Tuesday, January 28, 2025

पण्डित राम सुमिरन पाण्डेय 'सुमन’ बस्ती के छंदकार भाग 3 (कड़ी 10)

पण्डित राम सुमिरन पाण्डेय 'सुमन’
बस्ती के छंदकार भाग 3 (कड़ी 10)
लेखक : डा. मुनि लाल उपाध्याय 'सरस' 
संपादक : आचार्य डॉ. राधेश्याम द्विवेदी 
जीवन परिचय 
पण्डित राम सुमिरन पाण्डेय 'सुमन’ जी का जन्म अश्विन शुक्ल त्रयोदशी सम्बत 1983 विक्रमी को ग्राम गढ़ा तहसील हर्रैया जिला बस्ती में हुआ था। इनके पिता का नाम पण्डित काशीप्रसाद पाण्डेय और माता का नाम श्रीमती सीतापत्ति देवी था। साहित्यरत्न की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद 1946 में जिला परिषद बस्ती के विभिन्न प्राथमिक स्कूलों मे सहायक अध्यापक के पद पर कार्यरत रहे हैं । सुमन जी गीतकार और कवि के रूप में बस्ती के कवि मंडली में अपना उच्च स्थान रखते हैं। ये चतुर्थ चरण के विकस में नवोदित छन्दकार के रूप में अपना प्रयास कर रहे हैं। इनके अधिकांशत: छन्द अव्यवस्थित रूप से इनकी डायरियो में देखे गये। इनके छंदों में ब्रजभाषा और बड़ी बोली का मिश्रण अधिक पाया जा रहा है।अधिकांश छन्द केवल तुकबन्दी तक ही सीमित है। दो छन्द यहाँ प्रस्तुत हैं- 
उक्त लीलार लाल उषा सी बनी ठनी सी, 
मोहिनी यो सोहनी ललित लाल सारी है।
कांति के किरन को बिखेरती बिखेरती सी 
चली ताप दाप लै तिमिर तपहारी है।।
कोक लोक शोक से विशोक ओक से भरे 
ग्रीष्म दुपहरी त्रिषा मृगवारी है।
यौवन आगार भार बनी है उदार हार 
सुमन सी चेतना विराट रूपधारी है।।
     मनहरन के अतिरिक्त सुमन ली ने दर्जनो सवैया छन्द लिखे हैं किन्तु भावो की आकुलता होते हुए भी शिल्प की शिथिलता से ये छन्द अत्यन्त शिथिल हो गये हैं। एक छन्द और प्रस्तुत है- 
रुप अमन्द चसै मकरन्द 
वे घूंघट के पट ओट लुकाई।
नैनन की अरुनी बरुनी 
न झपै न कपै नवलेह ढीठाई। 
चाह पराग विराग लिये 
अनुराग़ के राग में राग़ बसाई।
नेह निराश कबहूं न करें 
ललना पलना मधुमास जो छाई।।
       सुमन जी आधुनिक चरण के बहु चर्चित छंदकार हैं। अपने छन्दों से काव्य सृजन में भी हुए ये बड़े उल्लासी व्यक्ति हैं।
भविष्य में इनके छन्दो में अच्छा निखार आयेगा और ये सहृदय समाज द्वारा अपने कृतित्व के अनुसार बहु प्रशंसित होंगे।



Sunday, January 26, 2025

पण्डित जनार्दन नाथ पाण्डेय “ईश" बस्ती के छंदकार भाग 3 (कड़ी 9)

पण्डित जनार्दन नाथ पाण्डेय “ईश"।   बस्ती के छंदकार भाग 3 (कड़ी 9)    लेखक डा. मुनि लाल उपाध्याय 'सरस' संपादक आचार्य डॉ. राधेश्याम द्विवेदी 

जीवन परिचय 

पण्डित जनार्दन नाथ पाण्डेय 'ईश' का जन्म (श्री “ईश” जी से साक्षात्कार के आधार पर) प्रथम जुलाई सन 1926 तदनुसार सं० 1983 वि० को अमोढा क्षेत्र के जाजपुर नामक ग्राम में हुआ था। इनके पिता का नाम  अवध विहारी पाण्डे था। इलाहाबाद से बी०ए० और इतिहास में एम०ए० करने के बाद इन्होंने 1954 में एल०टी० किया तौर उस समय से देसराज नारंग इण्टर कालेज, वाल्टरगंज, बस्ती, में सहायक कक्षाध्यपक के पद पर कार्यरत रहे हैं। जनार्दन नाथ पाण्डेय बचपन से ही बड़े कुशाग्र बुद्धि  एवं प्रतिभाशाली बालक रहे है। 

     बाल्य काल से ही इन्होने कई बार कवि सम्मेलनों में भाग लिया और यह धीरे-धीरे बस्ती जनपद के केशव परम्परा के धुरंधर कविवर वलराम मिश्र "द्विजेश" के सम्पर्क मे आये। “द्विजेश” जी इनकी साहित्यिक प्रतिभा से बहुत प्रसन्न हुए और उन्होने इनका नाम 'ईश' रखा और उसी समय से 'ईश' जी द्विजेश जी के परम शिष्यों में गिने जाने लगे।

     'ईश' जी ने अपने किशोरावस्था में ही कई सौ छन्द, दोहा, घनाक्षरी, रोला,सवैया आदि में लिख डाला। शृंगार परक इन छन्दो में वही गम्भीरता थी। किन्तु इनके अधिकांशत: छन्द गायब हो गये। जो छन्द उनकी डायरियों में मिले हैं, उनके आधार पर उनके बारे में संक्षिप्त समीक्षा प्रस्तुत की जा रही है- 

वाणी वन्दना का एक छन्द-

देती तन्त्र नाद धूमि झंकृत अम्बर में, 

दिग विदिग दिगम्बर के व्याकरण बोले  हैं।

व्यतिरेक अन्वय में सहित समन्वय में 

व्यापी व्याप्य अन्वयी निरन्वय कलोले हैं। 

मातृशक्ति दात्रीशक्तिधात्रिऔ विधात्रिशक्ति 

ब्रह्मा विष्णु शंकरहूं अंक के हिंडोले हैं।

निर्वानी सबानी बानी बंदना बर बानी यानी 

बानी की आशीष “ईश” शीश पै टटोले हैं।।

  -  ( वन्दना, प्रथम छन्द )

ईश जी के छन्दों में ब्रजभाषा की छटा अनुपम रूप से उनके प्राकृतिक वर्णनो पर बडी रम्यता के साथ दर्शनीय है। बसन्त प्रकरण की एक कविता दर्शनीय है- 

विमसन लागे कज कलित कलाप मंजु 

अंजन अनेक लगे एक रस खानी मे । 

पुंज पुंज चलि करि केलि कुंज कुंजन में 

वेदना मलिंद करें गुंजरत बपानी मे । 

तोरनि पलास के प्रसूनन की माला “ईश”

राग रजने सो भूमि पावडे बखानी में।

पंच सर ताने पंच सर मन मैचन में 

ललित लसत है वसन्त अगवानी में।।

 - (ईश जी की डायरी से उपलब्ध)

      इसी प्रकार से वर्षा पर किये गये “ईश” जी के छन्द बढ़े ही सबल हैं-

आप चारि मास के वे बारों मास हेतु “ईश”

आप निधि न्यारे  प्रेम निधि वे बसैया हैं।

आप तन कारे वे दोऊ तन मन कारे

आप परतंत्र वे स्वतंत्र बिहरौइया हैं।

आप विरही को नेक दुख दें आकाश भागे।

वे प्रकाशमा न पास पै दृढ़ दुखौया  हैं। 

घनश्यामकीजै जो घनश्याम की बराबरीना 

आप एक पैया यदि वे एक रुपैया हैं।।

    - (ईश जी की डायरी से उपलब्ध)

      पाई र्और रूपये के माध्यम से कवि ने       बादलों और कृष्ण के समानता की होड़ कितनी सटीकता के साथ प्रस्तुत किया है।

    हनुमत पताली शीर्षक पर 'ईश'  जी ने कई छन्द क्रिये है यथा- 

औरे ओप कोप औरे चौप करुणा को लोप 

सुप्त मुस्कान कुप्त अटटहास लाली है।

सप्तमावाश से अधिक ऊंचे भौहें तनी 

मुंडमालिनी बनी प्रचण्ड मुंड माली है। 

सोचे सबै कुंजित हुंकार हम सो हो क्रुद्ध

काहे भक्त भक्षण प्रवृत्ति महाकाली है। 

काली करे द्रावण यो जान्यो महिरावण हूं 

काके ध्यान आवत सदा हनुमत पताली है।

   - (  ईश जी की डायरी से उपलब्ध )

भारतीयता से संबंधित कई छन्द 'ईश' जी ने लिखा है जिसमें राष्ट्रीयता का स्वर तथा मातृभूमि के प्रति प्यार है। यथा- 

चोटी गौरी शंकर शिखा है भारतीयता की 

जाके भाल जहनुजा सुधाम्बु रसवारी है।

कवि ईश मानव के रूप ज्यो तथैव ताते 

भूमि नभ सागर नमस्त सुखकारी है।

भारत को रूप तौ अनूप एक भारत में 

सीमा में हिमालय कच्छ बंगऔ कुमारी है। 

भारत से फैली भारतीयन की मैत्री कीन 

भुवन भारती ने भारतीयता हमारी है।।

     - (  ईश जी की डायरी से उपलब्ध )

"इन्दिरा प्रशस्ति" में ईश' जी ने कई छन्द लिखे हैं। उसका एक छन्द यहाँ प्रस्तुत है-

खंजन खेलारिन के खेल ये बिगाड़ जाते 

परि जाते निष्प्रभ मयक पूत्ति आती ना। 

मिलि जाते पंकजहूं पंक ही के अंकनि में 

तैसे ई प्रभाकर में  या प्रभा समाती ना । 

विमल वसंत वासन्तिकता ना आती आज 

कमला कला की एक कला चीन पाती ना। 

जयहिन्द बोलि हिन्दवारी इन्दिरा विराजि 

जो समाज पै समाजवाद बरसाती ना ।

      - (  ईश जी की डायरी से उपलब्ध )

ईश जी के छन्दों में ब्रजभाषा की उत्कृष्टता के साथ पाण्डित्य मुखरित हो उठा है। इनके सवैया में श्रृंगार की छटा सर्वत्र संयोग और वियोग पक्ष की परम्परा में द्रष्टव्य है। उनका विचार है कि जहाँ मनुष्य निवास करेंगे वहाँ प्रेमी और प्रेमिकाओं का प्रेम  अवश्य पल्लवित होगा। इस प्रसँग का एक छन्द बड़ा उत्कृष्ट बन पड़ा है- 

कैसो समाज जहाँ ना गुनीजन 

देश सो कैसो जहा रवि नाही।

सागर कैसो विना जल के 

कल्पद्रुम कैसो ना शीतल छाही।

नैन वो कैसे मैन न ढरे जिन 

बिन वानी  ही ना जैवत राहीं । 

वे मन कैसे भला जग मे 

प्रिय प्रियतम होना रमे जग माही।  

- (  ईश जी की डायरी से उपलब्ध )

स्त्री वियोग में मै 'ईश' जी का एक छन्द प्रस्तुत है - 

दुख दारिद व्याधि बनावलि पै 

विखराय सुपूरित चुनी गई।

कल कण्ठित कल्पना कानन की 

दुरि दीन दिले दनि दूनो गई।

मृदु अंगनि काटि कटारिन लो 

मिर्चा मलि निर्दय नो नो गई। 

चर्चा करि हाय बने ही विना 

तुम सो गृह को तजि सुनो गई। 

    - (उपहार, पृष्ठ 20)

“ईश” जी “द्विजेश” परम्परा के बड़े ही सशक्त  छंदकार हैं। इनके छन्दों में ब्रजभाषा और खड़ी बोली के लालितत्य के साथ साथ अनुकरण  की प्रधानता है। यह केशव की परम्परा ने ”द्विजेश” जी द्वारा दीक्षित अलंकारवादी छन्दकार है। छन्दों में अर्थगाम्भीर्य तथा रीतिकालीन कलात्मकता सर्वत्र पाई जाती है। मानसिक रूप असंतुलित  रहने के कारण “ईश” जी के छन्द गायब होते रहे हैं। शृंगार और हास्य के अनुठे छन्दकार होने के साथ-साथ घनाक्षरी और सवैया के मजे मजाये कवि है। चतुर्थ चरण के छन्दकारो के मार्गदर्शन के निमित्त “ईश” जी सदैव आतुर रहते हैं। वे “रंगपाल”और “द्विजेश” जी के छन्द-परम्परा के विकास में आज भी लगे हुए हैं।

सम्पादक परिचय:-

(सम्पादक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए सम सामयिक विषयों,साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं। 

(मोबाइल नंबर +91 8630778321;) 

(वॉर्ड्सऐप नम्बर+919412300183)


Saturday, January 25, 2025

कवि द्विजेश की काव्यकुल घराना (बस्ती के छंदकार 29)#आचार्य डॉ. राधेश्याम द्विवेदी

कवि द्विजेश की काव्यकुल घराना 
(बस्ती के छंदकार 29)
आचार्य डॉ. राधेश्याम द्विवेदी 
पारिवारिक परिचय:-
बस्ती जिले का मिश्रौलिया गांव में पण्डित हरदयाल मिश्र का एक अच्छा खाता पीता रईस घराना रहता था। वह एक जमींदार थे। वे अपनी पालकी के साथ बस्ती राजा के यहाँ भी आया जाया करते थे। उन पर राजा साहब की कृपा दृष्टि बनी रहती थी। उनके पुत्र का नाम उदित नारायण मिश्र था। जो द्विजेश जी के पूज्य पिता थे। उदित नारायण मिश्र की पालकी बस्ती राजा के यहाँ आती जाती थी। उस समय महाराज पाटेश्वरी प्रताप नारायण सिंह बस्ती के राजा थे। 
     द्विजेश जी बचपन उनके दादा हरदयाल मिश्र के साथ ही बीता था। उदित नारायण मिश्र की मृत्यु के बाद उनके दो बेटों में से बड़े बलराम प्रसाद मिश्र,द्विजेश नाम से ब्रज भाषा में और जैश नाम से उर्दू में कविता करने के कारण प्रसिद्ध हुए । द्विजेश जी के बड़े पुत्र उमाशंकर मिश्र के एकमात्र पुत्र का नाम था गंगेश्वर मिश्र है। द्विजेश जी से कवि का उत्तराधिकार तो प्रेम शंकर मिश्र जी ने प्राप्त किया था किंतु द्विजेश जी की संगीत-साधना का दाय उनके भाई के पुत्र यानि भतीजे गंगेश्वर जी ने सँभाला था और वे बस्ती के अच्छे सितार-वादक थे जिससे कुछ ने शिक्षा भी प्राप्त की थी ।
                श्री वागीश शुक्ल 
     द्विजेश जी के समय साहित्यकारों की एक चौकड़ी भी होती थी जिसमें वागीश शुक्ला के पूर्वज परिवार, प्रेमशंकर मिश्र, रामनारायण पांडेय पागल, और ठाकुर चौधरी आदि शामिल थे । किसी न किसी के घर-प्रायः यह चौकड़ी शाम को चार घंटे बैठकर काव्य चर्चा करती रहती थी। 

  1.राष्ट्रकवि बलराम मिश्र 'द्विजेश'
का व्यक्तित्व और कृतित्व 

जीवन परिचय:-
पंडित बलराम प्रसाद मिश्र द्विजेश हिन्दी साहित्य के रीति काल के अंतिम प्रतिनिधि कवि थे। वह काव्य धारा की सारी शक्तियों को उत्कर्ष पर पहुंचाते हुए बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध तक साहित्य सृजन करते रहे। उनके शरीर छोड़ने तक हिन्दी साहित्य में तीसरा सप्तक आ चुका था। उन्होंने अपनी काव्य रचना में देव और पद्माकर का ही रंग बनाए रखा। अपनी हिन्दी की रचनाओं के अलावा द्विजेश ने उर्दू और फारसी में शेरो-शायरी और गजलें भी लिखीं। प्रतिष्ठित सरयूपारीण जमींदार परिवार में द्विजेश का जन्म माघ कृष्ण 11, संवत 1929 विक्रमी तदनुसार 25 जनवरी 1886 ई. को बस्ती उत्तर प्रदेश के निकट मिश्रौलिया नामक ग्राम में हुआ था। बस्ती राज परिवार से इनका निकट का नाता था। संस्कृत, संगीत और साहित्य की खुशबू मानो इनके रग-रग में बसी थी।औपचारिक स्कूली शिक्षा का चलन उन दिनों बहुत कम होने के बावजूद तत्कालीन प्रथा के अनुसार उन्होंने हिन्दी, संस्कृत, उर्दू, फारसी तथा सामान्य गणित की शिक्षा ग्रहण की थी। द्विजेश जी जब अपंग और शय्यासीन हुए तो प्रेम शंकर मिश्र जी उनकी शुश्रूषा और तदनंतर काशी-वास कराते थे।
   बस्ती नगर पालिका बस्ती रोडवेज चौराहे से पुरानी बस्ती जाने वाले मार्ग को उनके नाम पर द्विजेश मार्ग का नामकरण भी किया है। पाण्डेय स्कूल के समाने द्विजेश भवन भी उनके शुभ चिन्तकों ने बनवा रखा है। यहां कभी- कभार साहित्यिक कार्यक्रम भी होते रहे हैं।
प्रमुख कृतियां:-
1. अप्रकाशित गजल संग्रह हस्ती:- 
शेरो-शायरी से जुड़ा संग्रह 'हस्ती' आज तक नहीं छप सका है। 
2.द्विजेश दर्शन:- 
काव्य रचना संग्रह द्विजेश दर्शन उनका एक मात्र संग्रह रहा है। किशोरावस्था से ही द्विजेश ने काव्य रचना शुरू कर दी। ब्रजभाषा कविता की मुख्य धारा में थी। रचनाओं में वह एक सिद्धहस्त कवि के रूप में दिखाई देते हैं। वे रचनाएं लिखते गए लेकिन उनके संयोजन और प्रकाशन की ओर द्विजेश का ध्यान कभी नहीं रहा। वह प्रकाशन के प्रति बहुत लापरवाह रहे। उनके पुत्र प्रेमशंकर मिश्र ने प्रयास करके ब्रजभाषा में रचित कविताओं का संग्रह द्विजेश दर्शन का कुछ अंश हिन्दी साहित्य सम्मेलन के सौजन्य से प्रकाशित कराया है। जो कुछ द्विजेश दर्शन में छप सका वह रचनाओं का मात्र एक चौथाई हिस्सा ही है।
द्विजेश दर्शन की भूमिका में श्री नारायण चतुर्वेदी ने लिखा है कि इनके लेखन की बात ही कुछ और है। अपने व्यक्तिगत काव्य प्रेम के कारण अपने आसपास के बहुसंख्य लोगों को साहित्य से जोड़ने का काम द्विजेश ने किया है। डा.रसाल ने द्विजेश के बारे में कहा था कि, शब्द उनके दास थे। जबकि डा. संपूर्णानंद ने लिखा कि, ब्रजभाषा के बुझते दीपक के इन पतंगों के प्रयत्न मेरे मन में आदर का भाव उत्पन्न करते हैं। मेरा ऐसा विश्वास है कि द्विजेश की काव्य रचनाओं में पाठक को तृप्ति का एहसास होता है। चेहरे मोहरे से किसी मुगल बादशाह की झलक देने वाले द्विजेश वेशभूषा और खानपान की शैली के नाते भी मशहूर थे। वह भारत की सभ्यता यात्रा में एक पड़ाव के प्रतिनिधि थे। 
साहित्यकारों द्वारा प्रशंसाः- डा.संपूर्णानंद, डा.वागीश शुक्ल, डा. अरुणेश नीरन, श्रीनारायण चतुर्वेदी सहित तमाम लोगों ने अपने संस्मरणों में द्विजेश द्वारा रचित ब्रजभाषा काव्य को शब्द चमत्कार, ऊंची उड़ानों वाले अलंकार और अक्षर मैत्री का अद्भुत संयोजन करने वाला काव्य साहित्य बताया है। भक्ति भाव की प्रधानता वाले काव्य में उन्होंने अनूठी कल्पनाओं के साथ एक खास तरह के रंगारंग संयोजन को पिरोया है। द्विजेश दर्शन की भूमिका में श्रीनारायण चतुर्वेदी ने लिखा है कि इनके लेखन की बात ही कुछ और है। अपने व्यक्तिगत काव्य प्रेम के कारण अपने आसपास के बहुसंख्य लोगों को साहित्य से जोड़ने का काम द्विजेश ने किया है। डा.रसाल ने द्विजेश के बारे में कहा था कि शब्द उनके दास थे। जबकि डा.संपूर्णानंद ने लिखा कि, ब्रज भाषा के बुझते दीपक के इन पतंगों के प्रयत्न मेरे मन में आदर का भाव उत्पन्न करते हैं। विश्वास है कि द्विजेश की काव्य रचनाओं में पाठक को तृप्ति का एहसास होता है। चेहरे मोहरे से किसी मुगल बादशाह की झलक देने वाले द्विजेश वेशभूषा और खानपान की शैली के नाते भी मशहूर थे। वह भारत की सभ्यता यात्रा में एक पड़ाव के प्रतिनिधि थे।
प्रेमशंकर मिश्र काअभिमत संस्मरण:- 
पं. बलराम प्रसाद मिश्र द्विजेश के लिए उन दिनों देश के जाने माने दिग्गज कवि कलावंत महीनों मेरे यहाँ ठहरते। सुबह- शाम अखंड काव्य और संगीत गोष्ठियाँ हुआ करती थीं। महाकवि जगन्नाथदास रत्नाकर पं. अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध, पं. रमा शंकर शुक्ल रसाल के अतिरिक्त रीवां के महाकवि ब्रजेश, पं. बालदत्त, यज्ञराज, विचित्र मित्र ऐसे आचार्य कवि, अजीम खाँ, झंडे खाँ ऐसे उस्ताद यनायत खाँ ऐसे सितारवादक, उनके पुत्र उस्ताद अजीम खाँ साहब ऐसे संगीतज्ञों की सन्निधि मुझे बचपन से प्राप्त हुई है। आज के आफताबे गजल उस्ताद मेहंदी हसन और सितार नवाज उस्ताद शाहिद परवेज ऐसे आज के विश्व विश्रुत कलाकारों का बचपना अपने पिताओं के साथ मेरे साथ गिल्ली गोली खेलते बीता है। इस तरह साहित्य और संगीत मेरी घुट्टी में रहा। विरासत में मुझे काव्य रचना और मेरे अग्रज और उनके पुत्र को सितार वादन मिला। सन 1959 में पिता का तिरोभाव हुआ। 
डा. मुनिलाल उपाध्याय ‘सरस’ जी द्वारा मूल्यांकन:-  
बस्ती जनपद के स्वनामधन्य साहित्यकार डा. मुनिलाल उपाध्याय ‘सरस’ ने बस्ती के छन्दकारों का साहित्यिक योगदान भाग 1 में पृष्ठ 91 से 111 तक द्विजेश जी का परिचय काव्य तथा शैली का वैज्ञानिक विवरण प्रस्तुत किया है। उन्होंने वन्दना, भक्ति दर्शन, गंगा गरिमा वर्णन, श्रृंगार खण्ड, नखशिख वर्णन, विविध प्रकरण तथा द्विजेशजी के रहन सहन को बड़े मार्मिक ढ़ंग से प्रस्तुत किया है। अपने विवरण के अन्त में डा. सरस जी ने लिखा है- ‘द्विजेशजी ब्रज भाषा श्रृंखला के अन्तिम सशक्त कवि थे। केशव व पद्माकर की परम्परा जिसे रंगपाल जी ने बस्ती के मंच पर स्थापित किया था द्विजेशजी ने अपने पाण्डित्य से गौरव दिया।....श्रृंगार के साथ साथ मानव जीवन के व्यवहारिक पक्ष पर लेखनी चलाकर द्विजेश जी ने यदि कविता की भाव भूमि को मानवीय चेतना दिया तो राष्ट्रीयता का मंत्र फूंक करके परतंत्र देश वासियों को स्वतंत्रता का संदेश भी दिया। द्विजेश जी की काव्यधारा वह मन्दाकिनी है जहां सन्त समागम का संगम और त्रिवेणी के पावनत्व का उद्गम है। 85 वर्षों तक द्विजेश जी ने बस्ती की धरती को निहारा और अन्ततः मनीषी साहित्य सूर्य अस्ताचल पहुंच साहित्य से विराम लिया।‘
द्विजेश दर्शन कविता संग्रह :- 
भक्ति भाव की प्रधानता वाले काव्य में उन्होंने अनूठी कल्पनाओं के साथ एक खास तरह के रंगारंग संयोजन को पिरोया है। अपनी कविता में भगवान शिव को उलाहना देते हुए उन्होंने लिखा है कि यदि भोलनाथ ने उनका उद्धार नहीं किया तो वे पार्वती की अदालत में भक्ति को अपना वकील बनाकर मुकदमा लड़ेगें।
डिगरी इजराई में न तारिहौं दिगंबर तौं,
कोष करुना को कम कुरक करावैंगे।।
कुछ और छन्द नमूना स्वरूप प्रस्तुत है-
अवतरण :- 
गेरी गिरापति की गिरी है जो गिरीस सीस,
हल सों हिमंचल के हिय मैं हली गई।।
ह्वाँते चलि मचलि मचावति जु घोर सोर,
तोरि फोरि ढोकनि को ढाँ‍कति ढली गई।।
पहुँची प्रयाग कै 'द्विजेश' कल-कौतुक यों,
 विंध्‍य-कासिका के प्रेम पथ यों पली गई।।
फेटति फवनि सीम मेटति सरस्‍वति को,
भानुजा को भेंटति समेटति चली गई।।
गुण-गान
जेतेआदिबसतअसाघ बसुधा मैं ब्‍याधि,
होते ते सुसाध देती जो पराग मूठी तैं।।
जाख से जलोदर कराल कमलोदर पै,
काठ से कठोदर पै कालिका सी रूठी तैं।।
अधम अधंगे मति भंगे जो अपंगे गंगे,
 होत चट चंगेयामैं सत्‍य है न झूठी तैं।।
पातक पितज्‍वर विपत्तिविपमज्‍वर की,
काल से कफज्‍वर की औपधि अनूठी तैं।।

भक्ति पै भगीरथ के आई भगी रथ संग,
धाम-नृप तीरथ के धाई धन्‍य धारती।।
विधि के कमंडल कीं हरि पौं प्रचंड ल की,
ईस-सीस मंडल की सुषमा सँवारती।।
जोम जम जारती उजारती पुरीजम की,
चित्रगुप्‍त पै 'द्विजेश' गजब गुजारती।।
आरति उतारती तु पापिनैं पखारती, न
अम्‍बा जिन्‍हैं तारती तु गंगा तिन्‍हें तारती।।
मुंडन पर उक्ति
जनमति संगी अंग जाको मम अंग ही तैं,
चल्‍यों गंग न्‍हान जातें संग यों विगारिगो।।
चलतहिं आदि ही तें अनमन होन लारयो,
जान्‍योना 'द्विजेश' कौनब्‍याधि कोपकरिगो।
कैकै किते जत्‍न सो प्रयाग लौं पहुँचि केहूँ,
अन्‍त मों पैं मुंडन को यो असौंच परिगो।।
मेरो मित्र पाप जो परम प्रिय मोको हाय,
पहुँच्‍यों न गंग पौर पंथ ही मैं मरिगो।।
यम के नाम
श्री जमराज जू। 'द्विजेश' को प्रनाम, हैं-
अराम, आठो जाम तौ कुशल नेक चहियो।
आज हौं अह्नाए गंग पाए विश्‍वनाथ पद,
होत फल याको जो सोजानि जिय लहियो।
जानते हो जैसो संभु, गंग की तरंग जैसी,
तूहूँ चित्रगुप्‍त बैठे चुपैचाप रहियो।।
देत हूँ चेताई भाई बनि न परैगी मोसों,
अब फेरि कोऊ मोहिं पातकी जु कहियो
यमदूत की विवशता
जम गन भाख्‍यो गति गंगजम सों 'द्विजेश',
कहि जम कोपि ''गंग सोंहै तोहिंका प्रसंग।
कह्यों,''स्‍वामि। गंग तें तो नितहम होते तंग,
सोई गंग कै रही तिहारी प्रभुता को भंग।
पूँछयोपुनिकौनगंग?कैसी गंग'कह्यो, नाथ-
जाके अंग मिली हैं तिहारी भगिनी हूँ-संग''
''गंगै कहा गुन-ढ़ंग''कह्यो,''पीनपापिन कों,
गंग गंग कहे गंगधर सों मिलानी गंग''।
यमराज का उलाहना
आय जम शिवहिं जवाब दीनी चाकरी सों,
''या अनीति हौं तो अब कब लौं सहा करैं।
पुन्‍य बारे स्‍वत ही सिधारैं सुरलोक सबै,
जोगकारे चाहैं जितै तितही रहा करैं।।
ज्ञान-बारे गुनहिं न पाप पुन्‍य एकौ कछू,
मग्‍न ह्वै 'द्विजेश' मुक्ति मार गचहा करैं।।
पतित कतारैं तिन्‍हें गंगैं देति तारे, हम-
झूठे जम-द्वारे बीच बैठि कै कहा करैं।।
ब्रह्मा का पश्‍चाताप
जम को उराहनो सुनत बोले यों बिरंचि,
'तू तैं मोंहिं दूनो है 'द्विजेश' दुख दाहे को।।
हूँ जो दये गंग तो सगर सूनु के प्रसंग,
नहिं कछु सारे पीन पातकी पनाहे को।।
भूलि परे नाहक भगीरथ की भूमिका मैं,
 आपनो न तौ प्रबंध चेते चित चाहे को।।
काह कहैं जो पै कहूँ ऐसो जानते तो भला,
जीतेजान जाह्नवी को जान देते काहे को''।
कामना
अति दुख सों मैं दौरि गंग मैया तेरे पौर,
आयों जानि हानि तातें मोंयों बिनै बानीतैं।।
ह्वै के दीन अनाधीन अति पातकी जु पीन,
जान्‍यों हौं 'द्विजेश' है प्रवीन दया दानी तैं।।
मानै जु तो मानै नहिं मानै तो सुनै मों यह,
विनय 'द्विजेश' हठ सठ ज्ञान हानी तैं।।
प्रिय तौ जु करुना कसम करुनैं की सोई,
करु ना जु मों पै अब करुनानिधानी तैं।।

2.  प्रतिष्ठित कवि परम्परा के कवि 
         पण्डित प्रेमशंकर मिश्र 
जीवन परिचय:- 
पण्डित प्रेमशंकर मिश्र का जन्म वैसाख शुक्ल 5 सवत 1982 वि० तदनुसार 27 जुलाई 1927 ई. को बस्ती के सन्निकट मिश्रौलिया नामक ग्राम में हुआ। इनके पिता महाकवि बलराम मिश्र "द्विजेश” डा मुनि लाल उपाध्याय 'सरस' के शोध प्रबंध बस्ती के छंदकार के द्वितोय और तृतीय चरण के उत्कृष्ट कवि थे। प्रेम शंकर जी का पालन-पोषण बड़े ही शान शौकत के वातावरण में हुआ क्योंकि इनके पिता द्विजेश जी बड़े ही रईसी परम्परा के छन्दकार थे। प्रेमशंकर जी की साहित्यिक शिक्षा-दीक्षा उनके पिता के संरक्षण में हुई थी। पूर्वांचलाकार लिखता है-
"प्रेमशंकर मिश्र महाकवि द्विजेश के योग्य पुत्र बस्ती के साहित्यिक पुनरूत्थान में सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्रेरक काव्य की अनेक विधाओं और वादों के कवि, साहित्यिक आयोजनों के कर्णधार और प्रसिद्ध द्विजेश परिषद के संस्थापक हैं। पिता जी की कलात्मक रुचि के कारण वाल्य काल से ही काव्य कला का जो संस्कार वना वह बराबर विकसित होता गया। विद्यार्थी जीवन में पिता के निर्देशन में वे ब्रज भाषा के छंद लिखने लगे थे । उनकी मृत्यु 22 जनवरी 2015 को दिल्ली में हुई थी।
  - ( पूर्वांचला पृष्ठ 136)
    मिश्र जी की धर्मपत्नी श्रीमती राजेश्वरी देवी थी जो मिश्र जी के कवि मंडली की बड़ी ही तन्मयता से सेवा सुश्रुषा करती रहती थीं। बाद में इनके नाम से इनके उत्तर जीवियों ने कला केंद्र स्थापित कर आम जन मानस की सेवा और प्रेरणा के स्रोत बने हुए हैं। 
नवोदितों के प्रेरणाश्रोत:- 
घनाक्षरी, सवैया छन्दो के साथ नवगीतो को लिखने के लिए परवर्ती नव-युवक गीतकारों नौर छन्दकारो के लिए प्रेमशंकर जी प्रेरणाश्रोत बने हुए हैं। कवि सम्मेलनों के अतिरिक्त रेडियो स्टेशन पर उनके काव्य स्वर प्राय. गूंजते रहते है। दस वर्ष पूर्व प्राय: मासिक गोष्ठियां कराना, नये कवियों को प्रोत्साहित करना द्विजेश परिषद के माध्यम से कवियों को मंचीय कवियों से सानिध्य प्रदान कराना आदि कवि मिश्र जी ने अपने ऊपर ले रखा था। चतुर्थ चरण के छन्दकारों में इनका प्रतिष्ठित स्थान रहा है।
पंडित प्रेमशंकर मिश्र की लेखन विधाएं 
1.निबन्ध 
2.संस्मरण
3. कविता संग्रह: "अपने शहर में"
कविताएँ :- प्रेम शंकर मिश्र जी की 42 कविताओं का एक सेट हिंदी समय डॉट कॉम पर प्रकाशित किया गया है। इनके शीर्षक इस प्रकार हैं - 
अनुभूति,आँतों का दर्द,उठो सुहागिन, 
एक पुरानी कविता,एक स्वर, कर्ता का सुख,किसलिए, खबर है, घुटनों घुटनो धूप, जमील हुई जमीन से, जागो हे कविकांत, ज़ीने की ईटें,जीवन वीणा, तुमसे नहीं, तुम्हारे शहर में, तुम्हारा बादल,दर्पण-एक चित्र ,धुँधलाई किरन, धूप चढ़ी ,नववर्ष एक प्रतिक्रिया, नेह का एतबार, नील गगन का चाँद, पंद्रह अगस्त,पुरातन प्रश्न, पिया की पाती, बंजारा टूटा, गिलास और मसला हुआ गुलाब, बरसात, बात कुछ और है, बापू और फागूराम,बोझ, भूख : वक्त की आवाज, मैं उन्मुक्त गगन का पंथी,मत छितराओ,मौसम का दौरा, युद्ध विराम, यह गली,रोशनी की आवाज,लो फिर बादल,स्थितिबोध, समस्या का समाधान आदि प्रमुख कविताएं हैं और आखिरी कविता का नाम सस्पेंस है।
      प्रेमशकर जी की काव्य-यात्रा व्रजभाषा केन्द्रों से शुरू हुई और आज वह गीतों और नवगीतो की भावभूमि पर पुष्पित और संवर्धित हो रही है। द्विजेश परिषद की स्थापना से प्रेम शंकर जी बस्नी के छन्द- कारों के मार्गदर्शन के फिर सदैव प्रयत्न शील रहे। आज भी वे इस प्रयास मे रहते हैं कि बस्ती का अपना गौरव शाली मच सामादृत होना चाहिए। इसके लिए द्विजेश परिषद के तत्वावधान में कई बार प्रान्तीय और राष्ट्रीय स्तर के कवि सम्मेलन मिश्र जी ने कराया ।
प्रेमशंकर मिश्र की कविता के नमूने :- 
गुलाब :- 
टूटे गिलास को कुछ और तोड़कर
अपने को कुछ और मोड़कर
बंजारे ने
एक फूलदान बनाया है
(क्‍योंकि वह फूल और फूलदान को समर्पित है)
ओ बासी मसले हुए गुलाब
जाओ
खुद अपनी
और उस‍की सरकारी झुग्‍गी की
शोभा बढ़ाओं।
इर्द गिर्द
दीमकों से बची
कुछ बदबूदार फाइलें है
चरित्र पंजियों की
सड़ी हुई लाशें
जिन्‍हें चाट-चाट कर
कोई शिखझडी औघड़
किसी अजगर के मुँह में अटकी
एक मरघटी मुस्‍कान
उगलता-उगलता
गल चुका है
एकदम बदल चुका है
जाओ
अपनी बची-खुची
मरी हुई सूखी गंध से
चारों ओर
उड़ती हुई चिड़ायँध
का रंग बदलो
पुराना साथ संग बदलो।
लगता है
विश्‍वासों ने तुम्‍हें छला है
तुम्‍हारे सामने ही
रोशनी के नाम पर
कोई जलता है
गलती पिघलती सदी का
बचा हुआ
धूप का
यह एक टूकड़ा भी
तुम्‍हारे लिए एक बला है।
पर ओ खूबसूरत दिखने वाले
बीतगंधी गुलाब !
हड्डियों वाले हाथ
और
गुलदस्‍ते के साथ
का फर्क पहचानों।
समय :- 
समय भला किससे हारा है
जहाँ कुछ नहीं
वहाँ रेत का सहारा है
और
तुम्‍हारे लिए
टूटा गिलास घिसा हुआ
अब
सिर्फ यह बनजारा है।

3. सितार वादक, श्री गंगेश्वर मिश्र

पण्डित बलराम प्रसाद मिश्र 'द्विजेश’ जी के बड़े पुत्र उमाशंकर मिश्र के एकमात्र पुत्र का नाम था गंगेश्वर मिश्र। द्विजेश जी से कवि का उत्तराधिकार तो प्रेम शंकर मिश्र जी ने प्राप्त किया था किंतु द्विजेश जी की संगीत-साधना का दाय गंगेश्वर जी ने सँभाला था और वे बस्ती के अच्छे सितार-वादक थे। जिससे कुछ ने शिक्षा भी प्राप्त की थी। 

4.कलानिधि नाथ त्रिपाठी ,चेतिया तिवारी 

द्विजेश जी के परिवार में श्री मोहने प्रसाद मिश्र का नाम भी मिलता है जिनके दामाद श्री कलानिधि नाथ त्रिपाठी बाँसी रिसासत के अंतर्गत चेतिया के ज़मींदार थे। चेतिया राजवंश पूर्वांचल के वर्तमान सिद्धार्थनगर जिले की सरयूपारीण ब्राह्मणों की एक महत्वपूर्ण जमीदारी थी, इसके जमीदार बाबा विश्वंभर नाथ तिवारी जी थे, जोकि कड़क फैसले लेने के लिए जाने जाते थे।

5.अंबिकेश्वर मिश्र 

श्री गंगेश्वर जी के ज्येष्ठ पुत्र श्री अंबिकेश्वर मिश्र थे जो कक्षा 12 तक बस्ती में पढ़े थे। श्रीअंबिकेश्वर मिश्र , रतन सेन डिग्री कालेज,बांसी, सिद्धार्थनगर के पूर्व पुस्तकालय अध्यक्ष रहे तथा वर्तमान में
द्विजेश हिन्दी साहित्य परिषद बस्ती के सचिव हैं।
लेखक परिचय:-

(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए सम सामयिक विषयों,साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं। 
(मोबाइल नंबर +91 8630778321; वॉर्ड्सऐप नम्बर+919412300183)

Friday, January 24, 2025

राष्ट्रकवि बलराम मिश्र 'द्विजेश'का व्यक्तित्व और कृतित्व ( बस्ती के छन्दकर 28)

जन्म दिवस 25 जनवरी के अवसर पर राष्ट्रकवि बलराम मिश्र 'द्विजेश'का व्यक्तित्व और कृतित्व (बस्ती के छन्दकर 28):आचार्य डॉ राधेश्याम द्विवेदी

जीवन परिचय:-

पंडित बलराम प्रसाद मिश्र द्विजेश हिन्दी साहित्य के रीति काल के अंतिम प्रतिनिधि कवि थे। वह काव्य धारा की सारी शक्तियों को उत्कर्ष पर पहुंचाते हुए बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध तक साहित्य सृजन करते रहे। उनके शरीर छोड़ने तक हिन्दी साहित्य में तीसरा सप्तक आ चुका था। उन्होंने अपनी काव्य रचना में देव और पद्माकर का ही रंग बनाए रखा। अपनी हिन्दी की रचनाओं के अलावा द्विजेश ने उर्दू और फारसी में शेरो-शायरी और गजलें भी लिखीं। प्रतिष्ठित सरयूपारीण जमींदार परिवार में द्विजेश का जन्म माघ कृष्ण 11, संवत 1929 विक्रमी तदनुसार 25 जनवरी 1886 ई. को बस्ती उत्तर प्रदेश के निकट मिश्रौलिया नामक ग्राम में हुआ था। बस्ती राज परिवार से इनका निकट का नाता था। संस्कृत, संगीत और साहित्य की खुशबू मानो इनके रग-रग में बसी थी। औपचारिक स्कूली शिक्षा का चलन उन दिनों बहुत कम होने के बावजूद तत्कालीन प्रथा के अनुसार उन्होंने हिन्दी, संस्कृत, उर्दू, फारसी तथा सामान्य गणित की शिक्षा ग्रहण की थी। नगर पालिका बस्ती रोडवेज चौराहे से पुरानी बस्ती जाने वाले मार्ग को उनके नाम पर द्विजेश मार्ग का नामकरण भी किया है। पाण्डेय स्कूल के समाने द्विजेश भवन भी उनके शुभ चिन्तकों ने बनवा रखा है। यहां कभी कभार साहित्यिक कार्यक्रम भी होते रहे हैं।

प्रमुख कृतियां:-

1. अप्रकाशित गजल संग्रह हस्ती:- 

शेरो-शायरी से जुड़ा संग्रह 'हस्ती' आज तक नहीं छप सका है। 

2.द्विजेश दर्शन:- 

काव्य रचना संग्रह द्विजेश दर्शन उनका एक मात्र संग्रह रहा है। किशोरावस्था से ही द्विजेश ने काव्य रचना शुरू कर दी। ब्रजभाषा कविता की मुख्य धारा में थी। रचनाओं में वह एक सिद्धहस्त कवि के रूप में दिखाई देते हैं। वे रचनाएं लिखते गए लेकिन उनके संयोजन और प्रकाशन की ओर द्विजेश का ध्यान कभी नहीं रहा। वह प्रकाशन के प्रति बहुत लापरवाह रहे। उनके पुत्र प्रेमशंकर मिश्र ने प्रयास करके ब्रजभाषा में रचित कविताओं का संग्रह द्विजेश दर्शन का कुछ अंश हिन्दी साहित्य सम्मेलन के सौजन्य से प्रकाशित कराया है। जो कुछ द्विजेश दर्शन में छप सका वह रचनाओं का मात्र एक चौथाई हिस्सा ही है।

       द्विजेश दर्शन की भूमिका में श्री नारायण चतुर्वेदी ने लिखा है कि इनके लेखन की बात ही कुछ और है। अपने व्यक्तिगत काव्य प्रेम के कारण अपने आसपास के बहुसंख्य लोगों को साहित्य से जोड़ने का काम द्विजेश ने किया है। डा.रसाल ने द्विजेश के बारे में कहा था कि, शब्द उनके दास थे। जबकि डा. संपूर्णानंद ने लिखा कि, ब्रजभाषा के बुझते दीपक के इन पतंगों के प्रयत्न मेरे मन में आदर का भाव उत्पन्न करते हैं। मेरा ऐसा विश्वास है कि द्विजेश की काव्य रचनाओं में पाठक को तृप्ति का एहसास होता है। चेहरे मोहरे से किसी मुगल बादशाह की झलक देने वाले द्विजेश वेशभूषा और खानपान की शैली के नाते भी मशहूर थे। वह भारत की सभ्यता यात्रा में एक पड़ाव के प्रतिनिधि थे। 

साहित्यकारों द्वारा प्रशंसाः- डा.संपूर्णानंद, डा.वागीश शुक्ल, डा. अरुणेश नीरन, श्रीनारायण चतुर्वेदी सहित तमाम लोगों ने अपने संस्मरणों में द्विजेश द्वारा रचित ब्रजभाषा काव्य को शब्द चमत्कार, ऊंची उड़ानों वाले अलंकार और अक्षर मैत्री का अद्भुत संयोजन करने वाला काव्य साहित्य बताया है। भक्ति भाव की प्रधानता वाले काव्य में उन्होंने अनूठी कल्पनाओं के साथ एक खास तरह के रंगारंग संयोजन को पिरोया है। द्विजेश दर्शन की भूमिका में श्रीनारायण चतुर्वेदी ने लिखा है कि इनके लेखन की बात ही कुछ और है। अपने व्यक्तिगत काव्य प्रेम के कारण अपने आसपास के बहुसंख्य लोगों को साहित्य से जोड़ने का काम द्विजेश ने किया है। डा.रसाल ने द्विजेश के बारे में कहा था कि, शब्द उनके दास थे। जबकि डा.संपूर्णानंद ने लिखा कि, ब्रज भाषा के बुझते दीपक के इन पतंगों के प्रयत्न मेरे मन में आदर का भाव उत्पन्न करते हैं। विश्वास है कि द्विजेश की काव्य रचनाओं में पाठक को तृप्ति का एहसास होता है। चेहरे मोहरे से किसी मुगल बादशाह की झलक देने वाले द्विजेश वेशभूषा और खानपान की शैली के नाते भी मशहूर थे। वह भारत की सभ्यता यात्रा में एक पड़ाव के प्रतिनिधि थे।

प्रेमशंकर मिश्र काअभिमत संस्मरण:- 

पं. बलराम प्रसाद मिश्र द्विजेश के लिए उन दिनों देश के जाने माने दिग्गज कवि कलावंत महीनों मेरे यहाँ ठहरते। सुबह- शाम अखंड काव्य और संगीत गोष्ठियाँ हुआ करती थीं। महाकवि जगन्नाथदास रत्नाकर पं. अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध, पं. रमा शंकर शुक्ल रसाल के अतिरिक्त रीवां के महाकवि ब्रजेश, पं. बालदत्त, यज्ञराज, विचित्र मित्र ऐसे आचार्य कवि, अजीम खाँ, झंडे खाँ ऐसे उस्ताद यनायत खाँ ऐसे सितारवादक, उनके पुत्र उस्ताद अजीम खाँ साहब ऐसे संगीतज्ञों की सन्निधि मुझे बचपन से प्राप्त हुई है। आज के आफताबे गजल उस्ताद मेहंदी हसन और सितार नवाज उस्ताद शाहिद परवेज ऐसे आज के विश्व विश्रुत कलाकारों का बचपना अपने पिताओं के साथ मेरे साथ गिल्ली गोली खेलते बीता है। इस तरह साहित्य और संगीत मेरी घुट्टी में रहा। विरासत में मुझे काव्य रचना और मेरे अग्रज और उनके पुत्र को सितार वादन मिला। सन 1959 में पिता का तिरोभाव हुआ। 

डा. मुनिलाल उपाध्याय ‘सरस’ जी द्वारा मूल्यांकन:-  

बस्ती जनपद के स्वनामधन्य  साहित्यकार डा. मुनिलाल उपाध्याय ‘सरस’ ने बस्ती के छन्दकारों का साहित्यिक योगदान भाग 1 में पृष्ठ 91 से 111 तक द्विजेश जी का परिचय काव्य तथा शैली का वैज्ञानिक विवरण प्रस्तुत किया है। उन्होंने वन्दना, भक्ति दर्शन, गंगा गरिमा वर्णन, श्रृंगार खण्ड, नखशिख वर्णन, विविध प्रकरण तथा द्विजेशजी के रहन सहन को बड़े मार्मिक ढ़ंग से प्रस्तुत किया है। अपने विवरण के अन्त में डा. सरस जी ने लिखा है- ‘द्विजेशजी ब्रज भाषा श्रृंखला के अन्तिम सशक्त कवि थे। केशव व पद्माकर की परम्परा जिसे रंगपाल जी ने बस्ती के मंच पर स्थापित किया था द्विजेशजी ने अपने पाण्डित्य से गौरव दिया।....श्रृंगार के साथ साथ मानव जीवन के व्यवहारिक पक्ष पर लेखनी चलाकर द्विजेश जी ने यदि कविता की भाव भूमि को मानवीय चेतना दिया तो राष्ट्रीयता का मंत्र फूंक करके परतंत्र देश वासियों को स्वतंत्रता का संदेश भी दिया। द्विजेश जी की काव्यधारा वह मन्दाकिनी है जहां सन्त समागम का संगम और त्रिवेणी के पावनत्व का उद्गम है। 85 वर्षों तक द्विजेश जी ने बस्ती की धरती को निहारा और अन्ततः मनीषी साहित्य सूर्य अस्ताचल पहुंच साहित्य से विराम लिया।‘

द्विजेश दर्शन कविता संग्रह :- 

भक्ति भाव की प्रधानता वाले काव्य में उन्होंने अनूठी कल्पनाओं के साथ एक खास तरह के रंगारंग संयोजन को पिरोया है। अपनी कविता में भगवान शिव को उलाहना देते हुए उन्होंने लिखा है कि यदि भोलनाथ ने उनका उद्धार नहीं किया तो वे पार्वती की अदालत में भक्ति को अपना वकील बनाकर मुकदमा लड़ेगें।

डिगरी इजराई में न तारिहौं दिगंबर तौं,

कोष करुना को कम कुरक करावैंगे।।

कुछ और छन्द नमूना स्वरूप प्रस्तुत है-

हाजिर हैं रावरे हजूर मजबूर ह्वै के, 

मुक्ति- जुक्ति आपनी सु याही मन मौंजैंगे।।

चरन-सरोजैं जगदीस के धरेंगे सीस, 

ऐसो ईस पाय आपदा मैं कहा ओजैंगे?

खातिर जमा हो खूब खातिर करेंगे हम,

रावरे जी खातिर अखातिरी न जोजैंगे।।

आप रोज रोजैं चहो और दीन खोजैं, 

पै-'द्विजेश' दीनबंधु अब दूसरो न खोजैंगे।।

ए हो नाथ हौं तो कछु रोज तें सुनी है ऐसी,

दान असनान के कितेक फल पाए हैं।।

सोई जिस जानि मानि रावरे दया को ढ़ग,

दान-पात्र सो तेहिं 'द्विजेश' ठहराए हैं।।

कुस है कुकर्म, अघ अच्‍छत विपत्ति वारि,

दान द्रव्‍य दीरघ दिनाई दरसाए हैं।।

लागो प्रन पर्व को सुनी है कृपा सिंधु बीच,

कृपा सिंधु यातें हौं अन्‍हान आजु आए हैं।।

वंदना

धन्‍य तू प्रसिद्ध सब सिद्धिनि की सिद्धि, नबौ निद्धिनि की निद्वि तातें तौ सनिद्ध थामी 

मैं परम पवित्र इष्‍ट मित्र तू त्रिदेवन की,

पेखि तेरो चित्र औ चरित्र चार धामी मैं।।

तोहिं जानि जाह्वी जननि जग-जीवन की,

पीवन मैं ज्‍यों पियूष पेखि अभिरामी मैं।।

भोसों के कुपथ गामी कीनी तैं सुपथगामी,

तातेंहे विपथ गामी। करत नमामी मैं।।

अवतरण 

गेरी गिरापति की गिरी है जो गिरीस सीस,

हल सों हिमंचल के हिय मैं हली गई।।

ह्वाँते चलि मचलि मचावति जु घोर सोर,

तोरि फोरि ढोकनि को ढाँ‍कति ढली गई।।

पहुँची प्रयाग कै 'द्विजेश' कल-कौतुक यों,

 विंध्‍य-कासिका के प्रेम पथ यों पली गई।।

फेटति फवनि सीम मेटति सरस्‍वति को,

भानुजा को भेंटति समेटति चली गई।।

गुण-गान

जेतेआदिबसतअसाघ बसुधा मैं ब्‍याधि,

होते ते सुसाध देती जो पराग मूठी तैं।।

जाख से जलोदर कराल कमलोदर पै,

काठ से कठोदर पै कालिका सी रूठी तैं।।

अधम अधंगे मति भंगे जो अपंगे गंगे,

 होत चट चंगेयामैं सत्‍य है न झूठी तैं।।

पातक पितज्‍वर विपत्तिविपमज्‍वर की,

काल से कफज्‍वर की औपधि अनूठी तैं।।

2

भक्ति पै भगीरथ के आई भगी रथ संग,

धाम-नृप तीरथ के धाई धन्‍य धारती।।

विधि के कमंडल कीं हरि पौं प्रचंड ल की,

ईस-सीस मंडल की सुषमा सँवारती।।

जोम जम जारती उजारती पुरीजम की,

चित्रगुप्‍त पै 'द्विजेश' गजब गुजारती।।

आरति उतारती तु पापिनैं पखारती, न

अम्‍बा जिन्‍हैं तारती तु गंगा तिन्‍हें तारती।।

3

आई भूमि भुपति भगीरथ की ल्‍यायी हुती,

छाई हुती देखि तोहिं देबैं तरसत है।।

छीर-छबि देखि तौ छकित छीर सागर हू,

छार लखि आपनो पछार परसत है।।

रोज तौ 'द्विजेश' रोजगार रंगरेजी देखि,

 राव रंक तातें लै सरोज सरसत है ।।

कैसहू कुरंगे अति पापन सों रंगे सोऊ,

 गंगे रंगे रावरे सुरंगे दरसत है।।

4

कोऊ अंध अधीन ह्वै अधोमति के,

अध जल देत ही जु आधो सांस हुँचिगो।।

जम-गनजान्‍यो पै न जान्‍यो जाह्वी को उत,

चट-जम जातन की चाहना उमुचिगो।।

ज्‍यों ही चल्‍यो त्‍यों ही उत गेरत ही गंग गरे,

सिगरे सरीर सक्ति सक्ति मैं समुचिगो।।

जौलों जम-प्रेम पातकी लौं पहुँचन चाह्यो,

 तौलों वह पापी संभु पुर मैं पहुँचिगो।।

5

आचमन कीने आँच मन की समन होत,

साँच मन तौ 'द्विजेश' जाँचमन कीने तें।।

कीनें तें सँकल्‍प करै गंग तू तो काया कल्‍प,

जीवै अल्‍प जीवी सदा कलपन कीने तें।।

तेरे दरसन जम दरस न होत फेरि,

परसि न पावै पाप परसन कीने तें।।

अरपन कीने दरपन सों दिखात ब्रह्म,

नरपन जात तोमैं तरपन कीने तें।।

6

द्रुम मैं जु देखी कला कल्‍प कलपद्रुम की,

सब सबके जी अनुमान ऐसो भरिगो।।

कोऊ कहै वासन विरंचि तें गिरयो है बुन्‍द,

कोऊ यों कहै 'द्विजेश' जन्‍हु जंघा दरिगो।।

हरि-पद-पंकज को परिबो पराग कोऊ,

कोऊ कहै यों जटा गिरीस जू को गरिगो।।

मेरे जान गंग तेरे तारे काहू पातकी को,

भीनो चार पद को पसीनो कहूँ परिगो।।

7

होती जो न रंचिभरि तू विरंचि वासन मैं,

तो वे जग सासन को आसनै क्‍यों परते।।

तैसोई तहाँतें जो न गिरती गिरीस सीस,

वेऊ ईस मुक्ति वकसीस कैसे करते।।

लाल -काज द्रौपदी केकूल के दुकूल ही मैं,

श्रुति द्रुति सों 'द्विजेश' सूल कैसे हरते।।

काज यों कुविंद को गोविंद करिपाते कहा,

जो तौ बिंदु पग अरविंद मैं न धरते।।

8

आते ही जु प्रथमैं उदेसकेस मुंडन को,

जोयों मरयो मानो पाप अंगी जौन अंगा मैं।

तापै पुनि न्‍हाइबे कों पूजा विधि पाइबे कों,

प्रोहितैं दिवाइबे को दान देन दंगा मैं।।

माह के महत्‍व ही तैं आपनो हू दै महत्‍व,

जो 'द्विजेश' चारहू पदारथ प्रसंगा मैं।।

मकर-अमा के मिस पाप ताप लूटिवे कों,

मानों इमि मकर भरयो है मातु गंगा मैं।।

9.

दीननि की संगी दीनता जो अरधंगी रूप,

तैसो पतितान पतिताहू संग धरती।।

जाते जब तेरे तीर न्‍हाते तौ 'द्विजेश' नीर,

तू तिन्‍हें सपतनीक प्रन सों पखारती।।

एकैं अति मोही एकैंअति निरमोही रूप,

मातु-सासु धर्म यों दुहूँ पै निरधारती।।

जातें धन्‍य धिक दोऊ किन मातु गंगे तोंहि,

 पुत्रैं जो दुलारती पतोहुनि को मारती।।

10.

जैसी तूजननि जग जान्‍हबी ह्वै जात्रिन की,

लाल आरोहावरोह जगजाकी यहीखेती है।

जाको जीव जातरूपजायारूपजीवनी त्‍यों,

सो तातें जनित धर्म कर्म सों सचेती है।।

पुत्र सों अधिक प्रिय होते जो पितामही के,

सोई दृश्‍य गंग मातु चार फल देती है।।

होते जबै गोते पातकीन के जु पोते रूप,

लैलै अंक ताको गंग चूमि चूमि लेती है।।

11

जाको आदि नाम गोसुपद हीतें धाम- ग्राम,

जो 'द्विजेश' अति अमिरामी ह्वै अनिंद के।।

जो गोलोकनाथ गोकुलेस तिमि गोपीनाथ,

त्‍यों गोपाल गोबरधनैं सों सुर-वृंद के।।

जद्यपि इतै गो वृंद ज्‍यों रविन्‍दैं अरविंद,

तौहूँ हरि प्‍यासे गंग तेरे बारि-विंद के।।

यानें केवलै गोविंद इमि करि पाते कहा,

होतो जो न तौ गो बिंदु पद मैं गोविंद के।।

12

जिन बसि तेरे तीस रेह कैसी लै सरीर,

वीर-वीर सेना से 'द्विजेश' जो सजक से।।

घाट वो कुघाट जो बिलोकते बटोही बाट,

जो विराट ठाट ठाटते ह्वै बेधरक से।।

देखते दुंखी जो दीन पेखते जु पापी पीन,

मलि मलि धोइ मन होते स्‍वच्‍छ बक से।।

धन्‍य ऐसे तेरे रज रजत समूह से जो,

तेरे राज तीरथ मैं राजते रजक से।।

13

ओममयी प्रकृति सुकृति सीमा सोममयी,

जोम मयी जम पै तू होम की अँगारा है।।

तेरो चित्र जो विचित्र सो ताको चरित्र ऐसो,

चित्र-चित्रगुप्‍त काटिबे को तौ किनारा है।।

चार पद देनी स्‍वर्ग वर्ग की निसेनी तुही,

देनी जो 'द्विजेशी' ऐसी तेरो आरपारा है।।

एक धारा अघ पै दुधारा दोप दारिद पै,

तैसो तिहूँ तापन पै त्रिविधि त्रिधाराहै।।

14

तू ही एक नद्द अनहद्द ऐसी आनंद की,

जो ह्वै के सनद्व प्रनवद्ध विरमैया तैं।।

मातु धर्म धारन तें अधम उधारन तें,

सब की सुधारन तें मरन समैया तैं।।

सो याको प्रतच्‍छ लच्‍छ सगर सपूतन लौं,

कीनी तिन्‍हैं पूतन सों पुनि जनमैया तैं।।

धन्‍य वे भगीरथ कि जाके रथ संग भागी,

भई धन्‍य-भाग भागी भागीरथी मैया तैं।।

15

जोग को जगावति भगावति विषय भोग,

विष वगरावति भुजंग विपधर की।।

जोवति न सोवति भिजोवति जरनि ज्‍वाल,

खोबति खराबी है 'द्विजेश' गर-गर की।।

काम को नआने देति क्रोधजी नजाने देति,

देतिना सतानेलोभ मोह के लहर की।।

हर हरि विघ्‍न सबै हर-हर बैन बोलि,

हर - हरजाम पाहरू है हरहर की।।

16

होती जो न विधि जल जंत्र मैं स्‍वतंत्र तो तू,

नृप-तप तंत्र पै गिरीस सीस जाती ना।।

होते जो जरे न सूनु सिगरे सगर के तौ,

सागर लौं जाय तिन्‍हैं बिगरै बनाती ना।।

जद्यपि भई यों जस भागी तू त्रिपथ भागी,

पै 'द्विजेश' भगीरथी तबहूँ कहाती ना।।

प्रेमनि पगी पगी सु माता सी सगी सगी,

भगीभगी भागीरथी के संग मैं जुआती ना।

17

दार नृप सांतनु की चारो फल देन दार,

 नद सरदार देवदारन सी ज्‍वै गई।।

सोनभद्र सरजू व सालिग्राम नामी नदी,

 गोई सब तोमैं तैं न काहू संग ग्‍वै गई।।

जैसो तब तरल तरंग त्‍यों सरल ढंग,

सत्रु सरनागती पै रंग निज ख्‍बै गई।।

काल की सहोदरी कलिंदी वह काली नदी,

तोमैं मिलि गंगे सोऊ गंगा आज ह्वै गई।।

18

सान्‍तुन के अंगज न थे क्‍या चित्रअंगदवे,

गंगज जो होते केहरी सों प्रान खोते ना।।

एक तेरे गर्भ मैं न होतो गुन-बर्व तो यों,

सर्व-गर्व-हारी द्वै प्रभू की धाक धोते ना।।

हरि प्रन तोरि त्‍यों परसुरामैं मुख मोरि,

मैन को मरोरिजोरि सेज-सर सोते ना।।

सांतनै-तनय होते होते कहा भीपम यों,

मैया गंग तू तैं जनमें जो आज होते ना।।

19

धन्‍य तेरी महिमा मही मैं आज मातु गंग,

 जानते हैं देव वो 'द्विजेश' जन जेते हैं।।

धन्‍य तव पण्‍डे जो प्रचण्‍डे जम दूत हूँ लौं,

 झण्‍डे गाड़ि पापिनैं जु पुन्‍य पथ देते हैं।

धन्‍यतो हजाम जिन जूमिजूमि आठो जाम,

 करिकै हजूम ऐसो इन्‍तजाम चेते हैं।।

कूढ़न को मूढ़न को जबा-बाल-बूढ़न को,

मूढ़न को मूढि़ पाप हूँ को मूढि़ लेते हैं।।

20

जेते नाम नीर के जु नद-सर के सरीर,

पैना गुनीते तिन्‍है जिन्‍हें यों आप ज्‍वै रही।।

आप नामैं आपदारि वारि सों उबारि दोष,

 पर्व जलसे को जस-जल से भिज्‍वै रही।।

पानीसोंसुपानी पोस,त्‍योंद्विजेश' नीर हू यों,

ज्‍यों तुनीरतीर जासों जम ख्‍याति ख्‍वै रही।

जीवन तें जीवनैं पियूष पय पीवन सों,

अम्‍बु नामैं अम्‍बा जगदम्‍बा रूप ह्वै रही।।

21

जिन मुख तें ना सपने हूँ केहूँ राम-नाम,

पुन्‍य परिनाम हू न जाके नाम जद्दी को।।

केवलै जो अपकर्म ही को मानि पर्म धर्म,

खोये जीवनी को सोये नींद अनहद्दी को।।

पै जिन्‍हैं न तेरो आप जानतो न पापजातें-

जम चित्रगुप्‍त किया कैयों रूप रद्दी को।

नीर बिनु ज्‍यों सर सरोज रोज रद्दी, तिमि-

 तैसी जमगद्दी रोजनामचा मुसद्दी को।।

22

अद्भुत अंग सों अनूप है जो तेरो रूप,

तो ह्वै कृपा कूप विश्‍व भूपैं मनोहारी तैं।।

सारद सहेली मनमेली लक्ष लक्ष्‍मी की,

खेली गिरिजा के संग प्रेम लेनहारी तैं।।

षटऋतु वारो मास रैन दिन के समास,

जाचकैं से जाबिन को चैन देनवारी ते।।

पापहारी तापहारी जब को प्रतापहारी,

बलि बलिहारी जु यों विश्‍व की बिहारी नैं।।

23

जो पै तब तीनै तीन विधि सों प्रसंग गंग,

प्रथमैं त्रिदेवैं संग तीन गुन लेनी नैं।।

तीन जल तीन रंग तीनहूँ के तीन ढंग,

उज्‍जवल वो कज्‍जलऽरुनंजल कीश्रेनी तैं।

त्‍यों 'द्विजेशी' तीनों लोक तीन पथ सों बिलोकि,

तीनों ताप तीनों पाप आप ही की देनी तैं।।

धन्‍य तेरो तीनै तीन विधि को तरंग गंग,

जातें ह्वैं रही यों तीन रंग की त्रिवेनी तैं।।

24

जिमि पद वाचक प्रसिद्ध तेरी चार नाम,

तिमि पद लक्षकैं दुलक्षणा विधानी सों।।

जातिनामजान्‍हवी,जद्दच्‍छा-गंगत्‍यों'द्विजेश',

गुन सों त्रिवेनी क्रिया त्रिपथ प्रधानी सों।।

रूढ़ीकेवलैं सों त्‍योंप्रयोजनी जोशुद्धा गौनि,

उपादानि लक्षणी सारोप साध्‍यौऽसानी सों।

धोतेपाप गोते, गंग वासी सुख सोते, तिमि-

जम गन रोते जम होते बिना पानी सों।।

25

पीके आप भंग मति भंग किन होते आप,

जारते अनंगै कहा आपै क्‍यों न जरते।।

विपधर कंठ मैं एकंठ करि ब्‍याल माल,

कह त्रिपुरा को मारि आपै क्‍यों न मरतें।।

धन्‍य तेरो आप पाप-ताप हारी तौ प्रताप,

 सो जाको 'द्विजेश' कोऊ देव ना बिसरतै।

धीर किमि धरते उधरते अधम कहाँ,

मंगधर तोहिं जो न सीस गंग धरनै।।

मुंडन पर उक्ति

जनमति संगी अंग जाको मम अंग ही तैं,

चल्‍यों गंग न्‍हान जातें संग यों विगारिगो।।

चलतहिं आदि ही तें अनमन होन लारयो,

जान्‍योना 'द्विजेश' कौनब्‍याधि कोपकरिगो।

कैकै किते जत्‍न सो प्रयाग लौं पहुँचि केहूँ,

अन्‍त मों पैं मुंडन को यो असौंच परिगो।।

मेरो मित्र पाप जो परम प्रिय मोको हाय,

पहुँच्‍यों न गंग पौर पंथ ही मैं मरिगो।।

यम के नाम

श्री जमराज जू। 'द्विजेश' को प्रनाम, हैं-

अराम, आठो जाम तौ कुशल नेक चहियो।

आज हौं अह्नाए गंग पाए विश्‍वनाथ पद,

होत फल याको जो सोजानि जिय लहियो।

जानते हो जैसो संभु, गंग की तरंग जैसी,

तूहूँ चित्रगुप्‍त बैठे चुपैचाप रहियो।।

देत हूँ चेताई भाई बनि न परैगी मोसों,

अब फेरि कोऊ मोहिं पातकी जु कहियो

यमदूत की विवशता

जम गन भाख्‍यो गति गंगजम सों 'द्विजेश',

कहि जम कोपि ''गंग सोंहै तोहिंका प्रसंग।

कह्यों,''स्‍वामि। गंग तें तो नितहम होते तंग,

सोई गंग कै रही तिहारी प्रभुता को भंग।

पूँछयोपुनिकौनगंग?कैसी गंग'कह्यो, नाथ-

जाके अंग मिली हैं तिहारी भगिनी हूँ-संग''

''गंगै कहा गुन-ढ़ंग''कह्यो,''पीनपापिन कों,

गंग गंग कहे गंगधर सों मिलानी गंग''।

यमराज का उलाहना

1

आय जम शिवहिं जवाब दीनी चाकरी सों,

''या अनीति हौं तो अब कब लौं सहा करैं।

पुन्‍य बारे स्‍वत ही सिधारैं सुरलोक सबै,

जोगकारे चाहैं जितै तितही रहा करैं।।

ज्ञान-बारे गुनहिं न पाप पुन्‍य एकौ कछू,

मग्‍न ह्वै 'द्विजेश' मुक्ति मार गचहा करैं।।

पतित कतारैं तिन्‍हें गंगैं देति तारे, हम-

झूठे जम-द्वारे बीच बैठि कै कहा करैं।।

2

अज्ञापैजोआपी के प्रतिज्ञा सों प्रबंध न्‍याय,

कन्धि हम राखे पापी दंड के प्रसंगा मैं।।

जो न करि पातेअब हम जम ह्वै के तिन्‍हे,

जो अन्‍हाते पाते स्‍वर्ग गंग के तरंगा मैं।।

यातेंआप हैं बिधी तो कीजै द्वैविधी मैं एक,

भेजे सन्निधी सों गंग जोमों मान भंगा मैं।।

या तो पुनि गंग ही को गोपिए कमंडल मैं,

यामों न्‍याय मंडलै को गुप्‍त कीजै गंगा मैं।।

ब्रह्मा का पश्‍चाताप

जम को उराहनो सुनत बोले यों बिरंचि,

'तू तैं मोंहिं दूनो है 'द्विजेश' दुख दाहे को।।

हूँ जो दये गंग तो सगर सूनु के प्रसंग,

नहिं कछु सारे पीन पातकी पनाहे को।।

भूलि परे नाहक भगीरथ की भूमिका मैं,

 आपनो न तौ प्रबंध चेते चित चाहे को।।

काह कहैं जो पै कहूँ ऐसो जानते तो भला,

जीतेजान जाह्नवी को जान देते काहे को''।

कामना

1

अति दुख सों मैं दौरि गंग मैया तेरे पौर,

आयों जानि हानि तातें मोंयों बिनै बानीतैं।।

ह्वै के दीन अनाधीन अति पातकी जु पीन,

जान्‍यों हौं 'द्विजेश' है प्रवीन दया दानी तैं।।

मानै जु तो मानै नहिं मानै तो सुनै मों यह,

विनय 'द्विजेश' हठ सठ ज्ञान हानी तैं।।

प्रिय तौ जु करुना कसम करुनैं की सोई,

करु ना जु मों पै अब करुनानिधानी तैं।।

2

आज अति वेदन सों मेरो है निवेदन यों,

मेरो तेरो मातु पूत नात कबौं टूटे ना।।

मेरे पास चार विषै धन रूप ऐसो जाहि,

जो अविद्या अपकर्म इन्‍हें आनि लूटै ना।।

छोन कैसो मेरो छोह मातु कैसो तेरो मोह, मेरो तेरो कोह केहूँ कबौं आनि कूटैं ना।।

यातें मातु मेरी बिनै बस अब एकै यही,

तेरो नीर - तीर छीर मोसों कबौं छूटै ना।।

3

मों हित न ऐबो तोहिं पुनि विधि वासन सों,

ना तो भगीरथ रथ संग की जवैया तैं।।

मों सँग न सगर सपूतनि सी मंडली हू,

जो जरे मरे को करै पुनि जनमैया तैं।।

मों सुभाग सों जो आज कासी बीच तौ विराज,

तो मों एकै काज करि होवै सुख दैया तैं।।

बस एक ऐसो जरा अंग पंगु पद पेखि,

लै ले सरनागती मैं मोंको गंग मैया तैं।

         आचार्य डॉ राधेश्याम द्विवेदी 

लेखक परिचय:-

(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए सम सामयिक विषयों,साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं। (मोबाइल नंबर +91 8630778321; वॉर्ड्सऐप नम्बर+919412300183)

Thursday, January 23, 2025

चिन्ताहरण पाण्डेय "फूल" एक कालजयी कवि "बस्ती के छंदकार" भाग 3 (कड़ी 7)

चिन्ताहरण पाण्डेय "फूल"
एक कालजयी कवि 
बस्ती के छंदकार भाग 3 (कड़ी 7)

लेखक डा. मुनि लाल उपाध्याय 'सरस' 
संपादक आचार्य डॉ. राधेश्याम द्विवेदी 

जीवन परिचय :- 
सुकवि चिन्ताहरण पाण्डेय “फूल” जी का जन्म बस्ती जिले के ओडवारा के पास मिटवा नामक ग्राम में 2 अक्टूबर सन 1925 ई. को तदनुसार सं० 1982 वि० में हुआ था। इनके पिता का नाम पण्डित देवशरण पाण्डेय था। फूलजी की शिक्षा- दीक्षा मेधावी माता के साहचर्य में गौरखपुर में समाप्त हुई थी। सन 1944 से फूलजी गन्ना विभाग के विविध पद पर कार्य करते हुए निरीक्षक के पद से 1983 में सेवामुक्त हुए थे। सन् 1945 से फूलजी अपने मनोहारी व्यक्तित्व और कृतित्व से बस्ती जनपद के काव्य-मंच पर छा गये थे । कवि “सनेही”जी और “हितैषी” जी से स्नेह पाकर "फूल" जी ने छन्दों के माध्यम से अपनी काव्य-यात्रा प्रारंभ की थी । फूलजी कवि “नन्दन” जी के योग्य शिष्यों में से थे। इस संदर्भ में नन्दन जी की दो पंक्तियाँ द्रष्टव्य है- 
कवि फूल सुवाम मालिंद सदा 
बिहरे जिसमें वह “नन्दन” हूँ।।
“नन्दन” जी के शिष्य होने के साथ-साथ फूल जी काव्य के क्षेत्र में अब्वास अली "बास" के कवि-भाई भी हैं। जिसकी पुष्टि इन पक्तियों से होती है- 
नन्दन” का नाज “फूलजी” का हमराज “बास”, नेह नागरी से गंवई में रहने लगा। - (आइना, शुभकामना से )
     फूलजी की प्रारंभिक कविताएँ सुकवि, रसराज और अनुरंजिका आदि पत्रिकाओं में बड़े धड़ल्ले के साथ छपती रहीं। इनके मुस्कराते हुए अधरों से उछलते हुए गीतों के स्वर कवि सम्मेलों में हजारों श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर देते थे ।
रचनाएं:- 
"फूल जी का प्रकाशित साहित्य इस प्रकार हैं - 
1- जवानी के गीत
2- पंचामृत
3- स्वर के तौर
4- आइना
उनकी अकाशित साहित्य की सूची इस प्रकार है - 
1- साहित्य की ओर 
2- डूबते स्वर
3- खामोशी 
विस्तार से रचनाओं की जानकारी:- 
1.जवानी के गीत :- 
फूलजी की यह प्रथम रचना आग और पराग गीतो के माध्यम से जैसे ही जनपदीय छन्दकारों के सम्मुख आई उसे बहुत से लोगो ने सराहा I "अग्नि करण" शीर्षक में क्रांतिकारी गीत वर्तमान समाज पर तीखे व्यंग्य के परिप्रेक्ष्य में किया गया है- 
फैलेगा अमर प्रकाश धरा में क्षण में,
फिर आंख क्रांति का सूर्य निकल जाने दो।
वह स्वर्ग धरा के चरण स्वयं चूमेगा,
चाँदी का चाँद निकल दर दर पर घूमेगा ।
यह व्यथित विश्व अलमस्त बना झूमैगा।
पर आंख जवानी के प्यालों में पहले
अभय प्रलय की मदिरा ढल जाने दो ।
निष्प्राण सभी यह जादू टोना होगा,
धरती का कण-कण सोना-सोना होगा।
जग का आलोकित कोना-कोना होगा,
उन अमर शहीदों की बेदी पर पल भर
कुछ तप्त रुधिर के दीपक जल जाने दो।
- (जवानी के गीत से।)
        गीत की इन पंक्तियों में भावो का गौरवमय रूप मुखरित हो उठा है। जवानी के प्याले में त्याग और बलिदान के भावना की मदिरा ढलने से ही राष्ट्रीयता की बलिवेदी पर क्रान्ति का तुमुल बज उठता है। इस संदर्भ मै कवि का विचार उत्तम है।
2.पंचामृत :- 
दूसरा काव्य-संग्रह "पंचामृत धार्मिक पृष्ठभूमि पर पाँच मुख्य आराध्य देवो के 108 नामों के पर्याय छन्दों में प्रस्तुत किया गया है। इसमें आस्तिकता का स्वर है और कवि के भावों का मानवीय उदघोष ।
3."स्वर के तीर”:- 
तीसरा संग्रह "स्वर के तीर" राष्ट्रीयता से सम्वलित भावधारा में गीतों और छन्दों का पुट देकर लिखा गया है। इसके गीतों में कवि का जीवनदर्शन उभरता हुआ दिखाई पड़ता है।
4.आईंना :- 
फूल जी की चौथी कृति "आईना" का प्रकाशन स्वतंत्र प्रकाशन,गौरखपुर से 1982 में हुआ है। इसमें कुल 87 पृष्ठ हैं। बाद में 9 पृष्ठ गजल के हैं। गीत, मुक्तक, गजल आदि के साथ फूलजी ने इसमें कुछ सवैया छन्दों का भी संग्रह प्रस्तुत किया है। इन छन्दों में अनेक दार्शनिक विचार सर्वत्र उभरते हुए दिखाई देते हैं। जीवन सन्ध्या पर लिखे हुए कुछ छन्द यहां प्रस्तुत हैं- 
जीवन की उत्पत्ति जहा उस, 
स्रोत की थाह लगाने चला हूँ।
स्वर्ग की मादक रागिनी से 
अपने उर तार सजाने चला हूँ।
सैकड़ों कल्प से खोई हुई निधि 
को अपने फिर पाने चला हूं।
साझ हुई उस जीवन की 
उस लोक में दीप जलाने चला हूँ।।
     - (आईना, पृष्ठ 76)
पुनः एक और छन्द प्रस्तुत है - 
जीवन का जलता जिसमें 
वह यौवन आग का फैसला होगा । 
ले चला है मजधार में जो 
अपने उस भाग्य का फैसला होगा ।
जो उर सिन्धु जला चुका है
उस दीपक राग का फैसला होगा।
आज ही तो अपनाये गये 
जग के अनुराग का फैसला होगा।।
    जीवन की नश्वरता और अन्तिम क्षणों का चित्र कवि ने कितने मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया है- 
दीन सभी धन धाम अरे, 
बस चादर श्वेत ओढ़ाई गई है। 
स्वर्ग से वैभव छोड़ के केवल, 
बॉस की ठाट सजाई गई है। 
लाख करोड़ की बात ही क्या, 
मग के लिए दी नही पाई गई है।
जानता था जिसको अपना, 
उसके कर आग लगाई गई है।।
    मृत्यु के साथ जीवन की जीवन्तता और इस असार संसार की निस्तरता का वर्णन कवि ने "मानस हंस" शीर्षक से प्रस्तुत किया है। यहाँ अन्योक्ति का बडा अच्छा प्रयोग है।
मानस हंस बने अनजान 
कहाँ इस विश्व को छोड़ चलोगे।
झंकृत जीवन बीन के तार 
उन्हें फिर आज मरोड़ चलोगे। 
सैकड़ों वर्ष से साथ से संचित 
क्यों घट नेह का फोड़ चलोगे। 
सांझ से जोड़ी हुई यह जीवन 
डोर अचानक तोड चलोगे।।
   पुनः एक और छन्द प्रस्तुत है - 
आते देख के काली निशॉ 
उसलोक में क्या जो अंधेरा ना होगा।
यौवन मादकता से भरा 
अरे सीमित जीवन घेरा ना होगा ।  
भ्रांति लिये भ्रम भेद की भावना, 
भूल प्रपंच का डेरा ना होगा।
जीवन के मिटते क्षणों मे क्या 
काल कराल का फेरा न होगा।
इसी संदर्भ में पुनः एक छंद प्रस्तुत है - 
बावला सा बन विश्व की आग से 
बंधन नेह की जोड़ने वाले ।
जीवन सागर की लहरों में 
अचेत सा हो सर फोड़ने वाले ।
भूत में भुले हुए अभिमान में 
डूबे हुए दम तोड़ने वाले। 
बाँधले जो कुछ बाँधना हो अरे! 
वो इस विश्व को छोड़ने वाले ।।
   कवि ने कबीर के जीवन दर्शन से प्राप्त विचारों को इस छंद के माध्यम से उन मनुष्यों की ओर संकेत किया है जो संसार को सब कुछ समझ कर जीते है और अपने को भूल जाते हैं। "मानव" शीर्षक कविता के छन्द अपनी मौलिकता के लिए अधिक सटीक है-
मोह के पाश में बद्ध हो बुद्धि 
विवेक विसात ही भूल गया तू ।
चांदनी देख के मोहिनी ही तम 
तोम की रात को भूल गया तू ।
जीवन कानन में अपने अपने 
उत्पात को भूल गया तू ।
वैभव देख के स्वप्न सने उस 
काल की बात ही भूल गया तू ।।
   यहा" "उस काल" मे श्लेष अलंकार का प्रयोग है। इसके माध्यम से कवि ने भावी मृत्यु के क्षणो को दिखलाया है। इस जीवन का अन्तिम क्षण चिन्ताग्नि की महालीला में विलीन हो जाना है। उसे कवि उपस्थित करते हुए कहता है - 
भूलता है जिस काल को तू 
उसको निज बाह में भेटना होगा।
जीवन पत्र के चित्रित चित्र 
तुम्हें अपने कर मेटना होगा।
प्राण से जोड़ा हुआ यह साँस 
भरा ब्यवहार समेटना होगा।
ले निज कर्म की खाता बही 
बस अन्त चिता पर लेटना होगा।।
रोक ली सास कनी अपनी 
अपने अरमान भी मार के देखा
पी लिया है विष प्याले अनेक 
कहो कितने दिन प्यार के देखा।
दे न सका प्रतिदान कोई यह 
जीवन प्रान भी वार के देखा।
कोई नहीं अपना जग मे,
सपना यह आंख पसार के देखा।। 
   "मेरे प्रकाश" शीर्षक कविता में कवि का जीवन दर्शन प्रस्तुत है-
कभी जीवन ज्योति न मन्द हुई, 
पलटा कभी भाग्य ने फेरा नही । 
सच मान ली भूल के आया कभी, 
इस देश मे कोई लुटेरा नही। ।
इस जीवन चांद को आके कही, 
तम तोम अभागे ने घेरा नहीं । 
अरे मेरे प्रकाश सुनो तो सही, 
तुमने अभी देखा अंधेरा नहीं।।
    पुन: इसी संदर्भ में सुख और दुख, प्रकाश और अन्धकार से सदर्भित दूसरा छन्द इस प्रकार है - 
जिसने किया जा के रसातल वास न 
न देखा कभी महाकाश न देखा । 
अपने में ही आप को देखा किया, 
उसमें भगवान निवास न देखा । 
विषपान में जीवन बीता जहाँ, 
जिसका उसने मधुमास न देखा । 
अपनाया अंधेरे को है जिसने, 
उसने तुम्हें मेरे प्रकाश न देखा ।।
       - (आइना पृष्ठ 82)
     इसी संदर्भ में सुख-दुख "फूल" जी का विधवा के ऊपर लिखा हुआ गीत कितना कारुणिक है-
अपना चुकी हूँ किसी और को मै 
कहा मानो मुझे अपनाओ नहीं।
सुधा छोड़ के आई हूं अरे 
मुझको विष प्याला पिलाओ नहीं।
उस सुने प्रदेश में स्वप्न मे आके 
सनेह की ज्वाला जगाओ नहीं ।
इन आंखों में आँखें समा चुकी हैं 
इन आंखों से आंखे मिलाओ नहीं ।।
काव्य सौष्ठव :- 
फूल जी के इन छन्दो मे बडी आकुलता है। जीवन की उत्कंठा और उसकेअन्तराल में दार्शनिकता की गहराई है। उनके गीतो मे भावों को तल्लीनता साधना कीउदात्तता और कल्पनाओ का स्वर है। रगीन जीवन में दुख-दर्द की झोली लिए सदैव मुस्कराते हुए रहना कवि फूल का स्वयं का जीवन- दर्शन है। फूलजी "पूर्वांचला"और "उपहार” दोनों पत्रिकाओं में अपने भाव व्यक्त करते हैं। शैली की दृष्टि से फूलजी छायावादी गीतकार, विचारों से प्रगतिवादी कविऔर विषय की दृष्टि ने परम्परावादी ठहरते हैं। जो गीत, गजल, मुक्तक, सवैया, धनाक्षरी आदि अनेक छन्द में काव्याभिव्यक्ति की है। -- (पूर्वाधना, पृष्ठ 136,)
     "फूल" जी सफल गीतकार और प्रगति शील कवि है। इनकी भाषा परिमार्जित और कोमल भावनाओं से ओत-प्रोत है। आप प्राचीन तथा नवीन दोनो शैलियों में कविताएँ लिखते है।
     संक्षेप मे फूल जी आधुनिक चरण के उत्कृष्ट गीतकार एवं सफल छन्दकार के रूप में सम्मादृत हैं। संस्कृत के पुट में भावना प्रधान ललित भाषा का प्रवाह उर्दू मिश्रित हो करके और ही सरस बन गया है। उर्दू और हिन्दी के द्वार पर मुस्कराते हुए छन्दकार फूल का जनपदीय छन्दकारों के मंच से स्वागत होता रहा है।


प्रतिष्ठित कवि परम्परा के कवि: पण्डित प्रेमशंकर मिश्र (बस्ती के छन्दकार भाग 3 ) की (कड़ी 8)

प्रतिष्ठित कवि परम्परा के कवि पण्डित प्रेमशंकर मिश्र 
डा. मुनि लाल उपाध्याय 'सरस' 
आचार्य डॉ. राधेश्याम द्विवेदी 
जीवन परिचय:- 
पण्डित प्रेमशंकर मिश्र का जन्म वैसाख शुक्ल 5 सवत 1982 वि० तदनुसार 27 जुलाई 1927 को बस्ती के सन्निकट मिश्रौलिया नामक ग्राम में हुआ। इनके पिता महाकवि बलराम मिश्र "द्विजेश 
डा. मुनि लाल उपाध्याय 'सरस' के शोध प्रबंध बस्ती के छंदकार के द्वितोय और तृतीय चरण के उत्कृष्ट कवि थे। प्रेम शंकर जी का पालन-पोषण बड़े ही शान शौकत के वातावरण में हुआ क्योंकि इनके पिता द्विजेश जी बड़े ही रईसी परम्परा के छन्दकार थे। प्रेमशंकर जी की साहित्यिक शिक्षा-दीक्षा उनके पिता के संरक्षण में हुई थी। पूर्वांचलाकार लिखता है-
"प्रेमशंकर मिश्र महाकवि द्विजेश के योग्य पुत्र बस्ती के साहित्यिक पुनरूत्थान में सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्रेरक काव्य की अनेक विधाओं और वादों के कवि, साहित्यिक आयोजनों के कर्णधार और प्रसिद्ध द्विजेश परिषद के संस्थापक हैं। पिता की कलात्मक रुचि के कारण वाल्य काल से ही काव्य कला का जो संस्कार वना वह बराबर विकसित होता गया। विद्यार्थी जीवन में पिता के निर्देशन में आप ब्रज भाषा के छंद लिखने लगे। पण्डित प्रेमशंकर जी की मृत्यु 22 जनवरी 2015 को दिल्ली में हुई थी।
  - ( पूर्वांचला पृष्ठ 136)
साहित्यिक यात्रा:- 
हिन्दीसमय डॉट कॉम में 'कहनीअनकहनी' शीर्षक से पण्डित प्रेमशंकर मिश्र जी ने अपने साहित्यिक यात्रा के बारे में निम्न लिखित भावोदगार व्यक्त किए हैं - 
-- ये कविताएँ है? कितनी दूर तक कविताएँ है? इसे आप सुधी पाठक जानें। क्‍योंकि आज कविता का कोई मानक, कोई अनुशासन या कोई शास्‍त्र नहीं रह गया है मेरे देखने में। कविता आज सिद्धि न रहकर अपनी-अपनी अन्‍यान्‍य सिद्धियों विशेष की साधिका मात्र हैं। एक खेमे की कविता दूसरे खेमे के लिए कूड़ा घोषित हो रही है। संतुष्‍ट इसलिए हूँ कि मैंने कभी भी प्रचलित अर्थों में कवि होने का भ्रम नहीं पाला है।
     मेरे तई ये पंक्तियाँ समय समय पर मेरे निजी जरूरतो की उपज रही है। थोड़ा और साफ करूँ मैं हमेशा से स्थितियों को सहता और समझौता करता रहा हूँ। फिर भी कुछ असहनीय स्थितियों से उबरने के लिए प्रतिक्रिया स्‍वरूप ऐसी पंक्तियाँ बरबस निकलती है– 
यह असंगति जिंदगी के द्वार सौ-सौ बार रोई।
चाह में है और कोई बांह में है और कोई।।
     सुकवि भाई भारत भूषण की ये पंक्तियाँ ही इन रचनाओं और मुझ रचयिता के केंद्र में हैं। रचनाएँ इसलिए कहता हूँ कि असहनीय मजबूरियों में बुदबुदा उठे। इन शब्‍दों को अंतत: देखना समझना पड़ा है फिर रच-रचकर इन्‍हें उपयुक्‍त बनाना, आप तक पहुँचने लायक बनाने का प्रयास करना पड़ा है।कितनी दूर तक इस संक्रांति काल में ये शब्‍द ये पंक्तियाँ आप के भी काम आ सकेगी मैं नहीं कह पा र‍हा हूँ। इस बोध के साथ यह भी एहसास है कि इन सारे काले पन्‍नों में से जाने अंजाने कुछेक किसी खास खेमे में टिक भी सकते हैं।
     सवाल उठता है कि जब रचइता एवं से कविता नहीं कह पा रहा है तो फिर यह राष्ट्रीय अपव्‍यय क्‍यों? अपनी सफाई में सिर्फ इतना ही कह पा रहा हूँ कि जिन्‍होंने इन्‍हें देखा पढ़ा या सुना है, उन्‍होंने इन्‍हें भी कविता इस हद तक माना कि आज पुस्‍तक आकार आपके हाथ में जा रहा है यह संकलन।
    बड़े छोटे साहित्‍य मर्मज्ञों की सहानुभूति, प्‍यार और दुलार मुझे इस सीमा तक प्राप्‍त है कि मेरे ऊपर कृपा करके वे दो शब्‍द कह भी सकते थे, पर जानबुझकर अपने और अपने पाठक के बीच किसी ऐसे महारथी को भूमिका लेखक के रूप में लाना उचित नहीं लगा जो आपकी दृष्टि पर अपना चश्‍मा पहना दे। अपने और आप के बीच सीधा संवाद इससे बाधित हो सकता है इसी भय से साहस करके ये सीधे आपके हवाले है।
    जैसा कि ऊपर अपनी स्थिति स्‍पष्‍ट कर चुका हूँ कि व्‍यवसायिक रूप से काव्‍य साधना कभी नहीं कर पाया हूँ, नहीं किसी खास खेमे में खूँटे से अपने को बाँध सका हूँ। यदि ऐसा कुछ हुआ होता तो बहुत पहले ही ऐसे कई संकलन आ चुके होते।
जिंदगी के साथ अपनी काव्‍य साधना का भी ग्राफ बहुत टेढ़ा-मेढ़ा रहा है। कई-कई बार उनके तार टूटते जुड़ते रहे हैं। एक अत्‍यंत उत्‍कृष्‍ट और उदार कविता और संगीत के वातावरण में मैंने आँखे खोली है।
     मेरे पूज्‍य पिताश्री पं. बलराम प्रसाद मिश्र 'द्विजेश' के लिए उन दिनों देश के जाने माने दिग्‍गज कवि कलावंत महीनों मेरे यहाँ ठहरते। सुबह-शाम अखंड काव्‍य और संगीत गोष्ठियाँ हुआ करती थीं। महाकवि जगन्‍नाथ दास 'रत्‍नाकर' पं. अयोध्‍या सिंह उपाध्‍यय 'हरिऔध', पं. रमा शंकर शुक्‍ल 'रसाल' के अतिरिक्‍त रीवां के महाकवि 'ब्रजेश', पं. बालदत्‍त, यज्ञराज, विचित्र मित्र ऐसे आचार्य कवि, अजीम खाँ, झंडे खाँ ऐसे उस्‍ताद यनायत खाँ ऐसे सितारवादक, उनके पुत्र उस्‍ताद अजीम खाँ साहब ऐसे संगीतज्ञों की सन्निधि मुझे बचपन से प्राप्‍त हुई है। आज के आफताबे गजल उस्‍ताद मेंहदी हसन और सितार नवाज उस्‍ताद शाहिद परवेज ऐसे आज के विश्‍व विश्रुत कलाकारों का बचपना अपने पिताओं के साथ मेरे साथ गिल्‍ली गोली खेलते बीता है। (मेंहदी हसन उस्‍ताद अजीम खाँ के सुपुत्र और शाहिद परवेज उस्‍ताद अजीम खाँ के बेटे हैं।) इस तरह साहित्‍य और संगीत मेरी घुट्टी में रहा। विरासत में मुझे काव्‍य रचना और मेरे अग्रज और उनके पुत्र को सितार वादन मिला।
      छात्र जीवन में एक घटना के चलते कविता मुझसे कुछ दिनों के लिए छूट गई। एक प्रतियोगिता में मेरा प्रथम पुरस्‍कार इसलिए काट दिया गया कि उस पर पिता श्री की रचना का संदेह किया गया। जो 10, 20 सवैया घनाक्षरी उन छोटी कक्षाओं में बन सकें थे, उनका प्रवाह वहीं अवरूद्ध हो गया। फिर 3, 4 वर्षों के बाद लगभग 1949-50 में फिर एक और झोंका आया। खड़ी बोली के उन दिनों के प्रचलित गीत 10, 20 लिख उठे। सन 1959 में पिता का तिरो भाव हुआ। सारा पारा खसक कर शून्‍य पर आ गिरा। सारा वातावरण जैसे डूब गया। पर कविता, साहित्‍य और संगीत का रक्‍त में रचा-बसा संस्‍कार पिताजी के एक प्रशंसक अपने समय के प्रसिद्ध उपन्‍यासकार, कहानीकार पं. गंगाप्रसाद मिश्र तत्‍कालीन राजकीय हाई स्‍कूल बस्‍ती के प्रधानाचार्य ने 'द्विजेश- परिषद' साहित्यिक संस्‍कृतिक संस्‍था के स्‍थापना के माध्‍यम से पुन: जगाया। कवि, कलाकार, संगीतज्ञों का एक नए प्रकार का जमघट फिर इर्द-गिर्द जमने लगा। सन 1960 में एक नया सिलसिला शुरू हुआ। जीवन की यह नई घुटन-टूटन जब असहनीय लगती तो कुछ बड़बड़ाहटें उभरने लगीं और उन्‍हें सहेजने सवारने की दुर्निवार स्थितियाँ इस रूप में आकर लेने लगीं।
     यह भी बीत में टूट फूट गया होता यदि उसी बीच 'द्विजेश-परिषद' के माध्‍यम से तब का एक सामंती नवयुवक बस्‍ती जिले का ही निवासी श्री माहेश्‍वर तिवारी 'शलभ' जो आ भारत प्रसिद्ध नवगीत कार माहेश्‍वर तिवारी के नाम से जाना पहचाना जाता है, मुझसे न टकराया होता। अन्‍यान्‍य कारणों से यह मंचमोहन गीतकार मुझमें ऐसा घुसा कि अपनी पत्‍नी और बच्‍चों के साथ बरसों मेरे गाँव घर में रम गया। एक नई गोष्ठियों और सम्‍मेलनों का दौर शुरू हुआ। नई प्रतिभाएं पनपने लगीं और मुझमें भी मुरझाई संवेदनाएँ फिर पनपने लगीं। अपनी फूस की बैठक में अबाध गति से चल रही ये गोष्ठियाँ देर रात तक न चल पाती यदि एक मौन सहमति स्‍वीकृति मेरी धर्मपत्‍नी श्रीमती राजेश्‍वरी देवी की न मिल पाती, जो वैसे तो ऊपर से भुन भुनातीं रहतीं लेकिन माहेश्‍वर के गीत से उनका मूड सम्भल जाता। लकड़ी के चुल्‍हे पर रह-रह कर चाय बनाना और फिर भोजन गरम करके मुझ और अपने धर्म-देवर माहेश्‍वर तिवारी को खिलाती रहतीं। अपनी रचना धार्मिता की इस टूटी-फूटी पंगडंडी के साथ इन रचनाओं को देखने से ही इनकी बेतरतीबियों का थोड़ा बहुत समाधान हो सकता है इसलिए संक्षेप में इतना देना आवश्‍यक लगा। इस प्रकाशन का सारा श्रेय सबसे पहले मित्रों के हठाग्रह को ही जाता है। फिर भी इसे आकार देने का संकल्‍प अनुज श्री भानु प्रकाश श्रीवास्‍तव का रहा है। यत्र तत्र बिखरे इन कागज के टुकड़ों को बटोरकर एक दिन वह उठा ले गए। ये कुछ आगे करते कि उनकी पदोन्‍नति हिंदी अधिकारी भारतीय स्‍टेट बैंक मंडलीय शाखा लखनऊ से स्टॉफ कालेज गुड़गाँव दिल्‍ली में हो गई। जाते जाते अपने अधूरे कार्य को अपने अभिन्न एक मित्र श्री जी.एम. खान भारतीय स्‍टेट बैंक फैजाबाद के सहायक को सौंप गए। श्री खान के अनवरत श्रम से यह संकलन तैयार होकर पुस्‍तक के आकार हो गया। फिर भी इसके प्रकाश की बात नहीं ही बन पाती यदि समकालीन कविता और समीक्षा के एक नए हस्‍ताक्षर चि. रघुवंशमणि की सक्रिय प्रेरण और सहकार से पांडुलिपि नई कविता के मौलिक प्रवक्‍ता प्रख्‍यात कवि समीक्षक आदरणीय श्री लक्ष्‍मीकांत वर्मा तत्‍कालीन कार्यकारी अध्‍यक्ष उ.प्र. हिंदी संस्‍थान लखनऊ के समक्ष न प्रस्‍तुत हुई होती। वर्मा जी ने इसे संस्‍थान की सहायता से प्रकाशित होने योग्‍य समझा। संयोग से वर्मा जी बिना इसको कार्यान्वित कराए यहाँ से चले गए। जाते जाते इस कार्य को वह अपने सुयोग्‍य निदेशक हिंदी बाल साहित्‍य के समपर्ति रचनाकार कविवर पं. विनोद चंद्र पांडेय 'विनोद' आई.ए.एस. को सौंप गए। इस संकलन पर फिर ग्रहण लगा, पांडुलिपि इधर उधर हो गई, फिर निराशा छाई, किंतु बीच में एक रसज्ञ सुधीनवयुवक चि. रामशरण अवस्‍थी स्‍थानीय ब्‍यूरो प्रमुख 'दैनिक जागरण' आ गए। फिर सब समेटा गया और नई पांडुलिपि तैयार हुई। इस तरह अंतिम रूप से पांडुलिपि निदेशक श्री पांडेय जी के हवाले हुई। इस सारे उपक्रम में श्री विजय रंजन एडवोकेट एवं 'अवध- अर्चना' त्रैमासिक के संपादक मेरे साथ रहे।
     इस संकलन का और मेरा सौभाग्‍य रहा कि वर्तमान कार्यकारी अध्‍यक्ष हिंदीसंस्‍थान डॉ. शरण बिहारी गोस्‍वामी ने भी अपने पूर्वाधिकारी के इस निर्णय पर अपनी मुहर लगा दी। फिर मेरे और मेरे मुद्रक के बीच कुछ अविश्‍वसनीयता को पनपाने की कोशिश होती कि अपने प्रशंसक सुकवि साहित्‍यकार डॉ. सुधाकर अदीब ए.डी.एम.( वित्‍त एवं राजस्‍व) आ गए और मुद्रक आश्‍वस्‍त हुए और काम आगे बढ़ा। फिर तो संयोजन और प्रूफ रीडिंग समाचार संपादक दैनिक जनमोर्चा सुकवि चि. के.पी. सिंह ने सम्हाला। इस तरह यह संकलन 'अपने शहर में' अपने हाथ में आ सका है और इस संकलन का प्रकाशन अपने में एक घटना हो गई है। इसके बहाने मुझ में एक आत्‍म संतोष नए सिरे से पनपा है कि इतनी सारी सात्विक सहानुभूतियाँ मुझे मिली हैं। इन सभी महानुभावों के समक्ष नतशिर होकर आभार ज्ञापित करता हूँ। परम आदरणीय डॉ. रमाशंकर तिवारी, डॉ. राधिका प्रसाद त्रिपाठी और डॉ. स्‍वामी नाथ पांडेय ने यदि औपचारिक संस्‍तुति न की होती तो नियमानुसार संस्‍थान उसे संज्ञान में न ला पाता। इस प्रकार अपने इस प्रारंभिक समीक्षकों का हृदय से अभारी हूँ। आत्‍मीयता से अक्षर संयोजन के लिए वी.के. कंप्यूटर्स, साहबगंज, फैजाबाद तथा कठिन परिस्थिति में मुद्रण के लिए रघुवंशी प्रेस गद्दोपुर, फैजाबाद के सहयोगियों को मैं हृदय से आर्शिवाद देता हूँ। अंत में उन मित्रों को भी सभार स्‍मरण करता हूँ, जिन्‍होंने न केवल मुझे बराबर हतोत्‍साहित करने का प्रयत्‍न किया है अपितु अपने टिप्‍पणियों से रह रहकर आहत भी किया है। प्रतिक्रिया स्‍वरूप उनमें मेरी रचना धर्मिता को बल ही मिला है। मैं उनका भी आभार मानता हूँ। नीचे दो पंक्तियाँ उन्‍हें समर्पित है :
मैं जितनी पाता आग तुम्‍हारी दुनिया से,
उतना ही तुमको मधु मस्‍तानी देता हूँ।
नवोदितों के प्रेरणाश्रोत:- 
घनाक्षरी, सवैया छन्दो के साथ नवगीतो को लिखने के लिए परवर्ती नव-युवक गीतकारों नौर छन्दकारो के लिए प्रेमशंकर जी प्रेरणाश्रोत बने हुए हैं। कवि सम्मेलनों के अतिरिक्त रेडियो स्टेशन पर उनके काव्य स्वर प्राय. गूंजते रहते है। दस वर्ष पूर्व प्राय: मासिक गोष्ठियां कराना, नये कवियों को प्रोत्साहित करना द्विजेश परिषद के माध्यम से कवियों को मंचीय कवियों से सानिध्य प्रदान कराना आदि कवि मिश्र जी ने अपने ऊपर ले रखा था। चतुर्थ चरण के छन्दकारों में इनका प्रतिष्ठित स्थान रहा है।
पंडित प्रेमशंकर मिश्र की लेखन विधाएं 
1.निबन्ध 
2.संस्मरण
3. कविता संग्रह: "अपने शहर में" की 
कविताएँ :- प्रेम शंकर मिश्र जी की 42 कविताओं का एक सेट हिंदी समय डॉट कॉम पर प्रकाशित किया गया है। इनके शीर्षक इस प्रकार हैं - 
अनुभूति,आँतों का दर्द,उठो सुहागिन, एक पुरानी कविता,एक स्वर, कर्ता का सुख, किसलिए, खबर है, घुटनों घुटनो धूप, जमील हुई जमीन से, जागो हे कविकांत, ज़ीने की ईटें,जीवन वीणा, तुमसे नहीं, तुम्हारे शहर में, तुम्हारा बादल,दर्पण-एक चित्र ,धुँधलाई किरन, धूप चढ़ी ,नववर्ष एक प्रतिक्रिया, नेह का एतबार, नील गगन का चाँद, पंद्रह अगस्त,पुरातन प्रश्न, पिया की पाती, बंजारा टूटा, गिलास और मसला हुआ गुलाब, बरसात, बात कुछ और है, बापू और फागूराम,बोझ, भूख : वक्त की आवाज, मैं उन्मुक्त गगन का पंथी,
मत छितराओ,मौसम का दौरा, युद्ध विराम, यह गली,रोशनी की आवाज,लो फिर बादल, स्थितिबोध, समस्या का समाधान आदि प्रमुख कविताएं हैं और आखिरी कविता का नाम सस्पेंस है।
द्विजेश परिषद की स्थापना 
      प्रेमशकर जी की काव्य-यात्रा व्रजभाषा केन्द्रों से शुरू हुई और आज वह गीतों और नवगीतो की भावभूमि पर पुष्पित और संवर्धित हो रही है। द्विजेश परिषद की स्थापना से प्रेम शंकर जी बस्नी के छन्द- कारों के मार्गदर्शन के फिर सदैव प्रयत्न शील रहे। आज भी वे इस प्रयास मे रहते हैं कि बस्ती का अपना गौरव शाली मच सामादृत होना चाहिए। इसके लिए द्विजेश परिषद के तत्वावधान में कई बार प्रान्तीय और राष्ट्रीय स्तर के कवि सम्मेलन मिश्र जी ने कराया । 
         कविता के कुछ नमूने 
नववर्ष एक प्रतिक्रिया :- 
आदरणीय बंधुवर!
देखा आपने
इस बार भी
गया संवत्‍सर
जाते जाते
कुछ अमिट खरोचें छोड़ गया है।
सूरज वही घाम वही
पर ताप में
जैसे कुछ मिला दिया गया हो।
जलते सिवानों
और धधकते चौराहों पर
इस बार भी
काफी सतर्कता के बावजूद
फिर कुछ
मंजरियाँ और फुगनियाँ झुलसी हैं।
गनीमत मानिए
इस सर्वस्व स्‍वाहा से
किसी तरह
हट बच कर
नया वर्ष
नए वायदों, नई उम्‍मीदों
और नई पहल के साथ
नीम पलाश
और उस बूढ़े पीपल से
होता हुआ
इस बेचारे बेहया तक की नसों में
धीरे-धीरे उग रहा है।
नई गंध का नया विश्‍वास
फिर पनप रहा है।
मुट्ठी भर राख उड़ाने के एवज
हमें
जूझने मरने के लिए
फिर एक खूबसूरत खुशबू मिल रही है।
रंग बिरंगे
गुलाबी, गुड़हल, गुलदाऊदी
बेला, जूही, हरसिंगार
की छुवन का दाग
यह अकुलाया अबोध नन्‍हा बसंत
अपनी
अमित अनंत संभावनाओं के साथ
डगमगाती अँजुलियों में भर रहा है
अकेले
बोझ दुर्वह है मीत!
कृपया दामन में जगह दें
बसंत की रक्षा करें।
धन्‍यवाद।
समस्या का समाधान
कल जब हम
कविता सुनने का
प्रस्‍ताव कर रहे थे
अखबारों में एक अजगर ने
एक समूचे बाँध को घोट लिया।
ज्‍यों ही हमने सोचा
समस्‍या समाधान के माध्‍यम से
गमगलत करें
सुनाई पड़ा
राशन का नया-नया
सुनियोजित बाँध टूट चला
भूख बह निकली

गोदाम डूब गए।
इसी तरह
आपको याद होगा
उस दिन
अब हम
आगामी एलेक्‍शन की
योजना बनाने बैठे थे
खबर मिली
एक घसियारे ने
जबर्दस्‍ती
उन्‍हीं की कुर्सी पर बैठकर
बड़े हाकीम को
बरखास्‍त कर दिया।
एक, दो, तीन
इस तरह की
कई वारदातें हो चुकी।
पता नहीं क्‍यों
ज्‍यों ही हम
विभिन्‍न
रूप, नाम, वेष में
बहुजन हिताय
का नारा बुलंद करते हुए
अपनी सर्वोत्‍तमता की
दुहाई देने चलते हैं
ये
अनमेल
अकास्मिक घटनाएँ
लट छितराए
अट्टहास करती हुई
अपनी लाल जिह्वा से
हमारी धवलता चाटने लगती हैं
और
अगर
हम अभी भी
अपने नशे पर हावी हैं
हमारी पार्टी की प्‍याली
हमारे हाथों से गीर जाती है
मालिक का लाख-लाख शुक्र
कि अब हम
धुएँ से ऊबने लगे हैं
बिल्‍कुल अपनी बात कहूँ
मुझे तो अभी भी
कभी-कभी ऐसा लगता है
कि अगर
ये चिमनियाँ
फसलों की ओर से हटकर
आकाश की ओर मोड़ दी जाएँ
कागज के रंग बिरंगे खिलौने
तोड़ दिए जाएँ
नाम की जगह काम हो जाएँ
तो शायद
एक बार फिर से
लोग हाजमे के अनुसार
भोजन करना शुरू करें
और
हमारा शाही टुकड़ा भी
शायद
हमें पच जाए।
गुलाब
टूटे गिलास को कुछ और तोड़कर
अपने को कुछ और मोड़कर
बंजारे ने
एक फूलदान बनाया है
(क्‍योंकि वह फूल और फूलदान को समर्पित है)
ओ बासी मसले हुए गुलाब
जाओ
खुद अपनी
और उस‍की सरकारी झुग्‍गी की
शोभा बढ़ाओं।

इर्द गिर्द
दीमकों से बची
कुछ बदबूदार फाइलें है
चरित्र पंजियों की
सड़ी हुई लाशें
जिन्‍हें चाट-चाट कर
कोई शिखझडी औघड़
किसी अजगर के मुँह में अटकी
एक मरघटी मुस्‍कान
उगलता-उगलता
गल चुका है
एकदम बदल चुका है
जाओ

अपनी बची-खुची
मरी हुई सूखी गंध से
चारों ओर
उड़ती हुई चिड़ायँध
का रंग बदलो
पुराना साथ संग बदलो।

लगता है
विश्‍वासों ने तुम्‍हें छला है
तुम्‍हारे सामने ही
रोशनी के नाम पर
कोई जलता है
गलती पिघलती सदी का
बचा हुआ
धूप का
यह एक टूकड़ा भी
तुम्‍हारे लिए एक बला है।

पर ओ खूबसूरत दिखने वाले
बीतगंधी गुलाब !
हड्डियों वाले हाथ
और
गुलदस्‍ते के साथ
का फर्क पहचानों।
भीड़ :
भीड़ से वह भी डरता है
भीड़ स्‍वयं में एक बलबा है
जमीन पर छाये हुए
आसमान का मलबा है
मलबा
जिसमें
चाँद का फूटा हुआ नसीब
और न जाने कितनी
चिनगारियों का सलीब है
ये हजार-हजार आँखें
किसी भुतहे देवराज की
शापित लिजलिजी तरबीत है।
शुक्र है
कि चिंताओं के इस ऋतुचक से
किसी तरह छटककर
तुम अलग
जिंदगी की
इस नई राह पर
आ पड़े
जहाँ टूटा गिलास
कुछ नहीं तो
कम से कम
भगोड़ों के पैरों में
चुभने के लिए पड़ा था
और पास ही आड़ में
वह स्‍वयं ही खड़ा था।
वह कहता है
फिर कहता है
और आखिरी बार कहता है
छोड़ो जूड़े की आस
चूमो टूटा गिलास बदलो फिर से लिबास।
समय :
समय भला किससे हारा है
जहाँ कुछ नहीं
वहाँ रेत का सहारा है
और
तुम्‍हारे लिए
टूटा गिलास घिसा हुआ
अब
सिर्फ यह बनजारा है।
          आचार्य डा. राधे श्याम द्विवेदी 
लेखक परिचय:-

(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए सम सामयिक विषयों,साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं। मोबाइल नंबर +91 8630778321; 
वॉर्ड्सऐप नम्बर+919412300183)



Monday, January 20, 2025

श्री महामंत्रराज जपविधि के विविध सोपान द्विवेदि आचार्य डॉ. राधे श्याम


तैयारी और वातावरण :-
सबसे पहले नहा धोकरशुद्ध वस्त्र पहन ले। इन वस्तुओं को सिर्फ पूजा के समय ही पहनने है। शुद्ध आसन पर बैठकर पूर्वाविमुख या उत्तरविमुख होकर बैठना चाहिए। किसी भी मकान का ईशान कोण पूर्व और उत्तर कोण पूरी तरह से साफ-सुथरा हवादार होना चाहिए। जहां पर जूते चप्पल नहीं हो, झूठा खाना पीना आदि जहां पर ना हो , किसी भी प्रकार की टीवी की हल्ला गुल्ला की कोई आवाज ना आती हो। हल्की सुगंध धूप अगरबत्ती हो और पीले रंग के ऊनी कपड़े का आसन हो, जिस पर बैठकर बैठकर मंत्र जाप करें। 
        पूजा पाठ धर्म-कर्म जब आदि शुभ कार्य करते समय हमारे शरीर से ऊर्जा शक्ति उत्पन्न होने लग जाती है। यदि शरीर का कोई भी भाग हमारा पृथ्वी को छु रहा है तो हमारी सारी ऊर्जा की शक्ति पृथ्वी मे चली जायेगी। पूजा का जप का सारा लाभ पृथ्वी को मिलेगा । इसका हमें कोई फल नहीं मिलेगा। पूजा करते समय ध्यान रहे हमारे शरीर का कोई भी हिस्सा धरती को ना छुने पाये तभी मंत्र जाप का सही फल मिलता है। 
      जाप स्थान आप पसंद करें उस बैठने के स्थान को आसन को बदलना नहीं चाहिए। माला को हर रोज जाप करते समय आँखो से जरूर छुये और उस स्थान का वातावरण शुद्ध और शांत बनाया जाता है, तथा उस स्थान पर अध्यात्मिक तरंगे ,दिव्य, स्पनदंन उत्पन्न होने लग जाते हैं। उसी तरह उसी जगह जप करने से जाप का फल बढ़ता जाएगा। जाप समाप्ति के बाद भी उस जगह 5,6 मिनट चुपचाप बैठे रहना चाहिए। इस प्रकार वह शक्ति हमारे शरीर में समा जाती है। 
        अपने इष्ट देव और अपने पितरों की फोटो सुंदर तरीके से सजाकर सामने रखें फोटो प्रतिमा सफेद या लाल पीले वस्त्र बिछाकर उस पर रखे। धूप ,दीप, चंदन तिलक हररोज लगाएं और शुद्ध जल का पात्र भरकर रखें। गाय के घी का दीपक जलाकर रखें। मीठी सुगंध धुप जब तक जाप चालू है तब तक जरूर रखें। जिस नाम का मंत्र जप करें उसको पूर्ण भावना ,भक्ति और शान्त से करे। जाप करते समय इधर-उधर बातचीत ना किया जाए। जो व्यक्ति प्रत्येक नाम या मंत्र का पूर्ण अर्थ समझते हुए जाप करता है । सबसे उत्तम मानसिक जाप वही होता है। जाप करने से मानसिक शांति प्राप्त होती है। अंगूठे और अनामिका से जाप करने से सिद्धि मे सफलता प्राप्त होती है। जाप हमेशा अंगूठे एवं उगली के अग्रभाग से करना चाहिए।
 प्रथम गुरुदेव श्री श्री 1008 पण्डित राम बल्लभ शरणजी महराज वेदांती 

द्वितीय गुरुदेव श्री श्री 1008 पण्डित राम पदारथ दास महराज वेदांती जी 

        मंत्र जाप किसी भी समय किया जा सकता है यदि मन अनियंत्रित है तो मंत्र जप उच्च स्वर में करना चाहिए। यह उपाय मन को शांत को नियंत्रित करने का एक चमत्कारी साधन है । 
      तृतीय गुरुदेव श्री हरिनामदास              महाराज वेदांती
यदि मन शांत है तो मंत्र जाप मंद स्वर में करना चाहिए। मंत्र जाप हमेशा मानसिक रूप से करना सर्वश्रेष्ठ माना गया है ।मंत्र जाप करते समय समर्पण की भावना के साथ गहन भक्तिभाव का भी होना आवश्यक है तभी ईश्वर की कृपा प्राप्त होती है। 
परम पूज्य चतुर्थ (वर्तमान)गुरुदेव श्री शंकरदास जी महाराज वेदांती जी, 
श्री राम बल्लभा कुंज ,श्री अयोध्या जी

श्रीराम का षडक्षर मंत्र चिन्तामणि है:-
प्रभू राम का नाम स्वयं में एक महामंत्र है। राम नाम की महिमा अपरंपार और नैया को पार लगाने वाली है । राम नाम का मंत्र सर्व रूप मे ग्रहण किया जाता है । इसके जाप और केवल धयान से ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति सहज हो जाती है। अन्य नामो कि अपेक्षा राम नाम हजार नामों के समान है । राम मंत्र को तारक मंत्र भी कहा जाता है। इस मंत्र का जाप करने से सभी दुःखों का अंत होता है। प्रतिदिन भगवान श्रीराम के मंत्र का जाप करने से मनचाही कामना पूरी होती है। श्रीराम का षडक्षर मंत्र अति लाभकारी है। षडक्षर राम मंत्र 'राम रामाय नम:' है जिसे चिन्तामणि भी कहा जा सकता है, किसी भी कामना को पूर्ण करने के लिए इस राम मंत्र का साधक को, उपासक को अनुष्ठान करना चाहिए।

       श्री महामंत्रराज जप विधि

     पंडित श्री रामबल्लभाशरण जी                   महाराज द्वारा संपादित
                     तथा
       पंडित श्री राम शंकर दास जी 
          वेदांती द्वारा अनुमोदित
                      तथा
       द्विवेदि आचार्य डॉ. राधेश्याम                          द्वारा प्रस्तुति 

       द्विवेदि आचार्य डॉ. राधेश्याम 

            श्री सीतारामाभ्याम नमः।
            श्रीमते रामानंदाय नमः।
             ॐ रामाय नमः।
             ॐ राम भद्राय नमः।
             ॐ रामचन्द्राय नम:।
ऊपर के मन्त्रों से तीन बार आचमन करके दाएं हाथ से जल लेकर बाएं हाथ से ढक कर आगे के मंत्र से अभिमंत्रित करें।
मंत्र का अभिमंत्रण :-
     ॐ नमो भगवते रघुनंदाय रक्षोघ्नविशदाय मधुर प्रसन्न वदनाय अमित तेजसे बलाय रामाय विश्नवे नमः। ॐ क्लीं तेजसे राम तारक ब्रह्म स्वाहा।
 (( विनियोग : प्रत्येक देवी-देवता की साधना में मंत्र जप, कवच एवं स्तोत्र पाठ तथा न्यासादि करने से पहले विनियोग पढ़ा जाता है। इसमें देवी या देवता का नाम, उसका मंत्र, उसकी रचना करने वाले ऋषि, उस स्तोत्र के छंद का नाम, बीजाक्षर शक्ति और कीलक आदि का नाम लेकर अपने अभीष्ट मनोरथ सिद्धि के लिए जप का संकल्प लिया जाता है। इसके बाद न्यास किए जाते हैं। उपरोक्त विनियोग में जिन देवता, ऋषि, छंद, बीजाक्षर शक्ति और कीलक आदि का नाम होता है, उन्हीं को अपने शरीर में प्रतिष्ठित करते हैं।))
पुनः अभिमंत्रित जल को बाएं हाथ में रख कर षड अक्षर राम मंत्र को पढ़कर आठ बार सिर पर छिड़कें। फिर दाएं हाथ से जल लेकर आगे के मंत्र को विनियोगः तक पढ़कर जल गिरा दें।
              विनियोग:-
ॐ अस्य श्रीराम षडअक्षरमन्त्रराजस्य ब्रह्मा ऋषि, गायत्री छंद: श्री रामो देवता, रां बीजम, नमः शक्तिः, रामाय कीलकम श्री राम प्रीतयर्थे जपे विनियोग:। 
आगे के मंत्र को पढ़ पढ़ कर मंत्रोक्त नामानुसार प्रत्येक अंग का स्पर्श करते हुए ऋष्यादिन्यास करने चाहिए।
((न्यास विधि:-
न्यास कई प्रकार के होते हैं, किंतु ऋष्यादिन्यास, हृदयादिन्यास, अंगन्यास, करन्यास और दिगन्यास ही मुख्य हैं। 
ऋष्यादिन्यास:-
जब ‘नमः शिरसि’ बोला जाता है तो दाएं हाथ की पांचों उंगलियों को मस्तक से स्पर्श किया जाता है। ‘नमः मुखे’ कहकर होंठों के बीच में ग्रास मुद्रा बनाकर या वैसे ही उंगलियों से मुख का स्पर्श किया जाता है। इसी प्रकार ‘नमः हृदये’ कहकर हृदय का स्पर्श, ‘नमः गुह्ये’ कहकर जननेंद्रिय वाले स्थान का स्पर्श, ‘नमः पादयोः’ कहकर दोनों घुटनों या पंजों का स्पर्श और ‘नमः नाभौ’ कहकर नाभि-स्थल का स्पर्श किया जाता है, जबकि ‘नमः सर्वांगे’ कहकर दोनों हाथों से दोनों भुजाओं एवं समस्त शरीर का स्पर्श करने का विधान है।))
ऋष्यादिन्यास:-
श्री ब्रह्मने ऋषये नमः शिरसि। 
ॐ गायत्री छन्दसे नमः मुखे। 
ॐ श्री राम देवतायै नमः हृदि।
ॐ राम बीजाय नमः गुह्ये।
ॐ नमः शक्तये नमः पादयो:।
ॐ रामाय कीलकाय नमः सर्वांगे।।
(( करन्यास : यह न्यास पद्मासन की मुद्रा में घुटनों पर हाथ रखते हुए किया जाता है। ‘अंगुष्ठाभ्यां नमः’ कहकर तर्जनी को मोड़कर, अंगूठे की जड़ से जहां मंगल का क्षेत्र है, वहां लगाते हैं। फिर ‘तर्जनीभ्यां नमः’ कहकर अंगूठे की नोक से तर्जनी के छोर का स्पर्श करते हैं। फिर ‘मध्यमाभ्यां नमः’ कहकर मध्यमा का अंतिम भाग, ‘अनामिकाभ्यां नमः’ कहकर अनामिका के अंतिम भाग और ‘कनिष्ठिकाभ्यां नमः’ कहकर कनिष्ठिका उंगली के अंतिम भाग से अंगूठे की नोक का स्पर्श करते हैं। फिर ‘करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः’ कहकर दोनों हाथों की हथेलियों को एक-दूसरे के ऊपर-नीचे दो बार करके एक-दूसरे के ऊपर-नीचे घुमाते हैं।))
करन्यास: -
ॐ राम अंगुष्ठाभ्यां नमः।
ॐ रीन तर्जनीभ्यां नमः। 
ॐ रुन मध्यमाभ्यां नमः। 
ॐ रैन अनामिकाभ्यां नमः। 
ॐ रौन कनिष्ठिकाभ्यां नमः। स
ॐ र: करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः।
(( हृदयादिन्यास :- 
हृदयादिन्यास के अंतर्गत मंत्राक्षरों को शरीर के मुख्य स्थानों- मस्तक, हृदय, शिखा-स्थान (जहां आत्मा का वास है), नेत्र तथा सर्वांग की रक्षा हेतु प्रतिष्ठित किया जाता है ताकि समस्त शरीर मंत्रमय हो जाए और शरीर में देवी या देवता का आविर्भाव हो जाए।))
अंगन्यास: -
ॐ रान हृदयाय नमः। 
ॐ रीन शिरसे स्वाहा।
ॐ रुन शिखायै वषट्। 
ॐ रैन कवचाय हुम्। 
ॐ रौन नेत्रत्रयाय वौषट्। 
ॐ र: अस्त्राय फट्।
ॐ राम नमः मुर्घनि।
ॐ रामाय नमः नाभौ।
ॐ नमो नमः पादयो:।
ॐ राम बीजाय नमः दक्षिणस्तने।
ॐ नमः शक्त्ये नमः वामस्तने।
ॐ रामाय कीलकाय नमः हृदि।।
(( प्राणायाम-
मन मे प्राणायाम करके सूर्यनारायण को मन ही मन नमस्कार करें । अंगूठे से नाक के दाहिने छिद्र को दाएं हाथ के अंगूठे से दबाकर बाएं छिद्र से श्वसनों को धीरे-धीरे खींचते हुए राम इस बीज मंत्र को 16 बार पढ़ कर पूरक करें। फिर दूसरे प्रकार से जब सांस खींचना रुक जाए तब अनामिका और कनिष्ठिका अंगुली से नाक के बाएं छिद्र को भी दबा 64 बार बीज मंत्र को पढ़कर स्वास रोककर कुंभक करें। फिर अंगूठे को हटाकर दाहिने छिद्र से श्वास को धीरे-धीरे छोड़ते हुए 32 बार बीज मंत्र पढ़ कर रेचक करें। विशेष जानकारी अपने सदगुरु या किसी जानकर आचार्य से प्राप्त ध्यान करें। अब आंखें बंद करके स्वयं निर्धारण संख्या को करें ऐसी संख्या का प्रत्येक दिन नियम से करें कम या ज्यादा ना करें । जप करते समय शुद्ध मन में अपने इष्ट देव के मनोहर रूप के दिव्य दर्शन आप को बंद आंखों से ही होने लग जाएंगे।आपको धिरे धिरे एक दिव्य परमानंद परम शांति सुख का अद्भुत आनंद प्राप्त होगा। इस दिव्यानंद को आप किसी दूसरे को बता नहीं पाएंगे आप के सभी प्रकार के कष्ट ,रोग, दोष आपके सभी प्रकार के गृह कलेश का नाश हो जाएगा। ))
                       ध्यान:-
वामे भूमिसुता पुरश्च 
हनुमान्पश्चात्सुमित्रा सुतः
शत्रुघ्नो भरतश्च पार्श्व दळयो राछ्वीय्यादि कोनेषुच।
सुग्रीवाश्चा, विभीषनश्चा युवराट तारासुतो जांबवान
मध्ये नील सरोज कोमल रुचिं 
रामं भजे श्यामलं ।।
                 पुनः
12 बार राम गायत्री मंत्र जपें
राम गायत्री मंत्र  
ॐ दाशरथये विद्महे जानकी वल्लभाय धीमहि तन्नो रामः प्रचोदयात् ॥
         6 मन्त्रों को एक में मिलाकर 5 बार जपें।
ॐ लम लक्षमनाय नमः।
ॐ भम भरताय नमः।
ॐ शम शत्रुघ्नाय नमः।
ॐ श्रीं सीतायै स्वाहा। रां रामाय नमः।
     पुनः युगल मंत्र 108 बार जपें।
श्रीं सीतायै स्वाहा। रां रामाय नमः।
             फिर
  रां रामाय नमः।
राम तारक मंत्र 6000 या यथा शक्ति जपे।
        पुनः युगल मंत्र 108 बार जपें।
श्रीं सीतायै स्वाहा। रां रामाय नमः।
इसके बाद 6 मन्त्रों को एक में मिलाकर 5 बार जपें।
ॐ लम लक्षमनाय नमः।
ॐ भम भरताय नमः।
ॐ शम शत्रुघ्नाय नमः।
ॐ श्रीं सीतायै स्वाहा। रां रामाय नमः।
    पुनः 12 बार राम गायत्री मंत्र जपें।
राम गायत्री मंत्र :-
ॐ दाशरथये विद्महे जानकी वल्लभाय धीमहि तन्नो रामः प्रचोदयात् ॥
पुनः पूर्ववत प्राणायाम करना चाहिए।
ॐ श्री राम: शरणं मम।
श्रीमद् राम चन्द्र चरणौ शरणं प्रपदये।
श्रीमते रामचन्द्राय नम:।
सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते ।
अभयं सर्वभूतेभ्यो ददाम्येतद्व्रतं मम ॥
 (रामायण 12/ 20॥)
श्रीरामचन्द्र रघुनाथ जगच्छरण्य 
राजीव लोचन रघुत्तम रावणारे।
सीतापते रघुपते रघुवीरराम
त्रायस्व राघव हरे शरणागत माम।।
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(( राम जी के कुछ अन्य ध्यान मंत्र:-
इसे यथा संभव समय निकाल कर बार बार पढ़ना और दुहराना चाहिए।

ॐ आपदामप हर्तारम दातारं सर्व सम्पदाम,
 लोकाभिरामं श्री रामं भूयो भूयो नामाम्यहम ।।

श्री रामाय रामभद्राय रामचन्द्राय वेधसे 
रघुनाथाय नाथाय सीताया पतये नमः ।।

लोकाभिरामं रणरंगधीरं राजीवनेत्रं रघुवंशनाथम्। कारुण्यरूपं करुणाकरं तं श्रीरामचन्द्रं शरणं प्रपद्ये॥ 

आपदामपहर्तारं दातारं सर्वसम्पदाम्।
लोकाभिरामं श्रीरामं भूयो-भूयो नामाम्यहम्॥

 राम रामेति रामेति रामे मनोरमे ।
 सहस्त्र नाम तत्तुन्यं राम नाम वरानने || ))
           
                  इति शुभम्।