Sunday, July 25, 2021

पौराणिक ब्राहमण राजवंश का इतिहास डा. राधेश्याम द्विवेदी

 

हिंदू धर्म के चार वर्णों में ब्राह्मण सर्वोच्च अनुष्ठान के स्थान पर हैं। वैदिक काल के बाद से ब्राह्मण को आमतौर पर पुजारी, संरक्षक, शिक्षक के रूप में वर्गीकृत किया जाता था, जो शासक, जमींदार, राजा, योद्धा और अन्य सर्वोच्च प्रशासनिक पदों के धारक थे। उनकी मार्शल क्षमताओं के कारण, ब्राह्मणों को सबसे पुराना मार्शल समुदायके रूप में वर्णित किया गया था। अतीत में दो सबसे पुरानी रेजिमेंट ब्राह्मण से ही बने हुए थे। ब्राहमण सेना में भर्ती होते हैं, क्योंकि उनकी शानदार काया होती है। उनकी नस्ल और नस्ल का गौरव परेड पर उनकी स्वच्छता और स्मार्टनेस में परिलक्षित होता है। वे सकुशल एथलीट हैं, विशेषज्ञ पहलवान हैं, और ताकत के करतब में उत्कृष्टता रखते हैं और उनके पास साहस के लिए एक उच्च प्रतिष्ठा है।

राज प्रबंध चलाने  हेतु अथवा प्रजा को न्याय दिलाने हेतु वेदों को आधार मानकर पुरोहित वर्ग ब्राह्मण के माध्यम से वैधानिक  व्यवस्थाएं लेते थे। ब्राह्मण राजा को प्रजा के बारे में  उसके कर्तव्यों के प्रति सचेत रखता था। प्रजा के कर्तव्य भी ब्राह्मण द्वारा निश्चित किए जाते थे। ब्राह्मणों के कठोर अनुशासन  राजाओं को सहने पड़ते थे। इतिहास के पन्ने उलटने पर जानकारी मिलेगी कि ब्राह्मण के कठोर अनुशासन के नीचे दबकर रहना क्षत्रिय के लिए असहनीय हो उठा। चन्द्रगुप्त ने गुरू चाणक्य का वृषल संबोधन तो सहन कर लिया, किन्तु आगे चलकर अशोक को बुद्ध धर्म को अपनाना पड़ा।

ब्राह्मणों के यज्ञों पर पाबंदी

जब सारा विश्व अज्ञान के कोहरे से आच्छादित  था तब लोग पहाड़ों में भेड़-बकरियां चराते फिरते थे। वो घास-फूस  की झोपड़ियों व पर्वत  की गुफाओं में रहते थे। पशुओं का कच्चा मांस खाते थे। उनकी खाल व वृक्षों की छाल को पहनते थे। जब न संस्कृति थी न सभ्यता  थी न गिनती का ज्ञान था।  प्राकृतिक आपदाओं का प्रतिकार था और न ही बीमारियों का कोई उपचार था तब वृहतर  भारत में सुदूर अतीत में  विभिन्न स्थानों पर ब्रह्मर्षियों ने वेद का साक्षात्कार किया था। वेद का अर्थ है ज्ञान, ज्ञान ईश्वर प्रदत्त है अतः वेद को अपौरूषेय कहा गया है। इतने बड़े वैदिक साहित्य की सरंचना तथा उसका अक्षुण्य परिक्षण करना कोई सहज कार्य नहीं है। विश्व के किसी भी समाज का आज तक इतना बड़ा योगदान न किसी ने देखा है और न ही किसी ने सुना है। विश्व ब्राह्मण समाज का सदा ऋणी एवं कृतज्ञ रहेगा। जब मानस पुत्रों की कोई संतान न होने से सृष्टि वृद्धि नहीं हुई तो फिर ब्रह्माजी ने अपने समान गुणों वाले सात मानस पुत्र पैदा किए। मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु एवं वशिष्ठ। सर्वप्रथम ये सात ब्राह्मण हुए। जिनमें पुलस्त्य की संतान राक्षस हो गई। तब छब्राह्मण सर्वप्रथम हुए। अतएव इन्हीं की वंश परम्परा चलकर छरून्याति ब्राह्मण हुए। ब्राह्मणों के प्रथमोत्पति स्थान को मनु ने ब्रह्मावर्त नाम के देश से वर्णन किया है। ब्राह्मणें की उत्पत्ति बार-बार जिस देश में होती है उस देश को ब्रह्मावर्त कहा जाने लगा। बाद में ब्राहमण सत्ता पर क्षत्रियों का कब्जा होने लगा और ब्राहमणों को बन का रास्ता नापना पड़ा। ब्राह्मण समुदाय इस अपमान का सहन नहीं कर सका और उसने क्षत्रियों से सत्ता छीननी आरंभ कर दी। परिणाम स्वरूप ब्राह्मणों ने देश पर कई वर्षों तक राज किया। इनमें निम्नलिखित वंश राजवंश प्रसिद्ध हुए  1. शुक 2. गृत्समद 3. शोनक 4. पुलिक 5. प्रद्यौत       6. पालक 7. विशाखपुप 8. अजय 9. नन्दीवर्धन। पौराणिक उल्लेख होने का कारण इनका ऐतिहासिक महत्व कम मिलता है।

महर्षि विश्वश्रवा का वंश

पुलस्त्य ऋषि का विवाह कर्दम ऋषि की नौ कन्याओं में से एक से हुआ जिनका नाम हविर्भू था। उन ऋषि के दो पुत्र उत्पन्न हुए- महर्षि अगस्त्य एवं विश्रवा। विश्रवा की दो पत्नियाँ थीं - एक थी राक्षस सुमाली एवं राक्षसी ताड़का की पुत्री कैकसी, जिससे रावण, कुम्भकर्ण उत्पन्न हुए, तथा दूसरी थी इडविडा- जिससे कुबेर तथा विभीषण उत्पन्न हुए। इडविडा चक्रवर्ती सम्राट तृणबिन्दु की अलमबुशा नामक अप्सरा से उत्पन्न पुत्री थी। गोस्वामी तुलसीदास ने रावण के संबंध में उल्लेख करते हुए लिखा है- उत्तम कुल पुलस्त्य कर गाती।

शुक राजवंश

असुराचार्य भृगु ऋषि तथा दिव्या के पुत्र जो शुक्राचार्य के नाम से अधिक विख्यात हैं। इनका जन्म का नाम शुक्र उशनस है। पुराणों के अनुसार यह दैत्यों के गुरु तथा पुरोहित थे। पौराणिक इतिहास में इनका महत्वपूर्ण योगदान है।

शौनक राजवंश

शौनक एक संस्कृत वैयाकरण तथा ऋग्वेद प्रतिशाख्य, बृहद्देवता, चरणव्यूह तथा ऋग्वेद की छः अनुक्रमणिकाओं के रचयिता ऋषि हैं। वे भृगुवंशी शुनक के पुत्र थे। वे कात्यायन और अश्वलायन के गुरु माने जाते हैं। उन्होने ऋग्वेद की बश्कला और शाकला शाखाओं का एकीकरण किया। विष्णुपुराण के अनुसार शौनक गृतसमद के पुत्र थे। नौमिषारण्य में इनकी कथा के अनेक प्रसंग मिलते है। आजकल ज्यादातर शौनक ऋषि के वंशज उतर प्रदेश के कुछ हिस्सों में और हरियाणा के सूलचानी गाँव में रहते हैं।शुनक सूर्य वंश के अंतिम राजा रिपुंजय अथवा अरिंजय का महामात्य था। उसने रिपुंजय का वध कर राजगद्दी पर अपने पुत्र प्रद्योत को बिठाया था, जिससे आगे चलकर प्रद्योत राजवंश की स्थापना हुई।

प्रद्योत राजवंश-

प्रद्योत राजवंश प्राचीन भारत में राज्य करने वाला वंश था। 6वीं सदी ई. पू. वीतिहोत्र नामक वंश ने हैहय राजवंश को हटाकर अवन्ति में अपनी राजनीतिक सत्ता की स्थापना की। यह इस वंश का प्रथम पुरुष था। परंतु इसके तुरंत बाद ही प्रद्योत राजवंश के शासकों ने वीतिहोत्रों के राज्य पर अपना अधिकार कर लिया। प्रद्योत वंश के अभ्युदय के साथ यहाँ के इतिहास के बारे में साक्ष्य मिलने शुरू हो जाते हैं। पुराणों से प्रमाण मिलता है कि गौतम बुद्ध के समय अमात्य पुलिक ने समस्त क्षत्रियों के सम्मुख अपने स्वामी की हत्या करके अपने पुत्र प्रद्योत को अवन्ति के सिंहासन पर बैठाया था। हर्षचरित के अनुसार इस अमात्य का नाम पुणक या पुणिक था। इस प्रकार वीतिहोत्र कुल के शासन की समाप्ति हो गई तथा 546 ई. पू. यहाँ प्रद्योत राजवंश का शासन स्थापित हो गया। इन सभी राजाओं ने कुल एक सौ अड़तीस वर्षों तक राज्य किया। इस वंश का राज्यकाल संभवतः 745 ई. पू. से 690 ई. पू. के बीच माना जाता है। उक्त राजाओं के नाम सभी पुराणों में एक से मिलते हैं।

प्रद्योत राजवंश में कुल पाँच राजा हुए, जिनके नाम क्रम से इस प्रकार थे-

1.         प्रद्योत

2.         पालक

3.         विशाखयूप

4.         जनक (अजक)

5.         नंदवर्धन (नंदिवर्धन अथवा वर्तिवर्धन)

प्रद्योत

प्राचीन भारत के प्रद्योत राजवंश का प्रथम राजा था। वह शुनक का पुत्र था। इसका पिता शुनक सूर्य वंश के अंतिम राजा रिपुंजय अथवा अरिंजय का महामात्य था। उसने रिपुंजय का वध कर राजगद्दी पर अपने पुत्र प्रद्योत को बिठाया था, जिससे आगे चलकर प्रद्योत राजवंश की स्थापना हुई। पुराणों से प्रमाण मिलता है कि गौतम बुद्ध के समय अमात्य पुलिक ने समस्त क्षत्रियों के सम्मुख अपने स्वामी की हत्या करके अपने पुत्र प्रद्योत को अवन्ति के सिंहासन पर बैठाया था। हर्षचरित के अनुसार इस अमात्य का नाम पुणक या पुणिक था। इस प्रकार वीतिहोत्र कुल के शासन की समाप्ति हो गई तथा 546 ई. पू. यहाँ प्रद्योत राजवंश का शासन स्थापित हो गया। भविष्यपुराण में प्रद्योत को क्षेमक का पुत्र कहा गया है एवं इसे म्लेच्छहंताउपाधि दी गयी है। इसके पिता क्षेमक अथवा शुनक का म्लेच्छों ने वध किया। अपने पिता की मृत्यु का बदला लेने के लिए नारद की सलाह से इसने म्लेच्छयज्ञआरम्भ किया। उस यज्ञ के लिए इसने सोलह मील लम्बा एक यज्ञकुंण्ड तैयार करवाया। इसके पश्चात् इसने वेद मंत्रों के साथ निम्नलिखित म्लेच्छ जातियों को जलाकर भस्म कर दिया-राजा प्रद्योत अपने समकालीन समस्त राजाओं में प्रमुख था, इसलिए उसे चण्ड कहा जाता था। उसके समय अवन्ति की उन्नति चरमोत्कर्ष पर थी। चण्ड प्रद्योत का वत्स नरेश उदयन के साथ दीर्घकालीन संघर्ष हुआ, किंतु बाद में उसने अपनी पुत्री वासवदत्ता का विवाह उदयन से कर मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित किया। बौद्ध ग्रंथ विनयपिटक के अनुसार चण्ड प्रद्योत के मगध नरेश बिम्बिसार के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध थे। जब चण्ड प्रद्योत पीलिया रोग से ग्रसित था, तब बिम्बिसार ने अपने राजवैद्य जीवक को उज्जयिनी भेजकर उसका उपचार कराया था, परंतु उसके उत्तराधिकारी अजातशत्रु के अवन्ति नरेश से संबंध अच्छे नहीं थे। मंझिमनिकाय से ज्ञात होता है कि चण्ड प्रद्योत के सम्भावित आक्रमण के भय से अजातशत्रु ने अपनी राजधानी राजगृह की सुदृढ़ किलेबंदी कर ली थी। राजा प्रद्योत अपने समकालीन समस्त राजाओं में प्रमुख था, इसलिए उसे ष्चण्डष् कहा जाता था। प्रद्योत के समय अवन्ति की उन्नति चरमोत्कर्ष पर थी। चंड प्रद्योत का वत्स नरेश उद्मन के साथ दीर्घकालीन संघर्ष हुआ, किंतु बाद में उसने अपनी पुत्री वासवदत्ता का विवाह उद्मन से कर मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित किया। बौद्ध ग्रंथ विनयपिटक के अनुसार चण्ड प्रद्योत के मगध नरेश बिम्बिसार के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध थे। जब चण्ड प्रद्योत पीलिया रोग से ग्रसित था, तब बिम्बिसार ने अपने राजवैद्य श्जीवकश् को उज्जयिनी भेजकर उसका उपचार कराया था, परंतु उसके उत्तराधिकारी अजातशत्रु के अवन्ति नरेश से संबंध अच्छे नहीं थे।

पालक राजवंश-

चण्ड प्रद्योत के पश्चात् उसका पुत्र पालक प्रद्योत संभवतः अपने अग्रज गोपाल को हटाकर उज्जयिनी के राजसिंहासन पर बैठा था। इसका समय 745 से 690 ई. पू. माना जाता है।

पुलिक राजवंश

मगध के वृहद्रथ वंश का अंतिम शासक रिपुंजय थां रिपुंजय के मंत्री का पुलिक नाम था। इसने रिपुंजय की हत्या करके अपने पुत्र प्रद्योत को 546 ई. में राजा बनाया था। बाद में पुलिक के पुत्र प्रदृयोत की हत्या करके एक सामन्त का पुत्र विम्बसार मगध का शासक बना ओर हर्यंक बंश की स्थापना किया था।

नन्दिबर्धन-

नन्दिवर्धन अथवा नन्दवर्धन अथवा वर्तिवर्धन को पुराणों के अनुसार प्रद्योत राजवंश का अंतिम शासक बताया गया है। इसके बारे में अधिक जानकारी का अभाव है। पुराणों के अनुसार नन्दिवर्धन शिशुनाग वंश के अंतिम शासक पंचमक के पूर्व अवन्ति का राजा था। मगध की बढ़ती शक्ति के समक्ष धीरे-धीरे अवन्ति कमजोर होता जा रहा था। अंततः मगध नरेश शिशुनाग ने प्रद्योत राजवंश का अंत कर दिया तथा शूरसेन सहित अवन्ति राज्य को भी मगध में मिला लिया। नंदवर्धन राजाओं के नामांतर केवल वायुपुराण में प्राप्त है।

गृत्समद-

ये बृहस्पति के समकक्ष ऋषि थे। गृत्समद वैदिक काल के एक ऋषि थे, जिन्हें ऋग्वेद के द्वितीय मंडल का अधिकांश भाग (43 में से 36, जिनमें से भजन 27-29 को उनके बेटे कूर्मा और 4-7 सोमहुति की कृतियाँ माना जाता है) की रचना का श्रेय दिया जाता है। गृत्समद अंगिरस के परिवार के शुनहोत्र के एक पुत्र थे, लेकिन इंद्र की इच्छा से वह भृगु परिवार में स्थानांतरित हो गए। और शौनक हो गये।

अजक या जनक राजवंश

अजक या जनक तथा नंदवर्धन राजाओं के नामांतर केवल वायुपुराण में प्राप्त है। इस राजवंश का विस्तृत जानकारी नहीं मिलती हैं। जनक व मिथिला का अजक अजेय से क्या सम्बन्ध रहा यह शोध का विषय है।

  

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