Thursday, December 14, 2017

मोहम्मद हसन की 1857 के विद्रोह के समय की गतिविधियां डा. राधेश्याम द्विवेदी

                       

नाजिम सैयद हुसेन अली जिन्हें मीर मुहम्मद हसन भी कहा जाता दीवान खाना मोहल्ला काजी सहसवान जिला बदायूं उत्तर प्रदेश का मूल निवासी था। यहां आज भी उसके वंशज रहते हैं। प्रतीत होता है कि सीतापुर में उन्हें जो रियासत मिली थी उसे छोड़ या बेंचकर उनके उत्तराधिकारी सहसवान बदायूं में आकर बस गये होंगे। उसने अपने समय में एक सेना भी गठित कर रखी थी जो अंग्रेजों से कोष छीनना प्रारम्भ करा दिया था मोहम्मद हसन ने प्रथम स्वतन्त्रता संग्रांम सन 1857 . के गदर में इस क्षेत्र में अपना प्रभुत्व भी स्थापित करने का प्रयास किया था। उस समय वह गोरखपुर का नाजिम घोषित करके अल्प समय के लिए शासन भी चलाया था। उनके निशाने पर देशी राजा भी होते थे और कभी कभी देशी राजा को अपने में मिलाकर अंग्रजों से भी लड़ते रहे। वह देशी राजाओं से सरकारी सम्पत्ति नष्ट होने से बचाते रहे थे। वह जेल से कैदियों को छुड़वा भी देते थे। स्थानीय राजाओं से मेल जोल करके वह स्वयं शासन भी करना चाहते थे। बाद में उन्हें देशी अंग्रेजी शासकों के विरोध का भी सामना करना पड़ा। अवसर देखकर वह अपने को दिल्ली या अवध के बादशाह का प्रतिनिधि भी घोषित कर लेते रहे। उन्होंने अनेक लड़ाइयों में अंग्रजों से लोहा लिया। उन्होंने अंगे्रजी शासन के समानान्तर अपने अधिकारियों को नियुक्त कर रखा था तथा मनमानी कर वसूलवाते रहे। उन्होंने अग्रेंजो के नियंत्रण से गोरंखपुर कप्तानगंज को आजाद करा कर 6 माह तक शासन किया था।
नाजिम का अर्थ मुगलकाल में किसी प्रदेश या प्रान्त का प्रबंध करने वाला अधिकारी होता है। वर्तमान समय में न्यायालय के किसी विभाग के लिपिकों का प्रधान अधिकारी, मंत्री या सेक्रटरी आदि किसी को भी नाजिम कहा जा सकता है। वह अपने को अवध के नबाब के अधिकारी के रुप में गोरखपुर आजमगढ़ गोण्डा तथा बहराइच के लिए अलग अलग समय में स्थापित कर रखा था। इसे देशी राजा रियासतें मन से स्वीकार नहीं कर पा रही थीं। उसके इस अधिकार को रानी बस्ती तथा राजा बांसी दोनों के द्वारा चुनौती दे दिया गया था।
बस्ती कल्कट्री पर पहले अफीम तथा ट्रेजरी की कोठी हुआ करती थी। यही पहले तहसील और बाद में जिला मुख्यालय बना था। यहां 17वीं नेटिव इनफेन्ट्री की एक टुकड़ी सुरक्षा के लिए लगाई गई थी। इस यूनिट का मुख्यालय आजमगढ बनाया गया था। यह क्षेत्र गोरखपुर सरकार के अधीन आता था। उस समय गोरखपुर में डबलू पैटर्सन डी.एम., कैप्टन स्टील एस.पी., डबलू. विनार्ड जिला जज तथा एम. वर्ड ज्वाइन्ट मजिस्ट्रेट थे। विद्रोह के समय ये लोग आजमगढ़ में थे। आजमगढ़ में कैप्टन स्टील के नेतृत्व में सेना मुख्यालय में 17वीं रेजिमेंट की 2.5 कम्पनियां तैनात थी। 1857 के क्रांति का समय 31 मई निश्चित हुआ था। विद्रोहियों के धौर्य ना बना पाने के कारण 29 मार्च को मंगल पाण्डेय इसे गुप्त ना रख सकें और समय पूर्व ही विदा्रेह भड़क उठा था। इससे अंग्रेज सतर्क हो गये और विद्रोह दबा ले गये थे।
5 जून 1857 को गोरखपुर के पश्चिमी हिस्से में भी बगावत की आग भड़क उठी थी। 6 जून को नहरपुर के बिसेन राजा के नेतृत्व में उनके मानने वालों ने बड़हलगंज थाना एवं घाट से पुलिस को खदेड़कर उस पर कब्जा कर लिया। इसके अलावा 50 कैदियों की जो थाने पर मौजूद थे, आजाद करा लिया गया। 7 जून को कारागार से 300 कैदियों के भागने का प्रयास किया था। ब्रिटिश सौनिकों ने उस समय उन्हें रोककर मार्शल ला लागू कर दिया था। 20 कैदी गोली का शिकार होकर मारे गये थे। पैना देवरिया के जमीदार के विद्रोह की खबर सनुकर नहरपुर, सतासी, पाण्डेयपुर के बाबुओं के नेता गोविंद सिंह एवं अन्य प्रमुख जमींदारों की खुफिया बैठक हुई थी गोरखपुर की भांति बस्ती से भी 5 जून 1857 को 6 अंगे्रज भगोड़ों का एक दल फैजाबाद से भागकर नाव द्वारा गोरखपुर जनपद में प्रवेश करना चाहते थे। वे नांव द्वारा अमोढ़ा होते हुए कप्तानगंज बस्ती में तैनात अंग्रेज कैप्टन के शरण में आये थे। तहसीलदार ने उन्हें चेतावनी दिया था कि शीघ्र बस्ती छोड़ दें । वे मनोरमा नदी को बहादुरपुर विकासखण्ड के महुआडाबर नामक गांव के पास पार कर रहे थे। वहां के गांव वालों ने घेरकर 4 अधिकारियों एवं दो सिपाहियों की हत्या कर डाली थी। लेफ्टिनेंट थामस , लिची , कैटिली तथा सार्जेन्ट एडवरस तथा दो सैनिक मार डाले गये थे। तोप चालक बुशर को कलवारी के बाबू बल्ली सिंह ने अपने पास छिपाकर बचाया था तथा उन्हें 10 दिन तक कैद कर रखा था। वर्डपुर के अंगे्रज जमीदार पेप्पी को इस क्षेत्र का डिप्टी कलेक्टर 15 जून 1857 को नियुक्त किया गया था। उसने तोप चालक बुशर को छुड़वा लिया था। उसने 20 जून 1857 को पूरे जिले में मार्शल ला लागू कर रखा था तथा महुआ डाबर गांव को आग लगवा करके पूरा का पूरा जलवा दिया था। जलियावाला बाग की तरह एक बहुत बड़ा जनसंहार यहां हुआ था। इन्हीं दौरान अवध के नबाब के प्रतिनिधि राजा सैयद हुसेन अली उर्फ मोहम्मद हसन ने कर्नल  लेनाक्स ,उनकी पत्नी तथा बेटी को अपनी संरक्षा में ले रखा था। डिप्टी मजिस्ट्रेट पेप्पी ने इन्हें भी मुक्त कराया था।
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दिसम्बर 1857 तक गदर के बाबत कोई विशेष कदम नहीं उठाये जा सके थे। मोहम्मद हसन ने गोरखपुर नगर में कुछ माह शासन किया लेकिन जनवरी 1858 आते-आते गोरखपुर नगर पर अंग्रेजों का दबाव बढ़ने लगा और गोरखपुर हसन साहब के हाथ से निकल गया था। चारो तरफ अफरा तफरी मचा हुआ था। अंग्रेजों ने शान्ति की बहाली के लिए तीन दल बना रखे थे। ब्रिटिस अधिकारियों द्वारा वाराणसी के उत्तर के क्षेत्र से यह आन्दोलन हटाने के लिए एक संयुक्त अभियान चलाया गया था। नेपाल के राजा जंग बहादुर के नेतृत्व में 900 गोरखाओं का एक दल कर्नल मैंकजार्ज के साथ लगाया गया था जो 5 जनवरी 1958 को प्रस्थान किया था। दूसरे दल का नेतृत्व राफक्राफ्ट ने बिहार से तथा तीसरे का नेतृत्व ब्रिगेडियर जनरल फैंक ने जौनपुर से किया था। 5 जनवरी 1858 को नेपाल के राजा जंगबहादुर बेतिया से चले थे और मुहम्मद हसन को पराजित कर राप्ती तक के विजित क्षेत्र को अपने राज में मिला लिए थे। गोरखपुर कस्बे को अपने अधीन कर नागरिक प्रशासन स्थापित करने के लिए प्रयास किये गये थे। 14 फरवरी 1858 को नेपाली जनरल गोरखपुर छोड़ दिया था तथा 19 फरवरी को घाघरा के तट पर गायघाट के पास स्थित बेरारी पहुंचा था। उसने खलीलाबाद, बुढवल एवं लालगंज होकर अपना रूट चुना कर्नल राक्राफ्ट विहार से घाघरा नदी के सहारे चला था। वह नौरहनी रामपुर से 6 किमी. नीचे से चला था और फैजाबाद के थेरी घाट पर उतरा था। उसके साथ उसका कैप्टन सोथीबाई तथा नौसौनिक बेड़ा भी था। अगले दिन 20 फरवरी को 6 बन्दूकों के साथ गोरखों के बेड़े को इस दल में समलित कर लिया गया। फूलपुर के स्वतंत्रता सेनानियों की सहमति पाकर उन्हें तहस नहस करने के लिए एक प्रयास किया गया था। नदी नाघने के लिए एक पुल बनाया गया था। इस प्रकार मैक जार्जर और नेपाली सेना ने फै्रंक से हाथ मिलाते हुए अवध का किनारा प्राप्त करके सुल्तातनपुर एवं लखनऊ की ओर चले थे। राक्राफ्ट की सहायता के लिए गोरखाओं की दो रेजीमेंट , विहार लाइट हार्स , कैप्टन सोथीबाई उनके सौनिकों को गोरखपुर में छोड़ दिया गया था। संयुक्त सेना नदी के रास्ते थोड़े ही दिनों के बाद फैजाबाद के चण्डीपुर के मजबूत परवर किले पर धावा बोल दिया था। राक्राफ्ट तब गोरखपुर के लिए चला लेकिन वह बहुत कम समय के लिए ठहरा।
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                गोरखपुर को अंग्रेजों द्वारा 5 जनवरी 1858 को हस्तगत कर लेने के बाद स्वतंत्रता सेनानी पश्चिम की ओर चल पड़े। वे बस्ती से पश्चिम तथा अयोध्या से 13 किमी पहले अमोढ़ा के चारो ओर दोहरी खाई खोद डाले। वे यहां गोरखपुर से चले कर्नल राक्राफ्ट के मार्च को रोकना चाहते थे। कर्नल राक्राफ्ट गोण्डा की तरफ से अमोढ़ा पहुंचा तथा स्वदेशियों के सुरक्षा खाई से 11 किमी.पहले बेलवा में मोर्चा खोल दिया था। स्वदेशी सेना लगभग 15000 लोगों की थी। देश तथा प्रदेश के भिन्न भिन्न भागों से आये ये सौनिक अंग्रेजों के लिए चुनौती थे। सुल्तानपुर के नाजी मेहदी हसन , गोण्डा , नानपारा तथा अतरौली के राजा, चुरदा बहराइच के राजा तथा कई अन्य तालुकेदार एक साथ हो लिये थे। इसमें गुलजार अली , अमोढ़ा के विद्रोही सैयद तथा बड़ी मात्रा में स्वदेशी सैनिक भी थे। इस सेना में कुछ सेनाओं के भगोड़े भी मिल चुके थे। प्रथम, दसवीं तथा 53वीं नेटिव इनफैन्ट्री,दूसरी अवध पुलिस  तथा ग्वालियर रेजीमेंट के 5वीं रेजिमेंट के 300 आदमी भी समलित हो गये थे।
2 मार्च 1858 को कर्नल राक्राफ्ट घाघरा के किनारे स्वदेशियों द्वारा बनाया हुआ बेलवा का घेरा देखने के लिए चला। उसे कोई विकल्प सूझ नही रहा था। परन्तु अमोढ़ा से मुक्त होते ही वह एक बड़े तोपची जैसा बन गया था। ब्रिटिश सेना ने कोई ऊपरी रास्ता निकाला। 4 मार्च की शाम एवं 5 मार्च की सुबह को राष्ट्रीय सेना अपने सुरक्षित ठिकानों से बाहर निकल आयी थी। उधर स्थिति पर नजर रखने के लिए कर्नल राक्राफ्ट बाहर निकल लाइन रेखा से लगभग आधे मील पहले सोथबाई तथा वायलेन्ट्री सेना के कमान्डर मेजर जे. एफ. रिचार्डसन से मिले थे। दानों दलों के मध्य युद्ध शुरू हो गया। प्रशिक्षित ब्रिटिश सेना आन्दोलनकारियों से भिढ़ गई। संयोग से नौ सौनिको के भारी राइफलों के गोलों ने उन्हें मजबूती प्रदान कर दिया था तथा लाइट हार्स के तीन तेज आरोपियों  ने उन्हें हार दिलवाई। उन्होने 400 से 500 लोगों की जान ली तथा बहुतों को घायल कर दिया। राक्राफ्ट उन्हें उन परिस्थितियों मजबूत नहीं समझता था तथा अमोढ़ा से स्वयं को कार्यमुक्त कर स्थिति पर नजर रखने लगा। उसने उन आनदोलनकारियों को मैदान में दो बार 17 एवं 25 अप्रैल को भी हराया था।
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अमोढ़ा के देशी सैनिकों से 17 अप्रैल तथा 25 अप्रैल 1858 को अंग्रेजों को बुरी तरह मात खाना पड़ा था। छः अंग्रेज अधिकारियों को छावनी में अपने जान गवाने पड़े थे। फैजाबाद से सेना बुलाकर विद्रोह को दबाना पड़ा था। छावनी बाजार के पीपल के पेड़ पर 150 विद्रेहियों को फांसी पर लटकाया गया था। अनेक अंग्रेजों की कब्रें स्मारक भी सरकार ने बनवाये हैं। अप्रैल 1858 के अंत में नाजिम मोहम्मद हसन कप्तानगंज लौट आया था , इस बीच में मोहम्मद हसन 4000 सैनिको के साथ अमोढ़ा पहुंचा और वहां पर पहले से ही एकत्र देसी फौजों और स्थानीय बागियों के साथ अपनी ताकत को भी जोड़ दिया। इनके दमन के लिए अब मेजर कोक्स के नेतृत्व में बड़ी सेना वहां भेजी गयी जिसने बागियों को अमोढ़ा छोडने को विवश कर दिया। मुहम्मद हसन की सेना 9 जून को अमोढ़ा को पहुंची। बाद में इसमें 4000 लोग और मिल गये। इसे सुनकर राक्राफ्ट ने मेजर काक्स के नेतृत्व में एक सेना भेजी। वे भारी मात्रा में गोला बारूद प्राप्त किये थे किन्तु जैसे ही सौनिक तथा नौसौनिक नाका पर पहुचे ही थे कि स्वतंत्रता सेनानियों के एक तेज गोलाबारी ने उन्हें गांव में घुसने नहीं दिया तथा पीछे की तरफ मुड़ने को विवस किया। यह सख्त कदम 18 जून 1858 . कों मुहम्मद हसन उनके 4000 आदमियों को कष्ट पहुचाने के लिए हरहा में पुनः किया गया जहां भी उन्हें मात मिली। 18 जून 1858 को मोहम्मद हसन पराजित हुआ। घाघरा के किनारे आखिरी साँस तक लडने के लिए बहुत बड़ी संख्या में बागी डटे हुए थे। नगर तथा अमोढ़ा को छोड़ कर बाकी शांति थी। घाघरा के तटीय इलाके में बड़ी संख्या में बागियों की मौजूदगी थी।
मोहम्मद हसन ने अपने अधिकारियों को दोनों उद्देश्यों के लिए तैयार कर रखा था। स्वतंत्रता की लड़ाई में मदद देना तथा इस क्षेत्र में अपना राज्य स्थापित करना। इसके साथ ही साथ उसने  स्वतंत्रता में संलग्न राजा नगर तथा अन्य प्रमुखों से अपनी दूरी भी बनाये रखा था। राजा बांसी ने अपना खजाना तहसील में रखने को तैयार नहीं हुए। एक शाक्तिशाली सेना उन्हे बाध्य करने के लिए भेजा गया जिससे वह हार गये। बाद में वह एक सेना रखने को तैयार हो गये। उन्हें मुहम्मद हसन द्वारा नियुक्त तहसीलदार को भी रखना पड़ा। रानी बस्ती ने मुहम्मद हसन को अपने क्षेत्र में जाने के लिए इनकार कर दिया था साथ ही हसन के पुलिस अधिकारी को आवास देने से भी मना कर दिया था। अंत में अपने रवैये से विरोध जताया था।
एक लड़ाई राक्राफ्ट से डुमरियागंज के पास 27 नवम्बर 1858 . को हुआ था और हीर में वह अनेक महीनों तक जमा रहा उसने केवल अपने नियत काम को अंजाम दिया अपितु कानून व्यवस्था के लिए भी पूरा प्रयास किया था। ठंढी के दिनों के कारण वह गोण्डा को अग्रसर नही हो सका लार्ड क्लाइव का अवध के लिए अंतिम अभियान पर ही यह कार्य पूरा हो सका। बैसवरा को मिटाने के बाद होप ग्रांट ने 27 नवम्बर 1858 . को अयोध्या के रास्ते घाघरा नदी पार किया था। राक्राफ्ट ने 53 वीं पैदल वटालियन के साथ तुलसीपुर गोण्डा पहुचा था, जहां  नानाराव के भाई बालाराव मुहम्मद हसन के साथ मिल गया था। राक्राफ्ट ने होप ग्रांट को अपने कार्य में सहयोग के लिए निर्देशित किया था। राक्राफ्ट ने बूढ़ी राप्ती को पार कर लिया था और शत्रु को पा गया था और उनके झुण्ड के साथ जंगल में लड़ाई लड़ा, जहां उनके दो तोपों को छीन लिया परन्तु उनके अश्वारोहियों को लेने के लिए प्रयास नहीं किया। स्वतंत्रता आन्दोलनकारियों को दबाने के लिए होप ग्रांट ने बिसकोहर के तरफ मार्च किया। वहां से नेपाल सीमा पर स्थित दलहरी को मार्च किया था। जहां उसने राक्राफ्ट से हाथ मिलाया था। वे जंगल के एक छोर पर स्थित कुण्डाकोट पर आक्रमण कर विद्रोहियों से मुक्त कराये थे। परिणाम स्वरुप बालाराव की सेना हतोत्साहित हो गई और नेपाल में भाग गई जहां कर्नल केली उनके मार्ग को अवरुद्ध कर दिया।
इससे जून 1859 . तक गोण्डा एवं बहराइच में बिद्रोह का अभियान समाप्त नहीं हुआ था परन्तु बस्ती के विद्रोही आन्दोलन का निष्कर्ष परिणति को प्राप्त होता है। कानून व्यवस्थापन के पुनः स्थापना के लिए स्वतंत्रता आन्दोलनकारियों को गिनने के लेखा जोखा की एक भारी भरकम व्यवस्था का काम शुरू हो गया था। कर्नल लेननाक्स के संरक्षण में निरूद्ध उस समय का महान विजेता एवं नबाबी शासन का महत्वपूर्ण प्रतिनिधि मुहम्मद हसन चकमा देकर भाग निकला। अंग्रेजी सेना मो. हसन के पीछे पड़ी थी। वह भागते छिपते अंग्रेजी सेना के शरण में 4 मई 1859 को चला आया था उसे क्षमा करते हुए सीतापुर की एक छोटी सी रियासत गुजारे में दी गई थी। सन 1857 का विद्रोह अग्रेजो द्वारा कुचल दिया गया अन्त में अग्रेजो का गोरखपुर पर आधिकार हो गया। मुहम्मद हसन की आजाद भारत देखने की आरजू पूरी हो सकी.थी।



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