छठे मासिक
पुण्यतिथि
पर
स्वर्गीय
माताजी
को
श्रद्धा
सहित
स्मरण
आज
वर्डसएप्प पर एक कहानी
नजरों के सामने पड़ी।
पढ़कर बहुत कष्ट हुआ क्योकि इसी घटना जैसे हूबहू घटना मेरे माताजी के साथ भी
घटी है। एसा कोई और नहीं अपितु
मेरे पूज्य भाई साहब ने ही किया
है ओर मैं घटना
से अनजान होकर माताजी के प्रति अपना
कर्तव्य निभाता रहा। माता जी ने अपने
साथ घटी घटना को मेरे परिवार
से इस लिए छिपाये
रखा कि उन्हें भय
था कि मातजी के
प्रति भाई साहब द्वारा किये गये तिरस्कार से दोनो भाइयों
में वैमनस्यता हो जाएगी और
मेरी माताजी के सामने दोनो
भाइयों में कलह हो जाएगी। शायद
वह इसे झेल ना पाये। इस
कारण उन्होने अपने कुछ खास लोगों को यह घटना
बतायी थी। जो उनकी मृत्यु
तक उस घटना का
पटाक्षेप नहीं किये थे। उनकी मृत्यु के बाद ही
यह घटना प्रकाश में आया और हमने इस
पर अपने भाई साहब से स्पष्टीकरण भी
लेना उचित नहीं समझा। आज मेरी स्व.
माताजी जैसी एक और घटना
पढ़ने पर हम दोनो
घटनाओं से परदा उठाने
से रोक नहीं पा रहे हैं।
वर्डसएप्प की कहानी :- रेलवे स्टेशन पर चाय बेचने
वाले लड़के की नजरें अचानक
एक बुजुर्ग दंपति पर पड़ी। उसने
देखा कि वो बुजुर्ग
पति अपनी पत्नी का हाथ पकड़कर
उसे सहारा देते हुए चल रहा था।
थोड़ी दूर जाकर वो दंपति एक
खाली जगह देखकर बैठ गए। कपड़ो के पहनावे से
वो गरीब ही लग रहे
थे। तभी ट्रेन के आने के
संकेत हुए और वो चाय
वाला अपने काम में लग गया।
शाम
में जब वो चाय
वाला वापिस स्टेशन पर आया तो
देखाकि वो बुजुर्ग दंपति
अभी भी उसी जगह
बैठे हुए है। वो उन्हें देखकर
कुछ सोच में पड़ गया। देर
रात तक जब चाय
वाले ने उन बुजुर्ग
दंपति को उसी जगह
पर देखा तो वो उनके
पास गया और उनसे पूछने
लगा बाबा आप सुबह से
यहाँ क्या कर रहे है
? आपको जाना कहाँ है ?
बुजुर्ग
पति ने अपना जेब
से कागज का एक टुकड़ा
निकालकर चाय वाले को दिया और
कहा बेटा हम दोनों में
से किसी को पढ़ना नहीं
आता,इस कागज में
मेरे बड़े बेटे का पता लिखा
हुआ है। मेरे छोटे बेटे ने कहा था
कि अगर भैया आपको लेने ना आ पाये
तो किसी को भी ये
पता बता देना, आपको सही जगह पहुँचा देगा ।
चाय
वाले ने उत्सुकतावश जब
वो कागज खोला तो उसके होश
उड़ गये। उसकी आँखों से एकाएक आंसूओं
की धारा बहने लगी। उस कागज में
लिखा था कि कृपया
इन दोनों को आपके शहर
के किसी वृध्दाश्रम में भर्ती करा दीजिए, बहुत बहुत मेहरबानी होगी। दोस्तों ! धिक्कार है ऐसी संतान
पर, इसके बजाय तो बाँझ रह
जाना अच्छा होता है ।
मेरी माताजी के साथ घटी घटना :- मेरे भतीजे के बहू प्रवेश
में मेरी पत्नी व मेरी मां
अपने पैतृक आवास पर बरबधू को
आर्शीवाद देने दुबौली गये थे। मेरी मां वहीं रुक गयी थी। भाई साहब ने उनके खातें
से पता नहीं कितने पैसे निकलवाकर अपने खातें में करवा लिये थे। इसी बीच मरवटिया में कुछ सूख रहे पेड़ों को मेरी पत्नी
ने बेंचकर घर गृहस्थी के
काम में लगा दिया था। जिसके लिए मेरे बड़े भाई साहब, भाभीसा तथा उनका परिवार नाराज हो गया था।
उन्होने मेरी मां को मेरे पैतृकं
घर में रहना दूभर कर दिया था।
चूंकि वह अपने जीवन
का अन्तिम समय पैतृकं घर में बिताना
चाह रही थी। इसलिए वह अपना सारा
आवश्यक सामान लेकर भाई साहब और भाभी सा
की शरण में चली गयी थी।
मेरे
भइया व भाभी का
स्वार्थ भारी पड़ा और उन्होने मेरी
विधवा मां को धर से
निकाल कर जबरन हमारे
मरवटिया स्थित आवास पर पहुचवा दिया।
मेरे भाई साहब मेरे घर तक भी
नहीं आये और गांव के
बाहर से ही लौट
गये थे। ना जाने क्या
सामाजिक भय के कारण
माताजी को मेरी भाभी
जी ने मेरे घर
तक पहुचा दिया और तुरन्त वापस
लौट गई थी। मेरी
मां अपने सपूत की इज्जत बचाने
के लिए इस घटना का
जिक्र एक बार भी
हम लोगों से नहीं किया
और अन्त समय तक अपने सपूत
की बेसब्री से इन्तजार करती
रही। वह स्वार्थी बेटा
मां के मोह ममता
से मुक्त हो भाभी सा
के चालों का मोहरा बनकर
मां का पूर्णतः परित्याग
कर दिया था। काश! मेरी मां एक बार भी
इस वाकिये की जिक्र की
होती तो हम मां
से और ज्यादा आत्मीयता
से जुड़कर कृत्घनी भइया भाभी की आंख खोलने
की कोशिस जरुर करते। परन्तु मां के स्वर्ग चले
जाने से उस परिवार
से इतनी घृणा हो गयी है
कि इस प्रकरण का
पटाक्षेप करना उचित नहीं समझता हॅू। माताजी के मना करने
के बावजूद मैंने भाई साहब को उनके अन्त्येष्टि
में भाग लेने के अवसर प्रदान
किया।
मेरी
माताजी मेरी भाभी सा से बहुत
डरती भी थी और
उन्हें ज्यादा मानती भी थी। मेरे
पिता जी अस्वस्थता , हमारा
बाहर रहना तथा भाई साहब की सुलभता ने
मां जी को एक
तरफा बना दिया था। वह हमेशा भइया
भाभी व उनके परिवार
का पक्ष लेती रही। उनकी समझ में वे गरीब हैं।
उनके लड़किया हैं उनके खर्चे हैं कमाई कम है। जबकि
वह पैसा व धन छिपाकर
दुखड़ा रोने का नाटक कर
माता पिता को वेवकूफ बनाकर
उनकी मति बदल लिये थे। दोनो बेटियों की शादी तथा
अमित की पढ़ाई का
खर्चा भी पिताजी ने
उठाया था। पिताजी के पेंशन से
भी उनके परिवार का सारा खर्चा
चलता था। देखने वाले समझते थे कि भाई
साहब सब खर्च कर
रहे हैं पर एसा नहीं
था।
हमारी
मां हमारे बच्चों के आगे बढने
के कारण भी हमसे दूरी
ही बनाती रही और भइया भाभी
के तरफ ही उनका सदा
झुकाव रहता था। हम कैसे चार
परिवार चार जगह रहकर चार चूल्हा जलाकर एकाकी जीवन विताते हुए मेहनत से चार पैसा
भी एकट्ठा नहीं कर पाये और
बस कुछ पढ़ाई और कई जगह
के मकान में ही हमारा खर्च
होता रहा गाड़ियां भी खरीदने में
कर्ज भी लेने में
हमारा परिवार आगे रहा पर यह मेरी
मां के इरादे को
बदल ना सका ।
उन्हीं के इशारे पर
पिताजी भी भइया व
भाभी का पक्ष लेते
रहे। यद्यपि पिता जी हमारी मेहनत
से पाई नौकरी बच्चों की शिक्षा आदि
के महत्व को जानते थे
और कई बार भाभी
को यहां तक कह दिये
थे, “तुम छोटी बहू की नकल मत
करों वह पढ़ी लिखी
व जिद्दी है जो सोच
व ठान लेती है उसे करके
दिखा देती है। चाहे बच्चों को स्वस्थ बनाना
हो, शिक्षा देना हो, मकान बनवाना हो, वह सब कुछ
कर सकती हैं।“ पिताजी के इस सत्यान्वेषण
पर मेरी मां ना तो खुश
रहती थीं और नाही मेरे
भइया व भाभी ही।
भइया
और भाभी द्वारा उक्त तिरस्कारित होने की घटना के
बाद माताजी सब कुछ छिपाते
हुए थोडा बहुत मेरी पत्नी को मानने लगी
थी। वह भी तब
जब वह बेड पर
चली गयी और उठने बैठने
की स्थिति में नहीं थी। आखिर वक्त उन्होने यहां तक कह दिया
था, “उन्हें दुबौली मत ले जाना
और ना ही वहां
के किसी को उनके कर्म
में बुलाना।“ पर असली कारण
नहीं बताया था। मेरी माताजी ने मेरी पत्नी
से यह भी कह
दिया था ,” जब
एक जगह वे लोग रह
रहे हैं तो दूसरी जगह
तुम लोग रह कर कुछ
भी गलत नहीं कर रहे हो
और यदि भइया भाभी आपत्ति करते हैं तो यह गलत
कर रहे हैं।“
मैं
अपने चार्ज स्थानान्तरण में व्यस्त रहने के कारण माताजी
के साथ रहने का कम अवसर
पाया। जब मैं उनके
पास आया तो समय कम
था। और उन्होने कोई
भी पुरानी बातें नहीं बताई थीं। काश मैं माताजी के आखिरी बार
के सहमति का साक्षी होता
तो मुझे कितनी खुशी होती।
No comments:
Post a Comment