सभ्यता में भी मातृदेवी की पूजा के प्रमाण मिलते हैं। चार सम्प्रदाय प्राचीन सम्प्रदाय है। गुप्त काल में यह उत्तर-पूर्वी भारत, कम्बोडिया, जावा, बोर्निया और मलाया प्राय:द्वीपों के देशों में लोकप्रिय था। बौद्ध धर्म के प्रचलन के बाद इसका प्रभाव कम हुआ। शाक्त संस्कृति’ कृष्ण काल में ब्रज में शाक्त संस्कृति का प्रभाव बहुत बढ़ा। ब्रज में महामाया, महाविद्या, करोली, सांचोली आदि विख्यात शक्तिपीठ हैं। मथुरा के राजा कंस ने वासुदेव द्वारा यशोदा से उत्पन्न जिस कन्या का वध किया था, उसे भगवान श्रीकृष्ण की प्राणरक्षिका देवी के रूप में पूजा जाता है। देवी शक्ति की यह मान्यता ब्रज से सौराष्ट्र तक फैली है। द्वारका में भगवान द्वारकानाथ के शिखर पर चर्चित सिंदूरी आकर्षक देवी प्रतिमा को कृष्ण की भगिनी बतलाया गया है, जो शिखर पर विराजमान होकर सदा इनकी रक्षा करती हैं। ब्रज तो तांत्रिकों का आज से १०० वर्ष पूर्व तक प्रमुख गढ़ था। यहाँ के तांत्रिक भारत भर में प्रसिद्ध रहे हैं। कामवन भी राजा कामसेन के समय तंत्र विद्या का मुख्य केंद्र था, उसके दरबार में अनेक तांत्रिक रहते थे।
शाक्तधर्मके'उद्देश्य' :- 
सभी सम्प्रदायों के समान ही शाक्त सम्प्रदाय का उद्देश्य भी मोक्ष है। फिर भी शक्ति का संचय करो, शक्ति की उपासना करो, शक्ति ही जीवन है, शक्ति ही धर्म है, शक्ति ही सत्य है, शक्ति ही सर्वत्र व्याप्त है और शक्ति की सभी को आवश्यकता है। बलवान बनो, वीर बनो, निर्भय बनो,स्वतंत्र बनो और शक्तिशाली बनो। इसीलिए नाथ और शाक्त सम्प्रदाय के साधक शक्तिमान बनने के लिए तरह-तरह के योग और साधना करते रहते हैं। सिद्धियाँ प्राप्त करते रहते हैं। शक्ति से ही मोक्ष पाया जा सकता है। शक्ति नहीं है तो सिद्ध, बुद्धि और समृद्धि का कोई मतलब नहीं है।
शक्तिपीठ हैं क्या है?
शिवपुराण, देवी भागवत, श्रीमद भागवत समेत समस्त पौराणिक और तंत्रचूड़ामणि, देवी गीता, देवी भागवत समेत ज्यादातर उत्तर पौराणिक ग्रंथों में शक्तिपीठों का प्रसंग मिलता है। थोड़े बहुत अंतर के साथ इनकी कहानी कॉमन सी है। इन ग्रंथों के मुताबिक भगवान शिव के मना करने के बावजूद माता सती बिना निमंत्रण के ही अपने पिता प्रजापति दक्ष के यज्ञ में पहुंच गईं थीं।
वीरभद्र ने नष्ट कर दिया दक्ष प्रजपति का यज्ञ:- 
वहां सभा में उन्होंने अपने पति भोलेनाथ का अपमान होते देखा तो बर्दाश्त नहीं कर पायीं और योगाग्नि में खुद को भस्म कर लिया था. देवर्षि नारद से यह खबर भगवान शिव को मिली तो वह सती के मोह में व्याकुल हो गए. उन्होंने तुरंत अपनी जटा खोली और लट को जमीन पर पटक दिया. इससे वीरभद्र नामक वीर पुरुष प्रकट हुआ. जिसने भोलेनाथ के आदेश पर दक्ष का वध करते हुए यज्ञ को विध्वंस कर दिया. वहीं यज्ञ पुराहित का सिर धड़ से उखाड़ लिया था. उस समय भगवान शिव भी अपनी व्याकुला के प्रभाव में माता सती के शरीर को हाथ में लेकर पूरे वेग के साथ सृष्टि में तांडव करने लगे थे।
नारायण का मिला था आशीर्वाद:- 
भगवान नारायण ने शक्ति पीठ को आशीर्वाद दिया था । इससे प्रलय की नौबत आ गई और भगवान नारायण को आगे आना पड़ा था। उस समय नारायण ने सुदर्शन चक्र से माता के शरीर के कई टुकड़े कर दिए थे। इससे भी भगवान शिव का गुस्सा शांत नहीं हुआ तो नारायण भगवान ने वरदान दिया था कि सती के अंग जहां जहां गिरे हैं, वह सभी स्थान शक्तिपीठ के रूप में जाने जाएंगे और इन सभी स्थानों पर देवी सती जीवंत भाव में रहेंगी।यही नहीं, इन स्थानों पर जो भी कोई भक्त भाव के साथ पूजा करेगा वह देवी सती की कृपा का पात्र बनेगा। इससे उसकी सभी मनोकामनाएं पूरी होंगी। यह सुनकर भगवान शिव शांत तो हो गए, लेकिन उनका वियोग कम नहीं हुआ और वह अनिश्चित काल के समाधि में चले गए थे।
      108 शक्ति पीठों की सूची:- 
शक्ति पीठों को पवित्र और धार्मिक स्थल माना जाता है। वे हिंदू धर्म की दिव्य स्त्री देवी सती को समर्पित हैं।शक्तिपीठों की संख्या को लेकर विद्वानों में अक्सर मतभेद होता है। हमारे पौराणिक और उत्तर पौराणिक ग्रंथ भी इनकी संख्या को लेकर एकराय नहीं है। ऐसे में कभी 18 तो कभी 51-52 या 72 शक्तिपीठ बताए जाते हैं।
      यह तो सबको पता है कि माता सती के अंग जहां जहां गिरे, वहां शक्तिपीठ बन गए. यह सभी शक्तिपीठ आज भी जीवंत माने जाते हैं। यह शक्तिपीठ कितने हैं और कहां कहां हैं? इसको लेकर अक्सर सवाल पूछा जाता है। वहीं इस सवाल के जवाब में अलग अलग ग्रंथों में जवाब भी अलग अलग मिलते हैं। देवी पुराण के मुताबिक माता के 51 अंग धरती पर गिरे थे। इस लिए शक्तिपीठों की संख्या भी 51 है. वहीं देवी पुराण में 108 शक्ति पीठ बताए गए हैं. इसी प्रकार देवी गीता में 72 और तंत्र चूड़ामणि में 52 शक्तिपीठों के नाम दिए गए हैं।
    पौराणिक कथाओं के अनुसार, जो 51 या 108 शक्तिपीठ हैं, ये संख्या विभिन्न हिंदू शास्त्रों में अलग-अलग है। शक्ति पीठों का उल्लेख भगवान शिव और सती के बलिदानों के वर्णन में मिलता है। सती माता राजा दक्ष और रानी प्रसूति की पुत्री थीं, जो भगवान शिव की बहुत बड़ी भक्त थीं। सती ने अपने पिता के विरुद्ध जाकर भगवान शिव से विवाह किया, जो सभी के मुख्य और सर्वोच्च देवता हैं।
      माता सती और भगवान शिव का मिलन पुरुषत्व और नारीत्व की सबसे शक्तिशाली ऊर्जा को दर्शाता है। एक बार भगवान शिव का अपमान करने के लिए राजा दक्ष ने एक भव्य यज्ञ का आयोजन किया और अपनी बेटी और दामाद को छोड़कर सभी देवी-देवताओं को आमंत्रित किया। माता सती बिना बुलाए इस यज्ञ में शामिल होना चाहती थीं, लेकिन भगवान शिव जाने से मना कर देते हैं। माता सती यज्ञ में चली गईं और उस समय उनके पति का उनके पिता राजा दक्ष ने सार्वजनिक रूप से अपमान किया। यह सुनने के बाद, उन्होंने अपनी दिव्य शक्ति निकालकर खुद को यज्ञ की अग्नि में जिंदा जला दिया।
     यह सुनकर भगवान शिव क्रोधित हो गए और उन्होंने वहां तांडव किया और राजा दक्ष का सिर काट दिया। दुखी होकर भगवान शिव ने माता सती के शरीर को उठा लिया और उनके दुःख और क्रोध से पूरे ब्रह्मांड का नाश होने का डर था। इसे रोकने के लिए भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से सती माता के शरीर के अंगों को 108 भागों में काट दिया।
        108 शक्ति पीठ सूची :- 
108 शक्तिपीठों की संख्या, उनके नामों और स्थानों का उल्लेख विभिन्न धार्मिक ग्रंथों में मिलता है। जैसे कि देवी भागवत पुराण में 108 शक्तिपीठों का वर्णन है। 108 शक्तिपीठों की सूची और उनके स्थान इस प्रकार है :- 

1.वैष्णो देवी,जम्मू:- ,यह मंदिर देवी सती के सिर के गिरने से स्थापित हुआ माना जाता है।

2.अमरनाथ देवी महामाया जम्मू और कश्मीर :- यह सती का गला गिरा था।

3. नाभा माता शक्तिपीठ :- माता सती जम्मू से 50 किमी. यहां माता की नाभि गिरी थी।

4.फुलारा माँ फुल्लारा,पश्चिम बंगाल , यहां माता की निचले होंठ गिरे थे।

5. बहुलादेवी बहुला,पश्चिम बंगाल , यहां माता का बांया हाथ गिरा था।

6.त्रिस्रोता शक्ति भ्रामरी,जलपाईगुड़ी, पश्चिम बंगाल, यहां माता का बायां पैर गिरा था।

7.दक्षिणेश्वर काली,कोलकाता, पश्चिम बंगाल:-, यहां माता का दाएँ पैर की उंगलियाँ गिरी थी।

8. कालीघाट शक्ति कालिका बीरभूम, पश्चिम बंगाल :- यह मंदिर देवी सती के दाहिने पैर के पंजे के गिरने से स्थापित हुआ माना जाता है।

9.तारापीठ देवी तारा बीरभूम, पश्चिम बंगाल :- यहां माता जी की दाहिनी आंख गिरी थी।

10.नलहाटी माँ नलतेश्वरी,हुगली, पश्चिम बंगाल :- यहां माता का गला या 'नाला' गिरा था।

11.विभाष शक्ति पीठ,कपालिनी मेदनीपुर, पश्चिम बंगाल:- यहां माता का बायां टखना गिरा था।

12.नंदिकेश्वरी देवी नंदिनी,बीरभूम, पश्चिम बंगाल:- यहां माता का गले का हार गिरा था।

13.मंगल चंडिका देवी चंडी पूर्बा बर्धमान, पश्चिम बंगाल, यहां माता की दांयी कलाई गिरी थी।

14.महिषमर्दिनी शक्ति पीठ, देवी काली बीरभूम, पश्चिम बंगाल :- इसे देवी त्रिपुर सुंदरी/तुरिता माता भी कहा जाता है।वहां देवी सती का भ्रूण गिरा था, अन्यत्र सती के भौहों के बीच का हिस्सा इस स्थान पर गिरा होना बताया गया है।

15.कंकलिताला देवी देवगर्भा,बोलपुर, पश्चिम बंगाल, यहां माता की कमर गिरी थी।

16.किरितेश्वरी देवी दाक्षायणी सती ,मुर्शिदाबाद, पश्चिम बंगाल- यहां माता के शिर का ताज गिरा था।

17.अम्बाजी आदि शक्ति अम्बाजी, गुजरात में है।अर्बुदा देवी को कात्यायनी माता का स्वरूप माना जाता है। यह मंदिर देवी सती के हृदय/ दिल के गिरने से स्थापित हुआ माना जाता है।

18.चंद्रभागा शक्ति पीठ , माँ चंद्रभागा सोमनाथ, गुजरात- यहां माता का उदर (पेट) गिरा था ।

19. पावागढ़,जगतजननी माँ कालिका , हलोल, गुजरात- यहां माता का दाहिना पैर गिरा था।

20.बहुचराजी,बहुचरा माता ,मेहसाणा, गुजरात- यहां माता का बायां हाथ गिरा था।

21.मणिबंध गायत्री पुष्कर, राजस्थान- यहां माता की कलाई गिरी थी।

22.विराट शक्ति पीठ अंबिका शक्ति भरतपुर, राजस्थान- यहां माता के बाएं पैर की उंगलियां गिरी थी।

23.जीन माता देवी जीण माता सीकर जिला, राजस्थान- यहां माता की नाक गिरी थी।

24.श्री त्रिपुर सुंदरी मंदिर,बांसवाड़ा, राजस्थान - यहां माता सती के दाहिने पैर का भाग (दक्षिण चरण) जिसमें अंगूठे भी शामिल हैं, गिरा था।

25.देवी तालाब मंदिर त्रिपुरा मलिनी जालंधर, पंजाब- यहां माता का बायां स्तन गिरा था।

26. श्री देवी कूप भद्रकाली भद्रकाली कुरुक्षेत्र, हरियाणा- यहां माता टखने की हड्डी गिरी हुई थी।

27.मनसा देवी,पंचकूला, हरियाणा- यहां माता का दांया हाथ गिरा था।

28.नैना देवी नैना देवी जोल, हिमाचल प्रदेश- यहां माता की आँखें गिरी थी।

29.चिंतपूर्णी छिन्नमस्तिका देवी ऊना, हिमाचल प्रदेश- यहां माता का पैर गिरा था।

30.ज्वाला देवी ज्वालामुखी कांगड़ा, हिमाचल प्रदेश - यह मंदिर देवी सती की जीभ के गिरने से स्थापित हुआ माना जाता है।

31.बज्रेश्वरी देवी वज्रेश्वरी कांगड़ा, हिमाचल प्रदेश - यहां माता का बायां स्तन गिरा था।

32. चामुंडा देवी चामुंडा पादर, हिमाचल प्रदेश- यहां माता का कान गिरा था।

33.योगमाया महरौली, नई दिल्ली- यहां माता का सिर गिरा था।

34.कालीमठ धारी देवी रुद्रप्रयाग, उत्तराखंड - यहां माता के शरीर निचला आधा भाग गिरा था।

35. धारी देवी मंदिर धारी देवी रुद्रप्रयाग, उत्तराखंड- यहां माता के शरीर ऊपरी आधा भाग गिरा था।

36.कुंजापुरी देवी दुर्गा अदाली, उत्तराखंड,- यहां माता का कान गिरा था।

37.पूर्णागिरी ,टनकपुर, उत्तराखंड - यहां माता का नाभि गिरा था।

38.मणिकर्णिका घाट विशालाक्षी वाराणसी, उत्तर प्रदेश - यहां माता का चेहरा या कान की बाली गिरी थी।

39.कात्यायनी उमा वृंदावन, उत्तर प्रदेश- यहां माता के बालों की लटें गिरी थी।

40. महा माया शक्तिपीठ, अमरनाथ गुफा,जंबू - यहां माता का कंठ गिरा था। इसकी शक्ति को महामाया और भैरव को त्रिसंध्येश्वर कहते हैं।

41.ललिता देवी इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश - यहां माता की अंगुलियों गिरी थी।  

42.अलोपी देवी अलोपीप्रयागराज, उत्तर प्रदेश - यहां माता के दाहिने हाथ की चार उंगलियाँ गिरी थी।

43.शाकुंभरी देवी शाकुंभरी सहारनपुर उत्तर प्रदेश - यहां माता का शिर गिरा था।

44.विंध्याचल धाम विन्ध्यवासिनी मिर्जापुर, उत्तर प्रदेश- विंध्याचल धाम में सती का कोई अंग नहीं गिरा था। यह मंदिर एक शक्तिपीठ है।यह एक पूर्ण पीठ माना जाता है, जहां माता स्वयं विराजमान हैं. मान्यता है कि यहां देवी दुर्गा ने खुद को स्थापित किया था.।

45.चामुंडा देवी भगवती जगदम्बा मथुरा, उत्तर प्रदेश - यहां माता का बालों का गुच्छा गिरा था। 

46.रामगिरी/शिवानी शिवानी चित्रकूट, उत्तर प्रदेश- यहां माता का स्तन गिरा था। 
47.बड़ी पाटन देवी ,दुर्गा, पटना, बिहार- यहां माता का दायां पैर गिरा था। 

48.छोटी पाटन देवी,दुर्गा पटना, बिहार- यहां माता का साड़ी और कपड़े गिरे थे।

49.शीतला माता ,शीतला देवी पटना, बिहार- यहां माता का कंगन गिरा था।

50.मंगला गौरी, गया, बिहार - यहां माता का स्तन गिरा था।

51.ताराचंडी , सासाराम, बिहार - यहां माता की दाहिनी आंख गिरी थी।

52.चंडिका स्थान शक्ति मुंगेर, बिहार - यहां माता का आंख गिरी थी।

53.अंबिका भवानी, सारण, बिहार- यहां माता के शरीर का धड़ गिरा था।

54.रजरप्पा छिन्नमस्ता रामगढ़, झारखंड- यहां माता का कटा हुआ सिर गिरा था।

55. जयदुर्गा शक्तिपीठ,जय दुर्गा देवघर झारखंड- यहां माता का दिल गिरा था।

56.दंतेश्वरी ,माँ दंतेश्वरी ,जगदलपुर, छत्तीसगढ़- यहां माता के दांत गिरे थे।

57.अंबाबाई मंदिर देवी महालक्ष्मी कोल्हापुर, महाराष्ट्र- यहां माता का तीसरी आंख गिरी थी।

58.तुलजा भवानी भवानी धाराशिव, महाराष्ट्र- यहां माता का दाहिना हाथ गिरा था।

59.एकवीरिका देवी,रेणुका देवी नांदेड़, महाराष्ट्र - यहां माता का बायां हाथ गिरा था।

60.कन्या आश्रम, कन्याकुमारी भगवती, कन्याकुमारी, तमिलनाडु- 
यहां माता की रीढ़ की हड्डी गिरी थी।

61.शुचिन्द्रम देवी नारायणी कन्याकुमारी, तमिलनाडु- यहां माता के ऊपरी दांत गिरे थे।

62.कामाक्षी अम्मन मंदिर,कामाक्षी चेन्नई, भारत- यहां माता की नाभि गिरी थी।

63.चामुंडेश्वरी देवी दुर्गा,मैसूरु, कर्नाटक- यहां माता के बाल गिरे थे।

64.वनशंकरी वनशंकरी बागलकोट, कर्नाटक- यहां देवी सती का दाहिना पैर गिरा था। इनका दूसरा लोकप्रिय नाम शाकंभरी भी है,

65.श्री शैलम श्रीसुंदरी त्रिपुरांतकम, आंध्र प्रदेश - यहां माता की दाहिना पायल गिरी थी।

66.पुरुहुतिका देवी मंदिर,पुरुहुतिका मातापूर्वी गोदावरी आंध्र प्रदेश- यहां माता सती का पिछला भाग/बायां हाथ गिरा था।

67.गोदावरी शक्ति विश्वेश्वरी रतनपुर, छत्तीसगढ़– यहां माता सती का बायां गाल गिरा था।

68.जोगुलम्बा मंदिर ,जोगुलम्बा आलमपुरम, तेलंगाना - यहां माता सती का उपरी दांत गिरा था। 

69.मणिक्यम्बा,द्रक्षारामम आंध्र प्रदेश - यहां माता सती का बायां गाल गिरा था। 

70.तारा तारिणी गंजम, ओडिशा-  
यहां माता सती का स्तन गिरा था। 

71.विमला मंदिर,विमलापुरी, ओडिशा- यहां माता सती का पैर गिरा था। 

72.माँ बिराजा मंदिर,गिरिजा जाजपुर, ओडिशा – यह उड़ीसा का सबसे पुराना तांत्रिक शक्तिपीठ है ,जहाँ सती माता की नाभि गिरी थी।

73.समलेश्वरी मंदिर समलेश्वरी संबलपुर, ओडिशा । यहां सती का दायां पैर गिरा था।

74 कामाख्या मंदिर कामाख्या गुवाहाटी, असम–यह मंदिर देवी सती के योनि भाग के गिरने से स्थापित हुआ माना जाता है.।

75.दीर्घेश्वरी मंदिर दुर्गा गुवाहाटी, असम यहां सती के पैर का “अंगूठा” गिरा था। 

76.ग्रतारा मंदिर,ग्रा तारा गुवाहाटी, असम- मान्यतानुसार भगवान शिव की प्रथम पत्नी सती की नाभि यहां गिरी थी।

77.महामाया,कोकराझार, असम मान्यतानुसार भगवान शिव की प्रथम पत्नी सती की गर्दन यहां गिरी 

78.जयंती जयंती पश्चिम जयंतिया हिल्स, मेघालय मान्यतानुसार भगवान शिव की प्रथम पत्नी सती की बाईं जांघ यहां गिरी थी।

79.त्रिपुर सुंदरी,गोमती, त्रिपुरा। मान्यतानुसार भगवान शिव की प्रथम पत्नी सती का दाहिना पैर यहां गिरी थी।

80.अवंती अवंतिका उज्जैन, मध्य प्रदेश- मान्यतानुसार भगवान शिव की प्रथम पत्नी सती की ऊपरी होंठ/कोहनी यहां गिरी थी।

81.नर्मदा सोनाक्षी अमरकंटक, मध्य प्रदेश- यहां सती का दायां नितम्ब गिरा था।

82.हरसिद्धि माता शक्तिपीठ हरसिद्धि माता उज्जैन, मध्य प्रदेश- यहां सती का कोहनी गिरा था।

83.महाकालेश्वर मंदिर,महाकाली उज्जैन, मध्य प्रदेश - यहां सती के होंठ के ऊपर का हिस्सा गिरा था।

84.त्रिंकोमाली शक्ति पीठम शंकरी उत्तरी प्रांत, श्रीलंका। यहां सती के पेट और जांघ के बीच का हिस्सा ऊसन्धि गिरा था।

85.नागपोशनी अम्मन मंदिर पार्वती जाफना, श्रीलंका। यहां सती की पायल गिरी थी।

86.हिंगलाज शक्तिपीठ,हिंगलाज देवी पाकिस्तान- यह मंदिर देवी सती के सिर के ऊपरी हिस्से के गिरने से स्थापित हुआ माना जाता है।

87.शारदा पीठ,देवी शारदा शारदा, कश्मीर, पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर । यहां सती का दांया हाथ गिरा था।

88.गंडकी चंडी शक्तिपीठ,गंडकी चंडी मस्तंग, नेपाल- यह मंदिर देवी सती के दाहिना गाल के गिरने से स्थापित हुआ माना जाता है।

89.गुह्येश्वरी शक्तिपीठ,गुह्येश्वरी काठमांडू, नेपाल- यह मंदिर देवी सती के दोनों घुटनों के गिरने से स्थापित हुआ माना जाता है।

90.अपर्णा शक्तिपीठ,अपर्णा बोगरा, बांग्लादेश । यहां सती के बाएं पैर की बायीं पायल (आभूषण) गिरी थी।

91.जेशोरेश्वरी शक्तिपीठ,जेशोरेश्वरी ईश्वरीपुर, बांग्लादेश– यह मंदिर देवी सती की बाईं हथेली के गिरने से स्थापित हुआ माना जाता है।

92.चट्टल भवानी शक्तिपीठ, भवानी सीताकुंडा, बांग्लादेश। यह मंदिर देवी सती की दाहिनी भुजा के गिरने से स्थापित हुआ माना जाता है।

93,.सुगंधा शक्तिपीठ,सुगंधा बरिसाल, बांग्लादेश - सुगंधा शक्तिपीठ, बांग्लादेश। यह मंदिर देवी सती की नाक के गिरने से स्थापित हुआ माना जाता है.

94.श्री शैल शक्तिपीठ महालक्ष्मी सिलहट, बांग्लादेश। यह मंदिर देवी सती की गर्दन के गिरने से स्थापित हुआ माना जाता है।

95.ढाकेश्वरी शक्तिपीठ,ढाकेश्वरी ढाका, बांग्लादेश।यहां सती के मुकुट का रत्न गिरा था।

96.दाक्षायणी शक्ति पीठ,मनसा तिब्बत- यह मंदिर देवी सती का दायां हाथ के गिरने से स्थापित हुआ माना जाता है।

97.शश्री पर्वत शक्तिपीठ, जो लद्दाख के पर्वत पर स्थित है, में माता सती के दाएं पैर की पायल गिरी थी। यह शक्तिपीठ श्रीसुंदरी देवी के नाम से प्रसिद्ध है और इसके भैरव सुंदरानंद हैं।

98.पंच सागर शक्तिपीठ,पंच सागर शक्तिपीठ उत्तर प्रदेश के वाराणसी में स्थित है। यह शक्तिपीठ माँ आदिशक्ति के वाराही स्वरुप को समर्पित है और माना जाता है कि यहाँ देवी का निचला जबड़ा गिरा था।
99. मिथिला शक्तिपी–मिथिला, बिहार: यहाँ देवी का बायां कंधा गिरा था। 

100. रत्नावली शक्तिपीठ,पश्चिम बंगाल के हुगली जिले में स्थित है. यह मंदिर रत्नाकर नदी के तट पर स्थित है और इसे कुमारी शक्तिपीठ या आनंदमयी शक्तिपीठ भी कहा जाता है. कुछ लोगों का मानना है कि यह वही स्थान है जहाँ देवी सती का माता सती का दाहिना कंधा गिरा था। 

101.रामगिरी शक्ति पीठ चित्रकूट, जिसे शिवानी शक्तिपीठ के नाम से भी जाना जाता है, उत्तर प्रदेश के चित्रकूट में स्थित–माता सती का दाहिना वक्ष (दायां स्तन) गिरा था. यहां माता सती को देवी शिवानी के रूप में पूजा जाता है।

102.ललिताम्बिका शक्ति पीठ मुख्य रूप से उत्तर प्रदेश के प्रयागराज (इलाहाबाद) में स्थित है। इसे ललिता देवी मंदिर या ललिता पीठ भी कहा जाता है. यह मंदिर प्रयागराज के मीरापुर मोहल्ले में यमुना नदी के तट पर स्थित है. यहां सती का दिल गिरा था ।

103.मदोत्तमा, श्रीलंका में स्थित है, जहाँ देवी सती के बाएं पैर की उंगली गिरी थी।  

104.काली कपाली,कपालिनी शक्तिपीठ पश्चिम बंगाल के पूर्व मेदिनीपुर जिले में विभाष (तमलुक) में स्थित है। जहां देवी सती के शरीर का बायां टखना गिरा था। यह मंदिर देवी दुर्गा को समर्पित है और इसे भीमाकाली मंदिर के नाम से भी जाना जाता है। 

105.विश्वेश्वरी, विश्वेश्वरी शक्ति पीठ, जिसे गोदावरी तीर शक्ति पीठ या सर्वशैल शक्ति पीठ के नाम से भी जाना जाता है, आंध्र प्रदेश के राजमुंदरी के पास गोदावरी नदी के किनारे स्थित है। जहां देवी सती का बायां गाल गिरा था। यहाँ देवी विश्वेश्वरी (या विश्वेशी) और भगवान शिव वत्सनाभ (या दंडपाणि) के रूप में पूजे जाते हैं। 

106.पंचवक्त्र शक्तिपीठ जिसे "वाराणसी पंचसागर" भी कहा जाता है, उत्तर प्रदेश के वाराणसी शहर में स्थित है। यह शक्ति पीठ देवी सती के निचले जबड़े का हिस्सा गिरने के कारण बना है।

107.कलमाधव,अनुपपुर, मध्य प्रदेश में स्थित है। यहां सती मां का बायां नितंब गिरा था।

108.मैहर मां, मैहर/शिवानी सतना, मध्य प्रदेश में स्थित है। यहां माता सती का स्तन गिरा था।


Thursday, June 19, 2025

बस्ती के मुंडेरवा के कल्प-वृक्ष की कहानी आचार्य डा. राधेश्याम द्विवेदी

स्वर्ग का विशेष वृक्ष :

कल्प-वृक्ष का अर्थ पुराणानुसार स्वर्ग का एक वृक्ष विशेष है जिसकी छाया में पहुँचते ही सब कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं। वेद और पुराणों में इसका उल्लेख मिलता है। यह स्वर्ग का एक विशेष वृक्ष है। यह माना जाता है कि इस वृक्ष के नीचे बैठकर व्यक्ति जो भी इच्छा करता है, वह पूर्ण हो जाती है, क्योंकि इस वृक्ष में अपार सकारात्मक ऊर्जा होती है। लाक्षणिक अर्थ में ऐसा व्यक्ति जो दूसरों की बहुत उदारतापूर्वक सहायता करता हो उसे भी कल्प-वृक्ष माना जाता है। यह एक प्रकार का वृक्ष जो बहुत अधिक ऊँचा, घेरदार और दीर्घजीवी होता है। जो लगभग 70 फुट ऊंचा होता है और इसके तने का व्यास 35 फुट तक हो सकता है। 150 फुट तक इसके तने का घेरा नापा गया है। वृक्षों और जड़ी-बूटियों के जानकारों के मुताबिक यह एक बेहद मोटे तने वाला फलदायी वृक्ष है जिसकी टहनी लंबी होती है और पत्ते भी लंबे होते हैं। दरअसल, यह वृक्ष पीपल के वृक्ष की तरह फैलता है और इसके पत्ते कुछ-कुछ आम के पत्तों की तरह होते हैं। इसका फल नारियल की तरह होता है, जो वृक्ष की पतली टहनी के सहारे नीचे लटकता रहता है। इसका तना देखने में बरगद के वृक्ष जैसा दिखाई देता है। इसका फूल कमल के फूल में रखी किसी छोटी- सी गेंद में निकले असंख्य रुओं की तरह होता है। कल्पवृक्ष का फल आम, नारियल और बिल्ला का जोड़ है अर्थात यह कच्चा रहने पर आम और बिल्व तथा पकने पर नारियल जैसा दिखाई देता है लेकिन यह पूर्णत: जब सूख जाता है तो सूखे खजूर जैसा नजर आता है।

औषधीय गुण :- 

यह एक परोपकारी मेडिस्नल-प्लांट है अर्थात दवा देने वाला वृक्ष है। इसमें संतरे से 6 गुना ज्यादा विटामिन 'सी' होता है। गाय के दूध से दोगुना कैल्शियम होता है और इसके अलावा सभी तरह के विटामिन पाए जाते हैं। इसकी पत्ती को धो-धाकर सूखी या पानी में उबालकर खाया जा सकता है। पेड़ की छाल, फल और फूल का उपयोग औषधि तैयार करने के लिए किया जाता है।  इसके पत्ते एंटी-ऑक्सीडेंट होते हैं। यह कब्ज और एसिडिटी में सबसे कारगर है। इसके पत्तों में एलर्जी, दमा, मलेरिया को समाप्त करने की शक्ति है। गुर्दे के रोगियों के लिए भी इसकी पत्तियों व फूलों का रस लाभदायक सिद्ध हुआ है। इसके बीजों का तेल हृदय रोगियों के लिए लाभकारी होता है। इसके तेल में एचडीएल (हाईडेंसिटी कोलेस्ट्रॉल) होता है। इसके फलों में भरपूर रेशा (फाइबर) होता है। मानव जीवन के लिए जरूरी सभी पोषक तत्व इसमें मौजूद रहते हैं। पुष्टिकर तत्वों से भरपूर इसकी पत्तियों से शरबत बनाया जाता है और इसके फल से मिठाइयां भी बनाई जाती हैं।

पर्यावरण के लिए मुफीद : - 

यह वृक्ष जहां भी बहुतायत में पाया जाता है, वहां सूखा नहीं पड़ता। यह रोगाणुओं का डटकर मुकाबला करता है। इस वृक्ष की खासियत यह है कि कीट-पतंगों को यह अपने पास फटकने नहीं देता और दूर-दूर तक वायु के प्रदूषण को समाप्त कर देता है। इस मामले में इसमें तुलसी जैसे गुण हैं।

पानी का पर्याप्त भंडारण :- 

पानी के भंडारण के लिए इसे काम में लिया जा सकता है, क्योंकि यह अंदर से (वयस्क पेड़) खोखला हो जाता है, लेकिन मजबूत रहता है जिसमें 1 लाख लीटर से ज्यादा पानी के भंडारण की क्षमता होती है। इसकी छाल से रंगरेज की रंजक (डाई) भी बनाई जा सकती है। चीजों को सान्द्र (Solid) बनाने के लिए भी इस वृक्ष का इस्तेमाल किया जाता है।

भारत में कहां कहां स्थित:- 

औषध गुणों के कारण कल्पवृक्ष की पूजा की जाती है। भारत में रांची, अल्मोड़ा, काशी, नर्मदा किनारे, कर्नाटक आदि कुछ महत्वपूर्ण स्थानों पर ही यह वृक्ष पाया जाता है। पद्मपुराण के अनुसार परिजात ही कल्पवृक्ष है। यह वृक्ष उत्तरप्रदेश के बाराबंकी के बोरोलिया में आज भी विद्यमान है। कार्बन डेटिंग से वैज्ञानिकों ने इसकी उम्र 5,000 वर्ष से भी अधिक की बताई है। समाचारों के अनुसार ग्वालियर के पास कोलारस में भी एक कल्पवृक्ष है जिसकी आयु 2,000 वर्ष से अधिक की बताई जाती है।ऐसा ही एक वृक्ष राजस्थान में अजमेर के पास मांगलियावास में है और दूसरा पुट्टपर्थी के सत्य साईं बाबा के आश्रम में मौजूद है। कुशीनगर के सेवारही विकास खण्ड के सुमही संग्राम में भी एक पेड़ देखा गया है।

दुर्वाषा ऋषि का शाप:-

एक बार की बात है शिवजी के दर्शनों के लिए दुर्वासा ऋषि अपने शिष्यों के साथ कैलाश जा रहे थे। मार्ग में उन्हें देवराज इन्द्र मिले। इन्द्र ने दुर्वासा ऋषि और उनके शिष्यों को भक्तिपूर्वक प्रणाम किया। तब दुर्वासा ने इन्द्र को आशीर्वाद देकर विष्णु भगवान का पारिजात पुष्प प्रदान किया। इन्द्रासन के गर्व में चूर इन्द्र ने उस पुष्प को अपने ऐरावत हाथी के मस्तक पर रख दिया। उस पुष्प का स्पर्श होते ही ऐरावत सहसा विष्णु भगवान के समान तेजस्वी हो गया। उसने इन्द्र का परित्याग कर दिया और उस दिव्य पुष्प को कुचलते हुए वन की ओर चला गया। इन्द्र द्वारा भगवान विष्णु के पुष्प का तिरस्कार होते देखकर दुर्वाषा ऋषि के क्रोध की सीमा न रही। उन्होंने देवराज इन्द्र को ‘श्री’ (लक्ष्मी) से हीन हो जाने का शाप दे दिया। दुर्वासा मुनि के शाप के फलस्वरूप लक्ष्मी उसी क्षण स्वर्गलोक को छोड़कर अदृश्य हो गईं। लक्ष्मी के चले जाने से इन्द्र आदि देवता निर्बल और श्रीहीन हो गए। उनका वैभव लुप्त हो गया। इन्द्र को बलहीन जानकर दैत्यों ने स्वर्ग पर आक्रमण कर दिया और देवगण को पराजित करके स्वर्ग के राज्य पर अपनी परचम फहरा दिया। तब इन्द्र देवगुरु बृहस्पति और अन्य देवताओं के साथ ब्रह्माजी की सभा में उपस्थित हुए। तब ब्रह्माजी बोले-‘देवेन्द्र ! भगवान विष्णु के भोगरूपी पुष्प का अपमान करने के कारण रुष्ट होकर भगवती लक्ष्मी तुम्हारे पास से चली गयी हैं। उन्हें पुनः प्रसन्न करने के लिए तुम भगवान नारायण की कृपा-दृष्टि प्राप्त करो। उनके आशीर्वाद से तुम्हें खोया वैभव पुनः मिल जाएगा।’’ 

शाप मुक्ति का उपाय:- 

इस प्रकार ब्रह्माजी ने इन्द्र को आस्वस्त किया और उन्हें लेकर भगवान विष्णु की शरण में पहुँचे। वहाँ परब्रह्म भगवान विष्णु भगवती लक्ष्मी के साथ विराजमान थे। देवगण भगवान विष्णु की स्तुति करते हुए बोले,- ‘‘भगवान् ! आपके श्रीचरणों में हमारा बारम्बार प्रणाम। भगवान् ! हम सब जिस उद्देश्य से आपकी शरण में आए हैं, कृपा करके आप उसे पूरा कीजिए। दुर्वाषा ऋषि के शाप के कारण माता लक्ष्मी हमसे रूठ गई हैं और दैत्यों ने हमें पराजित कर स्वर्ग पर अधिकार कर लिया है। अब हम आपकी शरण में हैं, हमारी रक्षा कीजिए।’’ भगवान विष्णु त्रिकालदर्शी हैं। वे पल भर में ही देवताओं के मन की बात जान गए। तब वे देवगण से बोले—‘‘देवगण ! मेरी बात ध्यानपूर्वक सुनें, क्योंकि केवल यही तुम्हारे कल्याण का उपाय है। दैत्यों पर इस समय काल की विशेष कृपा है इसलिए जब तक तुम्हारे उत्कर्ष और दैत्यों के पतन का समय नहीं आता, तब तक तुम उनसे संधि कर लो। क्षीरसागर के गर्भ में अनेक दिव्य पदार्थों के साथ-साथ अमृत भी छिपा है। उसे पीने वाले के सामने मृत्यु भी पराजित हो जाती है। इसके लिए तुम्हें समुद्र मंथन करना होगा। यह कार्य अत्यंत दुष्कर है, अतः इस कार्य में दैत्यों से सहायता लो। कूटनीति भी यही कहती है किआवश्यकता पड़ने पर शत्रुओं को भी मित्र बना लेना चाहिए। तत्पश्चात अमृत पीकर अमर हो जाओ। तब दुष्ट दैत्य भी तुम्हारा अहित नहीं कर सकेंगे। देवगण ! वे जो शर्त रखें, उसे स्वीकार कर लें। यह बात याद रखें कि शांति से सभी कार्य बन जाते हैं, क्रोध करने से कुछ नहीं होता।’’ भगवान विष्णु के परामर्श के अनुसार इन्द्रादि देवगण दैत्यराज बलि के पास संधि का प्रस्ताव लेकर गए और उन्हें अमृत के बारे में बताकर समुद्र मंथन के लिए तैयार कर लिया। 

समुद्र मंथन की कथा:-

इसी समय मेघ के समान गम्भीर स्वर में आकाशवाणी हुई- 'देवताओ और दैत्यो! तुम क्षीर समुद्र का मन्थन करो। इस कार्य में तुम्हारे बल की वृद्धि होगी, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। मन्दराचल को मथानी और वासुकी नाग को रस्सी बनाओ, फिर देवता और दैत्य मिलकर मन्थन आरम्भ करो।' यह आकाशवाणी सुनकर सहस्त्रों दैत्य और देवता समुद्र-मन्थन के लिये उद्यत हो सुवर्ण के सदृश कान्तिमान् मन्दराचल के समीप गये। वह पर्वत सीधा, गोलाकार, बहुत मोटा और अत्यन्त प्रकाशमान था। अनेक प्रकार के रत्न उसकी शोभा बढ़ा रहे थे । चन्दन, पारिजात, नागकेशर, जायफल और चम्पा आदि भाँति-भाँति के वृक्षों से वह हरा-भरा दिखायी देता था। पुराणों के अनुसार समुद्र मंथन के 14 रत्नों में से एक कल्पवृ‍क्ष की भी उत्पत्ति हुई थी। समुद्र मंथन से प्राप्त यह वृक्ष देवराज इन्द्र को दे दिया गया था और इन्द्र ने इसकी स्थापना ‘सुरकानन वन’ (हिमालय के उत्तर में) में कर दी थी। माना जाता है कि धरती के किसी न किसी कोने में आज भी कल्पवृक्ष कहीं न कहीं जरूर होगा। हो सकता है कि यह हिमालय के किसी दुर्गभ स्थान पर मिले। 

चौदह रत्नों में एक प्रमुख रत्न :-

समुद्र मंथन की मिथकीय घटना के बाद जो चौदह रत्नों : श्री, मणि, रम्भा, वारुणी, अमिय, शंख, गजराज,धेनु, धनुष, शशि, कल्पतरु, धन्वन्तरि, विष और बज्र की प्राप्ति हुई हैं। 

दस चमत्कारिक वस्तुओं में भी शुमार:- 

प्राचीनकाल में ऐसी वस्तुएं थीं जिनके बल पर देवता या मनुष्य असीम शक्ति और चमत्कारों से परिपूर्ण हो जाते थे। उन वस्तुओं के बगैर व्यक्ति खुद को असहाय मानता था। कहते हैं कि ऐसी वस्तुएं आज भी किसी स्थान विशेष पर सुरक्षित रखी हुई हैं। आओ जानते हैं उन्हीं में से 10 चमत्कारिक वस्तुओं के बारे में। हो सकता है कि आप ढूंढें या तपस्या करें तो आपको भी ये वस्तुएं मिल जाएं।

कल्पवृक्ष की मान्यता:- 

वेद और पुराणों में कल्पवृक्ष का उल्लेख मिलता है। कल्पवृक्ष स्वर्ग का एक विशेष वृक्ष है। पौराणिक धर्मग्रंथों और हिन्दू मान्यताओं के अनुसार यह माना जाता है कि इस वृक्ष के नीचे बैठकर व्यक्ति जो भी इच्छा करता है, वह पूर्ण हो जाती है।पुराणों में इस वृक्ष के संबंध में कई तरह की कथाएं प्रचलित हैं। इसके अलावा कुछ विद्वान मानते हैं कि पारिजात के वृक्ष को ही कल्पवृक्ष कहा जाता है। पद्मपुराण के अनुसार पारिजात ही कल्पतरु है, जबकि कुछ का मानना है यह सही नहीं है। पुराण तो बहुत बाद में लिखे गए। दरअसल, कल्पवृक्ष को कल्पवृक्ष इसलिए कहा जाता है कि इसकी उम्र एक कल्प बताई गई है। एक कल्प 14 मन्वंतर का होता है और एक मन्वंतर लगभग 30,84,48,000 वर्ष का होता है। इसका मतलब कल्प वृक्ष प्रलय काल में भी जिंदा रहता है।पुराणों के अनुसार समुद्र मंथन के 14 रत्नों में से एक कल्प वृ‍क्ष की भी उत्पत्ति हुई थी। समुद्र मंथन से प्राप्त यह वृक्ष देवराज इन्द्र को दे दिया गया था और इन्द्र ने इसकी स्थापना ‘सुरकानन वन’ (हिमालय के उत्तर में) में कर दी थी। माना जाता है कि धरती के किसी न किसी कोने में आज भी कल्पवृक्ष कहीं न कहीं जरूर होगा। हो सकता है कि यह हिमालय के किसी दुर्गभ स्थान पर मिले। हिन्दु ग्रंथो एवं पुराणो की एक कथानुसार जब देवताओं एवं दानवों के बीच शेषनाग को लेकर समुद्र का मंथन किया गया था। तब समुद्र मंथन के दौरान अनेको प्रकार के ऐसे सजीव एवं निर्जीव सामान निकले। इस मंथन में सबसे अधिक चर्चित में कामधेनू गाय एवं कल्पवृक्ष का जिक्र होता है। कल्पवृक्ष को कल्पतरु भी कहा जाता है। मानवीय एवं संस्कारिक जीवन में इस दिव्य पेड़ मिथकीय प्राणी किन्नारा या किन्नारी भी कहा गया है। इस पेड़ को स्वर्ग में अप्सरा और देवता द्वारा संरक्षित किया गया है।

      एक अन्य कथानुसार ऋषि दुर्वासा ने भी कल्प वृक्ष के नीचे जप एवं तप किया था। कल्पवृक्ष के देवताओं के राजा इंद्र के यहां पर होने के पीछे की कहानी भी समुद्र मंथन से जुड़ी है। बताया जाता है कि मंथन के बाद देवराज इन्द्र इस पेड़ को अपने साथ स्वर्ग ले गए थे। वैसे कल्पवृक्ष को संस्कृत में मनसारा भी कहा जाता है जिसका एक शाही प्रतीक के रूप में उल्लेख किया गया है। कल्पवृक्ष को बेशकीमती सोना और कीमती पत्थरों को प्रदान करने वाला वृक्ष भी कहते है। कल्पवृक्ष को संरक्षित पेड़ के रूप में गिना जाता है। उत्तराचंल में इस पेड़ के चारों ओर एक तार जाल स्थापित करके के अलावा इसकी सुरक्षा की जवाबदेही सशस्त्र बलों के पास है। वैसे कहा तो यहां तक जाता है कि कल्पवृक्ष का पेड़ अद्वितीय गुण धारक है। यह अपने आप में एक एकल पत्ती कभी नहीं हारता, यह सदाबहार है और सुप्रीम देवत्व विष्णु के लिए जगत गुरू आदि शंकराचार्य के गहरे बैठा भक्ति निकलती होने के लिए कहा है. कल्पवृक्ष कई आध्यात्मिक, धार्मिक और पर्यावरणीय मूल्यों में शामिल है। यह पृथ्वी पर एक दिव्य पेड़ के रूप में जाना जाता है। हिमालय वाहिनी के लिए सभी को एक मिशन की तरह तीर्थयात्रियों में कल्पवृक्ष का पौधा लगाने के लिए जन आंदोलन का आयोजन होता है, मिशन हरिद्वार से शुरू कर दिया। दक्ष द्वीप कनखल में दुनिया का पहला कल्पवृक्ष को रोपित किया गया। वैसे आमतौर पर कल्पवृक्ष का रोपण नहीं होता लेकिन अब हरिद्वार तीर्थ द्वारा इसके रोपण का कार्य पूरा किया जा रहा है। इस मिशन में श्री विजय पाल बघेल के कन्वेयर यह इच्छा अधिक से अधिक पौधे रोपण, एक पवित्र वृक्ष के रूप में दुनिया भर के आध्यात्मिक और लुप्तप्राय है।

प्राचीन कल्पवृक्ष होने की पुष्टि:- 

कल्पवृक्ष के इतिहास में 8 सदी में पावन मंदिर, जावा, इंडोनेशिया में कल्पवृक्ष जिसे कल्पतरु कल्प पदुरमा, और कल्प पदपा के रूप में जाना जाता है का जिक्र मिलता है। कहा तो यहां तक जाता है कि भारत में प्राचिन कल्पवृक्ष सिर्फ दो स्थानो पर ही है। उड़ीसा राज्य के जगन्नाथ पुरी धाम एवं ज्योर्तिमठ बद्रीनाथ धाम में आदि गुरू शंकराचार्य द्वारा रोपित किया गया हुआ है। एक पौराणिक के अनुसार अतृप्त इच्छाओं को पूरा करने वाला यह दिव्य पेड़ नेशनल हाइवे 69 पर भोपाल - नागपुर के बीच होशंगाबाद जिले के केसला थाना क्षेत्र में मौजूद है। थाना परिसर क्षेत्र के इस विचित्र पेड़ के कल्पवृक्ष होने का पूरा मामला उस समय प्रकाश में आया जब वन विभाग की रिर्सच टीम यहां पर आई और उसने इसके कल्पवृक्ष होने की पुष्टि की। सभी इच्छाओं को पूरा करने वाला यह कल्पवृक्ष का पूरा पौराणिक इतिहास का पुलिस केसला और वहां पर मौजूद स्टाफ को भले ही न हो लेकिन जब भी कोई जानकार व्यक्ति यहां पर आता है तो पुलिस कल्पवृक्ष को लेकर पुराणो की कथाओं को ध्यान पूर्वक सुनना पसंद करते है। केसला (होशंगाबाद): नर्मदाचंल एंव ताप्तीचंल के बीच स्थित एक छोटे से गांव में वृक्ष को कल्पवृक्ष घोषित कर दिया है। कहा जाता है कि कल्पवृक्ष की तरह अजमेर(राजस्थान) में दो श्रद्धेय (पुरुष और महिला) पेड़ है कि 800 साल से अधिक पुराने हैं। वैसे अब इन्हे भी कल्पवृक्ष के रूप में जाना जाता है, इन पेड़ों में अमावस्या के एक दिन तथा श्रवण मास के हिंदू महीने में पूजा की जाती है। पद्म पुराण के अनुसार, इस पेड़ को परिजात का पेड़ भी कहा जाता है। प्राचीन शहतूत के पेड़ को कल्पवृक्ष के रूप में स्थानीय लोगो द्वारा जाना जाता है। 

उत्तर प्रदेश के मुंडेरवा शुगर मिल बस्ती में होने की पुष्टि:- 

मुंडेरवा चीनी मिल में एक प्रसिद्ध वृक्ष है जिसे कल्प वृक्ष या पारिजात कहा जाता है। यह वृक्ष राष्ट्रीय वानस्पतिक अनुसंधान केंद्र, लखनऊ द्वारा प्रमाणित है कि यह एडनसोनिया डिजिटाटा है, जिसे पारिजात या कल्प वृक्ष भी कहा जाता है। 

कल्प वृक्ष की पहचान :- 

मुंडेरवा चीनी मिल में स्थित इस वृक्ष को पहले एक आम वृक्ष माना जाता था, लेकिन बाद में स्थानीय लोगों की पहल के माध्यम से राष्ट्रीय वानस्पतिक अनुसंधान केंद्र, लखनऊ द्वारा जांच की गई।जांच में पाया गया कि यह वृक्ष वास्तव में एडनसोनिया डिजिटाटा है, जिसे पारिजात या कल्प वृक्ष भी कहा जाता है।  राष्ट्रीय वनस्पति अनुसंधान संस्थान लखनऊ (एनबीआरआई) ने इसे कल्पवृक्ष घोषित कर दिया है। जांच के बाद कार्यकारी निदेशक डीके उप्रेती ने बताया कि यह वृक्ष करीब साठ वर्ष पुराना है। इसका वैज्ञानिक नाम ‘एडेन सोनिया डिजिडाटा’ है। मूल रूप से यह अफ्रीकी महाद्वीप के रेगिस्तानी क्षेत्र में पाया जाता है। भारत में प्राकृतिक रूप से यह वृक्ष कहीं नहीं पाया जाता। इसे तत्कालीन चीनी मिल के चीफ केमिस्ट ने यहां लगाया था।

      आचार्य डॉ राधेश्याम द्विवेदी 

लेखक परिचय:-

(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए सम सामयिक विषयों,साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं।

 मोबाइल नंबर +91 8630778321; 

वॉर्ड्सऐप नम्बर+919412300183)


















Wednesday, June 18, 2025

विश्व का पवित्रतम रामेश्वरम युगल ज्योतिर्लिंग//आचार्य डॉ राधेश्याम द्विवेदी

दक्षिण भारत में 12 में से सिर्फ 2 ज्योर्तिलिंग हैं श्रीशैलम मल्लिकार्जुन शिवलिंग और रामनाथस्वामी ज्योतिर्लिंग। श्रीशैलम ज्योतिर्लिंग, आंध्र प्रदेश के कुरनूल ज़िले में है। यह मंदिर भगवान शिव और पार्वती को समर्पित है। यह शैव और शक्ति दोनों हिंदू संप्रदायों के लिए महत्वपूर्ण है। यहाँ शिव की आराधना मल्लिकार्जुन नाम से की जाती है।
भारत की पवित्र धरती पर कई ऐसे स्थान हैं जो आध्यात्मिक और पौराणिक महत्व से जुड़े हुए हैं। इन्हीं में से एक है तमिलनाडु का रामेश्वरम, जो भारत के दक्षिणी भाग में स्थित एक प्रमुख राज्य है, जहाँ हिंदू धर्म का प्रभाव बहुत गहरा है। यहाँ की लगभग 88% जनसंख्या हिंदू धर्म को मानती है, और यह राज्य भारतीय हिंदू धर्म की सांस्कृतिक और धार्मिक धरोहर का महत्वपूर्ण हिस्सा है। तमिलनाडु के रामनाथपुरम जिले में स्थित रामेश्वरम मंदिर हिंदू धर्म के सबसे पवित्र स्थानों में से एक है। रामेश्वरम ज्योतिर्लिंग, भगवान शिव को समर्पित एक मंदिर है। यह हिंदू धर्म के चार धामों में से एक है।
तमिलनाडु के रामेश्वरम् में है रामनाथस्वामी ज्योर्तिलिंग, जिसे श्रीराम ने समुद्र के बालू की रेत से बनाया था।इसे इस लिंक के जरिए और आसानी से समझा जा सकता है- 
https://www.youtube.com/live/E8nT5AtHTZk?si=rsUMq6v0xDPavl1C
कहा जाता है कि इस शिवलिंग का निर्माण उस समय हुआ था, जब श्रीराम लंका के राजा रावण से युद्ध करने की तैयारी कर रहे थे। तब भगवान शिव का आशीर्वाद पाने के लिए श्रीराम ने इस शिवलिंग का निर्माण कर उस पर जल चढ़ाया था। यह न केवल धार्मिक आस्था का प्रतीक है, बल्कि इसकी बनावट, पौराणिक महत्व और प्राकृतिक सौंदर्य इसे अद्वितीय बनाते हैं।  यह मंदिर भगवान शिव के 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक है और पूरी दुनिया में अपनी खास पहचान रखता है। हिंद महासागर और बंगाल की खाड़ी के बीच स्थित यह मंदिर धार्मिक आस्था, वास्तुकला और पौराणिक कथाओं का अद्भुत संगम है।
इस लिंक से इसे और सुरुचिपूर्ण रुप से जाना जा सकता है - 
https://www.facebook.com/share/v/12K5WoJStWR/
रामेश्वरम मंदिर की पौराणिक कथा:- 
भगवान राम जब 14 साल का वनवास खत्म करके और लंका पति रावण का वध करके मां सीता के साथ लौटे, तब ऋषि-मुनियों ने उनसे कहा कि उन पर ब्राह्मण हत्या का पाप लगा है। रावण ब्राह्मण कुल से था, इसलिए भगवान राम को ब्रह्महत्या का पाप लगा। इसलिए उन्हें ब्रह्महत्या के पाप से मुक्ति पाने के लिए शिवलिंग की स्थापना करने की सलाह दी गई। ऐसे में भगवान राम ने शिवलिंग लाने के लिए हनुमान जी को कैलाश पर्वत भेजा, लेकिन हनुमान जी को आने में देर हो गई। इस बीच माता सीता ने समुद्र तट पर रेत से शिवलिंग बना दिया। बाद में हनुमान जी द्वारा लाए गए शिवलिंग को भी वहीं स्थापित किया गया। माता सीता द्वार बनाए लिंग को ‘रामलिंग’ और हनुमान जी द्वारा लाए गए लिंग को ‘विश्वलिंग’ कहा जाता है। उसके बाद भगवान राम ने रामेश्वरम के पास स्नान करके शिवलिंग की विधिवत पूजा की और अपने पापों से मुक्ति पाई। 
          हनुमदीश्वर शिव लिंग 
कैलाश पर्वत से शिवलिंग लेकर जब हनुमान जी वापस लौटे तब तक शिवलिंग स्थापना का मुहूर्त बीत चुका था और भगवान राम माता सीता के साथ मिलकर वहां पर एक बालू के शिवलिंग की स्थापना कर चुके थे. यह सब देखकर हनुमान जी दुखी होकर रामजी के चरणों में गिर गए तब रामजी ने उन्हें कहा कि अगर तुम इस शिवलिंग को उखाड़ दो तो मैं यहां तुम्हारे द्वारा लाया शिवलिंग स्थापित कर दूंगा. हनुमान जी के बहुत प्रयास करने के बाद भी वह शिवलिंग को उखाड़ नहीं पाए और थोड़ी दूर जाकर गिर पड़े। तब रामजी ने कहा कि यह मेरे और सीता के द्वारा स्थापित किया गया शिवलिंग है, इसे हटाया नही जा सकता है. यह समझाने के बाद रामजी ने हनुमान जी द्वारा लाए शिवलिंग को वहीं थोड़ी दूर पर स्थापित कर दिया और उस स्थान का नाम हनुमदीश्वर रखा गया था. यह गढ़कालिका से कालभैरव मार्ग पर जाने वाले ओखलेश्वर घाट पर श्री हनुमंतेश्वर महादेव का मंदिर विद्यमान है। हनुमान जी द्वारा लाए गए लिंग को हनुमदीश्वर शिवलिंग भी कहा जाता है। यह शिवलिंग काले पाषाण से बना है. मान्यता है कि हनुमान जी ने इसे स्थापित किया था. कहा जाता है कि इस शिवलिंग के दर्शन करने से रामेश्वरम के दर्शन जितना पुण्य मिलता है।आज भी रामेश्वरम मंदिर में ये दोनों युगल शिवलिंग विराजमान हैं। इसकी विधिवत विधान से पूजा अर्चना किया जा रहा है।
विशाल आकार और अद्भुत वास्तुकला:- 
रामेश्वरम मंदिर द्रविड़ वास्तुकला का अद्भुत उदाहरण है। 15 एकड़ में फैला यह मंदिर एक बड़ी दीवार से घिरा हुआ है। मंदिर का प्रवेश द्वार भव्य और आकर्षक है। यहां के गलियारे और मूर्तियां इसे दुनिया के सबसे सुंदर मंदिरों में से एक बनाते हैं। यह मंदिर करीब 1000 फुट लंबा और 650 फुट चौड़ा है। इसका प्रवेश द्वार 40 मीटर ऊंचा है। मंदिर की दीवारें और गलियारे द्रविड़ शैली की वास्तुकला का बेहतरीन उदाहरण हैं। बता दें कि इस मंदिर को बनाने के लिए पत्थरों को श्रीलंका से नाव के जरिए लाया गया था।
दुनिया का सबसे लंबा गलियारा :- 
रामेश्वरम मंदिर का गलियारा विश्व प्रसिद्ध है। यह उत्तर से दक्षिण 197 मीटर और पूर्व से पश्चिम 133 मीटर लंबा है। यहां तीन गलियारे हैं, जिनमें से एक गलियारा 12वीं सदी का माना जाता है। इस विशाल मंदिर को इस लिंक से भी अच्छी तरह से समझा जा सकता है - 
https://www.facebook.com/share/r/16cqkqnkA6/

लेखक परिचय:-

(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए सम सामयिक विषयों,साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं।









रामेश्वरम का रामसेतु धनुषकोडी औरअरिचल मुनई // आचार्य डॉ. राधेश्याम द्विवेदी

अनेक नाम :- 
रामसेतु को आज कई नामों से जाना जाता है। जैसे नल सेतु, सेतु बांध और एडम ब्रिज। इसे नल सेतू इसलिए कहा जाता है क्योंकि यह पुल बनाने का विचार वानर सेना के एक सदस्‍य नल ने ही अन्‍य सदस्‍यों को दिया था। इसलिए नल को रामसेतु का इंजीनियर भी कहते हैं।
इस पुल का नाम एडम्स ब्रिज इसलिए रखा गया है क्योंकि बाइबिल और कुरान के अनुसार, एडम ने ईडन गार्डन से निकाले जाने के बाद श्रीलंका से भारत तक पुल पार किया था। एडम्स ब्रिज का नाम कुछ प्राचीन इस्लामी ग्रंथों में भी आया है। राम सेतु भारत के पंबन द्वीप और श्रीलंका के मन्नार द्वीप के बीच चूना पत्थर की एक विशाल श्रृंखला है। मद्रास विश्वविद्यालय और अन्ना विश्वविद्यालय द्वारा किए गए एक अध्ययन के अनुसार, राम सेतु ब्रिज का निर्माण 18,400 साल पहले हुआ था। 
अवस्थिति :- 
रामसेतु तमिलनाडु के दक्षिण-पूर्वी तट से दूर पंबन द्वीप, जिसे रामेश्वरम द्वीप के नाम से भी जाना जाता है, श्रीलंका के उत्तर पश्चिमी तट पर मन्नार द्वीप के बीच चूना पत्थर की एक श्रृंखला मार्ग है।
    इस रूट को इस लिंक से आसानी से समझा जा सकता है - 
https://www.facebook.com/share/r/1BuFQCAvDn/
       रामायण में इस बात का साफ तौर पर जिक्र है कि भगवान राम और उनकी सेना ने अपनी पत्नी सीता को बचाने लंका तक पहुंचने के लिए उस पुल का निर्माण करवाया था। भौगोलिक प्रमाणों से यह पता चलता है कि किसी समय यह सेतु भारत तथा श्रीलंका को भू मार्ग से आपस में जोड़ता था। हिन्दू पुराणों की मान्यताओं के अनुसार इस सेतु का निर्माण अयोध्या के राजा श्रीराम की सेना के दो सैनिक जो की वानर थे, जिनका वर्णन प्रमुखतः नल-नील नाम से रामायण में मिलता है, द्वारा किये गया था।
विस्तार :- 
धार्मिक मान्यताओं के मुताबिक, रामसेतु 100 योजन अर्थात करीब 1200 किलोमीटर थी। साइंस से जुड़े लोगों के मुताबिक, रामसेतु 35 से 48 किलोमीटर लंबा था तथा  यह मन्नार की खाड़ी (दक्षिण पश्चिम) को पाक जलडमरू मध्य (उत्तर पूर्व) से अलग करता है। कुछ रेतीले तट शुष्क हैं तथा इस क्षेत्र में समुद्र बहुत उथला है, कुछ स्थानों पर केवल 3 फुट से 30 फुट (1मीटर से 10 मीटर) जो नौगमन को मुश्किल बनाता है। रामायण (5000 ईसा पूर्व) का समय और पुल का कार्बन एनालिसिस का तालमेल एकदम सटीक बैठता है। हालांकि, आज भी ऐसा कोई वैज्ञानिक प्रमाण नहीं है जो यह बताता है कि पुल मानव निर्मित है।यह सेतु तब पांच दिनों में ही बन गया था। इसकी लंबाई 100 योजन व चौड़ाई 10 योजन थी। इसे बनाने में रामायण काल में श्री राम नाम के साथ, उच्च तकनीक का प्रयोग किया गया था। रामसेतु के पत्थर करीब 7000 साल पुराने हैं।
        15 वीं शताब्दी तक, पुल पर चलकर जा सकते थे।  गहराई तीन फीट से लेकर 30 फीट तक है। कई वैज्ञानिक रिपोर्टों के अनुसार, राम सेतु 1480 तक पूरी तरह से समुद्र तल से ऊपर था, लेकिन यहाँ एक चक्रवात आने से यह क्षतिग्रस्त हो गया था। 1480 तक पुल पूरी तरह से समुद्र तल से ऊपर था। हालांकि, प्राकृतिक आपदाओं ने पुल को समुद्र में पूरी तरह से डुबो दिया। इस प्रकार, यह कहा जा सकता है कि रामसेतु प्राकृतिक चूना पत्थर के शोल से बना एक पुल है। मन्दिर के अभिलेखों के अनुसार रामसेतु पूरी तरह से सागर के जल से ऊपर स्थित था, जब तक कि इसे 1480 ई० में एक चक्रवात ने तोड़ नहीं दिया। इस सेतु का उल्लेख सबसे पहले वाल्मीकि द्वारा रचित प्राचीन भारतीय संस्कृत महाकाव्य रामायण में किया गया था, जिसमें राम ने अपनी वानर (वानर) सेना के लिए लंका तक पहुंचने और रक्ष राजा, रावण से अपनी पत्नी सीता को छुड़ाने के लिए इसका निर्माण कराया था। राम सेतु के बारे में हम वाल्मिकी रामायण में बताते हैं। भगवान राम ने अपनी सेना के साथ राम सेतु पार किया और अपनी अपहृत पत्नी सीता को राक्षस राजा रावण से पार कराया। इसके बाद भगवान राम ने अपने धनुष और बाण से पुल को तोड़ दिया।
साहित्य में अनेक उल्लेख :- 
पूरे भारत, दक्षिण पूर्व एशिया और पूर्व एशिया के कई देशों में हर साल दशहरे पर और राम के जीवन पर आधारित सभी तरह के नृत्य-नाटकों में सेतु बंधन का वर्णन किया जाता है। राम के बनाए इस पुल का वर्णन रामायण में तो है ही, महाभारत में भी श्री राम के नल सेतु का उल्लेख आया है। कालीदास की रघुवंश में सेतु का वर्णन है। अनेक पुराणों में भी श्रीरामसेतु का विवरण आता है। एन्साइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका मे राम सेतु कहा गया है। नासा और भारतीय सेटेलाइट से लिए गए चित्रों में धनुषकोडि से जाफना तक जो एक पतली सी द्वीपों की रेखा दिखती है, उसे ही आज रामसेतु के नाम से जाना जाता है। 
राम सेतु ब्रिज के पत्थर 
तैरने के पौराणिक कारण :- 
राम सेतु का पत्थर आखिर पानी में कैसे तैरता है ये पहेली आज तक कोई भी वैज्ञानिक नहीं सुलझा पाया है. कोई इसे भगवान राम का चमत्कार कहता है तो कोई इसके पीछे साइंटिफिक कारण बताता है. मगर आज तक सही वजह नहीं पता चल पाई है. इस पर कई वैज्ञानिकों ने भी खोज की है. रामसेतु का पत्थर दुनियाभर में प्रसिद्ध है। इस पुल को बनाने के लिए भगवान राम ने एक विशेष तरह के पत्थर का इस्तेमाल किया था, जिसे अग्निकुंड शिला कहा जाता है. नल-नील, भगवान विश्वकर्मा के वानर पुत्र थे।ये बचपन में बहुत शरारती थे। ये ऋषियों की पूजा सामग्री पानी में फेंक देते थे। परेशान ऋषियों ने नल-नील को श्राप दिया कि अब वे जो भी चीज़ पानी में फेंकेंगे वह डूबेगी नहीं। इस श्राप की वजह से इन दोनों के स्पर्श से पत्थर पानी पर तैरने लगे थेफलत : इनके द्वारा रामसेतु का निर्माण हो पाया। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, भगवान वरुण के आशीर्वाद और उन पत्थरों पर भगवान राम के नाम लिखे होने के कारण पत्थर पानी में नहीं डूबते हैं।राम ने हनुमान कोकोड भगवान धनुर्धर और श्रीलंका को जोड़ने वाला पुल बनाने का ऑर्डर दिया था। हनुमान राम के दिव्य वानर दोस्त थे और एक हिंदू देवता थे। जैसा कि कोई उम्मीद कर सकता है, हनुमान और उनकी वानर सेना ने पुल का निर्माण किया। हनुमान, बाली और सुग्रीव ने सेना का संचालन किया।कहते हैं ये पत्थर कभी पानी में डूबा नहीं है और ये पुल आज भी बना हुआ है. इस पुल को देखने के लिए दूर-दूर से सैलानी आते हैं और इस पत्थर का रहस्य जानना चाहते हैं. लेकिन इस रहस्य को कोई जान नहीं पाया है. सभी लोग इसको भगवान राम की महिमा कहते हैं. ये भगवान राम द्वारा बनाया गया पुल है.
वैज्ञानिक विश्लेषण :- 
पौराणिक प्रमाणों से इतर कई वैज्ञानिकों ने तैरते पत्थरों के पीछे विज्ञान के कुछ पहलुओं को उजागर किया है। वे कहते हैं कि राम सेतु ज्वालामुखियों के तैरते हुए पत्थर से बना है।
       गूगल अर्थ पर श्रीलंका और रामेश्वरम को जोड़ने वाले रामसेतु को गौर से देखने पर दोनों के बीच 50 किलोमीटर के रास्ते पर समुंद्र बेहद उथला दीखता है। यानी एक समय ऐसा भी रहा होगा जब श्रीलंका और रामेश्वरम के मध्य एक नॉर्मल रास्ता हुआ करता होगा जो धीरे-धीरे समुद्र में विलीन हो गया। 15 वी सदी तक लोग वहां से पैदल ही पार कर जाते थे। ये सेतू अगर किसी नदी पर बना होता तब उस पुल की वास्तविकता को सही तरीके से समझा जा सकता था।
         उथले समुंद्र में जहां का तापमान लगभग 20 डिग्री या उससे अधिक हो, प्रवालों द्वारा कैल्सियम कार्बोनेट का उत्सर्जन होता है, जो झालरदार या चट्टानी रुप भी ले लेते हैं जिसे कोरल रीफ कहा जाता है। यह भारत में अंडमान- निकोबार लक्षद्वीप और मन्नार की खाड़ी में स्थित दीखता है। उनके अनुसार राम सेतु में जो पत्थर दिखाई दे रहे हैं वो कोरल रीफ भी हो सकते हैं।
     राम सेतु के पत्थरों के बारे में कहा जाता है कि ये प्यूमिस स्टोन या अग्निकुंड शिला थे।ये पत्थर ज्वालामुखी के लावा से बने होते हैं और इनमें कई छेद होते हैं। इन छिद्रों की वजह से ये पत्थर हल्के होते हैं और पानी में तैरते रहते हैं। वैज्ञानिकों ने इसका अध्ययन किया और बाद में बताया कि रामसेतु के पत्थर अंदर से खोखले होते हैं। इसके अंदर छोटे-छोटे छेद होते हैं।पत्थरों का वजन कम होने से इन पर पानी की ओर लगने वाला फोर्स इन्हें डूबने से रोक लेता है।
      पानी में तैरने वाले ये पत्थर चूना पत्थर की श्रेणी के हैं। ज्वालामुखी के लावा से बने ये स्टोन अंदर से खोखले होते हैं। इनमें बारीक-बारीक छेद भी होते हैं। वजन कम होने और हवा भरी होने की वजह ये पानी में तैरते रहते हैं। वैज्ञानिक इसका नाम प्यूमिस स्टोन बताते हैं। प्यूमिस स्टोन वह पत्थर है जो पानी में नहीं डूबता। यह एक आग्नेय चट्टान है।यह ज्वालामुखी के विस्फोट के दौरान बनती है। यह पानी में नहीं डूबता क्योंकि इसका घनत्व कम होता है। इसमें कई छोटे-छोटे छिद्र होते हैं। इसमें हवा की छोटी-छोटी जेबें होती हैं। वैज्ञानिकों की मानें तो ये पुल चूना पत्थर, ज्वालामुखी से निकली चट्टानों और कोरल रीफ से बना हुआ है। इसी वजह से पानी के जहाज इस रास्ते से कभी नहीं गुजरते हैं। इन जहाजों को श्रीलंका का चक्कर लगाना पड़ता है। जब ज्वालामुखी का लावा ज़मीन के ऊपर तेज़ी से ठंडा होता है, तो लावा की ऊपरी सतह पर बुलबुले निकलते हैं। जब लावा ठंडा होने लगता है, तो इन बुलबुलों के कारण उनमें गुहाएं (cavity) बन जाती हैं। यही हवा उस पत्थर को इतना हल्का कर देती है कि वह पानी में तैरने लगता है। इसी क्रिया से प्यूमिस स्टोन बनता है।
       कर्नाटक तमिलनाडु और केरल की सीमा पर नीलगिरी की पहाड़ियों में ज्वाला मुखी के विस्फोट बहुत हुए हैं। यहां से रामेश्वरम की दूरी 477 किमी है। भूविज्ञान में इन चट्टानों की पुरातनता अजोइक काल यानी 3000 से 500 मिलियन वर्ष पूर्व माना गया है।
      रामायण के पात्र बालि सुग्रीव की राजधानी किष्किंधा नगरी थी। किष्किंधा नगरी कर्नाटक के हम्पी के आसपास बसी थी। हम्पी कभी विजयनगर साम्राज्य की राजधानी थी। किष्किंधा की चट्टानें बहुत मशहूर हैं। हो सकता है ये वहीं से लाई गई हों। सतह पर पहुँचने के बाद, यह अंततः ज्वालामुखी के गड्ढे के शिखर बिंदु से फट जाता है। जब यह पृथ्वी की सतह के नीचे होता है तो इसे मैग्मा के रूप में जाना जाता है और जब इसे सतह पर लाया जाता है तो राख के रूप में फट जाता है। हर विस्फोट के परिणाम स्वरूप ज्वालामुखी के मुहाने पर चट्टानों, लावा और राख की दीवार बन जाती है।
भारत में अनेक जगहें जहां ये देखे जा सकते हैं:- 
रामसेतु/एडम ब्रिज में ये पत्थर भौतिक रूप में तो देखे जा सकते हैं। रामसेतु पत्थर रामेश्वरम के पंचमुखी हनुमान मंदिर, रामेश्वरम में राम सेतु के पास कोथंडारामस्वामी  विभीषण मन्दिर के पास समुद्र तट भी मैने इसे देखा है।इसके अलावा भारत के अनेक स्थलों पर भी इसे देखा जा सकता है।
जयपुर के खजाना महल संभवत देश का पहला ऐसा म्यूजियम है, जहां पर एक साथ 7 राम सेतु पत्थर के दर्शन करने का अनुभव लोगों को होता है। 
पटना में भी  गंगा नदी में तैरता एक पत्थर मिला। इस पत्थर पर भगवान श्रीराम का नाम लिखा है। अब इसे देख कुछ लोग हैरान हैं तो कुछ श्रद्धा से इसे निहारने पहुंच रहे हैं। यह खास पत्थर आलमगंज थाना अन्तर्गत राजा घाट के पास मिला है।इसे लेकर स्थानीय लोगों ने कहा कि पानी में तैरते पत्थर का वजन लगभग 12 किलो ग्राम है। पत्थर को घाट स्थित शिव मंदिर के समीप रखा गया है।स्थानीय लोग इसके लिए मंदिर की स्थापना की तैयारी में जुट गए हैं।
छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में स्थित जैतु साव में रामसेतु का एक पत्थर रखा है। बताया जा रहा है कि 140 साल पहले इस पत्थर को रामेश्वरम से लाया गया था। यह पत्थर पानी में तैरता है। इस पत्थर के दर्शन के लिए लोगों का भारी जमावड़ा लगा रहता है।
राम अयोध्या धाम आश्रम निकट नीम करोली बाबा आश्रम परिक्रमा मार्ग वृन्दावन मथुरा में भी राम सेतु का पत्थर आम श्रद्धालुओं के दर्शनार्थ सुलभ है।
पंचमुखी हनुमान मंदिर सुंदरगढ़,उड़ीसा में भी तैरते पत्थर के प्रमाण देखे जा सकते हैं।
भारत के संसद में सांसद श्री कार्तिक शर्मा के प्रश्न का उत्तर देते हुए तत्कालिन मंत्री श्री जितेंद्र सिंह ने इसका सटीक और स्पष्ट कहा कि रामसेतु को स्पष्ट रूप से रामसेतु भले न कह सके लेकिन जो संरचना लगातार समुद्र में मिले हैं वे राम केअस्तित्व और रामसेतु के प्रमाण जरूर हैं । राम सेतु कासच इस लिंक से और स्पष्ट रूप समझाया गया है।
https://www.facebook.com/share/r/16HwBuk3B5/

धनुषकोडी (धनुष का नोंक):- 
धनुषकोडी का मतलब होता है, 'धनुष की नोक'. यह भारत के तमिलनाडु राज्य के रामनाथपुरम ज़िले में स्थित एक अभूतपूर्व नगर है। धनुषकोडी, रामेश्वरम द्वीप के दक्षिण-पूर्वी कोने में है। सूरज, रेत और पानी समुद्र तट पर सबसे बेहतरीन अनुभव जो यात्रियों को आकर्षित करते हैं, वे यहीं धनुषकोडी में हैं। नीले समुद्र की विशालता और गहराई देखने लायक है; और तट पर अंतहीन आकर्षण का अनुभव करना भी उतना ही आसान है। धनुषकोडी में समुद्र तट का एक विशाल विस्तार है। यह श्रीलंका से लगभग 15 किलोमीटर दूर , मदुरै अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा से लगभग 191 किमी दूर,रामेश्वरम स्टेशन से लगभग 24 किमी दूर तथा रामेश्वरम बस स्टैंड से लगभग 13 किमी दूर पर स्थित है। यहां से अरिचल मुनई (आखिरी भारतीय स्थल) लगभग 5 किमी रह जाता है। 15 किलोमीटर तक फैला धनुषकोडी बीच ऐसा बीच है, जहां अक्सर ऊंची लहरें उठती हैं। इस क्षेत्र में कई प्रवासी पक्षी जैसे गल्स और फ्लेमिंगो भी देखे जा सकते हैं, जो इस इलाके के प्राकृतिक आनंद को और बढ़ा देते हैं। 
      रामेश्वरम द्वीप के दक्षिणी किनारे पर स्थित यह एक भुतहा शहर बन गया है।। इसी स्थान के पास से सेतुबंध भी है। धनुषकोडी शहर पंबन द्वीप के दक्षिण-पूर्व में स्थित है। यह रामेश्वरम के मुख्य शहर से 20 किमी दूर स्थित एक स्थान है, जहां से राम सेतु का दर्शन किया जा सकता है। इस जगह तक पहुँचने के लिए मुख्य भूमि से पंबन द्वीप को पार किया जाता है। ऐसा करने का सबसे अच्छा तरीका पहले प्रसिद्ध पंबन ब्रिज के माध्यम से ट्रेन द्वारा था। अब तो सड़क मार्ग से ही जाया जाता है। यहीं से धनुषकोडी की यात्रा शुरू होती है, जहाँ से कई मछली पकड़ने वाले गाँव गुजरते हैं, साथ ही दोनों तरफ पाक जलडमरूमध्य के मनमोहक दृश्य भी दिखाई देते हैं। पाक जलडमरूमध्य भारत और श्रीलंका के बीच फैला हुआ है।
     एक तरफ बंगाल की खाड़ी और दूसरी तरफ हिंद महासागर से घिरा धनुषकोडी कभी व्यापारियों और तीर्थयात्रियों दोनों के लिए एक महत्वपूर्ण बंदरगाह के रूप में कार्य करता था। धनुषकोडी और श्रीलंका (तब सीलोन के रूप में जाना जाता था) के एक शहर तलाईमन्नार के बीच नौका सेवाएं उपलब्ध थीं। ये नौकाएं माल और यात्रियों दोनों को समुद्र के पार एक देश से दूसरे देश में ले जाती थीं। धनुषकोडी शहर में सभी प्रकार की सुविधाएं थीं जिनकी एक यात्री को आवश्यकता होती है जैसे - होटल, धर्मशालाएं, और तीर्थयात्रियों, यात्रियों और व्यापारियों की सेवा करने वाली कपड़ा दुकानें आदि।  श्रीलंका इस शहर से सिर्फ 31 किमी की दूरी पर स्थित है। लेकिन ये सभी चीजें अब इतिहास बन चुकी हैं।
     एक ऊबड़-खाबड़ सवारी के बाद, जो केवल 4x4 वाहनों पर ही संभव है, रास्ते में कुछ बड़े रेतीले इलाकों की बदौलत, धनुषकोडी का 'भूत शहर' दिखाई देता है। बहुत समय पहले, खासकर ब्रिटिश राज के दौरान, धनुषकोडी एक छोटा लेकिन समृद्ध शहर था। इसमें वह सब कुछ था जो एक भरे-पूरे शहर में होने की उम्मीद किया जाता है यथा- रेलवे स्टेशन, एक चर्च, एक मंदिर, एक डाकघर और घर और अन्य घरेलू बस्तुएं देखी जा सकती थीं।
1964 का विनाशकारी तूफान:- 
22 दिसंबर 1964 की रात कोकोडी और रामातारम् में एक बड़ा तूफान आया। हवा की गति 280 किलोमीटर प्रति घंटा थी और ज्वार की लहरें 23 फीट ऊपर उठ रही थी। पंबन-धनुषकोडी ट्रेन में मीटर ब्जॉइस लाइन पर सवार सभी 115 यात्री मारे गए। पूरे शहर में अलग-अलग जांच की गई और करीब 1,800 लोगों की जान चली गई। बाद में सरकार ने धनुकोड़ी को एक परित्यक्त शहर घोषित कर दिया।
      तूफान के बाद रेल की पटारियां क्षतिग्रस्‍त हो गईं और कालांतर में, बालू के टीलों से ढ़क गईं और इस प्रकार विलुप्‍त हो गई। भगवान राम से संबंधित यहां कई मंदिर हैं। यह पूरा 15 किमी का रास्‍ता सुनसान और रहस्‍यमय है! पर्यटन इस क्षेत्र में उभर रहा है। भारतीय नौसेना ने भी अग्रगामी पर्यवेक्षण चौकी की स्‍थापना समुद्र की रक्षा के लिए की है और यात्रियों की सुरक्षा के लिए पुलिस की उपस्‍थिति महत्‍वपूर्ण है। धनुषकोडी में हम भारतीय महासागर के गहरे और उथले पानी को बंगाल की खाड़ी के छिछले और शांत पानी से मिलते हुए देख सकते हैं।
भुतहा शहर:- 
अरिचल मुनई (आखिरी भारतीय स्थल)से लगभग 5 किलोमीटर पश्चिम में धनुष्कोडी के बिखरे हुए अवशेष हैं।1964 के रामेश्वरम चक्रवात में धनुषकोडी नगर ध्वस्त हो गया था। इस चक्रवात में अनुमानित 1,800 लोगों की मौत हो गई थी. मद्रास सरकार ने धनुषकोडी को एक भूतहा शहर घोषित कर दिया था।
परित्यक्त रेलवे स्टेशन :- 
सड़क के उत्तरी किनारे पर एक परित्यक्त रेलवे स्टेशन है। स्टेशन का कुछ भी नहीं बचा है, जिसका मूल रूप से अंतरराष्ट्रीय कनेक्शन था, सिवाय तीन ऊंचे मेहराबों के।
परित्यक्त चर्च :- 
धनुष्कोडी में सबसे लोकप्रिय आकर्षण बिना छत वाला परित्यक्त चर्च है। लंबे समय से परित्यक्त चैपल के दोनों ओर अस्थायी दुकानें थीं जो सीप से संबंधित सामान बेचती थीं। चर्च के बचे हुए हिस्से में केवल सामने का दरवाज़ा, कुछ मेहराब और वेदी का एक टुकड़ा है।  
        वर्तमान में, औसनत, करीब 500 तीर्थयात्री प्रतिदिन धनुषकोडी आते हैं और त्‍योहार और पूर्णिमा के दिनों में यह संख्‍या हजारों में हो जाती है, जैसे नए निश्‍चित दूरी तक नियमित रूप से बस की सुविधा रामेश्वरम से कोढ़ान्‍डा राम कोविल ( रामेश्वरम मंदिर) होते हुए उपलब्ध है और कई तीर्थयात्री को, जो धनुषकोडी में पूर्जा अर्चना करना चाहते हैं, उन्हें निजी वाहनों पर निर्भर होना पड़ता है जो यात्रियों की संख्‍या के आधार पर 50 से 100 रूपयों तक का शुल्‍क लेते हैं। संपूर्ण देश से रामेश्‍वरम जाने वाले तीर्थयात्रियों की मांग के अनुसार, 2003 में, दक्षिण रेलवे ने रेल मंत्रालय को रामेश्‍वरम से धनुषकोडी के लिए 16 किमी के रेलवे लाइन को बिछाने का प्रोजेक्‍ट रिपोर्ट भेजा है। यह धरातल पर अब तक नहीं आ सका है। धनुषकोडी ही भारत और श्रीलंका के बीच केवल स्‍थलीय सीमा है जो जलसन्धि में बालू के टीले पर सिर्फ 50 गज की लंबाई में विश्‍व के लघुतम स्‍थानों में से एक है। 
      धनुषकोडी और सिलोन के थलइ मन्‍नार के बीच यात्रियों और सामान को समुद्र के पार ढ़ोने के लिए कई साप्‍ताहिक फेरी सेवाएं थीं। इन तीर्थयात्रियों और यात्रियों की आवश्‍यकताओं की पूर्ति के लिए वहां होटल, कपड़ों की दुकानें और धर्मशालाएं थी। 
धनुषकोडी के लिए रेल लाइन:- जो तब रामेश्‍वरम नहीं जाती थी और जो 1964 के चक्रवात में नष्‍ट हो गई, सीधे मंडपम से धनुषकोडी जाती थी। उन दिनों धनुषकोडी में रेलवे स्‍टेशन, एक लघु रेलवे अस्‍पताल, एक पोस्‍ट ऑफिस और कुछ सरकारी विभाग जैसे मत्‍स्‍य पालन आदि थे। यह इस द्वीप पर जनवरी 1897में तब तक था, जब स्‍वामी विवेकानंद सितंबर 1893 में यूएसए में आयोजित धर्म संसद में भाग लने के लेकर पश्‍चिम की विजय यात्रा के बाद अपने चरण कोलंबो से आकर इस भारतीय भूमि पर रखे।
     हाल ही में, केंद्र सरकार ने राम सेतु ब्रिज की संरचना का स्टडी करने और राम सेतु की आयु और इसके बनने की प्रक्रिया जानने के लिए पानी के अंदर खोज और शोध करने की मंजूरी दी है। यह अध्ययन यह समझने में भी मदद करेगा कि क्या यह संरचना रामायण काल जितनी पुरानी है। साथ ही, राम सेतु ब्रिज को राष्ट्रीय स्मारक बनाने की मांग की जा रही है, हालांकि यह मामला विचाराधीन है। इसके साथ ही यह जानना और दिलचस्प हो जाता है कि क्या भारतीय पौराणिक कथाओं को आधुनिक समय की संरचनाओं से लिंक करने की संभावनाएं हैं। इसे इस लिंक से और आसानी से समझा जा सकता है - 
https://www.instagram.com/reel/CyYQw7HP1nR/?igsh=YzljYTk1ODg3Zg==
अरिचल मुनई :- 
अरिचल मुनई वह बिंदु है जहां हिंद महासागर बंगाल की खाड़ी से मिलता है और इस स्थान को धनुषकोडी से देखा जा सकता है।एक तरह से, अरिचल मुनई भारतीय महाद्वीप के अंत का प्रतीक है। मन्नार की खाड़ी और बंगाल की खाड़ी यहीं मिलती हैं।अरिचल मुनई पॉइंट का इतिहास काफी पुराना है. मान्यता है कि यह स्थान भगवान शिव और माता पार्वती के निवास स्थान था। श्रीलंका का बंदरगाह शहर तलाईमन्नार, पाक जलडमरूमध्य से मात्र 35 किलोमीटर दूर है। शीर्ष पर अशोकन प्रतीक वाला एक स्तंभ टर्मिनस को चिह्नित करता है। यह भारत और श्रीलंका के बीच एकमात्र स्थलीय सीमा है। यह हिंद महासागर और बंगाल की खाड़ी के पानी का मिलन स्थल है। हिंदू मान्यताओं के मुताबिक, विभीषण के कहने पर श्री राम ने अपने धनुष के एक सिरे से सेतु को तोड़ दिया था। इसे इस लिंक से और अच्छी तरह से समझा जा सकता है  https://mindiafilms.com/arichal-munai-ram-setu-viewpoint-tamil-nadu-experience-india/
लेखक परिचय:-

(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए सम सामयिक विषयों,साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं।

Monday, June 16, 2025

सम्राट मान्धाता राजा की कथा (राम के पूर्वज- 10) #आचार्य डा. राधे श्याम द्विवेदी


इक्ष्वाकु वंश के राजा युवानाश्व
राजा युवनाश्व की पुत्र प्राप्ति की चिंता के बारे में भृगुनंदन महर्षि च्वयन को पता था। इसलिए उन्होंने उनकी इच्छा पूरी करने के लिए एक कलश में अभिमंत्रित सिद्ध जल रखा था। यह जल रानी के लिए था ताकि वह इसे पीकर इंद्र के बराबर पराक्रमी संतान को जन्म दें। लेकिन जंगल में विचरण करते हुए राजा को भयंकर प्यास लगी। वह सूखे गले से व्याकुल हो उठे और पानी की तलाश में इधर-उधर भटकने लगे। उन्हें तभी एक आश्रम दिखा और वह वहां रखे कलश का जल पी गए। अगली सुबह जब महर्षि च्वयन ने खाली कलश देखा तो उन्होंने अपने शिष्यों से पता लगाने के लिए कहा कि कलश का जल कहां गया। तब राजा युवनाश्व ने बताया कि उन्होंने प्यास से विवश होकर कलश का जल पी लिया। यह जानकर महर्षि ने राजन से कहा कि आपने गलत किया। यह आपकी पत्नी के लिए था, ताकि वह महापराक्रमी पुत्र को जन्म दे सके। इस जल को कठोर तपस्या के बाद सिद्ध किया गया था। महर्षि ने कहा कि वह अब इसका प्रभाव नहीं टाल सकते हैं। यह विधि का विधान ही होगा कि आपने यह जल पीया। अब आपके गर्भ से पुत्र का जन्म होगा और आपको प्रसव पीड़ा सहनी होगी।
इंद्र की वजह से मांधाता नाम मिला
इसके बाद करीब 100 वर्षों का समय बीता और राजा युवनाश्व की बायीं कोख फाड़कर महाप्रतापी बालक का जन्म हुआ। जिसे देखने के लिए इंद्र समेत देवता आए। तब देवताओं ने इंद्र से पूछा कि यह बालक क्या पीयेगा, इस पर उन्होंने बालक के मुंह में उंगली डालकर कहा, माम् अयं धाता यानी कि यह मुझे ही पीयेगा, इसके बाद देवताओं ने इस बालक का नाम मांधाता रखा। इंद्र की उंगली का रसास्वादन करने के बाद बालक 13 बित्ता बढ़ गया। उस बालक को सभी वेद, धनुर्वेद और दिव्यास्त्रों की शिक्षा-दीक्षा दी गई। बालक को अभेद्य कवच, आजगव धनुष और सींग से बने बाणों से सुसज्जित किया गया। यही बालक आगे चलकर इक्ष्वाकु वंश का महाप्रतापी राजा मांधाता कहलाया। 
वह भगवान राम के पूर्वज थे और इतने बलशाली थे कि एक दिन में ही तीनों लोकों को जीत लिया था। उन्होंने रावण को धूल चटाई थी और देवराज इंद्र को ललकारा था। लेकिन इंद्र ने अपना सिंहासन बचाने के लिए उन्हें अपने जाल में फंसा के मरवा डाला। ऐसे महापराक्रमी राजा का नाम मांधाता था। 
पौराणिक अनुश्रुति के अनुसार भारत के सम्राटों में प्रथम सम्राट मान्धाता प्रसिद्ध है। उसे पुराणों में चक्रवर्ती सम्राट कहा गया है। उसने पड़ोस के अनेक राज्यों को जीतकर दिग्विजय किया। राजा मांधाता के बारे में महाभारत, भागवत पुराण और वाल्मीकि रामायण में प्रसंग मिलते हैं। मांधाता के जन्म की कथा भी बड़ी रोचक है। वह अपनी मां की जगह, पिता युवानाश्व की कोख से जन्मे थे। दरअसल इक्ष्वाकु वंश के राजा युवनाश्व भी बड़े साहसी और धार्मिक थे। उन्होंने एक हजार अश्वमेघ यज्ञ संपन्न कराए थे। वह ब्राह्मणों को दान देते थे। इसके अलावा कई श्रेष्ठ यज्ञ करवाते थे।
सम्राट मान्धाता के सम्बन्ध में पौराणिक अनुश्रुति में कहा गया है कि सूर्य जहां से उगता है और जहां अस्त होता है, वह सम्पूर्ण प्रदेश मान्धाता के शासन में था। जिन आर्य राज्यों को जीतकर मान्धाता ने अपने अधीन किया उनमें पौरव, आनव, द्रुहयु और हैह्य राज्यों के नाम विशेष रूप से उल्लेख पूर्ण हैं। मान्धाता को चक्रवर्ती और सम्राट बताने तथा उसकी विजयों के बारे में आर्य राज्यों को जीतना कारण बताया गया है, जिससे निष्कर्ष निकलता है वह स्वयं भी आर्य था। चूंकि भारत का इतिहास आर्यों से ही आरम्भ होता है, इसलिए भारत की सभ्यता का ज्ञान आर्यों के भारत आगमन से ही प्रकाश में आता है इसलिए कहा जा सकता है कि सम्राट मान्धाता का काल 5,000 वर्ष पूर्व रहा है। मान्धाता बड़े प्रतापी राजा हुए। उसने पड़ोस के अन्य आर्य राज्यों को जीतकर दिग्विजय किया।
        मांधाता, एक ऐसे राजा जिनसे राक्षस तो क्या इंद्र भी थरथर कांपते थे, उनका युद्ध कौशल ऐसा था कि उनके साहस के आगे एक-एक करके सभी यातो नतमस्तक हो गए या उन्हें मुंह की खानी पड़ी। एक दौर ऐसा भी आया जब राजा मांधाता ने समस्त पृथ्वी पर अपना शासन स्थापित करके इंद्र लोक की ओर रुख करने का विचार किया, तभी देवराज इंद्र ने अपनी सत्ता को बचाने के लिए पिता के गर्भ से पैदा हुए इस महापराक्रमी राजा को धोखे से मरवा दिया। लेकिन राजा मांधाता जब तक जीवित रहे, तब तक उनकी बुद्धिमत्ता, पराक्रम और धर्मपरायणता अद्वितीय रही। खास बात यह कि राजा मांधाता श्रीराम के पूर्वज थे और उन्होंने एक ही दिन में तीनों लोकों को जीत लिया था। 
सम्राट मान्धाता द्वारा विजित राज्य :- 
जिन राज्यों में सम्राट मान्धाता ने दिग्विजय की उसमें प्रमुख नाम है-पौरव, आनव, दुहयु और हैह्य। ये अपने समय के बड़े राज्य थे। जिन्हें जीतकर मान्धाता ने अपने आधीन किया। इनके अलावा अन्य स्थानों पर अपने राज्य का विस्तार किया। सम्राट मान्धाता की विजयों के परिणाम अन्य राज्यों का फैलाव-राजा अनु और राजा दक्ष्यु जिन पर सम्राट मान्धाता ने विजय प्राप्त की थी। वो अयोध्या के पश्चिम से शुरू करके सरस्वती नदी के प्रदेशों पर शासन करते थे। सम्राट मान्धाता से पराजित होने के बाद वो और अधिक पश्चिम की ओर चले गए जिसकी वजह से राज्य विस्तार हुआ। राजा द्रहयु ने पराजित होने के बाद उत्तर-पश्चिमी पंजाब में (रावलपिण्डी से भी आगे) जाकर अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित किया। मनु लोगों से हारने के बाद पराजित राजाओं ने पंजाब में-मौधेय, केकय, शिवि, मद्र, अम्बष्ठ और सौवीर राज्य स्थापित किए। सम्राट मान्धाता से परास्त होने के बाद आनव (ऐल वंश की एक शाखा के लोग) ने पंजाब की ओर जाकर कई राज्य स्थापित किये। आनवों की एक शाखा सुदूर-पूर्व की ओर गयी। उनका नेता तितिक्षु था। इसने पूर्व की ओर जाकर वर्तमान समय के बिहार में अपना राज्य स्थापित किया। 
विजित राजाओं को मारा नहीं:- 
चक्रवर्ती सम्राट मान्धाता ने अनेकानेक राज्यों पर दिग्विजय की। परन्तु पराजित राजा तथा उसके वंश के लोगों का वध नहीं किया। उनकी अधीनता मात्र से या तो सन्तुष्ट हो गए या फिर उनको सपरिवार, सकुटुम्ब राज्य से निकालकर अपना राज्य स्थापित किया। सम्राट मान्धाता के काल में पौरव वंश, कान्यकुब्ज वंश और ऐल वंश शक्तिशाली राजवंश के रूप में विकसित हुए। 
अयोध्या नरेश मानधाता से रावण का युद्ध
रावण की युद्ध करने की लालसा अभी ख़त्म न हुयी थी। इसलिए वो एक बार फिर से अयोध्या जा पहुंचा। इस बार उसका सामना अयोध्या नरेश मानधाता से हुआ। इस युद्ध में एक फिर कड़ी टक्कर हुयी। अंत में महाराज मानधाता ने रावण को मारने के लिए शिव जी द्वारा दिए गए पशुपात को हाथ में लिया। तब रावण को बचाने के लिए उसके दादा पुलस्त्य मुनि और गालव मुनि ने आकर रावण को धिक्कारा। जिससे रावण को बहुत ग्लानी हुयी। तब पुलस्त्य मुनि ने महाराज मानधाता और रावण की मैत्री करवाई।
तीनों लोकों पर था राजा मांधाता का राज
राजा मांधाता का राज तीनों लोकों तक था। समस्त पृथ्वी पर उनका शासन चलता था। पृथ्वी के सारे रत्न उनके पास थे। सब कुछ हासिल करने के बाद भी वह धर्म के रास्ते पर चलते थे। ब्राह्मणों को दान देना, हवन यज्ञ करवाना, प्रजा की रक्षा करना ये उनके दैनिक काम थे। उन्होंने इंद्र का आधा सिंहासन भी प्राप्त कर लिया था। एक दौर ऐसा भी आया जब 12 वर्षों तक बारिश नहीं हुई तब अपनी प्रजा की रक्षा के लिए मांधाता ने महामेघ के समान गरजते हुए बारिश कराई थी। मांधाता के प्रताप के आगे सभी राक्षस खौफ खाते थे।
रावण को अकेले ही परास्त कर दिया
रामायण में जिक्र आता है कि एक बार राजा मांधाता ने रावण की पूरी सेना को अकेले ही परास्त कर दिया था। तब रावण ने आवेश में आकर उन पर रौद्रास्त्र चलाया था जिसे उन्होंने आग्नेयास्त्र से निष्क्रिय कर दिया था। इससे रावण और क्रोधित हो गया और उसने गंधर्व अस्त्र उनकी ओर भेजा था, राजा मांधाता ने ब्रह्मास्त्र के इस्तेमाल से उसे काट दिया। इसके बाद रावण ने आगबबूला होकर पाशुपतास्त्र का आह्वान किया तब इस भयंकर अस्त्र से पृथ्वी पर संकट पैदा हो जाता इसलिए गालव और पुलस्त्य ऋषि ने आकर युद्धविराम करवाया।
इंद्र के जाल में फंस गए राजा मांधाता
रामायण में कथा आती है कि राजा मांधाता ने सारी पृथ्वी पर नियंत्रण हासिल करने के बाद स्वर्ग की ओर चढ़ाई करने की योजना बनाई। इसके बारे में देवराज इंद्र को पता चला तो वह चिंतित हो उठे। तब उन्होंने राजा मांधाता से बचने के लिए एक चाल चली। वह राजा मांधाता के पास पहुंचे और उनसे कहा कि तुम देवलोक पर शासन करने की तैयारी कर रहे हो लेकिन पहले पृथ्वी लोक पर तो पूरी तरह राज स्थापित कर लो। तब राजा मांधाता ने पूछा पूरी पृथ्वी मेरे अधीन है, ऐसी कोई जगह नहीं जहां मेरी आज्ञा नहीं मानी जाती हो। तब मधु दैत्य का पुत्र लवणासुर किसी की नहीं सुनता है। राजा मांधाता इंद्र के जाल में फंस गए, क्योंकि इंद्र को पता था कि लवणासुर के पास भगवान शिव का अमोघ शूल है जिसके प्रहार से कोई नहीं बच सकता है। राजा मांधाता लवणासुर को ललकारने पहुंच गए। उन्होंने लवणासुर को युद्धक्षेत्र में घायल कर दिया। तब अपनी जान पर संकट आता देख उसने राजा मांधाता पर अमोघ शूल चला दिया। इसने राजा मांधाता और उनकी सेना को राख कर दिया। और इंद्र अपनी इस चाल से देवलोक का सिंहासन बचाने में कामयाब रहे।