Friday, July 30, 2021

बदल गई सब

                         
सब परिभाषाएं बदल गई अब सब मर्यादाएं बदल गई।
नहीं रहा मां बाप की इज्ज़त बेटा बेटी हुए अपने मन के।
सास ससुर बने नौकर चाकर आई बहू सब बदल देई।।
सुबह का उठना खत्म हो गया देर से सोना अब चालू है।
साथ साथ बैठ चौके का खाना कहीं कहीं अब लागू है।।
नए नवेले पानी मांगते खाना भी ना खुद बना सके।
कपड़ा लत्ता ना ढंग से पहने फैशन में सब माहिर हैं।।
नया जमाना आ गया भईया पुरानो का अब ठौर नहीं ।
सब परिभाषाएं बदल गई अब सब मर्यादाएं बदल गई।।

Thursday, July 29, 2021

मां बाप का बेटी की गृहस्थी में हस्तक्षेप अनुचित डा. राधे श्याम द्विवेदी

माँ-बेटी का रिश्ता बहुत ही प्यारा रिश्ता होता है और हर माँ की चाह होती है कि उसकी बेटी ससुराल में खुश रहे। इसीलिए मां बेटी को प्रारंभ से ही अच्छे संस्कार देती है पर समय के साथ-साथ माताओं की इस सीख में भी परिवर्तन देखने को मिल रहा है। पुराने समय में संयुक्त परिवार में अच्छे संस्कार नाना नानी दादा दादी मौसी बुवा छोटी बड़ी बहनें अपने व्यवहार से बहुत कुछ सिखा देती थीं।पर अब एकल परिवार में अपने पराए का बोध बहुत कुछ माहौल खराब कर देती है। आज अधिकतर घरों के टूटने की वजह लड़की के अभिभावकों का उसकी गृहस्थी में हस्तक्षेप और उनके द्वारा दी जाने वाली गलत शिक्षा है। ऐसे अनेक उदाहरण हम आप अपने आस-पास पा जाएंगे।

बेटी के लिए चिंता करना तो हर मां का फर्ज है। बेटी चाहे विवाहित हो या अविवाहित, उसके सुख-दुख में उसका साथ देना हर माता-पिता का कर्तव्य होता है। 

यदि बेटी अपनी गृहस्थी में खुश है, उसे अपने पति-ससुराल वालों से कोई शिकायत नहीं तो मां का फर्ज यही है कि वह बेटी और उसके ससुराल वालों के रिश्ते को मजबूत बनाएं। उसे अच्छी सीख दें। उस रिश्ते को मजबूत बनाने के लिए सकारात्मक भूमिका निभाएं। उसके गृहस्थी में बिल्कुल ना हस्तक्षेप करे। कम से कम बातें करे।और कुछ अनबन होने पर खुद संभलने का अवसर प्रदान करें। बेटी और ससुराल वालों के मध्य रिश्ते को सुधारने के लिए कुछ बातों का ध्यान देने वाली बातें निम्न हैं:_

१- विवाह के पश्चात् बेटी की आवश्यकता से अधिक देखभाल न करें। उसकी सहायता करें पर उन्हीं परिस्थितियों में, जब उसे अपने परिवार से सहायता न मिल रही हो। डिलीवरी के दौरान अधिकतर मांएं सोचती हैं कि उनकी बेटी की देखभाल ससुराल में सही तरह से नहीं हो पाएगी, इसलिए वे बेटी को मायके में डिलीवरी करवाने के लिए उकसाती हैं और बेटी अपने ससुराल वालों को छोड़ मायके पहुंच जाती है। उसे लगता है कि जो देखभाल उसकी मां करेगी, वह सास कहां कर पाएगी। ऐसा कतई न करें। जैसा ससुराल वाले चाहें, बेटी को वैसे ही करने को कहें। इससे आपकी बेटी और ससुराल वालों के मध्य प्यार व देखभाल की भावना बढ़ेगी, रिश्ते मजबूत होंगे।

२- विवाह के बाद बेटी को ससुराल में अपनी जगह बनाने में कुछ समय लगता है। उसे वह समय दीजिए। उसे बार-बार मायके आने पर जोर न दें। विवाह के पश्चात् उसका असली घर ससुराल है और बार-बार मायके आने से वह अपने घर, परिवार को नजर अदांज करती है। इससे उसके ससुराल वालों को परेशानी हो सकती है।

३- तोहफे हर किसी को अच्छे लगते हैं पर बहुत अधिक तोहफे देकर आप अपनी बेटी की आदतों को बिगाड़ सकती हैं। अगर ससुराल वाले आपकी बेटी के शौकों को पूरा नहीं कर सकते तो आप आर्थिक सहायता देने का कष्ट बिलकुल न करें। इससे आप उसकी ससुराल वालों को नीचा दिखा रही हैं।उसे अपने संसाधन मे जीने की आदत पड़ने दें।

४- बेटी के गृहस्थ जीवन में आप हस्तक्षेप न करें। अगर आप उसकी ससुराल वालों और अपने दामाद को कुछ कहना भी चाहते हैं तो आपका ढंग ऐसा हो कि उन्हें बुरा न लगे। इससे आपके और उनके संबंधों में खटास पड़ सकती है।

५- बेटी से मिलने उसके घर जाएं तो बेटी के कमरे में ही, उससे ही बात करने की बजाय उसके ससुराल वालों से ऐसा व्यवहार करें कि उन्हें ऐसा लगे कि आप सिर्फ अपनी बेटी से नहीं, उनसे भी मिलने आई हैं।

 ६-अगर आपका दामाद अपने परिवार वालों पर कोई खर्चा करता है तो अपनी बेटी को दामाद के इस खर्चे में कटौती करने के लिए न उकसाएं। जब आपकी बेटी अपने भाई-बहनों पर खर्च कर सकती है तो आपका दामाद अपने परिवार पर क्यों खर्च नहीं कर सकता।

७- ध्यान रहे, आप अपनी सीखों से अपनी बेटी की गृहस्थी को सुखमय भी बना सकती हैं और उजाड़ भी सकती हैं, इसलिए अपनी बेटी की सोच को बड़ा व सकारात्मक बनाने की कोशिश करें ताकि उसके ससुराल वाले उस पर नाज करें।

८-जो बेटी स्कारतमक सोच रख कर उचित तालमेल बिठा के रहेगी वह घर स्वर्ग सा होकर आदर्श बन जाता है।एक छोटी सी लापरवाही या बचकाना उन्माद बनी बनाई गृहस्थी को बिगाड़ सकती है।

९-यदि आप इस प्रकार कुछ छोटी छोटी बातों से बेटी के घर को स्वर्ग बनाने में कामयाब हो जाएगी और आपकी बेटी अपना घर छोड़ मायके आने का नाम ही नही लेगी।




     



Wednesday, July 28, 2021

दुबौली दूबे में विशाल चिकित्सा शिविर तथा विविध आयोजन

श्री राजेश दूबे स्मृति समारोह दुबौली दूबे जिला बस्ती में विविध प्रकार के आयोजन दिनाँक 27 जुलाई को कोविद 19 के मानकों का पालन करते हुए भव्यता के साथ सम्पन्न हुवा। 
रामचरित मानस का पाठ,हवन,वृक्षारोपण, विशाल भंडारा के साथ ही साथ एक विशाल चिकित्सा शिविर भी आयोजित किया गया। 
कोविड वैक्सीन का टीकाकरण, बीपी, ब्लड प्रेशर,नेत्र परीक्षण, दवा वा चश्मा वितरण किया गया होमियोपैथिक और एलोपैथिक दवाएं बितरित की गई।
सबसे अधिक भीड़ इसी गांव के मूल निवासी तथा महर्षि वशिष्ठ राजकीय मेडिकल कालेज बस्ती के सह प्रोफेसर डॉ सौरभ द्विवेदी, इसी संस्था मेंकार्यरत उनकी  पत्नी डाक्टर तनु मिश्रा तथा हरैया बस्ती सीएचसी पर कार्यरत डाक्टर उमेश कुमार उपाध्याय की लाइन में देखा गया।
ये तीनों नोवा हॉस्पिटल और एपेक्स डायग्नोस्टिक कैली रोड बस्ती का प्रतिनिधित्व भी कर रहे थे। भीनी बरसात की खुशबू में सभी व्यवस्थाएं बहुत ही चुस्त और दुरुस्त थीं। कार्यक्रम में श्रद्धांजलि के अलावा भाग लेने वाले संबंधित जनों को भाजपा के जिला अध्यक्ष श्री महेश शुक्ला द्वारा पुरस्कृत और सम्मानित भी किया गया।स्थानीय समाचार पत्रों में इसका अपेक्षाकृत कबरेक नही हो पाया है।

Sunday, July 25, 2021

आचार्य राम चन्द्र शुक्ल के पूर्वजों का गांव भेड़ी गांव डा. राधेश्याम द्विवेदी

                                      
भेड़ी गांव एक अधिकृत गर्ग गोत्रिय शुक्लाना गांव:-
ब्राह्मणों में तीन-तेरह का प्राचीन प्रचलन तमाम तर्कों से आज तक जूझ रहा है|  महान ऋषियों की संतान ब्राह्मण बंश आदि काल से अपनी परम्परा पर अपनें- अपनें बंश-गोत्र पर आज भी कायम है| पूर्वजों की परम्परा को देखें तो गर्ग, गौतम, श्री मुख शांडिल्य गोत्र को तीन का तथा अन्य को तेरह में बताया जाता है| गर्ग से शुक्ल, गौतम से मिश्र, श्री मुख शांडिल्य से तिवारी या त्रिपाठी बंश प्रकाश में आता है| गर्ग (शुक्ल- वंश)का उद्भव इस प्रकार है। गर्ग ऋषि के तेरह लडके बताये जाते है जिन्हें गर्ग गोत्रीय, पंच प्रवरीय, शुक्ल बंशज कहा जाता है जो तेरह गांवों में बिभक्त हों गये थे| गांवों के नाम कुछ इस प्रकार है| (१) मामखोर (२) खखाइज खोर (३) भेंडी (४) बकरूआं (५) अकोलियाँ (६) भरवलियाँ (७) कनइल (८) मोढीफेकरा (९) मल्हीयन (१०) महसों (११) महुलियार (१२) बुद्धहट (१३) इसमे चार गाँव का नाम आता है लखनौरा, मुंजीयड, भांदी, और नौवागाँव| ये सारे गाँव लगभग गोरखपुर, देवरियां और बस्ती में आज भी पाए जाते हैं| भेड़ी गांव आचार्य राम चंद्र शुक्ल के पूर्वजों का गांव है जो देवरिया जिले में स्थित है। आचार्य शुक्ल का जन्म 1884 ई. में बस्ती जिले के अगौना नामक गाँव में हुआ था। वे वहाँ के मूल निवासी नहीं थे। उतर प्रदेश के देवरिया जिले में रुद्रपुर क्षेत्र के एकौना थान्हा के अंतर्गत भेड़ी गाँव है। यह गाँव शुक्ल लोगों का डीह स्थान है। राम चन्द्र शुक्ल के पूर्वज वहाँ रहते थे। शुक्ल जी के दादा पं.देवी दत्त शुक्ल की अल्पायु में मृत्यु हो गई। राम चन्द्र शुक्ल की दादी आजी पढ़ी लिखी स्वाभिमानी विधवा थीं। विधवा की तरह जीवन व्यतीत कर रही थीं। एक लिबास में रहना, कहीं आना जाना नहीं, एक समय खाना खाना, खाना बनाते समय बिना सिले हुए वस्त्र पहनना। इसी तरह एक दिन धोती लपेटे हुए वे खाना बना रही थीं। घर में एक कंगन की चोरी हुई थी। कुछ स्थितियाँ ऐसी बनी कि कहीं से उन्हें भनक लगी कि उस चोरी का आरोप उन पर लग रहा है। वह ब्राह्मणी चोरी के आरोप से तमतमा उठीं और घर से बाहर निकल आईं और पैदल ही चल दीं। गाँव घर के लोग मनाने गए लेकिन उन्होंने कहा - नहीं, अब नहीं, अब मैं इस गाँव का पानी तक नहीं पीऊँगी। इसलिए दादी अपने अल्पवयस्क पौत्र बालक व पुत्र चंद्रबली शुक्ल के साथ पहले अयोध्या गयी जहां उनकी भेट उनकी सहेली से हुई। बस्ती जिले के नगर पोखरनी राज की राजमाता उनकी सहेली थीं। वह अपने परिवार के साथ उन्हीं के यहाँ गई। उन्हें जब पूरी बातें पता चलीं तो उन्होंने आचार्य शुक्ल की आजी से वहीं रहने का प्रस्ताव दिया। उनकी यह सहेली पोखरनी नगर के राजा विश्वनाथ सिंह की पत्नी थी। उनके साथ वह पोखरनी नगर राज्य बस्ती आ गईं। राजमाता ने उन्हें 80 या  40 बीघा सीरमाफी जमीन दी और अगौना में बसा दिया। पहले तो वह जमीन नहीं लेना चाहती थी। परन्तु बाद में मानकर वहां बस गयी। बस्ती से करीब 25 किमी दूर कलवारी के पास अगौना गांव में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का जन्म हुआ था। धीरे-धीरे यह परिवार वहीं बस गया। वहीं पर उन्होंने चंद्रबली शुक्ल की पत्नी को भी बुला लिया। शुक्ल जी के पिताजी पोखरनी के राजकुमार के साथ ही पढ़ने लगे थे। रामचंद्र शुक्ल की माता विभाषी देवी गाना के पुनीत मिश्र घराने की कन्या थीं। इसी गाना के मिश्र घराने के भक्त-शिरोमणि महाकवि तुलसीदास भी थे। इस तरह तुलसीदास आचार्य रामचंद्र शुक्ल के मातुल वंश से थे। परशुराम मिश्र गोस्वामी जी के प्रपितामह थे।

पंडित शुक्ल जी पितामही की छत्रछाया में ही पूरी तरह से पले बढ़े। शुक्ल जी उन्हें दूधू माँ कहते थे और लोग उन्हें बच्ची साहब कहते थे। पितामही पूरी तरह हिंदू संस्कारों का पालन करती थीं। दादी मां रामचरितमानस, भागवत, महाभारत का पाठ नियमित रूप से करती थीं और इन्हीं की कहानियाँ सुनाया करती थीं। शुक्ल जी के चिंतन पर उनकी सुनाई कहानियों का बहुत प्रभाव है।

 

 

परवर्ती ब्राहमण कालीन रियासतें डा. राधेश्याम द्विवेदी

पौराणिक और ऐतिहासिक कालीन ब्राहमण राजवंशों की संख्या उतनी अधिक नहीं जितनी परवर्ती उत्तर मुगल व ब्रिटिशकालीन समय में मिलती है। यद्दपि इस समय इनका प्रभाव निरन्तर समाप्त होते होते बिल्कुल समाप्त हो गया। कुछ वंश तो नाम के लिए भी सूाप्त हो गयी हैं और कुछ इतिहास के पन्नों में बिखरी पड़ी हैं। इस विषय पर बृहद शोध की आवश्यकता है। उपलबध प्रमाणों के आधार पर अकारादि क्रम से इन जागीरों व राजवंशों पर एक दृष्टि डालना समीचीन है।

अनापुर एस्टेट इलाहाबाद- बिहार के भूमिहार ब्राह्मणों का स्वनियंत्रित जागीर है।

अमावा राज- यह  बिहार का परवर्ती भूमिहार ब्राह्मणों का राजवंश का घराना है।

अरनी संपत्ति- मद्रास प्रेसीडेंसी में देशशष्ठ ब्राह्मणों की यह एक जागीर है।

अयोध्या राज (पूर्व महदौना)-शाकलद्वीप ब्राह्मणों का यह एक प्रभावशाली जागीर है।    

अवध का औसनगंज एस्टेट - यहां गौतम वंशीस ब्राहमण का शासन रहा है।

असोदा (हापुड़)- त्यागी गौर ब्राह्मण द्वारा शासित चैधरी वंश, जिसमे 350 गाँव रहे।

आगापुर स्टेट- यह स्वनियंत्रित जागीर है।

आर्य चक्रवर्ती राजवंश- यह तमिल ब्राह्मणों का घराना है।

ओइनीवार राजवंश- मैथिल ब्राह्मणों का घराना है।

इचलकरंजी एस्टेट- चितपावन ब्राह्मण जोशी परिवार द्वारा शासित घराना है।

ऐनखाओं जमींदारी,- यह स्वनियंत्रित जागीर है।

ऐशगंज जमींदारी-यह स्वनियंत्रित जागीर है।

औन्घ्र राज्य - यह देशाष्ठ ब्राह्मणों का घराना है।

औसानगंज राज- यह परवर्ती ब्राह्मण राजघराना है।

कयाल गढ़--यह स्वनियंत्रित जागीर है।

काबुलशाही राजवंश - महयाल ब्राह्मणों का कबीलाई घराना है।

केवटगामा जमींदारी--यह स्वनियंत्रित जागीर है।

कुतुबपुर उ. प्र. - त्यागी गौड़ ब्राह्मणों का (चैधरी निहाल सिंहत्यागी)चैधरी वंश का घराना है।

कुरुनदवाड.वरिष्ठ और कुरुनुदवाड.जूनियर- कुरुनदवाड. पटवर्धन ब्राह्मण का घराना है।

खैर इस्टेट-यह स्वनियंत्रित जागीर है।

गन्नौर (हरियाणा) - त्यागी गौड़ ब्राह्मणों के भारद्वाज कबीले द्वारा शासित घराना है।

गोरधनपुर (सहारनपुर)- त्यागी गौड़ ब्राह्मण(चैधरीदयाल सिंहत्यागी) का चैधरी वंश का घराना है।

गोरिया कोठी एस्टेट (सिवान )-यह स्वनियंत्रित जागीर है।

गौरिहार राज्य - मध्य प्रदेश के देशाष्ठ ब्राह्मणों का घराना है।

घोसी एस्टेट--यह स्वनियंत्रित भूमिहार ब्राह्मणों की जागीर है।

चैबे एस्टेट- ब्रिटिश राज की अवधि के दौरान मध्य भारत की पांच सामंती रियासतों का एक समूह था। जो ब्राह्मण परिवार की विभिन्न शाखाओं द्वारा शासित थे।

चैनपुर, एस्टेट-यह स्वनियंत्रित जागीर है।

छतरपुर दिल्ली - त्यागी गौड़ ब्राह्मण चैधरी वंश का घराना है।

जामखंडी राज्य- यह चितपावन ब्राह्मणों का घराना है।

जालौन राज्य -  बुंदेलखंड के देशाष्ठ ब्राह्मणों का घराना है।

जैतपुर एस्टेट --यह स्वनियंत्रित जागीर है।

जोगनी एस्टेट -यह भूमिहार ब्राह्मणों का स्वनियंत्रित जागीर है।

जौनपुर का राज- परवर्ती ब्राह्मण का राजघराना है।

झांसी राज्य -  यह न्यूयलकर हाउस के करहदेश ब्राह्मणों का घराना है।

टिकारी राज- परवर्ती ब्राह्मण का राजघराना है।

टेकरी राज- बिहार के भूमिहार ब्राह्मण का शासन रहा है।

तमकुही राज- परवर्ती ब्राह्मण का राजघराना है।

ताजपुर राज - उ.प्र. के त्यागी गौर ब्राह्मण द्वारा शासित चैधरी वंशीय घराना है।

दरभंगा राज -मिथिला, बिहार के मैथिल ब्राह्मणों द्वारा शासित राज्य है।

दिधपटियां राज बंगाल- यहां वारेन्डर ब्राह्मणों की रॉय वंश का शासन रहा है।

धरहरा एस्टेट- यह भूमिहार ब्राहमणों का स्वनियंत्रित परवर्ती जागीर है।

नवगढ़ -यह स्वनियंत्रित जागीर है।

नरहन स्टेट--यह स्वनियंत्रित जागीर है।

नादिया राज बंगाल- कुलीनब्राह्मण रॉय या रे वंश का शासन यहां रहा है।

नाथद्वार थिकाना एस्टेट - उदयपुर यह स्वनियंत्रित जागीर है।

नेसौर (बिजनौर)जमींदारी- त्यागी गौर ब्राह्मण(चैधरी श्याम नारायण सिंह चैधरी वंश का घराना है।

नैतोर राज रॉयवंश- बंगाल के वारेन्डर ब्राह्मण का शासन यहां रहा है।

पन्यम जमींदारी - मद्रास प्रेसीडेंसी के देशष्ठ ब्राह्मणों का शासन यहां रहा है।

पर्सागढ़ एस्टेट (छपरा )- यह स्वनियंत्रित जागीर है।

पटवर्धन राजवंश - चितपावन ब्राह्मण पटवर्धन परिवार द्वारा स्थापित एक भारतीय राजवंश है।

परिहंस एस्टेट--यह स्वनियंत्रित जागीर है।

पैनाल गढ़--यह स्वनियंत्रित जागीर है।

पंडुई/ पुनडोई राज-यह स्वनियंत्रित जागीर है।

पंथ पिपलोदा प्रांत- ब्रिटिश भारत का ब्राह्मण शासित एक जागीर है।

पोलावरम जमींदारी - तेलुगुब्राह्मणों कुछारलकोटा परिवार का शासन यहां रहा है।

बड़ा गांव (सहारनपुर)-त्यागी गौड़ ब्राह्मण(चैधरी  मूलराज सिंह त्यागी) चैधरी वंश का घराना है।

बभनगावां राज- परवर्ती ब्राह्मण का राजघराना है।

बनारस का राज- परवर्ती ब्राह्मण जमींदारी राजघराना है। यह 13 तोपों की सलामी या 15 तोपों की सलामी वाला स्थानीय भूमिहार ब्राह्मणों के शासन का राज्य रहा है।

बनाली एस्टेट- बिहार मैथिल ब्राह्मणों के चैधरी बहादुर वंश का शासन रहा है।

बेतिया राज- परवर्ती भूमिहार ब्राह्मणों का राजघराना हैं।

बौध राज्य – क्योंझर के राजा की ब्राह्मण परिवार की एक रियासत है, जिसके भतीजे उत्तराधिकारी के रूप में शासन पाये थे।

भरतपुरा राज- परवर्ती ब्राह्मण का राजघराना है।

भावल एस्टेट - बंगाल श्रोतिय ब्राहमणों का चैधरी वंश का घराना है।

भेलावर गढ़--यह स्वनियंत्रित जागीर है।

भोरराज्य,- देशाष्ठ ब्राह्मणों का एक 9 तोपों की सलामी वाला रियासत है।

मकसुदपुर राज- परवर्ती भूमिहार ब्राह्मणों का स्वनियंत्रित जमींदारी राज है। मधुबन राज - मैथिली ब्राह्मणों का यह स्वनियंत्रित जागीर है।

मंझा राज -यह स्वनियंत्रित जागीर है।

मिराज- जूनियर और वरिष्ठ राज्यों द्वारा शासित गया चितपावन ब्राह्मणों का राजवंश है।

मेमेन्सिंघ राज - बंगाल की वरेंद्र ब्राह्मण चैधरी वंश का घराना है।

मुक्तागच राज बंगाल- वारेन्डर ब्राह्मणों का चैधरी वंश का शासन रहा है।

येलंडूर संपत्ति- तत्कालीन मैसूर राज्य में माधव ब्राह्मणों की एक जागीर है।

रतवारा राज- समस्तीपुर के कल्यानपुर तहसील और सीतामढ़ी में रतवारा का अस्तित्व कहा जा सकता है।

रतनगढ़ बिजनौर - त्यागी गौड़ ब्राह्मण द्वारा शासित तगाराव जोखा सिंह त्यागी एक पूर्व सेनापति (या राव) थे जिनकी उत्तरी शाखा मराठा कॉन्फेडरेट आर्मी थी, जिसके नियंत्रण में तराई हिमालय अड्डों में चैधरी वंश का घराना है।

रसना (गाजियाबाद) - त्यागी गौड़ ब्राह्मण(चैधरी न्यादर  सिंह त्यागी) का चैधरी वंशीय घराना है।

राजगोला जमींदारी, -यह स्वनियंत्रित जागीर है।

राजशाही राज - बंगाल के वारेन्डर ब्राह्मणों के शासन वाला रियासत है।

रामदुर्ग राज्य -चितपावन ब्राह्मणों का का घराना है।

रामनगर जमींदारी--यह स्वनियंत्रित जागीर है।

रोहुआ एस्टेट-यह स्वनियंत्रित जागीर है।

रंधर एस्टेट-यह स्वनियंत्रित जागीर है।

लक्कावरम जमींदारी - तेलुगुब्राह्मणों का मंत्री प्रीगद का घराना है।

रूपवाली एस्टेट-यह स्वनियंत्रित जागीर है।

रुसी राज -यह स्वनियंत्रित जागीर है।

लट्टा गढ़ -यह स्वनियंत्रित जागीर है।

वाझिलपुर - त्यागी गौड़ ब्राह्मण(चैधरी रामरिच त्यागी, भीम सिंह रास) चैधरी वंशीय घराना है।

वायरा फिरोजपुर (बुलंदशहर)- त्यागी गौड़ ब्राह्मण(चैधरीराम शरणत्यागी) चैधरी वंशीय घराना है।

विशालगद एस्टेट- देशष्ठ ब्राह्मणों का ब्रिटिशकालीन घराना है।

सांगलीराज्य- चितपावन ब्राह्मणों का एक 11 तोपों की सलामी वाला रियासत है।

सियोहरा (बिजनौर)- त्यागी गौड़ ब्राह्मणों (राजा रघुराज सिंह त्यागी) का घराना है।

सिंहवारा एस्टेट- मिथिला, बिहार मैथिल ब्राह्मणों  के शासन वाला रियासत है।

सुल्तानपुर की जमींदारी - त्यागी गौड़ ब्राह्मणों का (चैधरी महाराज सिंह) का घराना है।

सूसंगाजक्त बेंगा- वारेन्डर ब्राह्मणों काएल सिन्हा वंश का शासन रहा है।

शाहदरा दिल्ली- त्यागी गौड़ ब्राह्मण (चैधरी मेहराम त्यागी) चैधरी वंशीय शासन रहा है।

शिमलापल राज- उत्कल ब्राह्मणों का घराना है।

शिवहर राज- परवर्ती भूमिहार ब्राह्मण का राजघराना हैं।

शिवहरा (बिजनौर) -त्यागी गौर ब्राह्मण(चैधरी रघुराज सिंह त्यागी) चैधरी वंशीय घराना है।

हथुआ राज- परवर्ती ब्राह्मण जमींदारी राजघराना है।

हरदी एस्टेट--यह स्वनियंत्रित जागीर है।

विलुप्त रियासतें

असुराह एस्टेट अब समाप्त हो गया है।

औरंगाबाद में बाबू अमौना तिलकपुर ,शेखपुरा स्टेट समाप्त हो गया है । जहानाबाद में तुरुक तेलपा स्टेट अब समाप्त हो गया है ।

क्षेओतर गया- अब समाप्त हो गया है।

बारों एस्टेट (इलाहाबाद) अब समाप्त हो गया है

पिपरा कोय्ही एस्टेट (मोतिहारी) अब समाप्त हो गया है।


भूमिहार ब्राहमण डा. राधेश्याम द्विवेदी

 

भूमिपति ब्राह्मणों के लिए पहले जमींदार ब्राह्मण शब्द का प्रयोग होता था।याचक ब्राह्मणों के एक दल ने विचार किया कि जमींदार तो सभी जातियों को कह सकते हैं,फिर हममे और जमीन वाली जातियों में क्या फर्क रह जाएगा।काफी विचार विमर्श के बाद भूमिहार शब्द अस्तित्व में आया।

भूमिहार ब्राह्मण शब्द के प्रचलित होने की कथा भी बहुत रोचक है। भूमिहार ब्राह्मण भगवान परशुराम को प्राचीन समय से अपना मूल पुरुष और कुल गुरु मानते है। माना जाता है कि भगवान परशुराम जी ने क्षत्रियों को पराजित कर विजित जमीन अपने गुरु कश्यप व ब्राहमणों को दान में दे दिया था। बाद ब्राह्मणों ने पूजा-पाठ का परम्परागत पेशा छोड़ जमींदारी शुरू कर दी और युद्ध में प्रवीणता हासिल कर ली थी। ये ब्राह्मण ही भूमिहार ब्राह्मण कहलाये। तभी से परशुराम जी को भूमिहारों का जनक और भूमिहार-ब्राह्मण वंश का प्रथम सदस्य माना जाता है।

भूमिहार (अयाचक ब्राह्मण) एक ऐसी सवर्ण जाति है जो अपने शौर्य, पराक्रम एवं बुद्धिमत्ता के लिये जानी जाती है। बिहार, उत्तर प्रदेश एवं झारखण्ड में निवास करने वाली भूमिहार जाति को अयाचक ब्राह्मणों के रूप में जाना व पहचाना जाता हैं। मगध के महान पुष्य मित्र शुंग और कण्व वंश दोनों ही ब्राह्मण राजवंश भूमिहार ब्राह्मण थे।  प्रारंभ में कान्यकुब्ज शाखा से निकले लोगो को भूमिहार ब्राह्मण कहा गया,उसके बाद सारस्वत, महियल, सरयूपारी, मैथिल, चितपावन, कन्नड़ आदि शाखाओं के अयाचक ब्राह्मण लोग पूर्वी उत्तर प्रदेश तथा बिहार के लोगो से सम्बन्ध स्थापित कर भूमिहार ब्राह्मणों में मिलते गए। मगध के ब्राहमण और मिथिलांचल के पश्चिमा तथा प्रयाग के जमींदार ब्राह्मण भी अयाचक होने से भूमिहार ब्राह्मणों में ही सम्मिलित होते गए।

बनारस राज्य - भूमिहार ब्राह्म्णों के अधिपत्य में 1725-1947 तक रहा । इसके अलावा कुछ अन्य बड़े राज्य बेतिया,हथुवा,टिकारी,तमकुही,लालगोला इत्यादि भी भूमिहार ब्राह्म्णों के अधिपत्य में रहे । बनारस के भूमिहार ब्राह्मण राजा ने अंग्रेज वारेन हेस्टिंग और अंग्रेजी सेना की ईट से ईट बजा दी थी। भूमिहार ब्राह्मणों के इतिहास को पढने से पता चलता है की अधिकांश समाजशास्त्रियों ने भूमिहार ब्राह्मणों को कान्यकुब्ज की शाखा माना है। इनके अनेक गाँव बसते है।.कालांतर में इनके वंशज उत्तर प्रदेश तथा बिहार के विभिन्न गाँव में बस गए। गर्भू तेवारी के वंशज भूमिहार ब्रह्मण कहलाये। इनसे वैवाहिक संपर्क रखने वाले समस्त ब्राह्मण कालांतर में भूमिहार ब्राह्मण कहलाये। गहढ़वाल काल के बाद मुसलमानों से त्रस्त भूमिहार ब्राह्मण जब कान्यकुब्ज क्षेत्र से पूर्व की ओर पलायन प्रारंभ किया और अपनी सुविधानुसार यत्र तत्र बस गए तो अनेक उपवर्गों के नाम से संबोधित होने लगे। यथा ड्रोनवार ,गौतम, कान्यकुब्ज, जेथारिया आदि। अनेक कारणों,अनेक रीतियों से उपवर्गों का नामकरण किया गया। कुछ लोगो ने अपने आदि पुरुष से अपना नामकरण किया और कुछ लोगो ने गोत्र से। कुछ का नामकरण उनके स्थान से हुआ जैसे सोनभद्र नदी के किनारे रहने वालो का नाम सोन भरिया, सरस्वती नदी के किनारे वाले सर्वारिया, सरयू नदी के पार वाले सरयूपारी आदि। मूलडीह के नाम पर भी कुछ लोगो का नामकरण हुआ जैसे,जेथारिया,हीरापुर पाण्डे,वेलौचे,मचैया पाण्डे,कुसुमि तेवरी, ब्रहम्पुरिये ,दीक्षित ,जुझौतिया ,आदि।

भूमिहारों से सम्बंधित स्वनियंत्रित स्टेट

अनापुर एस्टेट ( इलाहाबाद) , अमावा राज. आगापुर स्टेट ऐनखाओं जमींदारी ऐशगंज जमींदारी ,औसानगंज राज, कयाल गढ़ केवटगामा जमींदारी खौरअ स्टेट, घोसी एस्टेट गोरिया कोठी एस्टेट (सिवान) ,चैनपुर ,जोगनी एस्टेट, जैतपु,र एस्टेट, जोगनी एस्टेट, जौनपुर का राज   टिकारी राज तमुकही राज धरहरा राज, नरहन स्टेट, नवगढ़ स्टेट,पर्सागढ़ एस्टेट (छपरा ) परिहंस एस्टेट, पैनाल गढ़, पंडुई राज, बभनगावां राज, बेतिया राज,राजगोला जमींदारी , भेलावर गढ़, भरतपुर राज , मकसुदपुर राज, मधुबनी स्टेट मंझा स्टेट, रामनगर जमींदारी, रोहुआ एस्टेट, राजगोला जमींदारी, रूपवाली एस्टेट, रुसीएस्टेट  रंधर एस्टेट, लट्टा गढ़ , शिवहर राज, हरदी एस्टेट हथुवा राज आदि।

 

ऐतिहासिक ब्राहमण राजवंश डा. राधेश्याम द्विवेदी

 

पौराणिक बाहमण राजवंशों की प्रमाणिकता उतना नहीं माना जाता जितना एतिहासिक राजवंशों का माना जाता है। अधिकांशतः ये राजवंश दक्षिण भारत में ही पाये गये ।  उत्तर भारत प्रायः विदेशी आकान्ताओं से बार बार प्रताड़ित होता रहा है।

1.सातवाहन राजवंश (60 ई.पू. से 240 ई.) भारत का प्राचीन ब्राम्हण राजवंश था। इसने केन्द्रीय दक्षिण भारत पर शासन किया था। भारतीय इतिहास में यह राजवंश आन्ध्र वंशके नाम से भी विख्यात है। इस वंश में 22 शासकों ने लगभग 300 साल शासन किया था।

2. कण्व राजवंश या काण्व वंशयाकाण्वायन वंश’- ईस्वी पूर्व 26 से 72 वर्ष के बीच वासुदेव भूमिमित्र नारायण तथा सुदर्शन नामक ब्राह्मण राजाओं ने राज किया। ईसा से 27 वर्ष पहले मेघस्वाती नामक राजा ने कणवायन ब्राह्मणों से ही मगध का राज लिया था।

3. शुंग राजवंश प्राचीन भारत का एक शासकीय वंश था जिसने मौर्य राजवंश के बाद शासन किया। इसका शासन उत्तर भारत में 187 ईसा पूर्व से 75 ईसा पूर्व तक कुल 10 राजाओं ने 112 वर्षों तक शासन किया था। पुष्यमित्र शुंग इस राजवंश का प्रथम शासक था। शुंग राजवंश उत्तर भारत का मगध आधार लेकर यह एक शक्तिशाली राज वंश था।

4. वाकाटक राजवंश (300 से 500 ईसवी लगभग) वाकाटक भारतीय उपमहाद्वीप है इसके दक्षिणी किनारों से विस्तार किया है माना जाता है से एक राजवंश था मालवा और गुजरात के उत्तर में तुंगभद्रा नदी दक्षिण मेंऔर साथ हीसे अरबसमुद्र की के किनारों में पश्चिम में छत्तीसगढ़ के पूर्वमें था। सातवाहनों के उपरान्त दक्षिण की महत्त्वपूर्ण शक्ति के रूप में उभरा। 250 ई. पूर्व बाकाटक नाम के एक ब्राह्मण का राज्य था। तीसरी शताब्दी ई. से छठी शताब्दी ई. तक दक्षिणापथ में शासन करने वाले समस्त राजवंशों में वाकाटक वंश सर्वाधिक सम्मानित एवं सुसंस्कृत था।

5. परिब्रजक राजवंश- 5 वीं और 6 वीं शताब्दी में मध्य भारत के शासन भाग में यह शासन किया था इस राजवंश के राजाओं ने महाराजा की उपाधि धारण की थी। शायद इन लोगो ने गुप्त साम्राज्य के सामंतों के रूप में शासन किया था। इस शाही परिवार के ब्राह्मणों के वंश से भारद्वाज गोत्र प्रकाश में आया था ।

6. चुटु राजवंश - चुटु राजवंश के शासकों ने दक्षिण भारत के कुछ भागों पर ईसा पूर्व पहली शताब्दी से लेकर तीसरी शताब्दी (ईसा पश्चात) तक शासन किया। उनकी राजधानी वर्तमान कर्नाटक के उत्तर कन्नड जिले के बनवासी में थी। अशोक के शिलालेखों को छोड़ दें तो चुटु शासकों के शिलालेख ही कर्नाटक से प्राप्त सबसे प्राचीन शिलालेख हैं। यह राजवंश दक्षिण भारत पहली शताब्दी ई. पु. से तृतीय शताब्दी ई. तक राज किया है। कर्नाटक के उत्तरी कन्नण में बनबासी  इनका राजधानी  था।

7. कदंब राजवंश- कदंब वंश (345 - 525 सी ई.) एक राजवंश था जिसने वर्तमानमें उत्तर कन्नड़ जिले के उत्तरी कर्नाटक पर और कोंकण के बनवासी क्षेत्रों पर शासन किया था। यह दक्षिण भारत का एक ब्राह्मण राजवंश है। कदंब कुल का गोत्र मानव्य था जो अपनी उत्पत्ति हारीति से मानते थे। ऐतिहासिक साक्ष्य के अनुसार कदंब राज्य का संस्थापक मयूर शर्मन् नाम का एक ब्राह्मण था जो विद्याध्ययन के लिए कांची में रहता था और किसी पल्लव राज्यधिकारी द्वारा अपमानित होकर  चैथी शती ईसवी के मध्य (लगभग 345 ई.) प्रतिशोधस्वरूप कर्नाटक में एक छोटा सा राज्य स्थापित किया था। इस राज्य की राजधानी वैजयंती थी।

8. गंग राजवंश (पश्चिमी)- दक्षिण भारत (वर्तमान कर्नाटक) का एक विख्यात राजवंश था। इसका राज्य 250 ई से 1000 ई तक अस्तित्व में था। ये लोग काण्वायन गोत्र के थे और इनकी भूमि गंगवाडी कही गई है। इस वंश का संस्थापक कोंगुनिवर्मन अथवा माधव प्रथम था। उसका शासन 250 और 400 ई. के बीच रहा। उसकी राजधानी कोलार थी।

9. वर्मन राजवंश- धर्म महाराज श्री भद्रवर्मन् जिसका नाम चीनी इतिहास में फनहुता (380-413 ई.) मिलता है। इसने वर्मन राजवंश की स्थापना की। ये एक ऐसा एकमात्र राजवंश है इतिहास में जिसने चीन पर भी शासन किया है। इस प्रकार वर्मन भारत से चीन तक इसका विस्तार सीमा क्षेत्र पर रहा।

10.पल्लव राजवंश - इसका समय सी.285 -905 सीई.) था। तमिल जैन (तमिल सामर राजवंश), पल्लव शासित आंध्र (कृष्ण-गुंटूर) और उत्तर और मध्य तमिलनाडु पर इनका शासन था। इस पल्लव राजा, महेन्द्रवर्मन शैव को इस वंश के पारंपरिक रूप से परिवर्तित करने का श्रेय जाता है।

11.संगम राजवंश- विजयनगर साम्राज्य के हरिहर और बुक्की ने अपने पिता संगम के नाम पर संगम राजवंश (1336-1485 ई.) की स्थापना की थी। विजयनगर साम्राज्य पर राज करने वाला प्रथम ब्राम्हण शासक संगम विजय नगर 1336 1485 तक शासन किया था।

12. सालुव राजवंश-   इसका संस्थापक सालुव नरसिंह था। 1485 ई. में संगम वंश के विरुपाक्ष द्वितीय की हत्या उसी के पुत्र ने कर दी थी, और इस समय विजयनगर साम्राज्य में चारों ओर अशांति व अराजकता का वातावरण था। इन्हीं सब परिस्थितियों का फायदा नरसिंह के सेनापति नरसा नायक ने उठाया। उसने विजयनगर साम्राज्य पर अधिकार कर लिया और सालुव नरसिंह को राजगद्दी पर बैठा दिया । विजय नगर में 1485 से संगम को समाप्त करके यह वंश सत्तासीन हुआ था।

13. मोहिवाल राजवंश - (580 से 700 ईसवी) के मध्य रहा। मोहियाल दो शब्दों मोहि और आल से बनकर मिला है। मोहि यानि जमीन और आल यानि मालिक अर्थात भूमि का मालिक। इस अश्वत्थामा वंश के दत्त ब्राह्मणों को हुसैनी ब्राह्मण भी कहा जाता है ।

14. चच राजवंश -ईस्वी सन् 769 के असापास चच और चन्द्र ये दोनों ही राजा ब्राह्मण थे जिन्हें अरब विजेता मुहम्मद इब्न कासिम ने पराजित किया था। ईस्वी् सन् 769 के असापास रहा। चच पुत्र दाहिर को अरब विजेता मुहम्मचद इब्न  कासिम ने पराजित किया था।

15. भटिण्डा राजवंश- ईस्वी सन् 977 के पहले जयपाल का राज्य था जो ब्राह्मण था।जिसे सुबुक्तऋगीन ने हराकर भटिंडा को राजधानी बनाया था। यह जयपाल का राज्य  977 ई. के पहले था जो ब्राहमण था। जिसे सुबुक्तगीन ने हराकर भटिण्डा को राजधानी बनाया था।

16. पेशवाई राजवंश (1714 - 1818 ईसवी)- मराठा साम्राज्य के प्रधानमंत्रियों को पेशवा (मराठी पेशवे) कहते थे। ये राजा के सलाहकार परिषद अष्टप्रधान के सबसे प्रमुख होते थे। राजा के बाद इन्हीं का स्थान आता था। शिवाजी के अष्टप्रधान मंत्रिमंडल में प्रधान मंत्री अथवा वजीर का पर्यायवाची पद था। पेशवा फारसी शब्द है जिसका अर्थ अग्रणी है।

17. खण्डवाल दरभंगा राजवंश- इस राजवंश की स्थापना मैथिल ब्राह्मण जमींदारों ने 16वीं सदी की शुरुआत में की थी। ब्रिटिश राज के दौरान तत्कालीन बंगाल के 18 सर्किल के 4,495 गांव दरभंगा नरेश के शासन में थे। प्रशासन देखने के लिए लगभग 7,500 अधिकारी बहाल किये गये थे। भारत के रजवाड़ों में दरभंगा राज का अपना खास ही स्थान रहा है।

18.सिंध ब्राह्मण राजवंश- इस वंश की स्थापना चकोर ऑफ अलोर, बाद में सिंध के चंदर और द्वारा शासित राजा दाहिर द्वारा की गई थीद्वारा की गई थी

19.भृष्ट राजवंश-यह एक मध्यकालीन हिंदू राजवंश था जो अब हावड़ा और हुगली जिले में है। यह पश्चिम बंगाल के भारतीय राज्य था जो एक रॉयल ब्राह्मण परिवार के शासन के अधीन था।

20 बागोचिया राजवंश -यह राजा बीरसेन द्वारा की स्थापना की गई भूमिहार वंश और भ्ंाूजीं राज के शासक वंश के थे जिसने गांवराज्य पर रोक लगाई थी।इस वंश की कैडेट शाखा परिवार ने तमकुही राज, सलेमगढ़ एस्टेट , लेडोगैडी, किजोरी एस्टेट और खन्ना घाटवाली पर भी शासन किया पर भी शासन किया ।

 

 

पौराणिक ब्राहमण राजवंश का इतिहास डा. राधेश्याम द्विवेदी

 

हिंदू धर्म के चार वर्णों में ब्राह्मण सर्वोच्च अनुष्ठान के स्थान पर हैं। वैदिक काल के बाद से ब्राह्मण को आमतौर पर पुजारी, संरक्षक, शिक्षक के रूप में वर्गीकृत किया जाता था, जो शासक, जमींदार, राजा, योद्धा और अन्य सर्वोच्च प्रशासनिक पदों के धारक थे। उनकी मार्शल क्षमताओं के कारण, ब्राह्मणों को सबसे पुराना मार्शल समुदायके रूप में वर्णित किया गया था। अतीत में दो सबसे पुरानी रेजिमेंट ब्राह्मण से ही बने हुए थे। ब्राहमण सेना में भर्ती होते हैं, क्योंकि उनकी शानदार काया होती है। उनकी नस्ल और नस्ल का गौरव परेड पर उनकी स्वच्छता और स्मार्टनेस में परिलक्षित होता है। वे सकुशल एथलीट हैं, विशेषज्ञ पहलवान हैं, और ताकत के करतब में उत्कृष्टता रखते हैं और उनके पास साहस के लिए एक उच्च प्रतिष्ठा है।

राज प्रबंध चलाने  हेतु अथवा प्रजा को न्याय दिलाने हेतु वेदों को आधार मानकर पुरोहित वर्ग ब्राह्मण के माध्यम से वैधानिक  व्यवस्थाएं लेते थे। ब्राह्मण राजा को प्रजा के बारे में  उसके कर्तव्यों के प्रति सचेत रखता था। प्रजा के कर्तव्य भी ब्राह्मण द्वारा निश्चित किए जाते थे। ब्राह्मणों के कठोर अनुशासन  राजाओं को सहने पड़ते थे। इतिहास के पन्ने उलटने पर जानकारी मिलेगी कि ब्राह्मण के कठोर अनुशासन के नीचे दबकर रहना क्षत्रिय के लिए असहनीय हो उठा। चन्द्रगुप्त ने गुरू चाणक्य का वृषल संबोधन तो सहन कर लिया, किन्तु आगे चलकर अशोक को बुद्ध धर्म को अपनाना पड़ा।

ब्राह्मणों के यज्ञों पर पाबंदी

जब सारा विश्व अज्ञान के कोहरे से आच्छादित  था तब लोग पहाड़ों में भेड़-बकरियां चराते फिरते थे। वो घास-फूस  की झोपड़ियों व पर्वत  की गुफाओं में रहते थे। पशुओं का कच्चा मांस खाते थे। उनकी खाल व वृक्षों की छाल को पहनते थे। जब न संस्कृति थी न सभ्यता  थी न गिनती का ज्ञान था।  प्राकृतिक आपदाओं का प्रतिकार था और न ही बीमारियों का कोई उपचार था तब वृहतर  भारत में सुदूर अतीत में  विभिन्न स्थानों पर ब्रह्मर्षियों ने वेद का साक्षात्कार किया था। वेद का अर्थ है ज्ञान, ज्ञान ईश्वर प्रदत्त है अतः वेद को अपौरूषेय कहा गया है। इतने बड़े वैदिक साहित्य की सरंचना तथा उसका अक्षुण्य परिक्षण करना कोई सहज कार्य नहीं है। विश्व के किसी भी समाज का आज तक इतना बड़ा योगदान न किसी ने देखा है और न ही किसी ने सुना है। विश्व ब्राह्मण समाज का सदा ऋणी एवं कृतज्ञ रहेगा। जब मानस पुत्रों की कोई संतान न होने से सृष्टि वृद्धि नहीं हुई तो फिर ब्रह्माजी ने अपने समान गुणों वाले सात मानस पुत्र पैदा किए। मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु एवं वशिष्ठ। सर्वप्रथम ये सात ब्राह्मण हुए। जिनमें पुलस्त्य की संतान राक्षस हो गई। तब छब्राह्मण सर्वप्रथम हुए। अतएव इन्हीं की वंश परम्परा चलकर छरून्याति ब्राह्मण हुए। ब्राह्मणों के प्रथमोत्पति स्थान को मनु ने ब्रह्मावर्त नाम के देश से वर्णन किया है। ब्राह्मणें की उत्पत्ति बार-बार जिस देश में होती है उस देश को ब्रह्मावर्त कहा जाने लगा। बाद में ब्राहमण सत्ता पर क्षत्रियों का कब्जा होने लगा और ब्राहमणों को बन का रास्ता नापना पड़ा। ब्राह्मण समुदाय इस अपमान का सहन नहीं कर सका और उसने क्षत्रियों से सत्ता छीननी आरंभ कर दी। परिणाम स्वरूप ब्राह्मणों ने देश पर कई वर्षों तक राज किया। इनमें निम्नलिखित वंश राजवंश प्रसिद्ध हुए  1. शुक 2. गृत्समद 3. शोनक 4. पुलिक 5. प्रद्यौत       6. पालक 7. विशाखपुप 8. अजय 9. नन्दीवर्धन। पौराणिक उल्लेख होने का कारण इनका ऐतिहासिक महत्व कम मिलता है।

महर्षि विश्वश्रवा का वंश

पुलस्त्य ऋषि का विवाह कर्दम ऋषि की नौ कन्याओं में से एक से हुआ जिनका नाम हविर्भू था। उन ऋषि के दो पुत्र उत्पन्न हुए- महर्षि अगस्त्य एवं विश्रवा। विश्रवा की दो पत्नियाँ थीं - एक थी राक्षस सुमाली एवं राक्षसी ताड़का की पुत्री कैकसी, जिससे रावण, कुम्भकर्ण उत्पन्न हुए, तथा दूसरी थी इडविडा- जिससे कुबेर तथा विभीषण उत्पन्न हुए। इडविडा चक्रवर्ती सम्राट तृणबिन्दु की अलमबुशा नामक अप्सरा से उत्पन्न पुत्री थी। गोस्वामी तुलसीदास ने रावण के संबंध में उल्लेख करते हुए लिखा है- उत्तम कुल पुलस्त्य कर गाती।

शुक राजवंश

असुराचार्य भृगु ऋषि तथा दिव्या के पुत्र जो शुक्राचार्य के नाम से अधिक विख्यात हैं। इनका जन्म का नाम शुक्र उशनस है। पुराणों के अनुसार यह दैत्यों के गुरु तथा पुरोहित थे। पौराणिक इतिहास में इनका महत्वपूर्ण योगदान है।

शौनक राजवंश

शौनक एक संस्कृत वैयाकरण तथा ऋग्वेद प्रतिशाख्य, बृहद्देवता, चरणव्यूह तथा ऋग्वेद की छः अनुक्रमणिकाओं के रचयिता ऋषि हैं। वे भृगुवंशी शुनक के पुत्र थे। वे कात्यायन और अश्वलायन के गुरु माने जाते हैं। उन्होने ऋग्वेद की बश्कला और शाकला शाखाओं का एकीकरण किया। विष्णुपुराण के अनुसार शौनक गृतसमद के पुत्र थे। नौमिषारण्य में इनकी कथा के अनेक प्रसंग मिलते है। आजकल ज्यादातर शौनक ऋषि के वंशज उतर प्रदेश के कुछ हिस्सों में और हरियाणा के सूलचानी गाँव में रहते हैं।शुनक सूर्य वंश के अंतिम राजा रिपुंजय अथवा अरिंजय का महामात्य था। उसने रिपुंजय का वध कर राजगद्दी पर अपने पुत्र प्रद्योत को बिठाया था, जिससे आगे चलकर प्रद्योत राजवंश की स्थापना हुई।

प्रद्योत राजवंश-

प्रद्योत राजवंश प्राचीन भारत में राज्य करने वाला वंश था। 6वीं सदी ई. पू. वीतिहोत्र नामक वंश ने हैहय राजवंश को हटाकर अवन्ति में अपनी राजनीतिक सत्ता की स्थापना की। यह इस वंश का प्रथम पुरुष था। परंतु इसके तुरंत बाद ही प्रद्योत राजवंश के शासकों ने वीतिहोत्रों के राज्य पर अपना अधिकार कर लिया। प्रद्योत वंश के अभ्युदय के साथ यहाँ के इतिहास के बारे में साक्ष्य मिलने शुरू हो जाते हैं। पुराणों से प्रमाण मिलता है कि गौतम बुद्ध के समय अमात्य पुलिक ने समस्त क्षत्रियों के सम्मुख अपने स्वामी की हत्या करके अपने पुत्र प्रद्योत को अवन्ति के सिंहासन पर बैठाया था। हर्षचरित के अनुसार इस अमात्य का नाम पुणक या पुणिक था। इस प्रकार वीतिहोत्र कुल के शासन की समाप्ति हो गई तथा 546 ई. पू. यहाँ प्रद्योत राजवंश का शासन स्थापित हो गया। इन सभी राजाओं ने कुल एक सौ अड़तीस वर्षों तक राज्य किया। इस वंश का राज्यकाल संभवतः 745 ई. पू. से 690 ई. पू. के बीच माना जाता है। उक्त राजाओं के नाम सभी पुराणों में एक से मिलते हैं।

प्रद्योत राजवंश में कुल पाँच राजा हुए, जिनके नाम क्रम से इस प्रकार थे-

1.         प्रद्योत

2.         पालक

3.         विशाखयूप

4.         जनक (अजक)

5.         नंदवर्धन (नंदिवर्धन अथवा वर्तिवर्धन)

प्रद्योत

प्राचीन भारत के प्रद्योत राजवंश का प्रथम राजा था। वह शुनक का पुत्र था। इसका पिता शुनक सूर्य वंश के अंतिम राजा रिपुंजय अथवा अरिंजय का महामात्य था। उसने रिपुंजय का वध कर राजगद्दी पर अपने पुत्र प्रद्योत को बिठाया था, जिससे आगे चलकर प्रद्योत राजवंश की स्थापना हुई। पुराणों से प्रमाण मिलता है कि गौतम बुद्ध के समय अमात्य पुलिक ने समस्त क्षत्रियों के सम्मुख अपने स्वामी की हत्या करके अपने पुत्र प्रद्योत को अवन्ति के सिंहासन पर बैठाया था। हर्षचरित के अनुसार इस अमात्य का नाम पुणक या पुणिक था। इस प्रकार वीतिहोत्र कुल के शासन की समाप्ति हो गई तथा 546 ई. पू. यहाँ प्रद्योत राजवंश का शासन स्थापित हो गया। भविष्यपुराण में प्रद्योत को क्षेमक का पुत्र कहा गया है एवं इसे म्लेच्छहंताउपाधि दी गयी है। इसके पिता क्षेमक अथवा शुनक का म्लेच्छों ने वध किया। अपने पिता की मृत्यु का बदला लेने के लिए नारद की सलाह से इसने म्लेच्छयज्ञआरम्भ किया। उस यज्ञ के लिए इसने सोलह मील लम्बा एक यज्ञकुंण्ड तैयार करवाया। इसके पश्चात् इसने वेद मंत्रों के साथ निम्नलिखित म्लेच्छ जातियों को जलाकर भस्म कर दिया-राजा प्रद्योत अपने समकालीन समस्त राजाओं में प्रमुख था, इसलिए उसे चण्ड कहा जाता था। उसके समय अवन्ति की उन्नति चरमोत्कर्ष पर थी। चण्ड प्रद्योत का वत्स नरेश उदयन के साथ दीर्घकालीन संघर्ष हुआ, किंतु बाद में उसने अपनी पुत्री वासवदत्ता का विवाह उदयन से कर मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित किया। बौद्ध ग्रंथ विनयपिटक के अनुसार चण्ड प्रद्योत के मगध नरेश बिम्बिसार के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध थे। जब चण्ड प्रद्योत पीलिया रोग से ग्रसित था, तब बिम्बिसार ने अपने राजवैद्य जीवक को उज्जयिनी भेजकर उसका उपचार कराया था, परंतु उसके उत्तराधिकारी अजातशत्रु के अवन्ति नरेश से संबंध अच्छे नहीं थे। मंझिमनिकाय से ज्ञात होता है कि चण्ड प्रद्योत के सम्भावित आक्रमण के भय से अजातशत्रु ने अपनी राजधानी राजगृह की सुदृढ़ किलेबंदी कर ली थी। राजा प्रद्योत अपने समकालीन समस्त राजाओं में प्रमुख था, इसलिए उसे ष्चण्डष् कहा जाता था। प्रद्योत के समय अवन्ति की उन्नति चरमोत्कर्ष पर थी। चंड प्रद्योत का वत्स नरेश उद्मन के साथ दीर्घकालीन संघर्ष हुआ, किंतु बाद में उसने अपनी पुत्री वासवदत्ता का विवाह उद्मन से कर मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित किया। बौद्ध ग्रंथ विनयपिटक के अनुसार चण्ड प्रद्योत के मगध नरेश बिम्बिसार के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध थे। जब चण्ड प्रद्योत पीलिया रोग से ग्रसित था, तब बिम्बिसार ने अपने राजवैद्य श्जीवकश् को उज्जयिनी भेजकर उसका उपचार कराया था, परंतु उसके उत्तराधिकारी अजातशत्रु के अवन्ति नरेश से संबंध अच्छे नहीं थे।

पालक राजवंश-

चण्ड प्रद्योत के पश्चात् उसका पुत्र पालक प्रद्योत संभवतः अपने अग्रज गोपाल को हटाकर उज्जयिनी के राजसिंहासन पर बैठा था। इसका समय 745 से 690 ई. पू. माना जाता है।

पुलिक राजवंश

मगध के वृहद्रथ वंश का अंतिम शासक रिपुंजय थां रिपुंजय के मंत्री का पुलिक नाम था। इसने रिपुंजय की हत्या करके अपने पुत्र प्रद्योत को 546 ई. में राजा बनाया था। बाद में पुलिक के पुत्र प्रदृयोत की हत्या करके एक सामन्त का पुत्र विम्बसार मगध का शासक बना ओर हर्यंक बंश की स्थापना किया था।

नन्दिबर्धन-

नन्दिवर्धन अथवा नन्दवर्धन अथवा वर्तिवर्धन को पुराणों के अनुसार प्रद्योत राजवंश का अंतिम शासक बताया गया है। इसके बारे में अधिक जानकारी का अभाव है। पुराणों के अनुसार नन्दिवर्धन शिशुनाग वंश के अंतिम शासक पंचमक के पूर्व अवन्ति का राजा था। मगध की बढ़ती शक्ति के समक्ष धीरे-धीरे अवन्ति कमजोर होता जा रहा था। अंततः मगध नरेश शिशुनाग ने प्रद्योत राजवंश का अंत कर दिया तथा शूरसेन सहित अवन्ति राज्य को भी मगध में मिला लिया। नंदवर्धन राजाओं के नामांतर केवल वायुपुराण में प्राप्त है।

गृत्समद-

ये बृहस्पति के समकक्ष ऋषि थे। गृत्समद वैदिक काल के एक ऋषि थे, जिन्हें ऋग्वेद के द्वितीय मंडल का अधिकांश भाग (43 में से 36, जिनमें से भजन 27-29 को उनके बेटे कूर्मा और 4-7 सोमहुति की कृतियाँ माना जाता है) की रचना का श्रेय दिया जाता है। गृत्समद अंगिरस के परिवार के शुनहोत्र के एक पुत्र थे, लेकिन इंद्र की इच्छा से वह भृगु परिवार में स्थानांतरित हो गए। और शौनक हो गये।

अजक या जनक राजवंश

अजक या जनक तथा नंदवर्धन राजाओं के नामांतर केवल वायुपुराण में प्राप्त है। इस राजवंश का विस्तृत जानकारी नहीं मिलती हैं। जनक व मिथिला का अजक अजेय से क्या सम्बन्ध रहा यह शोध का विषय है।

  

ब्राहमण वंश की उत्पत्ति डा. राधेश्याम द्विवेदी

 

ब्रह्मा जी ने आदि देव भगवान की खोज करने के लिए कमल की नाल के छिद्र में प्रवेश कर जल में अंत तक ढूंढने का प्रयास किया था, परंतु भगवान उन्हें कहीं भी नहीं मिले। वह अपने अधिष्ठान भगवान को खोजने में सौ वर्ष व्यतीत कर दिये। अंत में उन्होने समाधि ले ली। इस समाधि द्वारा उन्होंने अपने अधिष्ठान को अपने अंतःकरण में प्रकाशित होते देखा। शेष जी की शैय्या पर पुरुषोत्तम भगवान अकेले लेटे हुए दिखाई दिये। ब्रह्मा जी ने पुरुषोत्तम भगवान से सृष्टि रचना का आदेश प्राप्त किया और कमल के छिद्र से बाहर निकल कर कमल कोष पर विराजमान हो गये। इसके बाद संसार की रचना पर विचार करने लगे। यह सम्पूर्ण जगत ब्रह्मा जी के मन और शरीर से उत्पन्न हुये हैं।  जब उन्हें लगा कि मेरी सृष्टि में वृद्धि नहीं हो रही है तो उन्होंने अपने शरीर को दो भागों में विभक्त कर दिया जिनका नाम का और या (काया) हुआ। उन्हीं दो भागों में से एक से पुरुष तथा दूसरे से स्त्री की उत्पत्ति हुई। पुरुष का नाम मनु और स्त्री का नाम शतरूपा कहा गया। मनु और शतरूपा ने ही मानव संसार की शुरुआत की।

पहले वेद एक था। ओंकार में संपूर्ण वांगमय समाहित था। एक देव नारायण था। एक अग्नि और एक वर्ण था। वर्णों में कोई वैशिष्ट्यर नहीं था सब कुछ ब्रह्मामय था। सर्वप्रथम ब्राह्मण बनाया गया और फिर कर्मानुसार दूसरे वर्ण बनते गए। सभी व्यक्ति विराट पुरुष की संतान हैं और सभी थोड़ा बहुत ज्ञान भी रखते हैं तो भी वो अपने आप को ब्राह्मण नहीं कहते। एक निरक्षर भट्टाचार्य मात्र ब्राह्मण के घर जन्म लेने से अपने आपको ब्राह्मण कहता है। और न केवल वही कहता है अपितु भिन्न-भिन्न समाजों के व्यक्ति भी उसे पण्डितजी कहकर पुकारते हैं। लोकाचार और सब न्यायों में वह सब प्रमाणों में बलवान माना जाता है। सर्व ब्रह्मामयं जगत अनुसार सब कुछ ब्रह्म है और ब्रह्म की संतान सभी ब्राह्मण हैं। ब्राह्मण का शब्द दो शब्दों से बना है। ब्रह्म़रमण। इसके दो अर्थ होते हैं, ब्रह्मा देश अर्थात वर्तमान वर्मा देशवासी,द्वितीय ब्रह्म में रमण करने वाला। ऋग्वेद के अनुसार ब्रह्म अर्थात ईश्वर को रमण करने वाला ब्राहमण होता है। कर्म के आधार पर ब्राहमण क्षत्रिय वैश्य शूद्र चार वर्णो की उत्पत्ति हुई। यह कोई एक मापदण्ड से अनुप्रणित ना होकर पूर्णतः कर्म पर आधारित था। ब्राह्मण (आचार्य, विप्र, द्विज, द्विजोत्तम) यह वर्ण व्यवस्था का वर्ण है। ऐतिहासिक रूप हिन्दु वर्ण व्यवस्था में चार वर्ण होते हैं। ब्राह्मण (ज्ञानी ओर आध्यात्मिकता के लिए उत्तरदायी), क्षत्रिय (धर्म रक्षक), वैश्य (व्यापारी) तथा शूद्र (सेवक, श्रमिक समाज)।

ब्राह्मणोत्पतिमार्तन्ड के पृष्ठ संख्या 449 में पं. हरिकृष्ण शर्मा ने साफ लिखा है कि पहले विष्णु के नाभी कमल से ब्रह्मा जी हुये ब्रह्मा का ब्रह्मर्षिनाम करके पुत्र हुआ।  उसके वंश में पारब्रह्म नामक पुत्र हुआ। उसका कृपाचार्य पुत्र हुआ     कृपाचार्य के दो पुत्र हुये उनके छोटा पुत्र शक्ति था। शक्ति के पांच पुत्र हुये पाराशर प्रथम पुत्र से पारीक हुये, दूसरे पुत्र सारस्वत के सारस्वत , तीसरे ग्वाला ऋषि से गौड़ चैथे पुत्र गौतम से गुर्जर गौड़ , पांचवें पुत्र श्रृंगी से उनके वंश शिखवाल छठे पुत्र दाधीच से दायमा या दाधीच हुये थे। यास्क मुनि के निरुक्त के अनुसार- ब्रह्म जानाति ब्राह्मणः यानि ब्राह्मण वह है जो ब्रह्म (अंतिम सत्य, ईश्वर या परम ज्ञान) को जानता है। ईश्वर को जानने वाले ज्ञाताको ब्राह्मण कहा जाता है। ब्राह्मण शब्द का प्रयोग अथर्वेद के उच्चारण कर्ता ऋषियों के लिए किया गया था। फिर प्रत्येक वेद को समझनेके लिए ग्रन्थ लिखे गये उन्हें भी  ब्रह्मण साहित्य कहा गया है।

भारत में सबसे ज्यादा विभाजन या वर्गीकरण ब्राह्मणों में ही है। हिन्दू समाज में ऐतिहासिक स्थिति यह है कि पारंपरिक पुजारी तथा पंडित ही अब ब्राह्मण कहते हैं। ब्राह्मण या ब्राह्मणत्व का निर्धारण माता-पिता की जाती के आधार पर ही होने लगा है। स्कन्दपुराण में षोडशोपचार पूजन के अंतर्गत अष्टम उपचार में ब्रह्मा द्वारा नारद को यज्ञोपवीत के आध्यात्मिक अर्थ में बताया गया है।

जन्मना जायते शूद्रः संस्कारात् द्विज उच्यते।

शापानुग्रहसामर्थ्यं तथा क्रोधः प्रसन्नता।

अतः आध्यात्मिक दृष्टि से यज्ञोपवीत के बिना जन्म से ब्राह्मण भी शुद्र के समान ही होता है। भारत में ब्राह्मण अब वर्ण नहीं अपितु हिन्दू समाज की एक जातिभी है, ब्राह्मण को विप्र’, ‘द्विज’, ‘द्विजोत्तमया भूसुरभी कहा जाता है।

ब्राह्मण का जीवन त्याग अथवा बलिदान का जीवन होता है। उसका प्रत्येक कार्य अपने लिए नहीं वरन् समाज के लिए होता है। ब्राह्मण स्वयं के लिए कुछ नहीं करता। इसी कारण उसे समाज में विशेष सम्मान की दृष्टि से देखा जाने लगा। अपनी साधारण सी आवश्यकता रख कर ज्ञान-विज्ञान की अनवरत साधना, और उससे समाज को उन्नत एवं स्वस्थ बनाने का परम पुनीत कर्तव्य एवं महान जिम्मेदारी ब्राह्मण पर ही है। किसी भी समाज एवम राष्ट्र का पहला सम्बंध ब्राम्हण से होता है । वेदानुसार -हरातत् सिच्यते राष्ट्र ब्राह्मणो यत्र जीयतेअर्थात जिस देश का ब्राह्मण हारता है वह देश खोखला हो जाता है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि राष्ट्र की जागृति, प्रगतिशीलता एवं महानता उसके ब्राह्मणों (बुद्धिजीवियों) पर आधारित होती है। ब्राह्मण राष्ट्र निर्माता होता है, मानव हृदयों में जागरण का संगीत सुनाता है, समाज का कर्णधार होता है। देश काल पात्र के अनुसार सामाजिक व्यवस्था में परिवर्तन करता है और नवीन प्रकाश चेतना प्रदान करता है। त्याग और बलिदान ही ब्राह्मणत्व की कसौटी है। प्राचीन काल से ही ब्राम्हण अपने दायित्वों का निर्वहन करते आये है और करते ही रहेन्गे हम सभी ब्राम्हणो को अपने गौरवशाली इतिहास की जानकारी होनी चाहिए और अपने कर्तव्यों का भी हममे अभी भी वह क्षमता है कि हम समाज का पुनर्निर्माण कर सकते है ।

ब्राह्मण के कर्तव्य:- ब्राह्मण के कर्तव्य इस प्रकार हैं- ब्राह्मण्य’ (वंश की पवित्रता), ‘प्रतिरूपचर्या’ (कर्तव्यपालन) लोकपक्ति’ (लोक को प्रबुद्ध करना) ब्राह्मण स्वयं को ही संस्कृत करके विश्राम नहीं लेता था, अपितु दूसरों को भी अपने गुणों का दान आचार्य अथवा पुरोहित के रूप में करता था।आचार्यपद से ब्राह्मण का अपने पुत्र को अध्याय तथा याज्ञिक क्रियाओं में निपुण करना एक विशेष कार्य था। स्मृति ग्रन्थों में ब्राह्मणों के मुख्य छ कर्तव्य (षट्कर्म) बताये गये हैं- ,पठन , पाठन, यजन , याजन ,दान ,प्रतिग्रह। इनमें पठन, यजन और दान सामान्य तथा पाठन, याजन तथा प्रतिग्रह विशेष कर्तव्य हैं। आपद्धर्म के रूप में अन्य व्यवसाय से भी ब्राह्मण निर्वाह कर सकता था, किन्तु स्मृतियों ने बहुत से प्रतिबन्ध लगाकर लोभ और हिंसावाले कार्य उसके लिए वर्जित कर रखे हैं। गौड़ अथवा लक्षणावती का राजा आदिसूर ने ब्राह्मण धर्म को पुनरुज्जीवित करने का प्रयास किया, जहाँ पर बौद्ध धर्म छाया हुआ था। हिन्दू ब्राह्मण अपनी धारणाओं से अधिक धर्माचरण को महत्व देते हैं। यह धार्मिक पन्थों की विशेषता है। धर्माचरण में मुख्यतः है यज्ञ करना। दिनचर्या इस प्रकार है - स्नान, सन्ध्या वन्दन,जप, उपासना, तथा अग्निहोत्र। अन्तिम दो यज्ञ अब केवल कुछ सीमित परिवारों में होते हैं। ब्रह्मचारी अग्निहोत्र यज्ञ के स्थान पर अग्निकार्यम् करते हैं। अन्य रीतियां अमावस्य तर्पण तथा श्राद्ध कर्म करना होता है।